आदिकालीन काव्य : अभिव्यंजना शिल्प
आदिकालीन काव्य : अभिव्यंजना शिल्प
अब तक आप यह जान ही चुके हैं कि अपभ्रंश में लिखा जाने वाला काव्य हिंदी में लिखित काव्य की पूर्वपीठिका के रूप में आपके सामने आता है। हिंदी भाषा को अपनाते हुए अपनी प्रकृति के अनुसार विकसित किया गया मौलिक रूप भाषागत गहराइयों में जा नहीं पाया और न आवश्यकता ही हुई। आप इतना अवश्य जान लीजिए कि अपभ्रंश और हिंदी दोनों भाषाओं में सा साम्य और वैषम्य रहते हुए इनमें लिखित काव्य में अधिकांशतः साम्य है।
1 काव्य रूप वैशिष्ट्य
अपभ्रंश साहित्य के अंतर्गत यह बात आपके लिए ध्यान देने योग्य यह है कि रीतिकालीन अतिशयता और उहात्मक विरहवर्णन पर चर्चा के समय फारसी भाषा का प्रभाव माना जाता है, किन्तु यह वास्तविकता है की भारतीय काव्य की मूल आत्मा की आंतरिक भावधारा के मूल में अपभ्रंश भाषा के काव्य को हम विस्मृत कर जाते है।
अपभ्रंश भाषा के काव्य रूपों के सम्बन्ध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन विचारणीय है जिसमें वे कहते हैं कि, वस्तुत: छन्द, काव्यरूप, वक्तव्य, वस्तु, कवि रूढियां और परम्पराओं की दृष्टि यह साहित्य अपभ्रंश साहित्य का बढ़ावा है। (हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृ067)। लेकिन इस कथन में परिवर्तन अनिवार्य प्रतीत होता है और वह भी ये कि आचार्य के विचारों में आगत, वक्तव्य, वस्तु या भाव-धारा के स्थान पर काव्य रूपों की बात की जानी चाहिए। अपभ्रंश काव्यधारा में रासों गेय रूपक के वाक्यरूप के अतिरिक्त फागु, चांचरी, विलास, चरिउ, आदि भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस संबंध में कहा है कि लिखने वालों की संख्या कम थी, क्योंकि लड़ाई भी जाति विशेष का पेशा मान ली गई थी। देश रक्षा के लिए या धर्मरक्षा के लिए समूची जनता के सन्नद्ध हो जाने का विचार ही नहीं उठता था। लोग क्रमश: जातियों और उपजातियों, सम्प्रदायों और उप-सम्प्रदायों में विभक्त होते जा रहे थे। लड़ने वाली जाति के लिए सचमुच चैन से रहना असंभव हो गया था। निरंतर युद्ध के लिए प्रोत्तसाहित करने को भी एक वर्ग आवश्यक हो गया था। चारण इसी श्रेणी के लोग थे। इनका कार्य ही था हर प्रसंग में आश्रयदाता के युद्धोन्माद को उत्पन्न कर देने वाली घटना- योजना का अविष्कार। (हिंदीसाहित्य की भूमिका)
2 रस विवेचन
आदिकाल में वीरगाथाओं में वीर और श्रृंगार रस का अद्भुत सम्मिश्रण हुआ है। तद्युगीन काव्य में वीररस का सुनहरा परिपाक हुआ है। आप तद्युगीन परिस्थितियों में स्वयं अनुभव कर सकेंगे कि उस काल में युद्ध ही एकमात्र जीवन ध्येय था। चाहे सत्ता का विस्तार हो या अपनी दृष्टि में चढ़ी नायिका की प्रगति अथवा अपने आश्रय में अधीन छोटे राजाओं में अपनी प्रभुत्व, वीरता और शौर्य का प्रभाव जमाए रखने के लिए युद्ध ही एकमात्र साधन रह गया था। इस वातावरण में आबाल-वृद्ध में युद्ध के लिए अदम्य उत्साह बना हुआ था। आल्हा (परमाल रासो) जैसे लोककाव्य में कवि कहता है
बारह बरस लैं कूकर जिए और तेरह लौ जिये सियार ।
बरस अठारह छत्री जीवै आगे जीवन को धिक्कार ||
यानी युद्ध ही जीवन का एक मात्र ध्येय रह गया था। आप यहाँ यह भी देखेंगे कि युद्ध मात्र सत्ता विस्तार या क्षत्रिय जीवन सामर्थ्य का उद्देश्य भर नहीं था, बल्कि इस प्रकार के युद्धों के मूल में चारण या राज्याश्रित कवियों ने नारी की कल्पना की है और जब नारी काव्य का केन्द्र बिन्दु हो तो निश्चित ही श्रृंगाररस का आत्मबल भी होगा ही। यही कारण हैं कि आदिकालीन काव्यों में अधिसंख्य रूप में श्रृंगार रस का निरूपण मिलता है। यदि काव्य रूप की चर्चा की जाए तो रासो ऐसे काव्य ग्रंथ के रूप में हमारे सामने आते हैं जिनमें श्रृंगार रस निरूपण ही हुआ है। इस कालखण्ड के के मूल में नारी लिप्सा ही युद्ध का कारण बनती दिखाई देती है तथा एक प्रकार के प्रेमोन्माद की अभिव्यक्ति इस प्रकार के काव्यों में दिखाई पड़ती है। इस प्रेमाभिव्यक्ति में न तो किसी प्रकार की उदात्तता है और न राष्ट्रीयता का सहज उल्लास जिसके कारण युद्ध की संभावना देखी जा सके।
वीर काव्यधारा के साथ श्रृंगार रस के चित्रण की दो प्रमुख स्थितियां उपलब्ध होती है संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार । दूसरे में जहाँ प्रकृति का सान्निध्य लेकर षऋतु वर्णन या बारहमासा द्वारा विरह व्यंजना की काव्य शास्त्रीय परंपरा का अनुपालन आदिकालीन कवियों में मिलता है, वहीं संयोग श्रृंगार में नायिका का नख-शिख एवं रति सुख चित्रण किया गया है। बसंत विलास में इसी प्रकार के वर्णनों की बहुलता है। आदिकालीन काव्यों में वीर और श्रृंगार रस निरूपण के इतर द्वितीय वरीयता में शांत एवं हास्य रस को माना जा सकता है. शांत एवं हास्य रस का परिपाक अपभ्रंश और हिंदी भाषा में लिखित काव्यों में उपलब्ध होता है। आपको आचर्य होगा कि अधिसंख्य जैन चरितों (अपभ्रंश में उपलब्ध) में जहाँ शांत रस का प्रतिपादन हुआ है, वहीं हास्य रस का भी प्रतिपादन इन रासो काव्यों में उपलब्ध है। इस दृष्टि से परवर्ती जैन रासों के रूप में अंकिड़ रासों, ऊदर रासो, छछूंदर रासों आदि आ सकते हैं।
3 अलंकार विधान
आदिकालीन काव्य सर्जना में कवियों ने काव्यशास्त्र की प्रचलित परम्परा का अनुगमन करते हुए उक्तव्यक्ति प्रकरण कथित दिशा-निर्देशों को स्वीकार किया है। इसीलिए आदिकाल के तथा कथित वीरगाथात्मक रासो काव्यों अथवा जैन मुनियों द्वारा रचित चरित ( चरिउ ) काव्यों में सर्वाधिक एवं सटीक रूप में अलंकारों का प्रयोग मिलता है। आप यह जान पायेंगे कि इस कालखण्ड के कवियों ने कहीं भी अलंकारों का प्रयोग वस्तु तथा रूप की तीव्र व्यंजना बहुत ही कलात्मक रूप से की है तथा आप यह भी पायेंगे कि आदिकालीन कृतियों में प्रायः सभी पारंपरिक अलंकार विद्यमान हैं . वास्तव में इन अंलकारों की आवश्यकता इन कवियों द्वारा कथित अत्युक्ति एवं अतिश्योक्ति के लिए रही है। तभी तो रासोकार चंदबरदाई रूपकातिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग इस रूप में करते हैं
मनहुं कला ससिमान, कला सोलह सो बन्निय।।
बाल बसेससिता समीप, अम्रित रस पिन्निय||
राजकुमारी पदमावती के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए महाकवि चंद बरदाई कहते हैं कि पदमावती का सौन्दर्य देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं से युक्त हो। बाल्यावस्था में ही उसके अपूर्व सौन्दर्य को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो चंद्रमा ने उसी अमृत रस का पान किया है अर्थात सौन्दर्य प्राप्त किया है। सादृश्य विधान का एक चित्र ढोलामारू रा दूहा में दृष्टव्य है-
ढाढी एक सन्देस उ, प्रीतम कहियो जाय ।
सा धनि जलि कुइला गई, भसम ढूढसी आय ॥
अनुप्रास भी छटा भी देख सकते हैं आप
वज्जजिय घोर निसान राम चौहान चहुदिसि ।
सकल सट सामंत समर बल जंत्र तंत्र तिसि ।।
उदाहरण अलंकार का एक रूप सरहपा करते हैं
आगम वेअ पुरोहि, पंडिअ भाषा वहन्ति ।
पक्क- सिरीफले सलिअ जिम, बहेरीअ भमन्ति ।।
अर्थात आगम, वेद पुराण को ही सब कुछ मानकर विद्वतजन उन्हें ढोते फिरते हैं जिस प्रकार श्री फल के बाहर ही भौरें घूमते हैं -
उपमालंकार दृष्टव्य है –
गय मत है चंत कुसंह जो अष्टिई हसंतु ।
ऐसा पति दीजिए जो मतवाले निरकुंश हाथियों से हँसता हुआ जा भिड़े।
दूसरा उद्धहरण है -
गति गंगा, मति सरसती, सीता सील घुमाई ।
महिला सरहर भारूई अवर न दूजी का ||
अर्थात जिसकी पति तनाव की गंगा के समान प्रगतिशील स्वभाव है वैसी श्रेष्ठ महिला मारू ही हो सकती है, दूसरी कोई अन्य नहीं।
या फिर -
आध वदन ससि विहसि देखावलि, आध पियहि निज बाहु ।
कछु एक मान बलाहक झांपल, किछुक गरासल राहू ।
यानी नायिका ने अपना चेहरा हाथ से छिपा रखा है, उसका चंद्रमुख आधा छिपा हुआ और आधा दिखाई दे रहा है मानो चन्द्रमा के एक भाग को बादल ने ढँक दिया है और एक भाग को राहु ने.
4 गेयता एवं छन्द- प्रयोग
उक्त अध्ययन के आधार पर आप संक्षिप्त रूप यह भली प्रकार समझ चुके हैं कि आदिकाल का अभिव्यंजना शिल्प राजाश्रित कवि कौशल की अभिव्यंजना है, क्योंकि राज दरबार में अपनी पहचान और व्यक्तित्व की छवि निर्माण की दशा में राजाश्रित कवियों को अपने काव्य कौशल का चमत्कार दिखाना अनिवार्य था और प्रत्येक दरबारी कवि स्पर्धा के स्तर पर अपनी अभिव्यंजना शक्ति के कौशल पर ध्यान देता था।
अभिव्यंजना कौशल को श्रेष्ठता के लिए जहाँ शास्त्रीय परंपरा का अनुपालन करने की तत्परता कवि कर्म का अंग थी वहीं काव्य के गेय तत्व की सिद्धता भी अनिवार्य थी। इसलिए आदिकाल के कवियों ने गेयता पर विशेष बल दिया। जैन रास काव्य परम्परा की प्रारंभिक स्थिति में रास के प्रदर्शन के स्तर कवि द्वारा उसकी गेयता (उच्चारण शक्ति) के साथ आंगिक संचालन भी अपेक्षित था । आदिकालीन काव्य का जो रूप विकसित हुआ, वह रास परम्परा के अनुरूप ही था। इसलिए आदि काव्य के काव्यरूपों में रास के इतर फागु और चाचरि, दूहा, चरिउ आदि सभी गेय परम्परा का अनुसरण करते हैं। यदि आपको विद्यापति की पदावली के में पूछा जाएगा तो सम्भवतः सम्बन्ध आपका उत्तर-परावली की गेयता ही होगा। पद गायन की परम्परा अतिप्राचीन है। वैदिक ऋतुओं का भी सस्वर गायन किया जाता था। जब प्रश्न आदिकाल के अपभ्रंश या हिंदी काव्य का हो तो भी आपका उत्तर सम्भवत: गेयता ही होगा।
आदिकालीन कथा (चरित) काव्य गीतिकाव्य की श्रेणी में ही आते हैं। फिर वह काव्य चाहे राजा की कीर्ति वर्णन का हो या किसी लोकाश्रित प्रेमगाथा का, उसमें कवि को अपनी गति मेघा का परिचय भरे दरबार में देना होता था। इसलिए इसकी गयेता पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना भी अनिवार्य था तो उसके साथ संगीतपरक गहन ज्ञान का अनुभव लेकर राग-रागिनियों का निर्देशन भी । इसका एक कारण यह भी था कि राजा को उस राजश्रित कवि की हस्तलिखित पाण्डुलिपि पढ़ने और समझने का अवसर था और न उसके दरबारियों को इसके लिए अवकाश था। अत: गेयता द्वारा ही कवि अपने कृति की प्रस्तुति प्रभावी ढंग से राज दरबार में कर सकता था।
यही कारण है कि गेयता की कृति के कारण आदिकाल के विविध काव्य ग्रंथों में लयात्मकता एवं गेय सौन्दर्य का विधान संरचनात्मकता का अंग था। इस दृष्टि से आदि काव्य के रूप में 'पृथ्वीराजरासो' की गणना जहाँ चरित्र काव्य के रूप में की जाती है, वहीं उसे गेयकाव्य की श्रेणी में भी रखा जाता है। उससे पूर्व संदेशरासक में भी, नागकुमार चरित, करकण्डु चरित में भी गेयता के सूत्र उपलब्ध हैं। रासक या रास, जैन रासो, परवली, फागु, चांचर आदि में गेयता विद्यमान है। उनमें से कुछ कृतियों को नर्तक समूह द्वारा लय-तालबद्ध नृत्य के साथ प्रस्तुत भी किया जा सकता है। यह गेय परंपरा पूर्व में सिद्धनाथ कवियों में भी विद्यमान थी । परवर्ती कवियों एवं हिंदी साहित्य के परवर्ती काल खण्डों की काव्य कृतियों में देखा जा सकता है।
पुष्पदंत रचित महापुराण के एक उद्धरण में गेयता द्रष्टव्य है
धूलि घूसरेवा वर मुक् सरेणतिणा मुरारिणा
कील रस वसेण गोपालय - गावी हियय हरिणा
रंग तेण रमत रमंते, भविष्य मंथ घरिउ भमंतअणंते।
बौद्ध-सिद्धकाव्य के रूप में सरहपा के काव्य में गेयता दृष्टव्य है
जहि मण पवन ण संचरइ, रवि ससि नाहीपवेश ।
हि बढ़ चित्त विसासु, सरहे कंहिउ उएस
हेमचंद्र के व्याकरण में आए काव्य के उदाहरणों में यही गेयता आप पाएंगे
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि म्हारा कंतु
लज्येतं तु वयंसि अहु जइ भग्ग घर एंतु।।
संदेश रासक में भी वही गेयता उपलब्ध है
संदेसऽउ सवित्थरउ पर मइ कहणुं न जाइ
जो फालंगुलि मूँउउ तो बाहड़ी समाइ ||
आदिकालीन काव्य छन्दविधान -
अभी तक आप आदिकालीन काव्य के अभिव्यंजना शिल्प के विविध पक्षों क परिचय पा चुके है। जब आदिकालीन काव्य में गेयता है, लय है, रागात्मकता है, शास्त्रीय स्तर पर काव्य शास्त्र में पूर्व निर्धारित और वर्ण रत्नाकर एवं उक्ति व्यक्ति प्रकरण प्रथित परंपराओं का पालन भी कवि कर्म की अनिवार्यता में आप देख चुके हैं तो हम आपको आदिकालीन काव्यों में प्रयुक्त छन्दों का संक्षिप्त रूप में उल्लेख करेंगे।
आपको यह जानकार आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपभ्रंश काव्यों में मात्रिक छन्दों का जो सूत्रपात हुआ था, उसने तुकांए छंदों की प्रथा का प्रचलन हुआ और आजकल हिंदी काव्य का कसौटी बना है। अपभ्रंश में प्राय: पद्धति छन्द का प्रयोग चरित काव्यों में किया जाता रहा है तथा एकरसता तोड़ने के लिए बीच में दूसरे छन्दों दोहा, रास, कब्ब, चौपाई जैसे-जैसे बड़े-बड़े छन्द अपनाए गए। ठीक यही क्रम हिंदी के आदिकाव्यों में अपनाया गया है और उनमें चौपाई प्रबंध काव्य के लिए और सवैया, छप्पय, कुण्डलिया आदि का प्रयोग परवर्ती काल तक होता रहा है। इनमें कुछ अन्य छन्द नामों को भी सम्मिलित किया जा सकता है जिनमें प्रमुख रूप से त्राटक (तोटक) गाथा, आर्या, सटटक आदि छंद है जो काव्य की कलात्मकता में वृद्धि करने वाले छन्द हैं | आदिकाल के वीरगाथात्मक चरित (कथा) काव्यों में अलंकारों का प्रचुर एवं सटीक उपयोग किया गया है। वहीं छन्द का भी व्यापक और बहुल प्रयोग किया गया है। यह छन्दगत बहुलता की संक्षिप्त सूची के स्तर पर इतना ही कहा जा सकता है कि आदिकालीन काव्यों में दूहा, चौपाई, गाहा (गाथा), रोला छप्पय, कुडलियां, रासा आदि छन्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया गया है। जब काव्य में गेयता, लयात्मकता आदि सन्निहित है तो उसकी गतिशीलता का निर्धारक छन्द प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। छंद परिवर्तन भी काव्य में कौशल - वृद्धि के साथ कवि विशेष की सर्जनात्मकता का प्रतीक होता है। पृथ्वीराजरासो, भरतेश्वर बाहुबलि रास, उपदेश रसायन रास, चंदनबालारास, हमीररासो, ढोला मारू रा दूहा, बसंत विलास आदि काव्यों में छन्दों के विविध प्रकार के प्रयोग उपलब्ध है। ,