आदिकालीन काव्य : भाषा का स्वरूप
आदिकालीन काव्य : भाषा का स्वरूप
अभी तक आप अपभ्रंश और हिंदी साहित्य के अन्तःसंबंधों के विषय में अध्ययन कर रहे थे। यहाँ हम आपको आदिकालीन काव्य की भाषा के स्वरूप के संबंध में यह स्मरण दिलाते हैं कि अभी हम गत अनुच्छेद के प्रारंभ में यह उल्लेख कर चुके हैं कि आदिकालीन काव्य की भाषा की पूर्व पीठिका के लिए अपभ्रंश भाषा ही एकमात्र आधारभूमि रही है। अब अग्रिम अनुच्छोदों के अंतर्गत आदिकालीन काव्य की भाषा के संबंध में कुछ बताया जा रहा है -
1 अपभ्रंश और देश भाषा
भाषा वैज्ञानिक आधार पर आपको यह बता दें कि अपभ्रंश भाषा मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा परिवार (500 ई. पू0 से 1000 ई.) की भाषा है। संस्कृत आचार्यों तथा अपभ्रंश भाषा कवियों ने अपभ्रंश के सुप्रसिद्ध कवि स्वयंभू और पुष्पदंत ने अपनी भाषा को लोक (जन) भाषा या देश भाषा कहा है वस्तुतः प्रत्येक युग में एक साहित्यिक भाषा होती है और उसके साथ अनेक लोकभाषाएं होती है। इन्हीं लोक भाषाओं से साहित्यिक भाषा विकसित होती है और अनेक लोक भाषओं से साहित्यिक भाषा जीवन का रस प्राप्त करती है और इस प्रकार यह जीवन्त बनी रहती है। जब साहित्यिक भाषा जनता से दूर हटती है और केवल पंडितों की भाषा रह जाती है, तब वह भाषा मृत हो जाती है और उसका स्थान कोई लोकभाषा ले लेती है। कालान्तर में यही लोकभाषा साहित्यिक भाषा बन जाती है तथा भाषा के विकास का यह क्रम लगातार चलता रहता है। आप जान चुके हैं कि किस प्रकार छन्दस (वैदिक) से संस्कृत, संस्कृत से पालि, पालि से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ है .इसी क्रम में वैदिक भाषा छन्दस, छन्दस से संस्कृत, फिर पालि, प्राकृत और अपभ्रंश की विकास यात्रा पूरी हुई और अपभ्रंश साहित्यिक भाषा बन गई तो लोक या जनभाषा में साहित्य रचना आरंभ हुई जो निश्चित रूप से हिंदी का प्रथम रूप था।
आपके मन एक प्रश्न उठ सकता है कि - अपभ्रंश को देश भाषा कहा जाए या नहीं। यह बहुत ही विवादास्पद है। कुछ विद्वानों - पिशेल, ग्रियर्सन, सुनीतिकुमार चटर्जी आदि अपभ्रंश को देशभाषा मानते हैं जबकि याकोबी, कीथ, ज्यूल ब्लाख आदि विद्वान उसे देशभाषा नहीं स्वीकार करते। लेकिन देशभाषा न मानने वाले वे इतना अवश्य स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश में देशभाषा के अनिवार्य तत्व उपलब्ध हैं निष्कर्ष रूप में यह कहना उचित होगा कि साहित्यिक प्राकृत का देशी भाषाओं के साथ संपर्क हुआ और इस प्रकार भारतीय आर्यभाषा की अपभ्रंश अवस्था आरम्भ होती है। इस संबंध में आचार्य शुक्ल का मत दृष्टव्य है "जबतक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा कहलाती रही जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा। ( 'हिंदी साहित्य का इतिहास', पृ0 7 )
2 अपभ्रंश, अवहट्ठ और पुरानी हिंदी
इकाई के इस भाग में आप जानेंगे की अपभ्रंश, अवहट्ठ या पुरानी हिंदी क्या है और उनमें क्या अंतर है ? यद्यपि आप देख ही चुके हैं कि हिंदी साहित्य में अपभ्रंश को सम्मिलित कर पाने में विद्वानों में मत- भिन्नता रही है। हिंदी साहित्य में अपभ्रंश को सम्मिलित करने का प्रश्न भी इससे ही संबंधित है। आप इतना जान ही चुके हैं कि अपभ्रंश पर प्राकृत का यथेष्ट प्रभाव था . इसमें भी दो मत नहीं है कि इसी प्रकार का प्रभाव संस्कृत भाषा पर छन्दस (वैदिक) का भी था। होता भी यही है कि जब कोई भी प्रचलित भाषा व्याकरण बद्ध होकर परिनिष्ठित बन रही होती है तो एक बोल-चाल की भाषा सामान्य जन के व्यवहार में आती है और कालान्तर में जब उसमें भी परिनिष्ठितिकरण आरंभ होता है तो भाषा साहित्य की भाषा बन जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपभ्रंश को 'प्राकृताभास हिंदी कहा था, पुरानी हिंदी नहीं कहा तथा उन्होंने सिद्धों की उस भाषा को पुरानी हिंदी के रूप में स्वीकार किया था, जिसमें देशभाषा का पुट था। इसका अर्थ यह हुआ कि आचार्य शुक्ल के अनुसार देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश को वे पुरानी हिंदी स्वीकार करते हैं, जब कि चंद्रधर शर्मा गुलेरी की मान्यता है कि विक्रम की सातवीं शती से ग्यारहवी शती तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और फिर वह पुरानी हिंदी में परिणत हो गई। इस कालखण्ड में (दसवीं शती के आस-पास ) तत्सम शब्द बहुल लोकभाषा में मिलती है, जिसे पुरानी हिंदी अपभ्रंश अथवा का ही विकसित रूप माना जा सकता है। लेकिन नवीं, दसवीं शती तक अपभ्रंश भाषा की प्रधानता रही, जिस पर प्राकृत शब्दों का स्पष्ट प्रभाव आप देख सकते हैं उसे ही अपभ्रंश कहा जाता रहा है। आप यह भी देख सकते हैं कि नवी-दसवीं शती के बाद प्राकृत शब्दों से मुक्त होने की प्रवृत्ति बढ़ी और तत्सम शब्दों को ग्रहण किया जाने लगा। यही पुरानी हिंदी है।
अब आपके सामने प्रश्न उठ सकता है कि 'अवहट्ठ' क्या है ? आप यह देख ही चुके हैं कि प्राकृत और अपभ्रंश ग्रंथों में अपभ्रंश के कई नामों में से एक 'अवहट्ठ' भी है। मूलत: अवहट्ठ अपभ्रंश का पर्याय है विद्यापति अपनी कीर्तिलता और कीर्तिपताका को 'अवहट्ठ' ही कहते हैं। देसिल बयना सब जन मिट्ठा तें तैंसन जप्पओं अवहट्ठा' (यानी बोलचाल की भाषा मीठी (मधुर) लगती है। अत: मैं वैसे ही अवहट्ट में अपनी कविता करता हूँ) इसका सीधा सा अर्थ आपको भी स्पष्ट हो जाता है कि देशी भाषा मिश्रित परवर्ती अपभ्रंश को अवहट्ठ कहा गया है। यही परवर्ती अपभ्रंश अददहमाण (अब्दुर्रहमान) ज्योतिरीश्वर ठाकुर आदि ने प्रयोग ली है। अत: आप पूरी तरह समझ सकते हैं कि अवहट्ठ और पुरानी हिंदी में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही देशी भाषा मिश्रित अपभ्रंश के पर्याय रूप से प्रयुक्त हैं।
3 अपभ्रंश भाषा का काव्य
अब तक आप समझ गए होंगे कि आठवीं से चौदहवीं शती तक आदिकालीन काव्य में साहित्य सर्जना की भाषा अपभ्रंश रही है। आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि सुंदर दक्षिण को छोड़कर समस्त भारत में इस काल में अपभ्रंश काव्यों की रचना हुई है। अपभ्रंश को साहित्य सर्जना की भाषा के रूप में गरिमा प्रदान करने में स्वयंभू प्रथम कवि माने जाते हैं और फिर पुष्पदंत तथा अन्य कवियों में जोइन्दु, रामसिंह, हेमचंद्र, सोमप्रभ जिनप्रभसूरि, राजशेखर, शालिभद्रसूरि अब्दुलरहमान, सरहपा और कण्हपा आदि उल्लेखनीय हैं। इन्होंने चरितकाव्य, गीतिकाव्य, विरहकाव्य, रहस्य प्रधान काव्य तथा कथाकाव्य लिखे हैं।