आदिकालीन काव्य का भाषा-निरूपण
आदिकालीन काव्य का भाषा-निरूपण
अब तक के अध्ययन के आधार पर आप इतना तो जान ही चुके हैं कि हिंदी में लिखे जाने वाले काव्यों की पूर्व पीठिका अपभ्रंश भाषा की है। लेकिन अपभ्रंश का साहित्यिक भाषा रूप विकसित होने के अनन्तर तत्कालीन लोक या जन भाषा जो अपभ्रंश का ही विकृत या विकसित रूप थी. यह बोलचाल की भाषा ही आगे पुरानी हिंदी या अवहट्ट के रूप में विस्तार पाकर हिंदी साहित्य सर्जना की भाषा बनी है। बोल चाल की भाषा ने ही अपनी प्रकृति के अनुरूप अपभ्रंश से दाय तो प्राप्त किया पर कुछ भिन्नता के स्तर पर ही विकास मार्ग अपनाया था।
अब आपके समक्ष हिंदी के आविर्भाव का प्रश्न उभर सकता है तो हम आपसे यह उल्लेख करना चाहेंगे कि यह सर्वमान्य सत्य है कि अपभ्रंश से हिंदी की विभिन्न भाषाओं का विकास हुआ। पर इस विकास क्रम को किसी निर्धारित विधि या वर्ष से प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। हिंदी भाषा का उद्भव तेरहवी शती के बाद हुआ माना जाता है, पर अपभ्रंश-संस्कारों से पूर्णत: मुक्ति और स्वतंत्र स्वरूप अर्जित करने में हिंदी को लगभग ढाई सौ वर्ष लगे हैं। आप जानेंगें कि पन्द्रहवीं शती के प्रारंभ से ही हिंदी अपना एक निजी स्वरूप ग्रहण कर सकी। वस्तुत: उपलब्ध कृत्तियों की भाषा के निरीक्षण से पता चलता है कि बारहवीं शती से ही अपभ्रंश अपनी मूल संशिलष्ट प्रकृति से हटकर विशिष्टताओं की ओर अग्रसर हुई और चौदहवीं शती के अन्त तक भी वे रचनाएं भी हिंदी के आदि रूप का प्रतिनिधित्व करती है, जिनकी भाषा अपभ्रंश के संस्कारों से अनुप्राणित हुई थी।
अब अध्ययन निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर करते हैं
1. भाषा की बहुरूपता -
अपभ्रंश भाषा हिंदी की पूर्व पीठिका की बात आप पूरी तरह जान चुके हैं। अपभ्रंश का परिनिष्ठित रूप तत्कालीन समय में विशिष्ट काव्य रचनाओं का मूल केंद्र रहा है लेकिन उस कालखण्ड में परिनिष्ठित अपभ्रंश भाषा के इतर भी तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश अवहट्ठ अथवा पुरानी हिंदी जैसी भाषाओं में भी काव्य रचनाएं की जा रही थी। आचार्य शुक्ल ने केवल बारह ग्रंथों को ही आदिकाल के नामकरण का आधार बनाया था और परवर्ती काल में खोज की गई जो और समग्री आदिकाल के काल खण्ड में प्राप्त हुई है। वह संभवत: आचार्य शुक्ल के दृष्टि-केन्द्र में नहीं थी और यह उनके इतिहास लेखन की सीमा भी थी, पर परवर्ती साहित्येतिहासकार ने उस सामग्री का उपयोग किया है जिन्हें उस काल खण्ड में प्रचलित अपभ्रंश भाषा के अन्य रूपों अवहट्ठ और पुरानी हिंदी अथवा लोकभाषा में उपलब्ध रही है। अत: आदिकाल की काव्य की भाषा की बहुरूपता पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इसका परिचय आज उपलब्ध स्रातों और जैन रासो (कथात्मक) काव्यों के आधार पर अपने महत्व की स्थापना कर सकती है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि साहित्यिक भाषा के सामानांतर लोकभाषाओं की जो अपनी धाराएं प्रवाहित होती हैं वे भी कालान्तर में साहित्यिक भाषा का रूप ले लेती हैं । इसीलिए उस काल की पूर्वापर सीमाओं में भाषा की बहुरूपता देखी जा सकती हैं।
2 .सिद्धों नाथ काव्य-भाषा -
आदिकाल के अंतर्गत आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं परवर्ती साहित्येतिहासकारों ने बौद्ध-सिद्धों और नाथों की विशिष्ट रचनाओं को आधार सामग्री के रूप में सम्मिलित किया है तो उनकी तद्युगीन काव्यभाषा का मूल्यांकन अनावश्यक नहीं समझा जा सकता।
आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि दोहाकोश और चर्चा गीतों की भाषा में अंतर है। दोहाकोश की भाषा प्राचीन आरम्भिक हिंदी है और चर्चापद की भाषा अपभ्रंश/अवहट्ठ है। इसी अवहट्ठ में कीर्तिलता एवं कीर्तिपताका काव्यों की रचना हुई है। सिद्धों के काव्य रूप दोहा चर्यापद ही साखी (साक्षी) और सबदी (कथन) के रूप में रूपांतरित हो गए हैं लेकिन परवर्ती भक्ति साहित्य में इनका प्रयोग तो विस्तार पा गया है पर सिद्धों की तांत्रिक साधना तो लोप हुई है लेकिन उस साधना की शब्दावली का अवशेष प्रयोग कहीं-कहीं मिलता है। नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ है। उनके जन्म स्थान और मृत्युतिथि आदि का प्रमाण अनुपलब्ध है। गोरख साक्षी (संपादक पीताम्बरदत्तर बड़थ्वाल) में गोरखनाथ की रचनाओं (सबदी) को भाषा आधार प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि - "हिंदी में गारखनाथ के नाम से अनेक पद मिलते हैं, उनमें साधना मार्ग की व्याख्या की गई है, पर उनमें योगियों के धार्मिक विश्वास, दार्शनिक मत और नैतिक स्वर नहीं है । (हिंदी साहित्य की भूमिका)
उनकी भाषा का परिचय आपके सामने प्रस्तुत है । पर आप स्वयं ही अनुभव करेंगे गोरखनाथ की भाषा और परवर्ती कबीर की भाषा में अंतर कम है। यहाँ गोरखनाथ की कविता की भाषा का उदाहरण आपके सामने हैं :
गुरू कीजै गहिला निगुरान रहिला |
गुरु बिन ज्ञान न पाइला रे साईला।।
नाथ बोलै अमृत वाणी। क्षरिषैसी कम्बल पाणी ।।
गाइ पड़खा बांघिल खूँट।
यह भाषा पन्द्रहवीं शताब्दी से पूर्व की नहीं मानी जा सकती क्योंकि आप स्वयं ही जान चुके हैं कि ऐसी हिंदी का प्रचलन आदिकाल में नहीं हो रहा था।
3. जैन और जैनेतर काव्यों की भाषा -
आदिकाल के पूरे कालखण्ड में जैन काव्य ही ऐसे काव्य है जिनकी भाषा भी प्रामाणिक है और रचनाकार भी। मूलत: जैन काव्य धार्मिक हैं परन्तु उनमें काव्य-तत्व एवं काव्य कौशल का अभाव नहीं है। आपको यह बताना अधिक समींचीन होगा कि काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से उन जैन रास काव्यों का महत्त्व भले ही अधिक न हो किन्तु तत्कालीन भाषा और काव्य शैली की पूरी परंपरा का अनुसरण वहाँ उपलब्ध होता है (सो काव्य धारा) । विभिन्न विद्वानों के विश्लेषण के आधार पर इन जैन काव्यों में भाषा के निम्नलिखित विविध स्तर सहज देखे जा सकते हैं।
- प्राकृत
- परिनिष्ठित अपभ्रंश
- प्रचलित अपभ्रंश
- अवहट्ठ राजस्थानी भाषा
- राजस्थानी मिश्रित हिंदी
आपके ज्ञानार्जन के लिए यह बताना आवश्यक है कि जैन चरित काव्यों में धर्म पालन पर संदर्भ तो निहित है पर काव्यशास्त्रीयता का अनुसरण भी उनमें उपलब्ध है और इनकी परिनिष्ठित एवं लोक भाषा दोनों छोरों का स्पर्श करती है। जैनेतर काव्य में चारणकाव्य लिए जा सकते हैं। आलोच्य कालावधि में जैनसंतों-यतियों-मनुष्यों ने काव्य रचना प्रस्तुत की, वह प्राय: धर्मगत परंपरा में साधु जीवन का सर्जना पक्ष रहा है। यद्यपि कुछ जैन कवि राज्याश्रित भी रहे हैं ऐसे कवियों की चर्चा हम पिछली इकाईयों में कर चुके हैं। जैनेतर वे चारण कवि थे जो राज्याश्रय में अपने आश्रयदाताओं के मनोरंजन की पूर्ति के लिए अथवा साहित्य-कला प्रेम के कारण राज्य संपत्ति थे। आप यह भी जान लीजिए कि राजस्थान में इस आलोच्य अवधि में चरण ही नहीं अपितु अन्य जातियों के कवि भी राजाश्रय में रहकर ऐसी रचनाएं दे रहे थे जो चरित काव्य का परंपरागत रूप लिए नहीं थी पर उनमें साहित्यिक अभिरूचियों, काव्य शास्त्रीय मूल्यों तथा सामाजिक समरसता का प्रभाव विद्यमान था।