आदिकालीन काव्य पद्धति
आदिकालीन काव्य पद्धति
आदिकाल के काव्य पर अपभ्रंश का ऋण बना रहेगा इसमें दो मत नहीं हो सकते। अभी आप देख चुके हैं कि चाहे आदिकाल के चरित काव्य हैं या भक्ति-काव्य अथवा श्रृंगार काव्य, वे सभी अपने से पूर्व प्रचलित एवं समर्थ भाषा अपभ्रंशकी रचनाओं से ही उत्प्रेरित रहे हैं तथा स्वयं के प्रयासों से वे अपभ्रंश भाषा की रचनाओं का मात्र अनुकरण नहीं है, उनमें कुछ अंतराल विशेष अवश्य बना हुआ है, फिर भी आप इतना तो स्पष्ट रूप समझ ही गए हैं कि अपभ्रंश भाषा में लिखित काव्य हिंदी के आदिकाल (और परवर्ती काल भी) की काव्य सर्जना की पूर्व पीठिका है। इन पंक्तियों के आधार पर यह वास्तविकता भी आपकी जानकारी में आ जानी चाहिए कि हिंदी भाषा एवं साहित्य ने अपभ्रंश भाषा को अपनाते हुए अपनी प्रकृति के अनुरूप उसका विकास किया है, जिसे निम्नलिखित रूप से देखा जा सकता है
1 कथात्मकता
आदिकाल के अधिसंख्य काव्यों की रचना कथात्मक है जिसे शैली भी कहा जा सकता है, लेकिन कथा का अर्थ विशेष भी होता है। संस्कृत काव्यशास्त्र में कथा का प्रयोग एक निश्चित काव्य रूप के लिए किया जाता है, पर आप यह भी जान लीजिए कि संस्कृत साहित्य में 'कथा' गद्य लिखी जाती थी, जबकि संस्कृतेतर भाषाओं - प्राकृत और अपभ्रंश आदि में पद्य में लिखी थी। आप यह भी जान लीजिए कि प्राकृत और अपभ्रंश में ऐसे काव्य लिखे गए जिन्हें 'कथा' कहा जाता था। इस काल कथा की पहली विशेषता पद्यात्मकता है। कथा प्रधान रूप में ऐसी कहानी होती है जो सीधे नहीं कही जाती है, अपितु दो पात्रों के माध्यम से कही जाती है। हिंदी के आदिकाल में ऐसी कथाओं का प्रचलन था जिसमें श्रोता - वक्ता अथवा शुक शुकी, भृंग-भृंगी के पारस्परिक संवादों के माध्यम से यह कथा प्रस्तुत की जाती थी। 'पृथ्वीराजरासो' और 'कीर्तिलता' में यही कथा तथा भृंग-भृंगी के रूप में उपलब्ध है। विद्यापति ने भृंग-भृंगी के माध्यम से वर्णित कीर्तिलता की कथा को 'कथानिक' या 'कहानी' कहा है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा भी है कि पृथ्वीराज रासो में चंद का मूल ग्रंथ शुक शुकी संवाद के रूप में लिखा गया था -
कहै सुकी सुक संभली। नींद न आवे मोहि।
झुकी सरस सुक उच्चरयो धरयो नादि सिर चित्र।।
आदिकाल के काव्यों पर विचार करते समय हम यह देख चुके हैं कि आदिकाल के रचनाकार संभावनाओं और कल्पना पर अधिक बल देते हैं। इस कल्पना को यथार्थ बनाने के लिए कवियों ने कथा कहने की कुछ रूढियाँ निर्मित की हैं -
1. कथा कहने वाला शुक -
2. प्रेमोदय
(क) स्वप्न में प्रिय दर्शन होना
(ख) चित्र देखकर सम्मोहित होना
(ग) भिक्षुक या बंदियों के मुख से कीर्ति वर्णन सुनकर प्रेमासक्त होना
3. आकाशवाणी
4. षडऋतु या बारहमासा से माध्यम से विराहाभिव्यक्ति
भेजन हंस-कपोत आदि से सन्देश भेजना
6. नारी - उद्धार
(च) युद्ध करके
(छ) मस्त हाथी के आक्रमण से बचाकर
(ज) कापालिक द्वारा देवीको बलि देने से
(स) प्रेम का विस्तार
आप समझ गए हैं कि यह मात्र संस्कृत की मूल कथा का गद्यात्मक रूप न होकर वह कथात्मकता लिए हुए जो किसी कहानी को आरंभ करके उसके चरम तक पहुँचा कर निश्चित परिणति देती है। आदिकाल में रचित पृथ्वीराज रासो में अनेक सर्ग इसी प्रकार की कथात्मक व्यवस्था से परिपूर्ण है।
2 कथा अभिप्राय (कथा रूढियां )
कथा अभिप्राय का प्रयोग आदिकाल के काव्यों से होता हुआ परवर्ती काल खण्डों के कथाकाव्यों में भी हुआ है। आप आदिकाल में काव्यों के परिचय में यह देख ही चुके हैं कि इस का खण्ड के अधिसंख्य काव्य कथात्मक है। इन कथात्मक काव्यों में रचनाकारों ने कथा अभिप्राय (कथा रूढियां) का प्रयोग किया गया है। आपकी जानकारी के लिए यह बताना भी अधिक उपयुक्त होगा कि कथा अभिप्रायों का क्षेत्र मूलतः लोक विश्वास होते हैं जो लोक मानस की हर अभिव्यक्ति में बुने और गुंथे रहते हैं, क्योंकि ये तत्त्व दीर्घ लोक चेतना के संवाहक होते हैं।
भारतीय साहित्य में कथा अभिप्रायों का अंकन बहुलता के साथ मिलता है। कुछ विद्वान लोकविश्वास एवं लोक कथाओं का विश्वास नहीं करते हैं, जबकि यह वास्तविकता है कि लोक साहित्य की अभिव्यक्तिका परिनिष्ठित रूप ही साहित्य के रूप में उभर कर आता है। यह एक प्रकार का काव्यशिल्प माना जा सकता है जिसके आधार पर काव्य में विविध प्रतीकों का प्रयोग संभव होता है। अपभ्रंश भाषा में सरहपा की रचनाओं में ऐसी प्रवृत्ति देखने को मिलती है। हिंदी की मुक्तक काव्य कृतियों में अधिसंख्य कवियों ( बिहारी को छोड़कर) ने इस परिपाटी का पालन किया है। स्वयंभू और पुष्पदंत ने काव्यों में कथा अभिप्रायों का प्रयोग किया है। अपभ्रंशकाव्यों में विशेष रूप से कथा अभिप्रायों का प्रयोग निम्न प्रकार मिलता है
1. उजाड़नगर का मिलना, कुमारी दर्शन तथा विवाह - भविस्यत्त कहा
2. प्रथम-दर्शन, गुणश्रवण या चित्र दर्शन से प्रेमोदय (करकंडु चरिड, णायकुमार चरिउ )
3. दीपान्तर - विशेषकर सिंहल द्वीप की यात्रा और जहाज डूबना उनका प्रभाव परवर्ती काव्यों (चरित काव्यों भविष्यदत्त कथा) में देखा जा सकता है।
3 काव्य पद्धति
अभी तक आप आदिकाल खण्ड में लिखित काव्यों की कथात्मकता, कथा अभिप्रायों का अध्ययन करके यह जान चुके हैं कि ये सभी रचनाएँ लगभग एक साथ केन्द्र पर ही संयोजित हुई हैं। और आकार की अपेक्षा के अनुरूप संयोजक कथाएँ, उपकथाएँ, वीर कथाएँ और प्रेम कथाओं का मिश्रण कवि यथानुरूप करता है। अपभ्रंश से चलकर हिंदी भाषा तक की यात्रा करते हुए आदिकाल की काव्य-धारा यद्यपि अपनी स्वयं संरचनात्मक स्थिति नहीं बना सकी थी तद्यपि आपको यह बता दें कि हिंदी ने अपभ्रंश के जिस गुण का सबसे अधिक निर्वाह किया गया है, वह काव्य रूप और काव्य-शिल्प है। अपभ्रंश भाषा एवं काव्य-प्रवृत्ति का लाभ हिंदी के आदिकालीन कवियों ने निसंकोच रूप से लिया है। इसको हम कई स्तरों पर विश्लेषित कर सकते हैं। सबसे पहले छन्द की चर्चा करते हैं। अपभ्रंश काव्यों में सर्वाधिक प्रयुक्त छंद दोहा ( दूहा) है, इसके अतिरिक्त चौपाई, छप्पय, रोला आदि छन्दों का प्रयोग भी अपभ्रंश काव्यों में मिलता है। परवर्ती हिन्दी काव्यों में इन छंदों का प्रयोग मिलता है. आदिकालीन हिंदी काव्यों में जो गेयता उपलब्ध होती है, उसके संबंध में भी आप यह जान लीजिए कि यह गेयता भी उन्होंने अपभ्रंश काव्य से ग्रहण ली है, अपभ्रंश काव्यों में रास, फागु, चांचर आदि के रूप में गेय काव्य परंपरा सुरक्षित चली आ रही है, उनका भी उपयोग हिंदी काव्य धारा में मिलता है . रासा छन्द का प्रयोग रासो काव्य में हुआ है। हिंदी बीसलदेव रासो है जो ऐसा काव्यरूप है जो मूलत: कोमल भावों (प्रेम प्रसंग, श्रृंगार वर्णन आदि) का वाहक था, किन्तु वीर गाथाओं के लिए भी उसका काव्य रूप का उपयोग हुआ है।
फाग एक लोकगीत है जो बसंत ऋतु में गाया जाता है। जैन कवियों (मुनियों) के धार्मिक विचारधारा से परिपूर्ण रासकाव्यों में फागु काव्य पद्धति के रूप में अपभ्रंश भाषा में प्रचलित रहा है। आदिकाल के हिंदी काव्यों में भी फागु नामक कई रचनाएँ उपलब्ध होती है जो इस काल खण्ड में जैन मुनियों द्वारा प्रस्तुत की गई है। परवर्ती काल में कबीर दास के नाम से भी कुछ 'फाग' हिंदी में उपलब्ध होते हैं। लोकोत्सव होली पर भी आज लोग सामूहिक रूप में फाग (फागु) गाते हैं।
आप यह तो जानते हैं कि हिंदी में भी अपभ्रंश काव्यों से गेयता प्राप्त हुई है और यह कहा जा सकता है कि गेयता की एक सुदीर्घ परंपरा चर्या गीतों से आगे चलकर सूरदास (सूरसागर), तुलसीदास (गीतावली और विनय पत्रिका) से नवगीत तक चलती गई है।