आदिकालीन काव्य प्रक्रिया
आदिकालीन काव्य प्रक्रिया
अब तक के अध्ययन से आप जान चुके हैं कि आदिकाल की परिस्थितियाँ कैसी बन पड़ी थी जिन्होंने तत्कालीन कवियों में काव्य रचना की विशेष प्रवृत्तियों को जन्म दिया था। आप इस इकाई से यह जान ही चुके हैं कि परिस्थितियाँ कवि को उत्प्रेरित करती हैं और अवसर भी देती हैं ि वह अपने समय की यथार्थ चेतना की अभिव्यक्ति काव्य सर्जना में करें। परिस्थितियाँ और प्रवृतियाँ परस्पर परिपूरक दायित्व से जुड़ी रहती हैं, इन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता है। ये दोनों की रचना-प्रक्रिया का मूलाधार बनती हैं।
ऐतिहासिक काव्य -
आदिकाल की संक्रमणशील परिस्थितियों और तत्कालीन राजा-महाराजाओं तथा विदेशी आक्रामकों के कारण कवियों ने अपने आश्रयदाता राजा के कुल गौरव एवं शौर्य-गाथा का चित्रणयुगीन आवश्यकता के रूप में किया है। पराजय और हताषा के युग में अपने पूर्व-पुरूषों के शौर्य एवं गौरव को दुहराने के लिए उन्हें इतिहास का सहारा लेना ही अनिवार्य था, पर इतिहास को अपने राजा और उसकी प्रशास्ति के अनुरूप मोड़ लेना भी अनिवार्य था। यही कारण है कि उसमें इतिहास एवं कल्पना (फैक्टस और फिक्शन) का आश्रय लेकर उन्होंने अतीत को वर्तमान में देखने की सफल प्रयास किया है।
काव्य रचना इतिहास नहीं होती है, पर इतिहास का आश्रय काव्य की सम-सामयिक उपदेयता बढ़ा देता है। कवि इतिहासकार भी नहीं होता जो घटनाओं का यथाक्रम विवरण दें, वह तो काव्य-प्रयोजन सिद्ध घटनाक्रमों का आश्रय लेता है और कल्पना से उसमें काव्यात्मक ऊर्जा का मिश्रण कर उसे श्रवणीय (दरबारी वातावरण में) और पठनीय (लिखित कृति रूप में) बना देता है। पृथ्वीराज रासो का प्रथम संपादन जब कर्नल जेम्स टाड ने उदयपुर से पच्चीस किलोमीटर दूर एक में निर्मित एजेण्ट के बंगले में पशु चराने वालों से सुनकरकिया तो प्रो व्हूलर में उसे जाली करार दे दिया था क्योंकि जगनिक द्वारा संस्कृत की हस्तलिखित प्रति पृथ्वीराज विजय में उल्लिखित सन् सम्वतों का साम्य विविध शिलालेखों से हो जाता था, पर पृथ्वीराज रासो में उल्लिखित ऐतिहासिक घटना क्रम से साम्य नहीं रखता था। ऐसे ही किसी भी काव्य ग्रंथ में इतिहास सप्रसंग सांकेतिकता तो ले सकता है पर कल्पना ही अधिक व्यापकता ग्रहण करती है तभी कवि अपने काव्य प्रयोजन की सिद्धि में सफल हो पाता है। इस संदर्भ में यह कहा जाना भी कि पृथ्वी राज रासो ही नहीं अनेक अन्य रचनाएं ऐसी हैं, जो इतिहास का संस्पर्श लेकर ही चली हैं, उनमें सन् सम्वत का वह दखल नहीं हैं जो इतिहास में होता है, पर काव्यात्मक दृष्टि से वे अपने चरित नायक को ऐतिहासिक सिद्ध कर देती है, शेष कथा का विकास कवि कल्पना का विस्तार लिए है (रासो काव्यधारा).
उक्त विवरण के साथ आप यह भी जान सकते हैं कि आदिकाल के हिंदी ऐतिहासिक काव्यों में ऐतिहासिक तथ्यों की ओर कवि ने ध्यान नहीं दिया। उसने कल्पना का ही अधिक सहारा लिया और काव्य - निर्माण पर विशेष ध्यान दिया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन इस संदर्भ में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है कि ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम पर काव्य लिखने की प्रथा बाद में खूब चली।.. .. परन्तु भारतीय कवियों ने ऐतिहासिक नाम भर लिया, शैली उनकी वही पुरानी रही जिसमें काव्य निर्माण की ओर अधिक ध्यान था, विवरण संग्रह की ओर कम, कल्पना अधिक तथ्यनिरूपण कम, संभावनाओं की ओर अधिक रूचि थी, घटनाओं की ओर उल्लासित कम, आनंद की ओर अधिक झुकाव था, तथ्यावली की ओर कम..... पृथ्वीराज रासो में चंद बदराई ने कल्पना और तथ्य का सुन्दर सामंजस्य उपस्थित किया है, पर इसमें भी कल्पना तथ्य र हावी हो गई है। (हिंदी साहित्य का आदिकाल) आदिकाल की आधार सामग्री में और नई खोजों से प्राप्त तद्युगीन अन्य काव्यकृतियों का मूल्यांकन किए जाने के उपरांत आपके समक्ष यह तथ्य बहुत ही स्पष्ट रूप में रखा जा सकता है कि युद्ध सामंती परिवेश की अनिवार्यता है और उसके लिए प्रतिपक्ष से शत्रुता ही अनिवार्य नहीं है क्योंकि आल्हाखण्ड (परमाल रासो) में कवि एक स्थान पर कहता है
‘’जेहि कि कन्या सुन्दर देखी तेहीं घर जाय धेरै हथियार "
यानी जिस किसी परिवार में सुन्दर कन्या देखी, वहीं वीर योद्धा ने उसकी प्राप्ति के लिए उसके परिवार के समक्ष तलवार दिखाकर विवाह के लिए बाध्य कर दिया।
इस प्रकार के उल्लेख से आप समझ सकते हैं कि राजाओं द्वारा किस प्रकार अन्य राजाओं को युद्ध अथवा बेटी से विवाह के विकल्प दिए थे क्योकि हारकर या बेटी देकर दोनों की रूपों में उक्त राजा की अधीनता या आश्रय ही उनकी नियति रह गई थी। प्रश्न यह भी है कि आदिकाल में लिखित काव्यों में श्रृंगार का निरूपण किस रूप में हुआ है। प्रथम रूप में वीरगाथात्मक काव्यों के स्तर पर प्रेम और युद्ध के साथ-साथ श्रृंगार का चित्रण किया गया है। पृथ्वीराज रासो इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। पृथ्वीराज रासो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उसमें प्रेम का वर्णन युद्ध के फलक पर हुआ है। लेकिन आदिकाल के अन्यकाव्यों में ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें अलग से नायक-नायिका के प्रेम और विरह (संयोग और वियोग ) का चित्रण किया गया है। वीसलदेव रास, विद्यापति पदावली, ढोलामारू दूहा के उदाहरण इसके साक्षी हैं। विजयपाल रासो की खण्डित सामग्री में भी श्रृंगार और प्रेम का ही निरूपण मिलता है। इस रासो के 43 छन्द मिले हैं।
निष्कर्ष रूप में यह कहना आप के लिए अधिक सहज है कि आदिकाल के काव्यों में अपने आश्रयदाता के मनोरंजन के लिए शौर्य एवं प्रशस्ति गायन (यानी वीर रस) के अतिरिक्त श्रृंगार (संयोग-वियोग ) के चित्र ही उनके काव्य कौशल को प्रशंसा दिला सकते थे।
लौकिक काव्य -
अब इकाई के इस अंश में आदिकाल में लिखत काव्य प्रक्रिया का यह स्वरूप आपके सामने प्रस्तुत है जिसे कहा जाता है- लौकिक काव्य । यद्यपि खुसरोकी पहेलियों का उल्लेख आधार सामग्री के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कर ही चुके थे। अन्य और परवर्ती सामग्री उन्हें बीसवीं शती के दूसरे दशक तक उपलब्ध हो गई होतीतो यह संभव था कि इस प्रक्रिया में वह भी आपके अध्ययन के लिए उपलब्ध करा दी गई होती। पर शुक्ल जी के समय में जब हिंदी शब्द सागर की भूमिका को वे इतिहास का रूप दे रहे थे, तब साधनों के अभाव और लेखक की सीमाओं के कारण ऐसा संभव नहीं हो सकता था ।
परवर्ती काल में हिंदी साहित्येतिहासकारों के प्रतिस्पर्धात्मक इतिहास लेखन ने गर्भगृहों, मंदिरों-उपासरों, निजी पुस्तकालयों के द्वार खटखटाए और सामग्री की खोज में लगे तो आदिकाल की इस प्रवृति-प्रक्रियाका क्षेत्र विस्तार हुआ और अब इस क्षेत्र में ढोलामारूदा दूहाका उल्लेख अनिवार्यहोगया है । 'वसंतविलास', जयचंद्र प्रकाश और जयमंयक जसचिद्रका, को भी लौकिककाव्य के रूप में स्वीकार कियाजाने लगा है। यद्यपि हम पिछली इकाई में (पांचवीं में) आपको यह बता चुके हैं कि 'जयचंद्र प्रकाश' और जयमयंकजस चंद्रिका का उल्लेख ही हैं, वह भी राठौढा री ख्यात में उल्लेखकार ने स्वयं इन कृतियों के संबंध में कुछ भी विवरण नहीं दिया है।
आप यह जान कर अपना ज्ञान-वर्द्धन करेंगे कि इन लौकिक काव्यों की वर्ण्य-वस्तु श्रृंगार रस प्रधान है। वीर रस का उसमें योगदान नहीं है। वीर और श्रृंगार रस एक दूसरे के पूरक होते हैं पर यह नितान्त श्रृंगारिक रचनाएं हैं। 'ढोला मारू रा दूहा' प्रेमकाव्य है, वसंत विलास में वसंत और स्त्रियों पर उसके विलास पूर्ण प्रभाव का मनोहारी चित्रण किया गया है। उसका ही एक उदाहरण दृष्टव्य है -
इणिपरि कोइलि कूजइ, पूजइ यूवति मणोर।
विधुर वियोगिनि धूजइ, कूजइ मयण किशोर ।
अर्थात् एक ओर आम्रवृक्षों पर कोयल कूकती है, दूसरी ओर पति युक्त युवतियाँ विलास मग्न होकर मनोरंजन करती हैं। इसे देखकर विधुर जन और वियोगिन नारियाँ कांपने लगती हैं, क्योकि मदन किशोर(कामदेव) का कूजन उनके मन में प्रिय के अभाव का आभास देता रहता है। आदिकाल के स्तर पर लौकिक काव्य में ऐसी रचनाएं हैं जो इस काल खण्ड में लिखी गई हैं, पर उनकी वर्ण्य वस्तु रीतिकालीन है।