अनुवाद की प्रासंगिकता और सार्थकता
समकालीन युग में अनुवाद :
इतिहास में अनुवाद का प्रयोग विभिन्न कारणों से हुआ है ज्ञान और विज्ञान दोनों को समकालीन भाषा में प्रस्तुत करना प्रमुख था । क्योंकि लिपि आविष्कार से जो भाषा बनी वह द्रुत परिवर्तन के दौर से गुजरी । अतः इस परिवर्तित / संशोधित अथवा समुन्नत भाषा में पूर्व संचित ज्ञान, भाव, विज्ञान की संपदा को अंतरण करना पड़ा । तब यह सबसे बड़ी जरूरत पूरी की गई। बाद में जनसंख्या विस्तार और आबादी दूर-दूर तक फैलने के कारण प्रयुक्त भाषा में भेद होता गया वे अलग समुदाय अलग राष्ट्र बन गए । भाषा के अलग क्षेत्र हो गए। उनके आपसी संबंध, संपर्क और देन लेन के लिए अनुवाद को महत्व दिया गया । दूसरे शब्दों में अनुवाद जैसा साधन आविष्कार किया गया । यह कुछ अदल-बदल के साथ आज भी चल रहा है यह अपने रिश्तों की पहचान अथवा रिश्ते बनाने दोनों लक्ष्य से अनुवाद का प्रयोग चल रहा है तीसरे वर्ग के साहित्य को पास रख कर तुलना करना चाहते हैं । उनके अपने अपने भाषाई दुर्ग में रहते समय यह तुलना संभव नहीं । एकदम अपरिचित की भूमि पर संवाद तक स्थापित नहीं हो सकता । अनजान बने रहेंगे ऐसे समय दोनों को एक सामान्य धरातल पर लाना होता है तब जाकर दोनों पारदर्शी बनते हैं। तीसरा आदमी इन दोनों को समझ, हृदयंगम कर सकता है । तब ठीक ढंग से तुलना संभव है । तभी दोनों साहित्यों का आनन्द एक तुलना के स्तर पर उठा सकते हैं । दूसरे शब्दों में तुलनात्मक साहित्य का विकास अनुवाद की आधारभूमि पर ही संभव है । भाषा के अवगुंठन से मुक्त कर साहित्य को पारदर्शी सौन्दर्य का जामा पहनाया जा सकता है । इसे पूरा व्यवस्थित एवं त्रुटिपूर्ण रूप प्रदान कर सकते हैं । विभिन्न - विभिन्न क्षेत्रों के विचार, संस्कार, संवेदना और सौन्दर्यबोध का अनुभव किया जा सकता है । इससे हम साहित्यिक आदान-प्रदान का राजमार्ग प्रस्तुत कर देते हैं । अगर किसी कृति का अध्ययन उसके साहित्यिक सौन्दर्य पर करते हैं, वह आकलन आधा अधूरा लग सकता है । परंतु अन्य एक अनूदित सम कृति के संदर्भ में करते हैं तो साहित्य के विकासशील अथवा पिछड़े स्वरूप और प्रभाव का अध्ययन सुगम होता है
इसके अतिरिक्त विज्ञान और ज्ञान के साथ तकनीकी के एक भाषाक्षेत्र से निकल उसकी वैश्विक पहुँच अनुवाद से बनती है। यह सत्य है कि चीन, जापानी या रूसी जर्मन-फ्रेंच उद्भावनों को अंग्रेजी प्लेटफार्म पर आने के बाद वैश्विक बाजार, वैश्विक मान्यता और वैश्विक प्रचार मिल सका है |
ग्लोबल संदर्भ और अनुवाद :
आज मूल रूप में बाजार और व्यवसाय के उदारीकरण से एक नयी चिंतनधारा का विकास हुआ है । सब देश अपने वाधक तत्व हटा कर वैदेशिक सामान के आने-जाने का मार्ग साफ कर रहे हैं। आगे सांस्कृतिक क्षेत्र में इसे लागू कर वैश्वीकरण का सांस्कृतिक रूप कहते हैं । एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में अबाध आवागमन अनुवाद के बिना संभव नहीं । अतः अगर हमें ग्लोबल बनना है तो अनुवाद का महत्व असंदिग्ध भाव से स्वीकरना होगा । भारत में तो विश्वबंधुत्व की चेतना युगों से हैं परंतु अब उसे साकार रूप देने, उन चेतना वहन कारी पदार्थों, कृतियों को नया रूप देना होगा । कुछ विद्वान इसे 'अवतार' कह रहे हैं । यह धार्मिक शब्दावली कुछ भिन्न संकेत न दे । अतः हम चाहेंगे यह पुनरुत्पादित विषय वैश्विक रूप ले और अपनी स्थानीय पहचान से आगे बढ़ कर वैश्विक पहचान बनाये । यह कैसे संभव होगा ! अनुवाद की मात्रा, उसका स्तर और विषय तीनों का चयन तेजी से करना होगा । वैश्विक स्तर पर गति प्रदान करनी होगी । सूचना क्रांति और इंटरनेट के युग में विश्व के विभिन्न भागों के बीच संपर्क कुछ क्षणों में संभव हो जाता है । इसके साथ-साथ उनके इस संबंध में उनकी सांस्कृतिक धरोहर का भी आदान-प्रदान होता है । संवाद के इस प्रवाह में अनुवाद अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है अर्थात् विकार और भावना अनुवाद के माध्यम से नये सांस्कृतिक वातावरण में शीघ्र पहुँच जाती है । अनुवाद से वह नई साहित्यिक संस्कृति में जाकर नई प्रेरणा, नये कलात्मक विचार, नई शैली और शिल्प को जन्म देती है अथवा प्रसार देती है। वैश्वीकरण का यही तो रोडमैप है ।
इसमें दो बातें प्रमुख हैं । अनुवादक मूल पाठ का चयन करता है । यह व्यक्तिनिष्ठ और वस्तुगत कारणों से होता है इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, साहित्यिक, वस्तुगत कारण प्रमुख होते हैं। अनुवादक अपने अनुवाद को पाठकों की रुचि देख शैलीगत संशोधन कर देता है । कभी-कभी मूल पाठ के प्रति पूरी वफादारी दिखाते हुए लक्ष्य भाषा के पाठक और साहित्यिक-सांस्कृति परंपरा को उपेक्षित कर देती है इस प्रकार वह अनुवाद कृतियों की संख्या बढ़ा तो लेता है । परंतु दोनों के बीच सार्थक संवाद पैदा नहीं कर पाता । यहीं नहीं आकर्षण न पैदा करने से पानी पर तेलकी बूंद पड़ने की तरह अलग-थलग पड़ा रहता है । दूध-पानी की तरह अंतरंग नहीं हो पाता । अनुवाद कार्य तो हो गया, उसकी सार्थकता संदिग्ध रहती है । वैश्विक संदर्भ में ऐसा कार्य निरर्थक होने पर दूसरे लोग अपनी पहचान बना कर अपनी सुपीरियरिटी स्थापित करने लगते हैं। कहावत है 'सोइला पुओ र भाग नाहिं ' वैश्विक दौर में अनुवाद की जागरुकता बिना आपकी पहचान नहीं हो सकती । आपकी नई
पीढ़ी भी नई चकाचौंध देख लेती है । (इंटरनेट और टीवी चैनलों पर कोई रुकावट तो है नहीं ) अतः फिर कहने लगते हैं - "हमारी भाषा मर रही है ...... हमारी संस्कृति पर आक्रमण हो रहा है। हमारी जीवनधारा और मूल्यों का शोषण, दमन और विघटन किया जा रहा है. 'इस सारे खतरों का सामना सशक्त सार्थक और सही वस्तु के अनुवाद से संभव है । इसलिए ग्लोबल युग में अनुवादक के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपनी अस्मिता को अक्षुण्ण रखने की । राजनीति और अर्थनीति अपने-अपने मोर्चे पर इस समस्या का सामना करते हैं परंतु परोक्ष संकट का सामना तो अनुवादक करता है । यह मोर्चा तब दिखाई देता है जब तक सब कुछ चूरमार हो चुका होता है । दलित और उपेक्षित होकर पिछड़ जाता है और उस मैदान में एकाकी हारे थके सैनिक की तरह चारों ओर देखता है । सामने दूर बढ़ गई आंधी है उसके आगे रोशनी में बढ़ रहा जुलूस या उसमें शामिल होने का कोई हथियार, साधन, उपाय बचा नहीं हैं । आज यही दशा अफ्रीका की अनेक भाषायें भोग चुकी हैं । मर गई या मौत के कगार पर हैं। उनकी गिनती रखने वाले भी कोई नहीं । भारत में ऐसी स्थिति हो रही है । इसे विनष्ट होने से पहले पहचान कर अंगुली निर्देश करना कठिन हैं परंतु नष्ट हो रही, पिछड़ रही भाषा और संस्कृति स्वयं अनुभव कर पाती है ।
हालांकि अंग्रेजी के प्रभाव से बढ़ कर ओड़िया भाषा के बारे में ऐसी आशंका जता रहे हैं । यह व्यर्थ का शोर है ओड़िया जाति भारत की अनेक भाषा संस्कृतियों से अधिक जागरुक है, सचेतन हैं एक ओर संवेदनशील समाहारशील है तो दूसरी ओर चेतनापूर्ण और जागरुक है जब जरूरत पड़ी तो अपने को प्रमाणित करने में देर नहीं लगाई भारत की क्लासिकल भाषा होने के बारे में ठोस सबूत जुटा कर भारतीय मानपट पर रखा गया देश को मानना पड़ा । कमिटी ने संस्तुति की और सरकार तथा संसद ने इस मुद्दे पर मुहर लगा दी कि ओड़िया एक क्लासिकल भाषा है ।
परंतु इससे एक बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है राष्ट्रीय स्तर से बढ़कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे अपने को प्रमाणित करना होगा। नई पीढ़ी सचेतन । पर उसे बाहर पहुँचाने का काम अंग्रेजी सीमित स्तर पर कर सकती है हिंदी की राष्ट्रीय परिसीमा बढ़ कर अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में महता स्वीकृत है । अतः ओड़िया का हिंदी में मानक एवं स्तरीय अनुवाद इस दिशा में काफी सहायक प्रमाणिक होगा ।
व्यावसायिक अनुवाद और अनुवाद का व्यवसाय :
आज से साठ वर्ष पहले तक अनुवाद से कोई पेट नहीं भर सकता था । यह शुद्धतः स्वांतः सुखाय अथवा ऐसे ही किसी नैतिक मूल्य से जुड़ा कार्य था आज अनुवाद बड़ा व्यवसाय बन चुका है । शब्द या अक्षर गिन कर लोग अनुवाद का मोल चुकाते हैं। यहाँ तक कि इंग्लैंड में प्रकाशकों -लेखकों ने कविता की एक पंक्ति अनुवाद पर दो-तीन पौंड की दर की तख्तियां लगा रखी हैं । पहले सिर्फ रूस,अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस आदि अंबासियों से थोक भाव में अनुवाद हुआ करते वह उनके प्रचार-प्रसार का माध्यम था । बाद में संस्थायें (प्रकाशन, पुस्तक व्यवसायी, अकादेमियां) अक्षर शब्द गिन कर मेहनताना चुकाने लगी हैं । राजभाषा के कार्य में लंबे अर्से तक अंग्रेजी अनुवादों की दरें चलती रही । अनुवादक को नौकरी दी जाती और अनुवाद की सीमा तय होती, वरना वेतन पूरा नहीं होगा ।
साहित्यिक कृतियों का अनुवाद अमेरिका एवं यूरोप में 'पापूलर सीरीज' कह कर खूब हुआ भारत में भी अच्छी सफलता मिली है । एक साथ कई भाषाओं में अनुवाद कर, विभिन्न प्रकार के संस्करण बना कर अथवा संक्षिप्त कर अनुवाद संस्करण सामने आये । अखिल भारतीय स्तर प्रचारित करने में एनबीटी, साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ, भारतीय भाषा परिषद, यूपी हिंदी संस्थान आदि ने प्रमुख भूमिका निभायी है दक्षिण में तो ऐसी अनेक संस्थायें हैं जो तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु से हिंदी अनुवाद कर पाठ्यपुस्तक एवं अन्य रूप में प्रचारित करने में सफल रही हैं। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग, सूचना विभाग आदि ने इस क्षेत्र में काफी काम किया । पारिश्रमिक देकर अनुवाद कराया, उसे प्रकाशित किया । भारत का संविधान, गांधी, नेहरू साहित्य आदि प्रमुख राष्ट्रहित की सामग्री हिंदी में सस्ते में उपलब्ध है । उसी तरह गीता प्रेस ने धार्मिक साहित्य एवं सांस्कृतिक ग्रंथमालाओं को बहुत कम मूल्य में लाखों पाठकों तक अनुवाद के जरिये पहुँचाया । दयानन्द साहित्य, रामकृष्ण एवं विवेकानन्द साहित्य, श्रीराम शर्मा साहित्य, इस्कान साहित्य ... आदि विविध प्रकार का साहित्य अनुवाद व्यावसायिक स्तर पर हुआ परंतु इन का मूल्यायन, पारिश्रमिक, विक्रय, प्रचार-प्रसार बाजार भाव पर नहीं हुआ । अत: यह धार्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राचीन अर्वाचीन साहित्य मरने से बचा । इतना ही नहीं 'राम चरित मानस' और उसके अनुवादों से अधिक बिक्री किसी की संभव नहीं हुई इसके जितने अनुवाद हुए, बिके, प्रसारित हुए, उतने भारत में किसी के नहीं हुए रवीन्द्रनाथ, शरतचन्द्र, बंकिम, विमल मित्र आदि अनुवाद में एक से बढ़कर एक नये लोकप्रियता के मानदंड स्थापित किये हैं ।
पत्रकारिता में ‘चंदामामा' तो अनुवाद के बल पर चल रहा है । उसी प्रकार बाल साहित्य, जागरण, नवभारत टाइम्स, नव भारत, सन्मार्ग... दैनिक पत्रों में अनुवाद ने खूब सहयोग दिया है । फलस्वरूप ये अंग्रेजी टीओआई स्टेट्समेन आदि को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं । पत्रकारिता ने व्यावसायिक रूप में अनुवाद को प्रश्रय दिया । भाषा में सुधार किया । सामग्री निर्माण के नये मानदंड स्थापित किये । राइटर आदि वैश्विक संस्थाओं से सामग्री ले कर द्रुत अनुवाद या आशु अनुवाद कर उसका पिछड़ापन दूर किया । हिंदी पत्रकारिता आज भारत में गौरवपूर्ण स्थान पाने में सफल हुई है ।
टीवी चैनलों में अंग्रेजी की भरमार थी । पर देखते-देखते एक-एक कर सब हिंदी होते गए बच्चों के CN, Discovery, Animal world आदि सब चैनल हिंदी अनुवाद में बदल गए । क्योंकि इनको दर्शकों से भरपूर समर्थन मिला । अनुवदकों ने लगन से कार्य किया । अतः पूरा टीवी विश्व एक -दो चार चैनल छोड़ हिंदी अनुवादों से छा गया है ।
फिल्मों ने भी हिंदी अनुवाद को काफी समृद्ध किया 'गांधी' फिल्म भारत में अंग्रेजी से अधिक हिंदी में चली । नियमित रूप से भारत सरकार का फिल्म डिविजन न्यूजरील और डाकूमेंटरी बना कर । अनुवाद करता है । सब - टाइल से देश भर की भाषाओं में प्रसारित करता है। पहले हम एक फिल्म हिंदी में बनाते फिर अन्य भाषाओं में पुनर्निमित करते । हाल ही में Light of Asia (स्वामी विवेकानन्द के जीवन पर जगदीश मिश्र द्वारा निर्मित वृत्त चित्र ) का निर्माण बंगला में किया । उसे फिर हिंदी, मराठी, ओड़िया आदि भिन्न-भिन्न भाषाओं में पुनर्गठित कर विवेकानन्द की 150वीं जयंती पर प्रचारित किया । इस प्रकार ‘सब- टाइटल' का अनुवाद कार्य काफी महत्व रखने लगा है । परंतु रामायण, जय हनुमान, शक्तिमान जैसे सीरियल डबिंग के जरिये सर्व भारतीय स्तर प्रचारित हो रही हैं यहाँ अनुवाद कर आकर्षक भाषा का जामा पहनाना महत्वपूर्ण है । बाकी निदेशन, फिल्मांकन संपादन तो अपने महत्व के कारण प्रसिद्ध हैं। हिंदी या अन्य भाषा अनुवाद उनको अतिरिक्त शक्ति या लोकप्रियता प्रदान करता है । यहाँ पर गोवा का फिल्मफेस्टिवल, दिल्ली समारोह आदि में सैकड़ों फिल्म प्रदर्शित होती हैं । विश्व की विविध भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियां आती हैं । यह सबटाइटल के कारण सहज और संप्रेषणीय संभव हो रहा है। बाजार भी अंतर्राष्ट्रीय बनना संभव होता है ।
हमने संचार में पत्रकारिता, इंटरनेट और सिनेमा की चर्चा की है । परंतु अब सर्वाधिक व्यापक क्षेत्र इंटरनेट, कंप्यूटर और ई मेल ने दखल कर लिया है। तरह-तरह की सूचनाएँ, यातायात संकेत सब इसमें हैं अभिव्यक्तिपरक रूप व्यापक हो रहे हैं। यहाँ सारा अनुवाद कार्य भाषांतरण है। सूचनापरक हैं । इसमें खूब संक्षिप्त, विषयनिष्ठ, समझ आने लायक संकेत युक्त होता है । कोड मिश्रण ऐसा कि भाषा सामान्य जन की समझ सीमा के अंदर हो । सिर्फ सांकेतिक नहीं, संप्रेषण परक विशेषता और विविधता पर ध्यान देना होगा । इस प्रकार अनुवाद व्यवसाय में और व्यावसायिक अनुवाद दोनों में हिंदी अग्रगति कर रही है.