भक्तिकालीन कविता: विविध शाखाएँ
भक्तिकालीन कविता: विविध शाखाएँ- प्रस्तावना
यह आर्टिकल भक्तिकालीन कविता
की विविध शाखाओं-संत काव्य,
काव्य, राम भक्ति काव्य, कृष्ण भक्ति काव्य पर
आधारित है। उपास्य के स्वरुप, ईश्वर की संकल्पना के आधार पर भक्ति काव्य को दो वर्गों
-निर्गुण भक्ति काव्य और सगुण भक्ति काव्य में बाँटा जाता है। फिर इनका भी वर्गीकरण
उपरोक्त चार शाखाओं में किया गया है। इसके पूर्व की इकाईयों में हम लोगों ने 'भक्तिकालीन कविता का उदय' और 'भक्तिकालीन कविता:
प्रक्रिया और विकास' की चर्चा की। इन
दोनों इकाईयों को पढ़ने के पश्चात् आप भक्तिकालीन कविता के बारे में काफी कुछ जान
गये होंगे। अब तक हम लोगों ने भक्तिकालीन कविता के आधार, भक्ति कालीन कविता के
विकास की चर्चा की है, अब हम भक्तिकालीन
कविता की विविध शाखाओं की चर्चा करेंगे। इन शाखाओं की प्रवृत्तियों, विशद प्रमुख कवि, महत्व का क्रमवार विवेचन
किया जाएगा।
संत काव्य
निर्गुण पंथ की ज्ञानाश्रयी शाखा को संत काव्य कहा गया। संताकाव्य उन संतों द्वारा रचा गया जिन्होंने निर्गुण ब्रह्म के प्रति भक्ति भाव रखते हुए बहुदेववाद, अवतारवाद, शास्त्र एवं पुरोहित, मिथ्याडम्बरों का विरोध किया और जातिगत, संप्रदायगत भेदभाव को नकारते हुए सभी मनुष्यों को समान, एक ही ईश्वर का अंश बतलाया। ये संत सीधा-सादा जीवन जीते थे, संसार, घर-गृहस्थी में रहकर भी सांसारिकता से अलिप्त थे। प्रायः ये संत समाज के निचले तबके से थे, उस तबके से जो वर्णाश्रमव्यवस्था में नीच, अछूत घोषित था। वास्तव में संत मत ब्राह्मण धर्म, व्यवस्था के सामानांतर चलने वाली बौद्धों, सिद्धों-नाथों की लोक परम्परा की अगली कड़ी है। इस धारा का प्रादुर्भाव अपने पूर्व की परम्परा से बहुत कुछ ग्रहण कर होता है। एक तरफ संतों पर यदि उपनिषदों के तत्व-चिंतन, वैष्णव धर्म के अहिंसावाद व प्रपत्तिवाद, शंकर के मायावाद, रामानंद का प्रभाव है तो दूसरी तरफ इन संतों ने बौद्धों के दुखवाद, सिद्धों-नाथों की रहस्यवादिता, शून्य समाधि, योग गुरु महिमा, शास्त्र-पुरोहित - बाह्ययाडम्बर, जाति-पाँति का विरोध, इस्लाम के एकेश्वरवाद, सूफियों के प्रेम-दर्शन को भी ग्रहण किया है। इन सबके योग से ही संतमत का निर्माण होता है। संतमत के प्रवर्तक कबीर है, वैसे मराठी कवि नामदेव की रचनाओं में भी निर्गुण भक्ति के तत्व है। किंतु संतकाव्य की प्रवृत्तियों की अत्यंत शक्त उपस्थिति पहली बार हमें कबीर के यहाँ ही दिखलाई पड़ती है। संत काव्य के वह प्रवर्तक ही नहीं, केन्द्रीय रचनाकार भी हैं। समूचा संत काव्य उन्हीं की मान्यताओं, वाणियों से आच्छादित है। कबीर की परम्परा को आगे रैदास, दादू दयाल, नानक, रज्जब, मलूकदास, जंभनाथ, सुंदरदास इत्यादि संत विकसित करते है। और देखते ही देखते इस संत धारा में कई संप्रदाय उठ खड़े होते है जैसे-कबीर पंथ, लाल पंथ, दादू पंथ, विश्नोई संप्रदाय, उदासी संप्रदाय, नानक पंथ, बाबालाली संप्रदाय, बावरी पंथ, निरंजनी संप्रदाय सत्यनामी संप्रदाय इत्यादि। आइए अब संतकाव्य की प्रवृत्तियों को देखें
1 संत काव्य की प्रवृत्तियाँ -
(क) निर्गुण ब्रह्म में विश्वास:-
संत कवियों ने ब्रह्म के निर्गुण अर्थात् निराकार, अजन्मा, अशरीरी, निर्विशेष, अव्यक्त, अगोचर रूप को स्वीकार
किया है। इस निर्गुण ईश्वर को उन्होंने राम, केशव, गोविंद, भगवान, निरंजन, माधव, हरि आदि कहकर भजा है। वह परमतत्व, परमेश्वर अकथनीय, अनिर्वचनीय है। रैदास
कहते है -.
जैसो मैं आगे कहि आयो, फिर समझो वैसो नहिं पायो ।
जो कछु कहियो नाहीं नाहीं, सो सब देखा बांके माहीं ।
अकथ कथा कछु, कही न जाई, जो भाखौं, सो ही मुरखाई। '
वह निर्विकार, अविनाशी हैं, अतर्क्य है, रैदास कहते हैं
निश्चल निराकार अतिअनुपम निरभै गति गोविंदा |
अगम अगोचर अक्षर, अतरक, निर्गुण अति आनंदा ।
सदा
अतीत ज्ञान विवर्जित, निर्विकार
अविनाशी ।।
उस अविगत ब्रह्म को लखा
नहीं जा सकता, जो अनादि हैं, अनंत है उसे बतलाने में
वाणी असमर्थ हैं इसीलिए कबीर ने कहा हैं- 'निर्गुण राम जपहु रे भाई, अविगत की गति लखी न जाई।' उसका वर्णन नहीं किया जा
सकता, सिर्फ उसे अनुभव
किया जा सकता है, कबीर कहते हैं -
पारब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान ।
कहिबे कूँ सोभा नहीं, देख्या ही परवान।'
वही परम पुरुष है, जो समस्त सृष्टि में
व्याप्त है, सर्वत्र उपस्थित
है- 'पूरण ब्रह्म बसे
सब ठाहीं ।' उस ईश्वर का इस
घट अर्थात् शरीर में भी निवास है, किन्तु मनुष्य अज्ञानतावश उसका अनुभव, उसका साक्षात्कार नहीं कर
पाता। जिस तरह कस्तूरी मृग के नाभि में रहती हैं, किन्तु उसकी तलाश में मृग जंगल-जंगल भटकता है, उसी तरह मनुष्य भी ईश्वर
की खोज में भटकता है, - कस्तूरी कुंडल
बसै, मृग ढँदै मन
माहिं ।'
(ख) अवतारवाद एवं बहुदेववाद का खण्डन-
संत कवि ब्रह्म को अशरीरी, अजन्मा मानते है, उनकी दृष्टि में परम तत्व एक है। ईश्वर समस्त चराचर जगत में
व्याप्त है, उसकी अनेक सत्ता
नहीं है, वह एक ही हैं। इन
मान्यता के कारण के संत कवि न तो अवतारवाद में विश्वास करते है और न ही बहुदेववाद
में। कबीर के अनुसार निर्गण राम ही राम नाम का मर्म है- 'दशरथ सूत तीहि लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।' रैदास भी कहते हैं जिस
दशरथ सुत राम के फेर में संसार पड़ा हुआ है, वह तो राम है ही नहीं - राम कहत सब जगत भुलाना सो यह राम न
होई ।' संतों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि कई देवताओं के
अस्तित्व को नहीं माना। उनकी दृष्टि में परमपुरुष एक ही है। कबीर कहते हैं
'अक्षय पुरुष एक पेड़ है, निरंजन बाकी डार।
त्रिदेवा शाखा भये पात भया संसार ।।
दरअसल संतों ने अनुभव
किया कि बहुदेववाद एवं अवतारवाद के कारण धर्म क्षेत्र में कई तरह के अंधविश्वास, मिथ्याडम्बर प्रचलित हो
गए है नए-नए संप्रदाय बन गये हैं, और उनमें परस्पर कटुता-प्रतिद्वन्द्विता व्याप्त रहती है।
इस तरह वे अवतारवाद एवं बहुदेववाद को कई प्रकार की विकृतियों की जड़ मानते है
इसीलिए वह एक ईश्वर की बात करते हैं। जब ईश्वर एक होगा तब न संप्रदाय गत परस्पर
श्रेष्ठता का भाव होगा और न ही आपसी वैमनस्यता। अवतारवाद एवं बहुदेववाद का खण्डन
एवं एक ईश्वर की संकल्पना निस्संदेह संतों पर इस्लाम के प्रभाव के कारण है। इसे
उपनिषेदों के दर्शन से भी जोड़कर देखा जा सकता है।
(ग) मानसिक भक्ति-
संतों की उपासना पद्धति पूर्णतया मानसिक, अभ्यांतरिक है। जिसे अंतस्साधना भी कहते है। इस साधना पद्धति में स्थूल एवं बाह्य साधनों का कोई महत्व नहीं है। इस साधना पद्धति में न तो शास्त्रज्ञान की बोझिलता है, न योग की दुरुहता, न कर्मकाण्डों बाह्याचारों का तामझाम। इसमें तो केवल भाव अपेक्षित है। प्रभु के प्रति सच्ची श्रद्धा, उत्कट रा और मन-वचन कर्म की निष्कलुषता होनी चाहिए। यह 'भाव भगति ' जिसे निरक्षर एवं साधनहीन भी साध सकता हैं, यदि उसके अंदर प्रभु के प्रति भाव है। सरल होते हुए अत्यंत कठिन साधना है, क्योंकि संसार में लिप्त चित्त को ईश्वरोन्मुख करना सहज नहीं है।
(घ) नाम स्मरण का महत्व -
संत कवियों ने 'नाम स्मरण' को सवाधिक महत्व दिया है। 'सच्चा सुमिरन' ही भवबंधन को काटने वाला है, ब्रह्म का साक्षात्कार कराने वाला है। विषय वासनाओं से चित्त को विमुख कर पूरी एकाग्रता एवं तन्मयता के साथ प्रभु के नाम का जप उसका स्मरण ही 'सुमिरण' है। सच्चा सुमिरण कैसा है, इसे बतलाते हुए कबीर कहते हैं
सहजो सुमिरन कीजिये, हिरदै माहिं छिपाई।
होठ
होठ सूं ना हिले सकै नहिं कोई पाई ।।
नाम स्मरण से ही भला होगा, किसी और माध्यम नहीं- 'कबीर कहता जात है सुनता
है सब को राम कहे भला होयगा, नहिं तर भला न होय।' दादू भी हृदय में 'नाम'
को संजोकर रखने
को कहते है, क्योंकि वह समस्त
सांसारिक सुखों से भी अनमोल है, वह कहते हैं
दादू नका नांव है सो तू हिरदै राखि ।
पाखण्ड परपंच रकरि सुनि
साधु जन की साखि ।'
कालिकाल में मुक्ति मात्र
नाम स्मरण से मिल जायेगी,
रैदास कहते हैं
सुत जुग, सत, ताजगी, द्वापर पूजा चार।
तीनों
जुग तीनों हढ़े, कलि केवल
नाम-आधार ।।'
'नाम स्मरण' भाव- भगति का ही रूप हैं।
'नाम स्मरण' पर सर्वाधिक जोर देकर
संतों ने भक्ति क्षेत्र में जहाँ एक ओर शास्त्र और पुरोहित की भूमिका को अनावश्यक
बना दिया, वहीं दूसरी ओर
भक्ति का एक ऐसा सरल और लोकग्राह्य रूप प्रस्तुत कर दिया जो मिथ्याडम्बरो -
बाह्याचारों से मुक्त थी। दरअसल 'नाम स्मरण' भक्ति का सरलतम रूप हैं।
(ङ) गुरु महिमा-
संतों ने
गुरु के प्रति अत्यंत श्रद्धा व्यक्त की है। सद्गुरु ही विषय-वासनाओं की निरर्थकता
का बोध कराता है, वह ज्ञानदीप
जलाता है जिससे भीतर-बाहर उजियारा हो जाता है, हृदय में प्रभु प्रेम रुपी बीज रोपता है। सद्गुरु बड़े
सौभाग्य से मिलता है। उस व्यक्ति का जीवन सार्थक हो जाता है, जिसे सद्गुरू मिलता है।
इसीलिए कबीरदास कहते-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरु अपने गोविंद दियो बताय।।
सदगुरू अपनी दीक्षा, अपने उपदेश से शिष्य को प्रभु प्रेम से सराबोर कर देता है, जिससे शिष्य रसमग्न हो जाता है, उसे ब्रह्मानंद की अनुभूति होने लगती है, वह आत्माराम हो जाता है। तभी तो कबीर कहते हैं
सद्गुरु हमसे रीझकर का एक प्रसंग।
बादल बरसा प्रेम का भीज गया सब अंग ।।
संतों के यहाँ दिखलाई पड़ने वाली गुरु महिमा सिद्धों-नाथों का
प्रभाव है। सिद्धों-नाथों यहाँ भी गुरु के प्रति अत्यंत श्रद्धा भाव प्रकट किया
गया है।
(च) मिथ्याडम्बरों एवं रूढ़ियों का विरोध-
संत कवियों ने व्रत, तप, तीर्थ, यज्ञ, रोजा, नमाज, मूर्तिपूजा, अंधविश्वास, आदि का विरोध किया है। वे जहाँ कहीं भी, छल, छद्म, झूठ-फरेव देखते हैं उसका विरोध करते है। उनकी दृष्टि में भक्ति के लिए बाह्याडम्बर नहीं भाव अनिवार्य है। उनके विरोध के केन्द्र में शास्त्र एवं पुरोहित हैं, क्योंकि बार-बार शास्त्रों का हवाला देकर पुरोहित लोग समाज में मिथ्याडम्बर एवं अंधविश्वास फैलाते हैं, समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव पैदा करते हैं। वे 'कागद लेखी' पर नहीं 'आँखिन देखी' पर विश्वास करते है । प्रेम को पोथी ज्ञान से श्रेयस्कर मानते हैं- कबीर कहते हैं- 'पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय / ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। '
भक्ति शास्त्र के ज्ञान
और बाध्य विधि-विधान से नहीं प्रेम से ही संभव होती है। प्रेम से ही परमेश्वर को
साधा जा सकता है। अतः साधना पथ में किसी भी प्रकार का आडम्बर व्यर्थ है, बकवास है। कबीर ने
हिंदू-मुस्लिम, ज्ञानी-योगी, पंडित - मौलवी किसी को
नहीं बख्शा है, बाह्याडम्बरों की
भर्त्सना करते हुए वह कहते है.
'दुनिया कैसी बावरी, पाथर पूजन जाय ।
घर की चकिया कोई न पूजे, जेहि का पीसा जाय ।
कनवा फराय जोगी जटवा बढ़िलै
ढाढ़ी बढ़ाय जोगी होय गैलें बकरा
जंगल जोगी धुनिया रमालै
काम जरा जोगी बन गैले हिजरा । "
इसी तरह इस्लाम की रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए कहते हैं
"कांकर पाथ जोरि के मस्जिद लई बनाय
ता चढ़ि
मुल्ला बाग दे, बहिरा हुआ खुदाय
।' -
इसी तरह रैदास भी बांह्याचारों को भक्ति न मानते हुए कहते हैं
"ऐसी भक्ति न होई रे भाई, राम नाम बिन जो कछू करिये, सो सब भरम कहाई ॥
भक्ति निद्रा सधै, भक्ति न बैराग बाँधे, भक्ति नहीं सब बेद बड़ाई ।।
भक्ति न मुण्ड मुँड़ाई, भक्ति न माल दिखाई, भक्ति न चरन धुवांये, भक्ति न गुनी कहाये ।।
(छ) जातिगत एवं साम्प्रदायिक भेदभाव-वैमनस्य का विरोध -
संतकवि मनुष्य मात्र की एकता-समता के प्रचारक-प्रसारक हैं। उन्होंने मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखा है ब्राह्मण-शूद्र या हिंदू-मुसलमान के रूप में नहीं। उनकी दृष्टि में मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से अपने आचरण से श्रेष्ठ बनता है। कबीर कहते हैं ‘जांति-पांति पूछै नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई ।' परमतत्व परमेश्वर समस्त चराचर जगत में व्याप्त है, सभी मनुष्यों में उसी का अंश विद्यमान है । इसीलिए भेदभाव निरर्थक हैं। अपने-अपने ईश्वर को बड़ा बतलाने वाले हिंदू-मुसलमान दोनों को कबीर फटकारते हैं और राम-रहीम की एकता की बात करते हैं। ईश्वर एक ही है, भले उसके नाम भिन्न भिन्न हो । अतः सांप्रदायिक भेदभाव को छोड़कर भाईचारे के साथ रहना चाहिए। जाति-पांति के विरोध की प्रेरणा संत कवि सिद्धों-नाथों से पाते हैं। सिद्धों-नाथों की तरह संतों में भी अधिकांश समाज के निचले वर्ग से आये थे, जातीय भेदभाव के को उन्होंने झेला था। इसी कारण उनकी वाणियों में जाति व्यवस्था के नकार का इतना गहरा स्वर मिलता है।
(ज) सांसारिकता के प्रति उदासीनता-
संत कवि सांसारिक विषय वासनाओं, सांसारिक सम्बन्धों को खोखला,, निस्सार मानते है। माया के बंधन में ही फँसकर
मनुष्य उचित-अनुचित भेद भूल जाता है, नश्वर जीवन और संसार को वास्तविक मान लेता है, फलतः उसे अपने वास्तविक
स्वरुप का बोध नहीं हो पाता और वह भवबंधन में जकड़ता चला जाता है। इसीलिए संतों ने
सांसारिक सुख-सुविधाओं, नेह-नातों से
उदासीन रहने का उपदेश दिया है, इस काया और माया की नश्वरता और निस्सारता का बोध उनमें बराबर
बना रहता है। रैदास कहते हैं
जल की भीति पवन का थम्भा, रकत बूँद का गारा ।
हाड़ मांस की नाड़ी को पिंजर, पंखी बसै बिचारा ।।
प्रानी किआ ' मेरा किआ तेरा, जैसे तरुवर पंखि बसेरा ।
राखउ कंधउ सारउ नीवां, साढ़े तीन हाथ तेरी सीवां ।
बंके बाल पाग सिर डेरी, इहु तन होइओ भसम की ढेरी
ऊँचे मंदर सुंदर नारी, राम नाम बिनु बाजी हारी।।
ध्यान देने वाली बात है
कि संत कवि, सांसारिक से
अनासक्त होने की बात करते है, किंतु घर-परिवार को त्यागकर जंगल जाकर धूनी रमाने की बात
नहीं करते हैं। संसार में रहते हुए सांसारिक प्रपंचों से बचकर परमात्मा की भक्ति
ही उन्हें काम्य है। चाहे कबीर हों या रैदास, सभी अपना-अपना व्यवसाय, काम-धाम करते हुए भक्ति करते हैं। उनकी भक्ति एवं जीवन में
कर्मण्य जीवन का संदेश निहित है।
(झ) रहस्यवादी प्रवृत्ति-
संतकाव्य में रहस्यात्मक प्रवृत्ति भी मिलती है। योग साधना के प्रभाव के कारण इड़ा-पिंगला, कुण्डलिनी जागरण, चक्रभेदन, सहस्रार चक्र, अनहद नाद, शून्य चक्र, गगन गुफा, उल्टी गंगा जैसी यौगिक शब्दावली संतों के यहाँ मिलती है। कहीं ब्रह्म के स्वरूप, उसकी महिमा का वर्णन है तो कहीं साधना की प्रक्रिया का। आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध का उद्घाटन करते हुए कबीर कहते हैं
'जल में कुंभ कुंभ में जल भीतर बाहर पानी ।
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना, यह तत् कहो गयानी
।।"
साधनात्मक रहस्यवाद को रैदास के यहाँ भी देखा जा सकता है, वह कहते हैं कि मैं अपनी साधना द्वारा गंगा को उलट कर जमुना में मिला दूँगा, और बिना जल के ही स्नान करूँगा
उल्टी गंग जमुन में ल्याऊँ, बिन ही जल मज्जन कहा पाऊँ ।
लोचन भरि भरि बिम्ब
निहारुँ, ज्योति विचारि न
और निहारुँ ।'
सूफियों के प्रभाव स्वरुप
संतों के यहाँ भावनात्मक रहस्यवाद भी दिखलाई पड़ता है, जब संत कवि दांपत्य
रूपकों द्वारा आत्मा-परमात्मा के सम्बन्धों को प्रकट करते हैं, कबीर राम को पति और स्वयं
को दुल्हिन मानते हुए कहते हैं-
दुलहिन गाव मंगलचार, हम घर आये हो राजाराम भतार |
रामदेव मोहे व्याहन आये मैं जोबन मतमाती
रामदेव संग भांवर लेहूं, धनि धनि भाग हमार
सुर तैंतीस कोटि आये, मुनिवर सहस उठासी ।
कहैं
कबीर हम ब्याह चलै हैं, पुरुष एक अविनाशी
।।
प्रियतम परमात्मा के
विछोह से व्याकुल होकर रैदास कहते हैं
'कह रैदास स्वामी ते बिछुरै एक पलक जुग जाई ।
भोर भयो मोहि इक टक जोवत तलफत रजनी जाई ।। "
(ञ) नारी के प्रति दृष्टिकोण-
संतों ने नारी को माया, 'महा ठगिनी' के रूप में देखा। कारण व्यक्ति का विवेक भ्रष्ट हो जाता है, वह परमात्मा से विमुख हो
जाता है और नारी संसर्ग जन्य सुख को ही वास्तविक सुख मान लेता है। नारी माया है, मोह फाँस में बाँधकर वह
साधक को साधनाच्युत कर देती है, उसे दिग्भ्रमित कर विषय-वासनाओं में उलझा देती है । इसीलिए
संतों ने नारी से दूर रहने की बात कही है कबीर कहते हैं- नारी की झाई परत अंधा होत
कबिरा तिनकी कौन गति जे नित नारी के संग। लेकिन नारी के पवित्रता रूप की वह सराहना
करते हैं, उसके प्रति
सम्मान का भाव रखते हैं
‘पतिव्रता मैली भली, काली कुचित कुरुप ।
पतिव्रता के रुप पे वारों कोटि सरुप ।। '
नारी के प्रति संतों के
दृष्टिकोण को हम प्रगतिशील एवं उदार नहीं कह सकते हैं। संतों की तमाम प्रगतिशील
भूमिकाओं के बावजूद यह उनकी एक खामी है। इस मामले में वह युगीन सीमाओं का अतिक्रमण
नहीं कर पाते। दरअसल संत कवि जिस मध्यकालीन समय और समाज की उपज हैं वह समाज नारी
को या तो भोग्या मानता है या पथभ्रष्टा । नारी को साधना पथ में बाधक, चरित्र को भ्रष्ट बनाने
वाली नारी सम्बन्धी तत्कालीन समाज की जो सोच है, संत कवि उससे उबर नहीं पाते।
(ट) अभिव्यंजना पक्ष-
संतों ने लोक भाषा का प्रयोग किया है, उनकी भाषा अनगढ़ और सरल है। उसका कोई एक निश्चित रूप नहीं, उसमें अवधी, भोजपुरी, ब्रज, खड़ी बोली, राजस्थानी, अरबी, फारसी का मिश्रण है। विभिन्न बोलियों भाषाओं के शब्दों का मिश्रण होने के कारण ही उनकी भाषा को 'सधुक्कड़ी भाषा' कहा गया है। सामान्यतः संत कवि निरक्षर थे, ‘मसि कागद छुयो नहीं” वाली कबीर की बात सभी संतों पर लागू होती है । कविताई उनका उद्देश्य भी नहीं हैं, इसलिए उनके यहाँ कलात्मक सजगता, कलात्मक परिपूर्णता नहीं है। किंतु भक्ति की तन्मयता, सीधी-सच्ची बात के कारण उनकी कविता असरदार बन पड़ी है। शैली की दृष्टि से कहीं उपदेशात्मक शैली है तो कहीं वर्णनात्मक शैली । तत्व चिंतन के समय गुरु-गंभीर शैली है तो सामाजिक कुरीतियों, बाह्याडम्बरों पर प्रहार करते, समय हास्य-व्यंग्यात्मक शैली है। भक्ति की विह्वलता के क्षणों में संतों की वाणी अत्यंत भावात्मक हो उठती है। अपने अभिप्राय को प्रकट करने के लिए जब-तब वे प्रतीकों का भी सहारा लेते हैं, बहुधा वे लोक जीवन से प्रतीकों को चुनते है। उलटवासियों में हमें अत्यंत प्रतीकात्मक एवं गूढ़ अर्थ व्यंजक भाषा दिखलाई पड़ती है। उनकी उलटवासियाँ कौतूहलजनक हैं। अलंकार भी संत काव्य में खूब मिलते हैं किन्तु ये पूर्वनियोजित नहीं होते, अलंकार अत्यंक स्वाभाविक रूप में आये हैं। रूपक, उपमा, दृष्टांत, उत्प्रेक्षा, श्लेष, यमक और अनुप्रास अलंकार संत काव्य में ज्यादा प्रयुक्त हुए हैं। रस की दृष्टि से शांत रस की प्रधानता है, वैसे दाम्पत्य रूपकों द्वारा भक्ति की व्यंजना में श्रृंगार रस, ब्रह्म की विराटता के वर्णन में अद्भुत रस, कर्मकाण्डों पर प्रहार करते समय हास्य रस, देह की क्षणभंगुरता, और प्रेतादि के वर्णन में वीभत्स रस, माया से जूझते हुए साधनापथ पर अग्रसर साधक के वर्णन में वीर रस को देखा जा सकता है। संत काव्य मुख्यतः साखी और 'सबद' के रूप में है। साखी की रचना दोहों में है, सबद गेय पदों में है। संत सुंदरदास ने सवैयों का भी प्रयोग बड़ी कुशलता से किया है। छंद की दृष्टि सुंदरदास की रचनाएँ परिपक्व हैं। छंदशास्त्र का ज्ञान न होने के कारण संतों की रचनाओं में काफी अशुद्धियाँ भी मिलती हैं।