भक्ति काव्य का वर्गीकरण ,भक्तिकाव्य की सामान्य विशेषताएँ
भक्तिकालीन कविता: प्रक्रिया एवं विकास- प्रस्तावना
प्रस्तुत इकाई में भक्ति कालीन कविता के वर्गीकरण, सगुण-निर्गुण भक्ति काव्य की विशेषताओं, भक्तिकाव्य की विभिन्न धाराओं की परम्परा और विकास, भक्ति काव्य की उपलब्धि इत्यादि की चर्चा की जाएगी। ब्रह्म के स्वरूप के आधार पर सगुण-निर्गुण शाखा में विभक्त भक्तिकाव्य का चार शाखाओं-संत काव्य, प्रेममार्गी, सूफी काव्य, राम भक्ति काव्य, कृष्ण भक्ति काव्य के रूप में विकास होता है। भक्ति के आधार और प्रक्रिया में भिन्नता के बावजूद इन शाखाओं में एक गहरी समानता भी है। उपास्य के प्रति उत्कट राग अर्थात् भक्ति, नैतिक जीवन पद्धति, उच्चकोटि की मनुष्यता, साधना और काव्य का लोकोन्मुख रूप पूरे भक्ति काव्य की सामान्य विशेषता है। सौन्दर्य बोधात्मक एवं मूल्यबोधात्मक दोनों दृष्टि से भक्तिकाव्य की उपलब्धियाँ सराहनीय है।
भक्ति काव्य का वर्गीकरण
भक्तिकाव्य की दो धाराएँ हैं निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति काव्य | निर्गुण भक्ति काव्य सगुण भक्ति में मुख्य अंतर भक्ति के आधार को लेकर है। निर्गुण शाखा में भक्ति और अवलंब अगोचर, अजन्मा, अशरीरी, इंदियातीत, अगम्य, निराकार, परमेश्वर है, जबकि सगुण शाखा में उपास्य गोचर, साकार, शरीरी है, वह अवतरित होता है। डॉ० नगेंद्र द्वारा संपादित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी निर्गुण भक्ति, सगुण भक्ति का साम्य वैषम्य उद्घाटित करते हुए लिखते हैं- 'सगुण भक्ति में जहाँ लीलावतार को आराध्य स्वीकार किया गया हैं, वहीं निर्गुण भक्ति में ब्रह्ममानुभूति को स्थान दिया गया है। सगुण भक्ति में जहाँ भगवद्गुग्रह का भरोसा होता हैं, वहीं निर्गुण भक्ति में आत्मविश्वास का बल रहता है। सगुण : भक्ति जहाँ बाह्य लालित्य की महिमा से मंडित है, वही निर्गुण भक्ति अंतः सौन्दर्य की गरिमा से दीप्त सगुण भक्ति जहाँ साकार तथा सविशेष के प्रति होती है, वहीं निर्गुण भक्ति निराकार और निर्विशेष के प्रति। सगुण भक्ति में जहाँ स्वकीया तथा परकीया दोनों भावों का समावेश है, वहीं निर्गुण भक्ति में शक्तिरूपा नारी के प्रति निष्ठावान रहते हुए भी उसके रमणी रूप अथवा परकीया भाव के प्रति आकर्षण का अभाव है। सगुण भक्ति में जहाँ किसी देव लोक की कल्पना की गयी हैं, वहीं निर्गुण भक्ति में विश्वात्मा प्रभु के विश्वव्यापी अस्तित्व में आस्था प्रकट की गयी है। सगुण भक्त के लिए जहाँ भगवान का उपयुक्त धाम भक्त का हृदय है, वहीं निर्गुण भक्त के लिए अभेदमूलक दृष्टि द्वारा आत्मसाक्षात्कार का महत्व है। निर्गुण भक्त सत्य के शोधक हैं, भक्ति अथवा ऐश्वर्य के आराधक नहीं। मोक्षकामी निर्गुण भक्त संसार को सत्कर्मों द्वारा स्वर्ग बनाना चाहते हैं, वे किसी काल्पनिक 'परलोक' के अभिलाषी नहीं । सगुण और निर्गुण भक्त दोनों ही उपासना-भेद से वैष्णव हैं। निर्गुण भक्त जहाँ नारायण की उपासना करता है, वहीं सगुण भक्त विष्णु के लीलावतारों की भक्ति।
सगुण भक्ति में लीला का महात्म्य है और निर्गुण भक्ति में का महत्व। सगुण भक्त जहाँ वर्णव्यवस्था के आलोचक नहीं, वहीं निर्गुण भक्त उसके तीव्र विरोध तक जान पड़ते हैं। परंतु प्रेमा भक्ति दोनों को स्वीकार्य है।. . वास्तव में सगुण-निर्गुण का भेद जितना स्तर जन्य है उतना वर्गगत नहीं।'इस प्रकार हम देखते है कि सगुण भक्ति एवं निर्गुण भक्ति में मूल अंतर ईश्वर की परिकल्पना की भिन्नता के कारण है। इससे दोनों काव्य की विषय वस्तु, जीवन-जगत संबंधी उनके दृष्टिकोण में अंतर दिखलाई पड़ता है। निर्गुण भक्ति काव्य दो वर्गों में विभक्त है- ज्ञानाश्रयी शाखा (संतकाव्य) और प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी प्रेमाख्यानक काव्य ) । संत मत में ब्रह्म ज्ञान को प्रमुखता दी गई है, जबकि प्रेममार्गी सूफी काव्य में तीव्र प्रेमानुभूति का महत्व है। सगुण भक्ति काव्य विष्णु के अवतारों के आधार पर दो धाराओं में विकसित होता है। राम, कृष्ण विष्णु के प्रमुख आधार है, भक्ति आंदोलन के दौरान इन दो अवतारों की भक्ति का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। इस तरह सगुण भक्ति काव्य के भी दो रूप हैं-राम भक्ति काव्य और कृष्ण भक्ति काव्य। भक्ति काव्य की विभिन्न शाखाओं को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं
भक्तिकाव्य की सामान्य विशेषताएँ
भक्ति काव्य हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग है । गुण एवं
परिमाण, उदात्त भाव-भूमि
एवं प्रभावी अभिव्यक्ति प्रेरक आदर्शों-मूल्यों की उपस्थिति, मानवीयता का उच्च धरातल, युगबोध, लोकोन्मुखता इत्यादि सभी
दृष्टियों से यह काव्य एक प्रतिमान की तरह दिखलाई पड़ता है। अपने इन्हीं गुणों के
कारण ही भक्तिकाव्य भारतीय समाज का पथप्रदर्शक रहा है, उसे आध्यात्मिक तृप्ति और
रसानुभूति कराता रहा है। इस भक्ति काव्य की चार शाखाएँ है-संत काव्य, प्रेम मार्गी सूफी काव्य, राम भक्ति काव्य, कृष्ण भक्ति काव्य। इन
चारों शाखाओं का अपना-अपना निजी वैशिष्ट्य है, अपनी विशेष प्रवृत्ति है। किन्तु कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ, विशेषताएँ भी है जो मू
भक्तिकाव्य में दिखलाई पड़ती है। निर्गुण भक्ति काव्य, सगुण भक्ति काव्य और इनकी
विभिन्न शाखाओं का एक समान धरातल है, और वह धरातल है भक्ति। सबमें ईश्वर के प्रति उत्कट राग, अनन्य, निष्ठा, सत्य-शील-सदाचार युक्त
जीवन पर जोर, संसार में रहते
हुए सांसारिक प्रपंचों, माया-मोह के
बंधनों से असंपृक्त - उदासीन रहने का उपदेश, मानुष सत्य को प्रमुखता, शास्त्रों कर्मकाण्डों से मुक्त भाव भगति पर बल, गुरु महिमा का बखान, अहं का पूर्ण विगलन, लोक सम्पृक्ति मिलती है।
आइए भक्ति काव्य के विशेषताओं की हम चर्चा करें।
(1) ईश्वर के उत्कट प्रेम एवं अनन्य निष्ठा-
ईश्वर के प्रति उत्कट राग, अनन्य निष्ठा, सर्वस्व समर्पण की भावना भक्ति काव्य की सभी धाराओं में विद्यमान है। सभी भक्त कवि भगवत्प्रेम में पूर्णतया अनुरक्त, विह्वल दिखलाई पड़ते है। कबीर प्रियतम परमात्मा के विरह में व्याकुल होकर कहते हैं
आँखड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पड़याँ, राम पुकारि पुकारि ।
सूफी काव्य में तो 'प्रेम तत्व' को ही सर्वाधिक महत्ता दी गई हैं। मीरा गिरधर गोपाल को अपना
सर्वस्व मान, उनके प्रेम में
बावरी हो उठती है- हे री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोई।' सूर की गोपियाँ कृष्ण के प्रति इतना समर्पित हैं कि वे
उद्धव के मुक्ति रूपी मणि के प्रलोभन को ठुकराकर कृष्ण की विहाग्नि में तपना
स्वीकार करती हैं। उद्धव के लाख समझाने बुझाने के बावजूद गोपियाँ के प्रेम पर कोई
असर नहीं होता, हरि तो उनके लिए
‘हारिल की लकड़ी' के समान हैं।
तुलसी के तो एकमात्र बल, एकमात्र भरोसा
उनके प्रभु राम हैं-
एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास ।।
(2) अहं का विगलन-
भक्त कवि परमात्मा के पास अपने अहं को पूर्णतया विसर्जित करके जाते हैं।
प्रभु के समक्ष उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं, प्रभु की सेवा, उनका सेवक बनने में ही वे अपनी सार्थकता देखते हैं। कबीर
अपने को 'राम का गुलाम', 'राम का कुत्ता' कहते है ।
सूर का कहना है
‘सब कोउ कहत गुलाम
श्याम को सुनत 'सिरात हिये। '
तुलसी कहते हैं
राम सो बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो? राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो ?”
(3) सांसारिक विषय-वासनाओं के प्रति उदासीनता -
भक्त कवि प्रभु भक्ति में सबसे बड़ी बाधा
माया-मोह को मानते हैं। माया-मोह के बंधन में फँसकर मनुष्य जीवन, जगत को सत्य, शाश्वत मानकर सांसारिकता
में लिप्त और परमात्मा से विमुख रहता है। भक्त कवियों के यहाँ सांसारिक
विषय-वासनाओं को निस्सार माना गया है, उनसे अलिप्त रहने का उपदेश दिया गया है। यह निर्वेद का भाव
कबीर, सूर, तुलसी, जायसी सभी के यहाँ मिलता
है। जीवन की भंगुरता की ओर ईशारा करते हुए कबीर कहते है
माली आवत देखिकै कालियाँ करी पुकार ।
फूली फूली चुनि लई, काल्हि हमारी बारि ।।
जिस शरीर और जीवन को मनुष्य ने सत्य समझ लिया है उसकी
वास्तविकता क्या है, इसे बतलाते हुए
सूर ने लिखा है-
जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं।
ता दिन तेरे तन तरुवर के सबै पात झरि जैहैं ।।
(4) गुरु महिमा
गुरु
की महत्ता निर्गुण, सगुण दोनों भक्त
कवियों ने स्वीकार की है। दरअसल गुरु ही सत्य का बोध कराता है, मनुष्य को ईश्वर प्राप्ति
का मार्ग बतलाता है। वह पथ प्रदर्शक हैं, सच्चा हितैषी है। इसीलिए कबीर ने गुरु को भगवान से भी ऊँचा
दर्जा दिया है।
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय ।
बलिहारी गुरु आपने
गोविंद दियो बताय ।।
मानस में तुलसी गुरु की वंदना करते हुए लिखते है
"बंद
गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर
रूप हरि ।'
(5) नामस्मरण का महत्व -
भक्त कवियों ने पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु का नाम प को भक्ति का सबसे सरलतम रूप माना है। मात्र नाम-स्मरण से मनुष्य प्रभु की कृपा का पात्र बन जाता, भव-बंधन से मुक्त हो जाता है। इसीलिए राम-नाम को तत्व मानते हुए कबीर ने कहा है "कबीर सुमिरण सार हैं और सकल जंजाल ।' नाम की महिमा का उल्लेख करते लिखा है -
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह।।
नाम स्मरण को प्रमुखता देकर भक्त कवियों ने भक्ति को
शास्त्रों और कर्मकाण्डों को कड़बंदी से मुक्त कर दिया उसे सरल और लोकग्राह्य बना
दिया।
(6) संतों के प्रति श्रद्धा एवं सत्संग पर बल-
भक्ति काव्य में पवित्रतायुक्त सीधा-सरल जीवन जीने वाले
परमात्मा की भक्ति में लीन,
सांसारिकता से
उदासीन साधु पुरुषों के प्रति असीम श्रद्धा-सम्मान प्रकट किया गया है। रैदास लिखते
हैं वह गाँव, स्थान, कुल, घर-परिवार धन्य है जहाँ
साधु पुरुष का जन्म होता है
जिही कुल साधु बेसनो होई ।
बरन अबरन रंक नहिं ईसुर, बिमल बासु जानीऔ जीग सोइ ||
होई पुनीत भगवंत भजन ते आपु तारि तारै कुल दो ।
धनिसो गाउँ, धनि सो ठाउँ, धनि पुनीत कुटुम सब लोड़।।
जिस प्रकार पुष्प के सम्पर्क से सब अंग समान रूप से सुवासित
होते हैं, उसी तरह संतों की
संग भी होता है, तुलसी के अनुसार-
बंद संत समान चित हित अनहित नहिं दोय ।
अंजलि गत सुभ सुमन
जिमि सम सुगंध कर दोय ।।
(7) सत्य-शील-सदाचार युक्त जीवन जीने का उपदेश-
भक्त कवियों ने जीवन को धर्मानुसार अर्थात् सत्य-शील
सदाचार का सम्यक पालन करते हुए प्रभु के प्रति समर्पित जीवन जीने का उपदेश दिया
है। समस्त सृष्टि को प्रभु की अभिव्यक्ति मानकर सभी के प्रति कल्याण की भावन एवं
कर्म होना चाहिए। ये कवि स्वार्थ की जगह परमार्थ, संग्रह की जगह त्याग, भोग की जगह भक्ति को
महत्व देने वाली जीवन-पद्धति के प्रचारक-प्रसारक हैं।
(8) मानवतावादी दृष्टि -
भक्त कवियों ने भक्तिमार्ग में सभी मनुष्यों को समान मानते हुए, वर्गगत, वर्णगत भेद भाव का विरोध
किया है। सभी मनुष्य परमात्मा के अंश हैं, चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र, राजा हो या रंक सबमें उसी परमात्मा का वास है। 'जाति-पाति पूछै न कोई। हरि
को भजै सो हरि का होई।' भक्ति काव्य का
मूलमंत्र है। मनुष्य सत्य को भक्ति आंदोलन के दौरान सर्वप्रमुखता दी गई, बंग्ला के भक्त कवि
चण्डीदास ने कहा है
शुनह मानुष भाई
शबार ऊपरे मानुष शतो
ताहार ऊपरे नाई ।
कबीर अत्यंत तीखे ढंग से जाति-पाँतिगत भेद-भाव का विरोध
करते हैं। यद्यपि तुलसी के यहाँ वर्णाश्रमधर्म के प्रति एक आस्था है, किंतु उन्होंने भी सभी
मनुष्यों को समान माना हैं तभी तो वह कहते हैं-"सिया राम मय सब जग जानी करहु
प्रनाम जोरि जुग पानि ।' दरअसल भक्त कवि
परस्पर राग-विश्वास पर आधारित एक उदार और मानवीय समाज के अभिलाषी है।
(9) लोकोन्मुखता -
गहरी लोक सम्पृक्ति भक्त कवियों की विशेषता है। वे जन सामान्य के बीच से आए थे और उन्हीं के बीच रहकर काव्य रचना की। उन्होंने धर्म और भक्ति को सहज - सरज रूप देकर लोक ग्राह्य बनाया। 'नाम स्मरण को प्राथमिकता देने वाली उनकी भक्ति साधन विहीन और निरक्षर जनता जो शास्त्रोक्त कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने तथा शास्त्रों का अध्ययन मनन करने में असमर्थ थी, के लिए अत्यंत सुगम थी। यही नहीं सदियों से उपेक्षित-वंचित वर्ग को भक्ति का अधिकारी घोषित कर उन्होंने भक्तिमार्ग को अत्यंत उदार और मानवीय बना दिया। रागमूलक जिस भक्ति का कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा ने प्रचार किया उससे जनसामान्य का आध्यात्मिक तृप्ति ही नहीं मिलती है, उसके जीवन में एक सरसता का संचार भी होता है, उसे शक्ति एवं स्फूर्ति मिलती है। भक्ति काव्य लोक मंगलकारी है। यही नहीं लोक संस्कृति एवं लोक परिवेश का भी इन रचनाओं जीवंत चित्रण हुआ। जायसी के 'पद्मावत' में अवध की लोक संस्कृति और सूर के यहाँ ब्रज की लोक संस्कृति सजीव हो उठी है। भक्त कवि अपनी बात को प्रकट करने के लिए उस समय की प्रचलित लोक भाषाओं का आश्रय लेते हैं, लोक से ही उपमानों, बिम्बों, प्रतीकों का चुनाव करते हुए सहज-सरस शैली में अपनी बात रखते हैं। वास्तव में भक्ति काव्य लोक भाषा में रचित और लोक को संबोधित कविता है। सामंती अभिजात्य और रूढ़ियों को नकार यहाँ लोक की प्रतिष्ठा हुई है। अपनी लोक धर्मी चेतना के कारण ही भक्ति काव्य इतना सरस और प्रभावी बन पड़ा है।
इस प्रकार हम देखते है कि विभिन्न धाराओं में विकसित होने वाले भक्ति काव्य की कुछ आधारभूत विशेषताएं हैं जो सभी धाराओं में समान रूप से दिखलाई पड़ती है। अब आगे हम निर्गुण भक्ति काव्य और सगुण भक्तिकाव्य की विशेषताओं की चर्चा करेंगे।