भक्तिकाव्य : प्रक्रिया एवं विकास
1 संत काव्य
संतकाव्य जिसे ज्ञानाश्रयी शाखा कहा जाता है, इसकी शुरुआत महाराष्ट्र के संत कवि नामदेव से होती है। भक्ति आंदोलन के क्रमिक विकास का अवलोकन करने पर विदित होता है कि आलवारों की भक्ति का प्रसार दक्षिण के बाद महाराष्ट्र में होता है। महाराष्ट्र के संत कवि नामदेव (1270-1350) ने मराठी और हिन्दी दोनों में रचना की है, उनके यहाँ सगुण-निर्गुण दोनों भक्ति की प्रवृत्तियाँ मिलती है। ज्ञानदेव के कारण उन पर नाथपंथ का भी प्रभाव था। उन्होंने एक ऐसे भक्ति मार्ग के लिए रास्ता निर्मित किया, जो हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए हो। उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार-प्रसार करते हैं, रामानंद। जो रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में आते हैं। रामानंद का समय 14वीं शता0 माना जाता है। रामानंद का भक्ति मार्ग उदार था, उसमें न जातिगत, संकीर्णता है और न ही निर्गुण- सगुण का विवाद । स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी बिना किसी भेद-भाव के उन्होंने निम्न जाति के लोगों को भी दीक्षा दिया। उनके शिष्यों में कबीर, रैदास, धन्ना, सेना, पीपा प्रसिद्ध है। रामानंद के शिष्यों में निर्गुण संत भी हैं और सगुण भक्त भी। एक निश्चित मत के रूप में संत काव्य के प्रवर्तक निस्संदेह कबीर हैं ( 15वीं सदी) हैं। कबीर ने जिस निर्गुण पंथ प्रवर्तन किया है, उसकी परंपरा नामदेव से शुरू होती है। सिद्धों, नाथों, वैष्णवों, सूफियों से वह बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। आचार्य शुक्ल लिखते हैं- 'निर्गुण पंथ के लिए राह निकालने वाले नाथपंथ के योगी और भक्त नामदेव थे। जहाँ तक पता चलता है 'निर्गुण मार्ग के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास ही थे जिन्होंने एक ओर तो स्वामी रामानंद जी के शिष्य होकर भारतीय अद्वैतवाद की कुछ स्थूल बातें ग्रहण की और दूसरी ओर योगियों और सूफी फकीरों के संस्कार प्राप्त किये। वैष्णवों से उन्होंने अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद लिये। इसी से उनके तथा 'निर्गुणवाद' वाले दूसरे संतों के वचनों में कहीं भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है तो कहीं योगियों के नाड़ी चक्र की, कहीं सूफियों के प्रेमतत्व की, कहीं पैगम्बरी कट्टर खुदाबाद की और कहीं अहिंसावाद की। अतः तात्त्विक दृष्टि से न तो हम इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते हैं और न एकेश्वरवादी । दोनों का मिलाजुला भाव इनकी बानी में मिलता है। इनका लक्ष्य एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति प्रचार था जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेदभाव का कुछ परिहार हो । बहुदेवोपासना, अवतार और मूर्तिपूजा का खण्डन ये मुसलमानी जोश के साथ करते थे और मुसलमानों की कुरबानी (हिंसा) नमाज, रोजा, आदि की असारता दिखाते हुए, ब्रह्म माया, जीव, अनहदनाद, सृष्टि, प्रलय आदि की चर्चा पूरे हिन्दू ब्रह्म ज्ञानी बनकर करते थे। सारांश यह है कि ईश्वरपूजा की उन भिन्न-भिन्न बाह्य विधियों पर ये ध्यान हटाकर, जिनके कारण धर्म में फैला हुआ था, ये शुद्ध ईश्वर प्रेम और सात्विक जीवन का प्रसार करना चाहते थे।' (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 45-46 ) दरअसल संत काव्य धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों विषमताओं के खिलाफ एक प्रतिक्रिया हैं, इसकी पृष्ठभूमि हमें सिद्धों-नाथों के यहाँ दिखलाई पड़ती है। परम्परागत वर्णाश्रम व्यवस्था जिसमें एक बड़े वर्ग को हाशिये पर ढकेल दिया गया था, उस निचले वर्ग की व्यापक हिस्सेदारी हमें संत मार्ग में दिखलाई पड़ती हैं। मुक्तिबोध लिखते हैं 'पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किए। अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए। कबीर रैदास, नाभा, सेना नाई आदि महापुरुषों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरूद्ध आवाज की।
कबीर के अतिरिक्त रैदास, दादू, रज्जब, सुंदरदास, मलूकदास, हरिदास निरंजनी, धर्मदास, गुरुनानक, चरणदास, बाबरी साहिब, जगजीवन दास, तुलसी साहब, भीखा साहब, पलटू साहब, अक्षर अनन्य इत्यादि अन्य संत हैं जिन्होंने संत काव्य परम्परा को आगे बढ़ाया। भक्ति आंदोलन के दौरान निर्गुण पंथी कई सम्प्रदाय भी अस्तित्व में आये जैसे नानक पंथ, कबीर पंथ, निरंजनी संप्रदाय, दादू पंथ इत्यादि। संतमत एक लोक परम्परा है। संतों ने लोक भाषा, जिसे सधुक्कड़ी कहा गया है, का प्रयोग किया है, वे दोहा और गेय पदों में अपनी बात कहते है, बिल्कुल सीधे-सादे ढंग से। उनकी वाणियों में सरलता जन्य सरसता है। उलटवासियों का प्रयोग भी हुआ है जो सिद्धों नाथों के प्रभाव-स्वरुप है। संत काव्य के प्रमुख रचनाकार और रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
रचनाकार- रचना
कबीर - बीजक (धर्मदास द्वारा संकलित)
नानक- पुजी, असा दीवार, रहिरास, साहिला, नसीहत नामा
हरिदास निरंजनी- अष्टपदी जोग पग्रंथ, ब्रह्मस्तुति, हंसप्रबोध ग्रंथ, निरपखमूल ग्रंथ, पूजायोग ग्रंथ, समाधिजोग, ग्रंथ, संग्रामजोग ग्रंथ
संतदास एवं जगन्नाथ दास (संग्रहकर्त्ता)- “हरडे वाणी- (दादू की वाणियों का संग्रह)
रज्जब -
मलूकदास -
सुंदरदास -
रज्जब -
गुरु अर्जुनदेव - सुखमनी, बावन अखरी, बारहमासा
निपट निरंजन स्वामी - शांत सरसी, निरंजन-संग्रह
2 प्रेममार्गी सूफी काव्य
सूफी मत से प्रभावित ‘प्रेम' को वर्ण्य विषय बनाकर चलने वाली निर्गुणपंथी काव्य धारा ही प्रेममार्गी सूफी काव्य है, जिसे प्रेमाश्रयी शाखा भी कहा जाता है। सूफी मत इस्लाम का एक उदारवादी रूप है। भारत में सूफियों का आगमन 12वीं सदी में माना जाता है। सूफी कवियों ने प्रेम के दो रूप माने हैं- इश्क मिजाजी और इश्क हकीकी। इश्क मिजाजी अर्थात् लौकिक प्रेम, स्त्री-पुरुष का सामान्य प्रेम । इश्क हकीकी अर्थात् ईश्वरीय प्रेम। उन्होंने, लौकिक प्रेमकथाओं का चित्रण करते हुए ईश्वरीय सत्ता की ओर संकेत किया है, ईश्वरीय प्रेम की व्यंजना की है। उनके यहाँ नायक आत्मा के प्रतीक रूप में और नायिका, परमात्मा के प्रतीक के रूप में आती है। नायक का नायिका से मिलन कई सारी मुसीबतों का सामना करने के उपरांत होता है। प्रायः इन कवियों ने प्रचलित लोक कथाओं को चुना है, उनके प्रबंधों में ऐतिहासिक यथार्थ और कल्पना का योग है। कथा का विकास वे लोक कथा पद्धति के सूत्रों का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी करते हैं- 'कथानक को गति देने के लिए सूफी कवियों ने प्रायः उन सभी कथानक रूढ़ियों का व्यवहार किया है जो परम्परा से भारतीय कथाओं में व्यवहृत होती रही है, जैसे- चित्र दर्शन, स्वप्न द्वारा अथवा शुक-सारिका आदि द्वारा नायिका का रूप देख या सुनकर उस पर आसक्त होना, पशु-पक्षियों की बातचीत से भावी घटना का संकेत पाना, मंदिर या चित्रशाला में युगल का मिलन होना, इत्यादि। कुछ नई कथानक रूढ़ियाँ ईरानी साहित्य से आ गयी हैं, जैसे प्रेम व्यापार में परियों और देवों का सहयोग, उड़ने वाली राजकुमारियाँ, राजकुमार का प्रेमी को गिरफ्तार करा लेना, इत्यादि । परन्तु इन नई कथानक शैलियों को भी कवियों ने पूर्ण रूप से भारतीय वातावरण के अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया है। अधिकांश सूफी, काव्यों का मूल आधार भारतीय लोक-कथाएँ हैं।” (हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास, पृ0 163) इन कवियों ने फारसी की मसनवी शैली की पद्धति पर अपने काव्य का प्रणयन किया है। ग्रंथारंभ में ईश्वर और मुहम्मद साहब की स्तुति, गुरु-स्मरण ग्रंथ के रचनाकाल का उल्लेख, तत्कालीन बादशाह का उल्लेख इत्यादि मसनवी शैली की विशेषता है। इन कवियों की शैली भले ही फारसी हो लेकिन कथावस्तु से लेकर भाषा तक उस पर भारतीय परिवेश की छाप है। इन काव्यों की आत्मा भारतीय है। सिर्फ लोक प्रचलित भारतीय लोक कथाओं का आधार ही ग्रहण नहीं किया गया है, भारतीय दर्शन और योग-साधना का भी गहरा प्रभाव, दिखलाई पड़ता है।
सूफी कवियों ने प्रबंधात्मक काव्य की रचना की है। प्रायः दोहा - चौपाई की शैली और अवधी भाषा इन काव्यों की विशेषता है। रहस्यवाद की प्रवृत्ति भी दिखलाई पड़ती है। आत्मा परमात्मा के प्रेम का निरुपण होने के कारण भावात्मक रहस्यवाद तो है ही, इसके अतिरिक्त यौगिक साधना सम्बन्धी बातें होने के कारण साधनात्मक रहस्यवाद भी आया है। सूफियों के रहस्यवाद के संदर्भ में हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- 'सूफियों का रहस्यवाद अद्वैतवाद भावना पर आश्रित है। रहस्यवादी भक्त परमात्मा को अपने प्रिय के रुप में देखता है और उससे मिलने के लिए व्याकुल रहता है। जिस प्रकार मेघ और समद्र के पानी में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं, उसी प्रकार भक्त भगवान में कोई भेद नहीं है दोनों एक ही हैं। फिर भी मेघ का पानी, नदी का रुप धारण करके समुद्र के पानी में मिल जाने को आतुर रहता है। उसी श्रेणी की आतुरता भक्त में भी होती है। सूफी, कवियों ने अपने प्रेम कथानकों की प्रेमिका को भगवान का प्रतीक माना है। जायसी भी सूफियों की इस भक्ति भावना के अनुसार अपने काव्य में परमात्मा को प्रिया के रुप में देखते हैं, और जगत् के समस्त रूपों को उसकी छाया से उद्भाषित बताते हैं। उनके काव्य में प्रकृति उस परम प्रिय के समागम के लिए उत्कंठित और व्याकुल पाई जाती है । ”
सूफी काव्य का जहाँ एक धार्मिक-आध्यात्मिक आशय है, वहीं उसका एक लौकिक पक्ष भी है। जिस प्रेम का इन कवियों ने निरुपण किया वह अत्यंत मार्मिक है। शुक्ल जी लिखते हैं- 'सूफियों के प्रेम प्रबंधों में खंडन-मंडन की बुद्धि को किनारे रखकर, मनुष्य के हृदय को स्पर्श करने का ही प्रयत्न किया गया है जिससे इनका प्रभाव हिन्दुओं और मुसलमानों पर समान रूप से पड़ता है।' (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 21 ) इन कवियों ने लोक तत्वों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया हैं। लोकपक्ष की दृष्टि से यह काव्य अत्यंत समृद्ध है। मुसलमान होते कवियों ने जिस खुले मन से हिन्दू लोक कथाओं, धार्मिक मतों-विश्वासों का सर्जनात्मक उपयोग किया है, वह उनकी उदारता, उनके सेकुलर चरित्र का प्रमाण है। हिन्दू-मुसलमान के बीच नजदीकी लाने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया को तीव्र करने में इन सूफी कवियों का योगदान महत्वपूर्ण है।
सूफी काव्य परंपरा में जायसी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। जायसी कृत 'पद्मावत' में सूफी काव्य की सभी विशेषताओं को बखूबी देखा जा सकता है। सपनावति, मुगुधावति, मिरगावति, मधुमालती, प्रेमावती जायसी द्वारा उल्लेखित इन प्रेमाख्यानकों में केवल मिरगावति और मधुमालती ही प्राप्त हुए हैं, बाकी अप्राप्य हैं। बहरहाल, यह तो स्पष्ट है कि जायसी के पूर्व में प्रेमाख्यानक काव्य रचे गए है। जायसी के अतिरिक्त इस परम्परा में कुतुबन, मुल्ला दाऊद, मंझन, उसमान, शेखनवी, कासिम शाह, नूरमुहम्मद आदि कवि भी हैं। प्रेममार्गी सूफी काव्य परम्परा की प्रथम कृति कौन सी, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। आचार्य शुक्ल के अनुसार कुतुबन कृत 'मृगावती' इस धारा की प्रथम कृति है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ईश्वरदास की 'सत्यवती कथा' को, राम कुमार वर्मा 'मुल्ला दाऊद कृत 'चंदायन' को पहली कृति मानते हैं हिन्दी के प्रमुख प्रेमाख्यानक काव्य निम्नलिखित है।
ग्रंथ - रचनाकार
हंसावली (1370 ई.) - असाइत
चंदायन (1379 ई.) - मुल्ल दाऊद
लखमसेन पद्मावती कथा (1459) - दामोदर कवि
सत्यवती कथा (1501 ) - ईश्वरदास
मृगावती (1503)- कुतुबन
माधवानल कामकंदला (1527) - गणपति
पद्मावत (1540)- जायसी
मधुमालती (1545) - मंझन
नंददास - रूपमंजरी (1568)
प्रेमविलास प्रेमलता की कथा (1556)- जटमल
छिताईवार्ता (1590)- नारायण दास
माधवानल कामकंदला (1584) - आलम
चित्रावली (1613)- उसमान
रसरतन (1618)- पुहकर
ज्ञानदीप (1619)- शेखनवी
नल-दमयंती (1625)- नरपति व्यास
नल चरित्र (1641) - कुंद सिंह
हंस जवाहिर (1731) -कासिम शाह
इंद्रावती (1744) -नुरमुहम्मद
अनुराग बाँसुरी (1764)- नुरमुहम्मद
कथा रतनावली, कथा कनकावती, कथा कंवलावति, कथा मोहिनी, कथा कलंदर
इत्यादि (रचनाकाल 1612-1664 ई. तक) -
3 रामभक्ति काव्य
आदिकाल से ही राम काव्य की एक दीर्घ परम्परा रही है। दरअसल उच्चतर मानवीय मूल्यों पर आधारित राम का व्यक्तित्व एवं जीवन हमेशा रचनाकारों को आकृष्ट करता रहा है। भारतीय संस्कृति के वह केन्द्रीय चरित्र हैं। राम एक ऐतिहासिक चरित्र हैं या मिथकीय यह विवाद का मुद्दा भले हो, किन्तु भारतीय समाज-संस्कृति में राम की अत्यंत गहरी और व्यापक उपस्थिति एक यथार्थ है। बहरहाल आदिकवि बाल्मीकि कृत आदिग्रंथ 'रामायण' में सर्वप्रथम रामकथा का निरूपण किया गया है। बाल्मीकि के रामकथा की वाचिक और लिखित परम्परा निश्चित तौर पर रही होगी। लेकिन अभी तक इसका कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध हुआ है। 'रामायण' का रचनाकाल चौथी सदी ई. पू(0) माना जाता है। रामायण का भिन्न क्षेत्रों-समाजों, भाषाओं में भिन्न भिन्न रूप में रूपांतर-विकास हुआ है। भारत में ही नहीं विदेशों में भी रामकथा का खूब प्रचार प्रसार हुआ। संस्कृत, पालि, प्राकृत, तमिल, तेलगु, कन्नड़, गुजराती, बंग्ला, हिन्दी, काश्मीरी, असमी, नेपाली आदि कई भाषाओं में रामकथा का प्रणयन हुआ। इनमें कालिदास कृत 'रघुवंश' भवभूति कृत 'उत्तर रामचरित', कम्बन कृत 'तमिल रामायण, कृत्तिवास कृत बंग्ला में ‘कृतिवासीय रामायण' तुलसीदास कृत 'रामचरित मानस', रामायण' इत्यादि को विशेष ख्याति मिली। माधव कन्दलि कृत 'असमिया
हिन्दी में राम काव्य परम्परा में सर्वोच्च स्थान गोस्वामी तुलसीदास का है। उन्होंने रामकथा को व्यापक फलक पर प्रतिष्ठित कर जनता का कंठहार बना दिया। समन्वय का विराट चेष्टा और लोकमंगल के विधान के कारण तुलसी को अपार लोकप्रियता मिली। आचार्य शुक्ल के अनुसार 'जगत् प्रसिद्ध स्वामी शंकराचार्य जी ने जिस अद्वैतवाद का निरुपण किया था वह भक्ति के सन्निवेश के उपयुक्त न था । यद्यपि उसमें ब्रह्म की व्यावहारिक सगुण सत्ता का भी स्वीकार था, पर भक्ति के सम्यक प्रसार के लिए जैसे दृढ़ आधार की आवश्यकता थी वैसा दृढ़ आधार स्वामी रामानुजाचार्य जी (सं. 1073 ) ने खड़ा किया। उनके विशिष्टाद्वैत वाद के अनुसार
चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सारे प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में
लीन होते हैं। अतः इन जीवों के लिए उद्धार का मार्ग यही है कि वे भक्ति द्वारा उस अंशी का सामीप्य लाभ करने का प्रयत्न करें। रामानुज जी की शिष्य परंपरा देश में बराबर फैलती गयी और जनता भक्ति मार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुज जी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना है। इस संप्रदाय में अनेक साधु महात्मा बराबर होते गये।' (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 75 ) । रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में रामानंद हुए। वे काशी के राघवानंद जी के शिष्य थे। वास्तव में रामभक्ति को प्रतिष्ठित करते का श्रेय उन्हीं को है। उन्होंने भक्ति को शास्त्रीय घेरे बंदी से मुक्त कर लोक ग्राह्य बनाया, भक्ति मार्ग को सभी के लिए खुला रखा। आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “तत्वतः रामानुजाचार्य जी के मतावलंबी होने पर भी अपनी उपासना पद्धति को उन्होंने विशेष रूप रखा। उन्होंने उपासना के लिए बैकुंठ निवासी विष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला विस्तार करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया। इनके इष्टदेवराम हुए और मूल मंत्र हुआ राम नाम | सगुण ब्रह्म के आग्रही होते हुए भी रामानंद ने निर्गुण भक्ति को भी प्रोत्साहन दिया। रामानंद कृत दो ग्रंथ मिलते हैं- 'वैष्णवमताब्जभास्कर और श्री रामार्चन पद्धति। दोनों संस्कृत में हैं। प्रसिद्ध प्रार्थना 'आरती कीजै हनुमान लला की' उन्हीं द्वारा रचित है। रामानंद जी की ही शिष्य परम्परा में तुलसीदास आते हैं। तुलसी के अतिरिक्त रामभक्ति काव्य पंरपरा में अग्रदास, ईश्वरदास, नाभादास केशवदास भी हुए, किन्तु किसी को तुलसी जैसी ख्याति नहीं मिली। रामभक्ति धारा में दास्य-भाव की भक्ति प्रधान है, किन्तु कालांतर में अग्रदास के सखी सम्प्रदाय रामचरणदास द्वारा प्रवर्तित स्वसुखी शाखा और जीवाराम प्रवर्तित तत्सुखी शाखा द्वारा रामभक्ति में रसिक भावना का समावेश होता हैं। इन शाखाओं की कोई उल्लेखनीय काव्यात्मक उपलब्धि नहीं है।
रामभक्ति शाखा के प्रमुख रचनाकार और उनकी रचनाएँ हैं
रचनाकार - रचना
1. विष्णुदास - महाभारत कथा, रूक्मिणी मंगल, स्वगारोहण, स्नेहलीला
2. रामानंद -
3. अग्रदास -
4. ईश्वरदास - भरत मिलाप, अंगदपैज
5. तुलसीदास - दोहावली, कवित्त रामायण, गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञा प्रश्नावली, विनय पत्रिका, रामलला नहछू, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली
6. नाभादास -
7. केशवदास -रामचंद्रिका
8. प्राणचंद चौहान - रामायण महानाटक
9. माधवदास चारण -राम रासो, अध्यात्म रामायण
10. हृदयराम -
11. नरहरि बारहट -पौरुषेय रामायण
12. लालदास -
4 कृष्ण भक्ति काव्य
ईश्वरीय रूप में श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव कब हुआ, इस संदर्भ में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। पुराण काल में श्रीकृष्ण एक प्रमुख ईश्वर अवतार के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। भागवत पुराण में कृष्ण की बाल और कैशोर वय की लीलाओं का विस्तृत वर्णन हुआ है। गोपियों के साथ उनके प्रणय प्रसंग का वर्णन मनोहारी है। ध्यान देने योग्य है कि भागवत में कहीं भी राधा का उल्लेख नहीं मिलता। कृष्ण की प्रेयसी के रूप राधा 12वीं सदी के संस्कृत जयदेव के 'गीत गोविंद' में आती है। जयदेव के पश्चात् बंग्लाकवि चंडीदास और मैथिल कवि विद्यापति के यहाँ राधा-कृष्ण की प्रेम-लीला का विशद वर्णन मिलता है। विद्यापति के यहाँ राधा-कृष्ण का प्रेम तो अत्यंत मांसल हो उठा है। बहरहाल भागवत में वर्णित लीलाएँ ही कृष्ण भक्ति काव्य का आधार रही हैं। दक्षिण के आलवार भक्तों ने भी कृष्णोपासना का प्रसार किया, उनकी भक्ति में माधुर्य भाव की प्रधानता है। कृष्ण भक्ति को शास्त्रीय आधार देकर प्रचारित प्रसारित करने वालों में दो वैष्णव आचार्यों निम्बाकाचार्य (12-13 वीं सदी) और वल्लभाचार्य (15-16 वीं सदी) का महत्वपूर्ण योगदान हैं।
वल्लभ ने देश भर घूम-घूमकर और विद्वानों से शास्त्रार्थ कर कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। अंत में ब्रज में उन्होंने अपनी गद्दी स्थापित की। उन्होंने श्री कृष्ण के लीलागान का उपदेश दिया। वल्लभ के पुत्र विट्ठलनाथ ने 'अष्टछाप' की स्थापना की। इसमें चार वल्लभाचार्य के शिष्य- कुंभनदास, सूरदास, परमानंददास, कृष्णदास और चार विट्ठलनाथ जी के शिष्य - - कुंभनदास, सूरदास, परमानंददास और कृष्ण दास - सम्मिलित हैं। अष्टछाप के कवि पुष्टिमार्गी भक्त है, जिन्होंने कृष्ण की लीलाओं को विषय वस्तु बनाकर काव्य प्रणयन किया। इनमें सूरदास, सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, उन्हें 'पुष्टिमार्ग का जहाज' कहा जाता है। 'सूरसागर' में कृष्ण की बाल और कैशोर वय की लीला के अंतर्गत उन्होंने वात्सल्य और श्रृंगार का जितना सूक्ष्म, स्वाभाविक और मार्मिक अंकन किया है वह समूचे हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। राग और रस के जिस आनंदोत्सव को सूर ने सूरसागर में दिखलाया है वह सहृदय को हमेशा आहलादित करता रहा है। उनकी कविता में समूचा व्रज अपने पूरे व्यक्तित्व के साथ सजीव हो उठा है।
राधा वल्लभ संप्रदाय, हरिदासी संप्रदाय (सखी संप्रदाय), गौड़ीय संप्रदाय का भी कृष्ण भक्ति काव्य में महम्वपूर्ण योगदान रहा है। राधा वल्लभ संप्रदाय में श्री कृष्ण से भी ज्यादा को महत्व दिया गया है। राधावल्लभ संप्रदाय की मान्यताओं को स्पष्ट करते हुए विजेन्द्र स्नातक लिखते हैं- 'राधावल्लभ संप्रदाय में श्रीकृष्ण का प्रमुख स्थान नहीं है, राधा ही प्रमुख है। श्रीकृष्ण आनुवांशिक रूप से वर्णित हैं, किन्तु इस वर्णन में कृष्ण के भीतर सभी शक्तियों का समाहार अवश्य लक्षित होता है। वृदावन विहारी कृष्ण ही रसिक किशोर रूप में एकमात्र नित्यबिहारी पुरुष हैं। उनकी पराप्रकृति श्री राधा हैं, जो चित्-अचित् विशिष्ट अह्लादिनी निजशक्ति रूपा हैं।
सारा चराचर जगत् इन्हीं रसिक युगलकिशोर का प्रतिबिम्ब हैं। भगवान कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम परात्पर ब्रह्म के भी आदि कारण और ईश्वरों के भी ईश्वर है। श्रीकृष्ण का वृंदावनविहारी, मधुरावासी और द्वारकावासी के रूप में वर्णन मिलता है। ऐश्वर्य, ज्ञान, शक्ति और पराक्रम को अंतर्लीन कर, प्रेम और माधुर्य की साक्षात् मूर्ति बनकर वे गोप-गोपियों के साथ लीलारत रहते हैं। वे राधापति होकर रस राज श्रृंगार के सौन्दर्यमंडित रूप का विस्तार करने वाले हैं। इस संपदाय में श्रीकृष्ण का उपास्य नाम 'राधवल्लभ' है। ( हिन्दी साहित्य का इतिहास - सं० डॉ० नगेन्द्र, पृ० 186) हितहरिवंश, दामोदरदास (सेवकजी), हरिराम व्यास चतुर्भुजदास, ध्रुवदास, नेही नागरीदास आदि इस संप्रदाय के प्रमुख काव्य भक्त कवि हैं। स्वामी हरिदास द्वारा प्रवर्तित सखी संप्रदाय में निकुंज बिहारी श्री कृष्ण को सर्वोपरि महत्ता दी गई है। चित्त को श्रृंगार रस से सराबोर कर श्रीकृष्ण की लीलाओं का दर्शन ही सखी (भक्त) को अभीष्ट है। इस संप्रदाय के प्रमुख कवि हरिदास, जगन्नाथ गोस्वामी, बीठल विपुल, बिहारिनदास आदि हैं। गौड़ीय संप्रदायय का प्रवर्तन चैतन्य महाप्रभु ने किया। उन्होंने गोलोक की लीलाओं, सहित ब्रज में बिहार करने वाले ब्रजेन्द्र कुमार श्री कृष्ण को उपास्य माना है। उनकी भक्ति माधुर्य भाव या कांता भाव की हैं। रामराय, गदाधर भट्ट, चंद्रगोपाल, भगवत मुदित, माधवदास 'माधुरी' आदि इस संप्रदाय के प्रमुख कवि है। इनके अतिरिक्त कई संप्रदाय निरपेक्ष कवि भी हुए जिनमें रसखान और मीरा का विशेष स्थान है।
कृष्ण भक्ति काव्य में मुख्यतया श्री कृष्ण कृष्ण की लीलाओं का ही चित्रण है। यथा श्रीकृष्ण जन्म, पूतनावध, दधि-माखनचोरी, बाल कृष्ण की विविध चेष्टाएँ, गोदोहन, गोचारण, कालिया दमन, गोवर्धन-धारण, दान लीला, मान लीला, चीर हरण लीला, रास लीला, श्री कृष्ण मथुरा गमन, कंस वध, कुब्जा प्रसंग, भ्रमर गीत प्रसंग इत्यादि। श्री कृष्ण के लोक रक्षक रूप की | अपेक्षा उनके लोक रंजक रूप को प्रमुखता दी गयी हैं। वात्सल्य और श्रृंगार इन कवियों के प्रधान क्षेत्र हैं। कृष्ण भक्ति काव्य में भ्रमरगीत प्रसंग का अपना एक अलग महत्व है। भ्रमरगीत गोपियों की निष्ठा और व्यथा के मार्मिक दस्तावेज के रूप में आता है, जहाँ उनकी वचनविदग्धता, वाक चातुरी भी प्रकट होती है। कृष्ण भक्ति काव्य के संदर्भ में, आचार्य शुक्ल कहते हैं- सब संप्रदायों के कृष्ण भक्त भागवत में वर्णित कृष्ण की ब्रजलीला को ही लेकर चले क्योंकि उन्होंने अपनी प्रेमलक्षणा भक्ति के लिए कृष्ण का मधुर रूप ही अपनाया । पर्याप्त महत्त्व की भावना से उत्पन्न श्रद्धा या पूज्य बुद्धि का अवयव छोड़ देने के कारण कृष्ण के लोकरक्षक और धर्मसंस्थापक स्वरूप को सामने रखने की आवश्यकता उन्होंने न समझी। भगवान के मर्मस्वरूप को इस प्रकार किनारे रख देने से उसकी ओर आकर्षित होने और आकर्षित करने की प्रवृत्ति का विकास कृष्ण भक्तों में न पाया। फल यह हुआ कि कृष्ण भक्त कवि अधिकतर फुटकर श्रृंगारी पदों की रचना में ही लगे रहे। उनकी रचनाओं में न तो जीवन के अनेक गंभीर पक्षों के मार्मिक रूप स्फुरित हुए, न अनेकरूपता आयी। . राधाकृष्ण की प्रेम लीला ही सब ने गायी ।' (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 104) कृष्ण भक्ति काव्य का माधुर्य भाव कालांतर में अतिशय श्रृंगारिकता में तब्दील हो जाता और रीतिकाल का जन्म होता है।
कृष्ण भक्तिकाव्य प्रायः मुक्तकों के रूप में मिलता है, प्रबंध काव्य कम लिखे गये। भाषा प्रायः ब्रज रही है।
कृष्ण भक्ति काव्य के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं-
रचना - रचनाकार
सूरदास -सूरसागर, साहित्य लहरी, सूर सूरावली
नंददास - अनेकार्थ मंजरी, मान मंजरी, रस मंजरी, रूप मंजरी, विरह मंजरी, प्रेम बाहरखड़ी, श्याम सगाई, सुदामा चरित, रूक्मिणी मंगल, भंवरगीत, रामपंचाध्यायी, सिद्धांत पंचाध्यायी, गोवर्धनलीला, दशमस्कंधभाषा, नंददास पदावली
हितहरिवंश- हित चौरासी, स्फुटवाणी, संस्कृत में -राधा सुधनिधि, यमुनाष्टक
चतुर्भभुजदास - भक्ति प्रताप, द्वादशयज्ञ, हित जू को मंगल
हरिदास - सिद्धांत के पद, केलिमाल
मीरा- गीत गोविंद की टीका नरसी जी का मायरा, राग सोरठ कापद, मलार राग, राग गोविंद, सत्यभामानु रूसणं, मीरा की गरबी, रूक्मणी मंगल, नरसी मेहता की हुण्डी, चरीत, स्फुट पद
रसखान-