इतिहास लेखन की पाश्चात्य भारतीय परम्परा
हिंदी साहित्य का इतिहास प्रस्तावना
हिंदी साहित्य की संपूर्ण
प्रक्रिया को समझने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि हिंदी साहित्य के समग्र
इतिहास की पृष्ठभूमि को समझने के उद्देश्य को पूर्ण करने वाली पहली इकाई है।
प्रस्तुत इकाई के पूर्वार्द्ध में इतिहास की प्रक्रिया एवं उसके स्वरूप का
विश्लेषण किया गया तथा सा इतिहास की पाश्चात्य एवं भारतीय परम्परा का संक्षिप्त
परिचय भी दिया गया है।
इतिहास : अर्थ एवं स्वरूप
‘इतिहास’ शब्द का अर्थ है - 'ऐसा ही था' अथवा 'ऐसा ही हुआ' इस दृष्टि से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि अतीत के किसी भी वास्तविक घटनाक्रम का लिपिबद्ध रूप 'इतिहास' कहा जा सकता है। प्रश्न यह है कि क्या अतीत का कोई “अतीत के गर्भ में इतना कुछ छिपा हुआ है कि उसे समग्र रूप में प्रस्तुत करना किसी भी इतिहासकार के वश की बात नहीं है। इसलिए विभिन्न इतिहासकार अपनी-अपनी रूचि एवं दृष्टि के अनुसार अतीत के कुछ पक्षों को अपने-अपने शब्दों में प्रस्तुत करते प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ देखता है, उसमें उसकी वैयक्तिक रूचि के साथ-साथ उसके युग की सामूहिक चेतना, उसके बौद्धिक विकास एवं उसकी भावात्मक प्रवृत्तियों का प्रभाव भी होता है" इस प्रकार हम देखते हैं कि इतिहास लेखन के विभिन्न दृष्टिकोण हो सकते है तथा इसी आधार पर इतिहास के वास्तविक, अर्थ को जानना दुश्कर हो जाता है। इस समस्या के समाधान लिए सर्वप्रथम हमें यह जानना आवश्यक है कि 'इतिहास क्या है ?" इतिहास के वास्तविक अर्थ को जाने बिना हम इतिहास की प्रक्रिया, उसके स्वरूप एवं उसकी विभिन्न लेखन परम्पराओं को ठीक से नहीं समझ सकते। इसलिए आइए सर्वप्रथम हम इतिहास की कुछ मान्य परिभाषाओं के विश्लेषण से यह जानने का प्रयत्न करें कि 'इतिहास क्या है?"
इतिहास की परिभाषा
ग्रीक विद्वान
हीरोद्योत्तस (484-425 ई.पू.) को इतिहास
का संबंध खोज एवं अनुसंधान से माना है तथा इस संबंध में उसकी पांच विशेषताएं बताई
हैं. -
1. ये वैज्ञानिक विद्या है- क्योंकि इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है।
2. मानव जाति से संबंधित होने के कारण यह मानवीय विद्या है।
3. यह तर्क संगत विद्या है - क्योंकि इसमें तथ्य एवं निष्कर्ष प्रमाण पर आधारित होते हैं।
4. यह अतीत के आलोक में भविष्य पर प्रकाश डालता है, अतः शिक्षाप्रद विद्या है।
5. इतिहास का लक्ष्य प्राकृतिक या भौतिक लक्ष्य की प्रक्रिया का परिवर्तन करना है।
महाभारत में कहा गया है
इतिहास अतीत का एक ऐसा वृत्त होता है जिस के माध्यम से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का उपदेश
दिया जा सकता है। “धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम्। पूर्ववृत्तं
कथायुक्तमितिहासं प्रचक्षते ।
हीरोद्योतस का मानना था
कि “इतिहास परिवर्तन की प्रक्रिया है, उससे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक सत्ता अपने चरम उत्कर्ष
पर पहुँच कर अन्त में अपकर्ष की ओर अग्रसर हो जाती है"।
हेनरी जॉनसन के अनुसार
अतीत की प्रत्येक घटना इतिहास की कोटि में आती है। उनके अनुसार “इतिहास विस्तृत
रूप में वह प्रत्येक घटना है जो कि कभी घटित हुई । ” परन्तु क्योंकि अतीत की कुछ
घटनाओं का संबंध पशु जगत से होता है अतः जॉनसन की यह परिभाषा अतिवादी कोटि की
परिभाषा कही जाती है।
सर चार्ल्स फर्थ –
“इतिहास मनुष्य के समाज में जीवन का, समाज में हुए परिवर्तनों का समाज के कार्यों को निश्चित
करने वाले विचारों का तथा उन भौतिक दशाओं का, जिन्होंने उसकी प्रगति में सहायता की, का लेखा जोखा है।"
इम्यूनल काण्ट (1724-1804) “प्रत्यक्ष जगत में
वस्तुओं का विकास उसके प्राकृतिक इतिहास के समकक्ष रहता है। बाह्य प्रगति उन
आंतरिक शक्तियों की कलेवर मात्र होती है, जो एक निश्चित नियम के अनुसार मानव जगत में कार्यशील रहती
है। ” काण्ट की परिभाषा में गहन दार्शनिकता का भाव मिलता है। दरअसल काण्ट के
अनुसार जिस प्रकार समस्त मानव जीवन का बाह्य विधान नियमों से बद्ध रहता है वैसे ही
मनुष्य का ऐतिहासिक जीवन (इतिहास) भी आंतरिक प्रवृत्तियों द्वारा परिचालित होता
है।
रैपसन -“घटनाओं अथवा
विचारों का अति से सम्बद्ध विवरण ही इतिहास है।" रैपसन की यह परिभाषा इतिहास
की आंतरिक बुनावट में घटित घटनाओं की पारस्परिक तारतम्यता को उद्घाटित करती है।
टॉमस कार्लाइल - “इतिहास
असंख्य जीवन-वृत्तों का सार हैं।”
आर.जी.कांलिंगवुड
-”इतिहास समाजों में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों एवं उपलब्धियों की कहानी है।”
साथ ही कांलिंगवुड ने यह भी लिखा है "सम्पूर्ण इतिहास विचारधारा का इतिह होता
है।”
ई. एच. कार - इतिहास को
तटस्थ क्रिया न मानकर इतिहासकार एवं तथ्यों के मध्य व्याप्त जीवंत प्रक्रिया के
रूप में देखते हैं। कार का यह कहना कि तथ्य स्वयं नहीं बोलते अपितु विज्ञ
इतिहासकार उनसे (तथ्यों से) अभीष्ट बुलवाता है - सही है। ई. एच) कार ने लिखा है कि
वास्तव में इतिहास, इतिहासकार एवं
तथ्यों के बीच अर्न्तक्रिया की अविछिन्न प्रक्रिया तथा वर्तमान और अतीत के बीच
अनवरत परिसंवाद है।
"भारतीय साहित्य में 'इतिहास' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग
'अथर्ववेद' में प्राप्त होता हैं
तदन्तर यह शब्द शतपथ ब्राह्मण, जैनिनीय, बृहदारण्यक तथा छान्दोगोपनिषद में प्रयुक्त हुआ है।
'छान्दोग्योपनिषद' के अनुसार इतिहास का विषय
निम्नलिखित है - "
आध्यादि बहुत्याख्यानं देवर्षिचरिताश्रयम्।
इतिहासमिति प्रोक्तंभविष्याद्युतधर्मयुक।।”
प्रस्तत परिभाषाओं के विश्लेषण से यह बात आसानी से जानी जा सकती है कि इतिहास को लेकर दुनिया भर के विद्वानों ने कितना विचार-विमर्श किया है। इकाई के आगे आने वाले भागों में आप इतिहास की परम्परा के दो धुरखों का परिचय प्राप्त कर सकेंगे। इतिहास के आधुनिक स्वरूप का विकास पश्चिम में अवश्य हुआ परन्तु इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि भारतीय विद्वानों के पास ऐतिहासिक-दृष्टि का अभाव रहा है। इस संशय का शमन भी इकाई के अगले भागों में जाएगा। परिभाषाएँ किसी भी विषय को समझने के लिए आधार भूमि का काम करती है परन्तु समय के साथ-साथ बड़ी-बड़ी परिभाषाएँ भी अपूर्ण हो जाती है। इतिहास स्वयं में एक जीवन प्रक्रिया है अतः परिभाषाओं के आधार पर उसे बहुत मोटे तोर पर समझे जाने का प्रयास तो किया जा सकता है परन्तु समग्र तौर पर समझा नहीं जा सकता। अतः परिभाषाओं का मोह त्याग कर हम इतिहास की आंतरिक बनावट पर अपनी दृष्टि केन्द्रित करने का प्रयत्न करते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में सबसे
पहले जिस प्रश्न से हमारा सामना होता है वह प्रश्न है कि इतिहास अपनी आंतरिक
प्रक्रिया में विज्ञान है अथवा कला ?
इतिहास : विज्ञान अथवा कला
किसी भी अन्य अनुशासन की
तरह ही इतिहास के अध्ययन की भी अपनी कुछ समस्याएँ है। इन्हीं समस्याओं से जुझते
हुए विभिन्न विद्वानों ने इतिहास एवं उसके दर्शन की व्याख्या की है। सर्वप्रथम यह
सुनिश्ति करने का प्रयास किया गया है कि अपनी आंतरिक प्रगति के आधार पर इतिहास को
विज्ञान माना जाए अथवा कला। इस प्रश्न का एक- रेखीय उत्तर देना कठिन एवं कई तरह से
अव्यवहारिक माना गया है तथा इतिहास को कला एवं विज्ञान को गुणों से समन्वित
अनुशासन बताया गया है। विभिन्न विद्वानों ने इतिहास को अलग-अलग कारणों के चले 'कला' एवं 'विज्ञान' की कोटी में रखा है।
परन्तु बहुत स्पष्ट रूप से 'इतिहास' को मात्र 'कला'
अथवा मात्र 'विज्ञान' कहना उचित नहीं कहा जा
सकता। इतिहास के भीतर कलात्मकता की जिनती आवश्यता है उतनी ही आवश्यता वैज्ञानिक
वस्तुनिष्ठता की भी है। इस संबंध में यह स्वीकार करते हुए भी कि इतिह की आंतरिक
प्रकृति में कलात्मकता का विशेष पुट होता है यह कहा जा सकता है इतिहास की प्रकृति
विज्ञान के बहुत अधिक समीप है। ” फिर भी एव वैज्ञानिक व इतिहासकार के मध्य यह कुछ
अन्तर हैं - प्रथम के पास एक प्रयोगशाला होती हैं जबकि दूसरे के पास पुस्तकालय ।
वैज्ञानिक निर्णय, संक्षिप्त ओर
अपरिवर्तनीय होते हैं जबकि इतिहासकार के निर्णय लचीले और विषय परक होते हैं।
वैज्ञानिक, प्रतीकों और
ग्राफों का प्रयोग करता है जबकि इतिहासकार का कार्य वर्णन और व्याख्या पर निर्भर
होता है। वैज्ञानिक, वस्तुनिष्ठ होता
है किन्तु इतिहासकार विषयपरक है। वैज्ञानिक विश्व पर लागू होने वाले नियमों को
बनाता है किन्तु ऐतिहासिक नियम सदैव त्रुटिपूर्ण होते हैं। इतिहास और विज्ञान का
मिल इस दृष्टि से एक है कि दोनों आंकड़ों के संकलन के लिए एक ही पद्धति को अपनाते
हैं और दोनों का अंतिम ध्येय सत्य की खोज करना है। "
इतिहास लेखन की पाश्चात्य परम्परा
जैसा कि पहले बताया जा
चुका है कि इतिहास लेखन की परम्परा का आरम्भ ग्रीक विद्वान हीरोद्योत्तस (484-425 ई. पू.) से हुआ था। इसी
समय एक अन्य पाश्चात्य इतिहासविद का नाम भी सामने आता है, जिसे थूसीडॉइड्स (471-401 ई.पू.) के नाम से जाना
जाता है। हीरोद्योत्तस ने ग्रीक और पारसियों, पश्चिम तथा पूर्व, एशिया तथा यूरूप के कुछ महत्वपूर्ण युद्धों, उन जातियों की जीवन
पद्धतियों इत्यादि का महत्वपूर्ण उल्लेख अपनी कृतियों में किया था। अपनी कुछ
आंतरिक त्रुटियों के बावजूद थूसीडाइड्स ने ऐथेन्स और स्पाटा के बीच हुए विश्व
प्रसिद्ध 'पेलोपोनेशियन' युद्ध का सटीक इतिहास
लेखन किया था। इनके उपरांत रोम निवासी पौलीबियस (204-122 ई. पू.) केटा (ई.पू. 160 के लगभग) जूलियस सीजर (ई.पू.
51 ), लीवी (ई.पू. 59 से 17 ) टैसीटस कॉन्स्टैन्टाइन (306 337 ई.) तथा 'सिवितास दाई' के लेखक 'सेंट ऑगस्टाइन' का नाम पाश्चात्य इतिहास
दर्शन के इतिहास में महत्वपूर्ण है।
यूरोपीय इतिहास लेखन के मध्य युग में हमें इतिहास लेखन की दो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती है एक तरफ सेंट आगस्टाइन की तटस्थ इतिहास लेखन पद्धति है तो दूसरी तरफ, थूसेबियस, सुकरात, सोजोमेन, थियोडोरेट, फैसिओडोरस जैसे इतिहास लेखकों की इतिहास पुस्तकें प्राप्त होती हैं जिनके विचार, धार्मिक विचार पद्धति पर आधारित होते थे. यूरोप में इतिहास लेखन के विकास का विश्लेषण करते हुए डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने लिखा है "धार्मिक एवं साम्प्रदायिक संघर्ष के फलस्वरूप इतिहास लेखन को तो प्रोत्साहन प्राप्त हुआ हो, साथ ही कुतुबनुमा जैसे वैज्ञानिक आविष्कार ने भी इस कार्य में सहायता प्रदान की। धार्मिक कारणों से ही किन्तु कुतुबनुमा की सहायता से लम्बी समुद्री यात्राएं की गई और भूमि भागों की खोज ने ईसा की 16वीं- 17वीं शताब्दियों में इतिहास अध्ययन की ओर अधिकाधिक ध्यान दिलाया ” इसी विश्लेषण को विस्तार देते हुए खोज के फलस्वरूप यूरोपीय देशों में जो सामाजिक और आर्थिक उथल-पुथल उत्पन्न हुई उससे ईसा की 16वीं - 17वीं शताब्दियों में ही जो संवैधानिक एवं प्रणयन को फिर एक नया आयाम प्राप्त हुआ। 18वीं सदी तक आते-आते यूरोप के भीतर राजनैतिक एवं धार्मिक संघर्ष अपनी अंतिम अवस्था भी पार कर शांत हो चला था अतः तत्कालीन इतिहास लेखन इन प्रभावों से अपने को मुक्त कर के ज्ञान एवं तथ्य की भूमि को आधार बनाकर विकसित होने लगा 'जिओवानी बातिस्ता वीचो (1668-1744) ने राजनैतिक युद्ध संघर्ष की मानसिकता से इतिहास लेखन को मुक्त कर के प्रथम बार समाज केन्द्रित इतिहास दृष्टि का विकास किया उसकी इस परम्परा को मांतेस्क्यू (1689-1755) ने विकसित किया। उसने अपनी रचनाओं द्वारा प्रकृति वैज्ञानिक की भाँति तटस्थ दृष्टिकोण ग्रहण कर इंगलैण्ड, फ्रांस और राम के विधानों के क्रमिक विकास का तुलनात्मक अध्ययन कर संस्थाओं और विचारों के विकास में जलवायु प्रमुख कारण माना, ” मांटेस्क्यू के पश्चात् यूरोपीय विद्वानों की एक लम्बी सूची इतिहास-लेखन के विकास में अपना योगदान देती रही। इस सूची के प्रमुख नाम निम्नलिखित हैं
वाल्तेयर (1694-1778), डेविड ह्यूम (1711-1776) विलियम रॉबर्ट्सन, माइकेल श्मिट (1736 1794) एडवर्ड गिबनर (1737-1794), अनाल्ड हीरेन ( 1760-1842), जे0जी0 फिटे (1762 1814), फ्रीड्रिख श्लेगेल (1772-1829), एफ ) डब्ल्यू) शेलिंग (1775-1854), फ्रीड्रिख हेगेल (1770-1831), हाइनरिख लिओ (1799-1878), कार्लाइल (1795-1881)। इस सम्पूर्ण परम्परा के
पश्चात् भी यूरोप के विभिन्न भागों में इतिहास-लेखकों की नवीन परम्पा का उद्भव एवं
विकास होता रहा। आगस्ट कॉम्टे, जस्टस मोसर, बार्थोल्ड नीबूर (1776-1831), लिओपोल्ड रैंके (1795 1886) एवं थिओडोर मॉमसेन, विलियम स्टब्स, जान रिचर्ड ग्रीन, जॉन आर0 सीले, सेम्युअल आर0 गार्डिनर, आर0जी0 कालिंगवुड, बरट्रेण्ड रसल का इस
संदर्भ में उल्लेखनीय है। इसके साथ साथ यूरोप के भीरत ही मार्क्स के विचारों के
आधार पर इतिहास की एक नया व्याख्या प्रस्तुत जाने लगी। कार्लमार्क्स, लुडविग फायरबाख, लोरिया, एश्ले, हैमण्ड्स, बोगार्ट आदि इतिहासविदों
इस परम्परा का क्रमशः उन्नयन किया।
इतिहास लेखन की भारतीय परम्परा
प्राचीन भारत के इतिहास
लेखन की परम्परा का अपना विशिष्ट चरित्र है। आधुनिक यूरोपीय इतिहास दृष्टि से अलग
भारतीय इतिहास को भी अपनी विशिष्ट पद्धति एवं प्रक्रिया है । प्राचीन भारतीय
दृष्टि आधुनिक इतिहास दृष्टि से मेल नहीं खाती इसलिए आधुनिक इतिहास दृष्टि को एक
मात्र 'इतिहास' दृष्टि मानने वाले बहुत
से विशेषज्ञों का मानना है कि प्राचीन भारतीय विद्वान या तो इतिहास लेखन को
महत्वहीन मानते थे अथवा प्राचीन भारत में इतिहास लेखन होता ही नहीं था।
डॉ. एच.सी. शास्त्री ने लिखा है, "प्राचीन भारतीयों ने इतिहास के प्रति विशेष ध्यान नहीं दिया क्योंकि वे अतीत तथा वर्तमान के भौतिक जीवन की अपेक्षा आगामी जीवन में रूचि रखते थे।” यह बात संभवतः कुछ हद तक सच हो सकती है परन्तु वास्तविक बात यह नहीं है। नि:संदेह प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन में अनेक समस्याएं थीं फिर भी प्राचीन भारतीय इतिहास लेखकों ने इस दिशा में निरन्तर प्रयास जारी रखे। इतिहास लेखन के प्रति भारतीयों की अरूचि के बाद भी यहाँ पर लेखन हेतु विशाल ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध थी जिसका विद्वानों ने समय-समय पर प्रयोग किया। इस संबंध में प्रोफेसर सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का कथन बहुत असंतग है कि प्राचीन भारत में श्रेष्ठ ऐतिहासिक साहित्य की रचना नहीं हुईं ऐतिहासिक महत्व के ग्रंथ किन्ही कारण वश खो गए हैं अथवा नष्ट हो गए हैं परन्तु यह संभावना उचित नहीं प्रतीत होती कि सभी ग्रंथ नष्ट हो गए हों। यदि कुछ ग्रंथ उस काल में लिखे गए होते तब उनका कोई न कोई संकेत अथवा संदर्भ बाद के लेखकों की कृतियों में अवश्य मिलता परन्तु इस तथ्य को लगभग सभी विद्वानों ने स्वीकार किया कि मुद्राओं, अभिलेखों कास्यं, प्लेटों और सिक्कों के रूप में प्राचीन इतिहास को जानने के महत्वपूर्ण साक्ष्य बहुत बड़ी मात्रा में आज भी उपलब्ध हैं।
प्राचीन भारत के इतिहास से संबंधित ग्रंथों को हम इस प्रकार विश्लेषित कर सकते है।
1. वेद -
प्राचीन भारतीय
साहित्य में वेदों का स्थान अप्रतिम हैं। वेद न केवल धार्मिक दृष्टि से सर्वोपरि
माने गए हैं अपितु अपनी विशद विषयवस्तु और गंभीरता के लिए विश्व साहित्य में अप
अलग स्थान रखते हैं। ये संख्या में चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद। यद्यपि इन वेदों का महत्व धार्मिक
एवं आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक है तब भी वैदिक भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं भाषिक
परिस्थितियों का दिग्दर्शन इनमें प्राप्त होता है। इन ग्रंथों से प्राचीन भारतीय
इतिहास की विपुल सामग्री प्राप्त की गई है तथा भविष्य में होने वाले शोधों से वेद
भारतीय इतिहास लेखन में और अधिक महत्वपूर्ण होकर उभरेंगे इस बात पर संशय की कोई
संभावना नहीं है।
2. ब्राह्मण ग्रंथ एवं उपनिषद -
वेदों के अतिरिक्त अन्य वैदिक साहित्य में निहित सामग्री को भी प्राचीन
भारतीय इतिहास लेखन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। धार्मिक एवं ऐतिहासिक रूप से
वेदांग एवं सूत्र साहित्य का अत्यधिक महतव है। उपनिषद एवं ब्राह्मण ग्रंथ इस
दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बहुत
3. महाकाव्य -
लौकिक संस्कृत
को दो महान महाकाव्यों की विषय वस्तु प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन की दृष्टि से
अत्यधिक महत्वपूर्ण है। आदिकवि वाल्मिकी प्रणीत 'रामायण' एवं महाकवि व्यास द्वारा लिखित ‘महाभारत' इस कोटी की सर्वोपरि
रचनाएँ है। इसके अतिरिक्त लौकिक संस्कृत साहित्य की कई महत्वपूर्ण रचनाएँ तत्कालीन
भारतीय समाज, राज्य, संस्थाओं, प्रशासकों एवं सामान्य
जनों की रीति-नीति एवं प्रबंधन की अत्यावश्यक ऐतिहासिक सामग्री से ओत-प्रोत है।
4. पुराण -
इनकी कुल संख्या 18 है. हांलाकि उप-पुराणों
की संख्या बहुत अधिक है। इस साहित्य की विषय-वस्तु भी प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन
की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
5. जैन तथा बौद्ध साहित्य -
प्राचीन भारत के दो महान धर्मों से संबंधित ग्रंथों का महत्व न केवल धार्मिक रूप में है अपितु इतिहास लेखन की सामग्री के रूप में भी जैन एवं बौद्ध साहित्य का स्पष्ट है। जैन एवं बौद्ध धर्म से संबंधित साहित्यिक एवं अन्य अनुशासनपरक सामग्री का उपयोग आरम्भ से लेकर अब तक इतिहास लेखकों ने निरंतर किया है। अब तक इतिहास लेखकों ने निरंतर किया है। जैन धर्म के अंतर्गत भद्रबाहु चरित, नेमिनाथ चरित, पउम चरिउ, महापुराण, कथाकोश इत्यादि तथा बौद्ध धर्म के अन्तर्गत (क) पिटक (ख) जातक (ग) निकाय, इन तीन अंगों का साहित्य आज उपलब्ध है। बौद्ध पिटक साहित्य के अन्तर्गत तीन महत्वपूर्ण अंग हैं (1) विनय पिटक (2) सुत्त पिटक (3) अभिधम्म पिटक । जातक साहित्य में बुद्ध के पूर्व जन्मों का वर्णन मिलता है। बौद्ध धर्म से संबंधित अधिकांश साहित्य पाली भाषा में उपलब्ध है। परन्तु परवर्ती काल में संस्कृत भाषा में भी बौद्ध धर्म से परिचालित बहुत सा साहित्य प्राप्त हुआ है। इन दोनों ही धर्मों का यह प्राप्त साहित्य प्राचीन भारत के इतिहास लेखन के अत्यधिक महत्व के इतिहास लेखन के अत्यधिक महत्व रखता है।
प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ
आज इतिहास लेखकों के पास प्राचीन भारतीय विद्वानों द्वारा लिखित अकृत साहित्य
उपलब्ध है जिसका उपयोग भारतीय इतिहास लेखन के लिए किया जाता रहा है। साहित्य, दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य, कला, संगीत आदि अनुशासनों से
संबंधित अनेकानेक महत्वपूर्ण ग्रंथों को इस कोटी में रखा जा सकता है। इनमें से
प्रमुख ग्रंथ निम्नलिखित हैं
1. अष्टाध्यायी -( व्याकरण ग्रंथ आचार्य पाणिनि )
2. महाभाष्य- ( व्याकरण ग्रंथ आचार्य पंतजलि)
3. अर्थशास्त्र - (राजनैतिक एवं आर्थिक ग्रंथ आचार्य कौटिल्य)
4. कामसूत्र - (ललित ग्रंथ - आचार्य वात्स्यायन)
साथ ही महाकवि कालिदास, भवभूति, भारवि, श्रीहर्ष, बाणभट्ट, राजशेखर कल्हण, मास, विल्हण, जगन्नाथ आदि अनेकानेक
कवियों, काव्यशास्त्रियों, विचारकों एवं साहित्यिकों
द्वारा लिखित रचनाओं का उपयोग प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन में निरंतर सहायता
प्रदान करता है। इनके अतिरिक्त मध्यकालीन प्रादेशिक बोलियों एवं भाषा में लिखा गया
अकूत साहित्यिक भण्डार भी प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत के इतिहास लेखन के आवश्यक
सामग्री उपलब्ध कराता रहा है। महाकवि चंदबरदायी, कबीर, सूरदास, नामदेव, तुकाराम आदि अनेक कवि एवं साहित्यिकों के ग्रंथ इस कोटी में
रखे जा सकते हैं।
कल्हण -
कल्हण प्राचीन
भारत का एक प्रसिद्ध इतिहासकार है। कल्हण का संबंध वर्तमान कश्मीर से है। वह एक
विद्वान कश्मीरी ब्राह्मण था । माना जाता है कि कल्हण के विद्वान पिता 'कण्पका' कश्मीर के यशस्वी राजा
हर्ष के दरबार में मंत्री था। कल्हण द्वारा लिखित विश्वप्रसिद्ध ज्ञानकोश ग्रंथ
नाम राजतरंगिणी (1148 ई.) था। इस
ज्ञानकोश का लेखन कल्हण द्वारा दो वर्ष के अथक परिश्रम के पश्चात् किया गया। मूलतः
कश्मीर पर लिखे गए इस ग्रंथ का महत्व अन्ततः सम्पूर्ण भारतीय इतिहास लेखन में
अक्षुण्ण रहेगा।
मध्यकाल के अन्य सहायक ग्रंथ -
मध्यकालीन भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के प्रसिद्ध अन्वेषक महीबुल हसन ने कहा है, "मध्युगीन इतिहासकारों ने अपने उद्योग को गम्भीरता से लिया और इतिहास के उच्च विचार को बनाए रखा। उदाहरण के तौर पर, बरनी इतिहास और इल्म-उल हदीस को समतुल्य मानता था और विश्वास करता था कि इतिहासकार को सत्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए और अतिश्योक्ति तथा शब्दों की वृथा भाषा से परहेज रखना चाहिए । लेकिन दुर्भाग्यवश, अधिकांश मध्यकालीन इतिहासकार दरबार से संबंध रखते थे, उन्होंने केवल वह ही नहीं लिखा जो उन्हें उपयुक्त अनुभव हुआ वरन् अपने संरक्षकों को उनकी प्रशंसा के लेखों तथा काव्यों से तुष्ट भी किया।” तटस्थ कवियों एवं साहित्यिक विद्वानों के अतिरिक्त मध्यकाल के बहुत से दरबारी कवियों, विद्वानों एवं इतिहासकारों ने अनेक ऐसी इतिहास परक पुस्तकों की रचना की जिनका उपयोग प्राचीन एवं मध्कालीन इतिहास लेखन के आवश्यक है। यह सामग्री अरबी तथा फारसी में उपलब्ध है जिनमें से कुछ प्रमुख पुस्तकों का अनुवाद हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य प्रादेशिक एवं विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है।
इस प्रकार की प्रमुख
पुस्तकें निम्नलिखित है
1. तबकात-ए-नासिरी मिनहाज उस सिराज़
2. तारीख-ए-मुहम्मदी - मुहम्मद बिहमद खानी
3. तारीख-ए-मुबारक शाही - याहा बिन अहमद
4. सीरत-ए-फिरोजशाही-शम्स सिराज अफीफ
5. तारीख-ए-फिरोजशाही - शम्स सिराज अफीफ
6. ताज उल मासिर हसन निजामी
7. तुगलकनामा- अमीर खुसरो
8. फुतुह उल सलातीन - इसामी
9. शाहनामा फिरदौसी
10. तहकीक-ए-हिंद - अलबरूदी
11. आइन-ए-सिकन्दरी - अमीर खुसरों
12 . तारीख-ए-इलाही - अमीर खुसरो
13. सान-ए-मुहम्मदी - जियाउद्दीन बरनी
14. तारीख-ए-फिरोजशाही - जियाउद्दीन बरनी
15. रहेला - मुहम्मद बिन मुहम्मद 'इब्नबतूता'
16. जफरनामा- शराफुद्दीन अली याजदी
17. तारीख - ए - दाऊदी- अब्दुलाह
इन प्रमुख इतिहास ग्रंथों के अतिरिक्त अनेक मध्यकालीन मुस्लिम ग्रंथों के अतिरिक्त अनेक मध्यकालीन मुस्लिम विद्वानों ने ऐसी बहुत पुस्तकों का प्रणयन कया है जो प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति, धर्म, अर्थ तथा जीवन-पद्धतियों का दिग्दर्शन कराती है। भारतीय इतिहास लेखन परम्परा में इन प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रंथों का महत्व सदा बना रहेगा।