हिंदी साहित्येतिहास लेखन एवं नामकरण की समस्या | Hindi Sahitya Itihaas Lekhan Me NaamKaran Ki Samsya

Admin
0

हिंदी साहित्येतिहास लेखन एवं नामकरण की समस्या

हिंदी साहित्येतिहास लेखन एवं नामकरण की समस्या | Hindi Sahitya Itihaas Lekhan Me NaamKaran Ki Samsya


 

हिंदी साहित्येतिहास: नामकरण की समस्या 

 

हिंदी साहित्येतिहास लेखन एवं नामकरण की समस्या-  प्रस्तावना

 

यह स्नातकोत्तर स्तर प्रथम प्रश्न पत्र, खण्ड एक की 'हिंदी साहित्य के इतिहास का स्वरूप एवं प्रक्रिया' की तीसरी इकाई है। इससे पूर्व के अध्ययन में आपने इतिहास एवं साहित्येतिहास की सम्पूर्ण प्रक्रिया एवं अन्तर्संबंधों की पृष्ठभूमि में हिंदी साहित्येतिहास की सम्पूर्ण परम्परा का परिचय प्राप्त किया।


हिंदी साहित्येतिहास : प्रमुख समस्याएं

 

काल विभाजन एवं नामकरण साहित्य के इतिहास की महत्वपूर्ण समस्याएं हैं। इनके आधार सामान्यतः इस प्रकार माने गए है:

 

1. ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार : आदिकाल, मध्यकाल, संक्रांति-काल आधुनिक काल आदि। 

2. शासक और उसके शासन काल के अनुसार: ऐलिजाबेथ युग, विक्टोरिया-युग, मराठा - युग आदि. 

3. लोकनायक और उसके प्रभाव-काल के अनुसार: चैतन्यकाल (बांग्ला ) गांधी-युग (गुजराती) आदि। 

4. साहित्य नेता एवं उसकी प्रभाव-परिधि के आधार पर रवीन्द्र युग, भारतेन्दु-युग आदि। 

5. राष्ट्रीय, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक घटना या आंदोलन के आधार पर भक्तिकाल, पुनर्जागरण काल, सुधार- काल युद्धोत्तर काल ( प्रथम महायुद्ध के बाद का काल )  स्वातन्तयोत्तर काल आदि।

6.  साहित्यिक प्रवृत्ति के नाम पर : रोमानी युग, रीतिकाल, छायावाद युग आदि। 

 

इस प्रसंग में पहला प्रश्न तो यही है कि इस प्रकार के विभाजन की आवश्यकता क्या है ? इसका स्तर स्पष्ट है और वह यह है वस्तु के समग्र रूप का दर्शन करने के लिए भी उसके अंगों का ही निरीक्षण करना पड़ता है। हमारी दृष्टि शरीर के विभिन्न अवयवों का अवलोकन करती हुई सम्पूर्ण व्यक्तित्व का दर्शन करती है। अवयवों को पृथक मानकर उनका निरीक्षण करना खण्ड-दर्शन है, किन्तु उनको व्यक्तित्व का अंग मानकर देखना समग्र दर्शन है और यही सहज विधि है क्योंकि निखयव रूप का दर्शन अपने आप में कठिन है। इसके अतिरिक्त जीवन या साहित्य को अखण्ड प्रवाह रूप मानने पर भी इस बात से तो इंकार नहीं किया जा सकता कि उसमें समय-समय पर दिशा परिवर्तन और रूप परिवर्तन होता रहता है। दृष्टि की अपनी सीमाएं होती हैं। वह सभी कुछ एक साथ नहीं देख सकती, इसलिए अंगों पर होती हुई ही अंगी का अवलोकन करती है। अतः यह बात बराबर ध्यान में रखते हुए कि साहित्य की अखण्ड परम्परा का निरूपण ही इतिहास का लक्ष्य है, समय-समय पर उपस्थित दिशा-परिवर्तनों और रूप-परिवर्तनों के अनुसार विकास क्रम का अध्ययन करना न सिर्फ गलत नहीं है, बल्कि जरूरी भी है।

 

यहाँ दूसरा 'विचारणीय प्रश्न यह है कि काल विभाजन का सही आधार क्या हो सकता है ? वर्ग विभाजन प्रायः समान प्रकृति और प्रवृत्ति के आधार पर किया जाता है। समान प्रकृति के अनेक पदार्थ मिलकर एक वर्ग बनाते हैं और इस प्रकार समप्रकृति के आधार पर किया जाता है। समान प्रकृति के अनेक पदार्थ मिलकर एक वर्ग बनाते है और इस प्रकार समप्रकृति के आधार पर अनेक वर्गों में विभक्त होकर अस्त-व्यस्त समूह व्यवस्थित रूप धारण कर लेता है। जिस प्रकार प्रवाह के अन्दर अनेक धाराएं होती है, उसी प्रकार साहित्य में भी अनेक प्रवृत्तियाँ होती है और इन प्रवृत्तियों का आदि-अन्त या उतार-चढ़ाव ही इतिहास का काल विभाजन अर्थात् विभिन्न युगों की सीमाओं का निर्धारण करता है यह वर्ग विभाजन परिपूर्ण नहीं हो सकता, इसका रूप प्रायः स्थूल और आनुमानिक होता है, फिर भी समूह का पर्यवेक्षक करने में इससे बड़ी सहायता मिलती है। काल विभाजन का आधार भी समान प्रकृति और प्रवृत्ति ही होती है। जन जीवन का प्रवृत्तियों व रीति रिवाजों की समानता के आधार पर सामाजिक इतिहास का काल विभाजन होता है और राजनीतिक परिस्थितियों की समानता राजनीतिक इतिहास के काल विभाजन का आधार बनती है इसी प्रकार साहित्यिक प्रवृत्तियों और रीति- आदर्शों का साम्यवैषम्य ही साहित्य के इतिहास के काल विभाजन का आधार हो सकता है। समान प्रकृति और प्रवृत्तियों की रचनाओं का कालक्रम से वर्गीकृत अध्ययन कर साहित्य का इतिहासकार सम्पूर्ण साहित्य सृष्टि का समवेत अध्ययन करने का प्रयत्न करता है।

 

इसी प्रकार नामकरण के पीछे भी कुछ न कुछ तर्क अवश्य रहता है अथवा रहना चाहिए। नाम की सार्थकता इसमें है कि वह पदार्थ के गुण अथवा धर्म का मुख्य तथा द्योतन कर सके। इस तर्क से किसी कालखण्ड का नाम ऐसा होना चाहिए जो उसकी मूल साहित्य चेतना को प्रतिबिम्बित कर सके। शासक के नाम पर भी कालखण्ड का नामकरण तभी मान्य हो सकता है या हुआ है जब उस शासक - विशेष के व्यक्तित्व ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रीति से साहित्य की गतिविधि को प्रभावित किया है। उधर साहित्यिक नेता भी युग विशेष की साहित्यिक चेतना का प्रतिनिधि होने पर ही इस गौरव का अधिकारी होता है। शेक्सपियर, रवीन्द्रनाथ या भारतेन्दु व्यक्ति न होकर संस्था थे युग निर्माता थे, जिनके कृतित्व ने अपने-अपने युग की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियों को प्रभावि किया था। राष्ट्रीय महत्व की घटना जैसे महायुद्ध, भारतीय स्वतन्त्रता की घोषणा अथवा किसी व्यापक आन्दोलन या प्रवृत्ति के अनुसार नाम की सार्थकता और भी अधिक स्पष्ट है: भक्ति, पुनर्जागरण अथवा राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव जितना समाज पर था उतना साहित्य पर भी । और अंत में साहित्यिक प्रवृत्ति के विषय में तो कहना ही क्या ? उनके अनुसार नामकरण की सार्थकता स्वतः सिद्ध है। कहने का अभिप्राय यह है कि साहित्य के इतिहास में नामकरण का मूल आधार है - काल विशेष की साहित्यिक चेतना का प्रतिफलन, जिसका माध्यम सामान्यतः उस युग की सर्वप्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति ही हो सकती है। काल विभाजन एवं नामकरण में एकरूपता अनिवार्य नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि काल विभाजन विवके सम्मत हो, जो साहित्य की परम्परा को सही रूप में समझने में सहायक हो। साथ ही, नाम भी ऐसा होना चाहिए जो युग की साहित्य चेतना का सही ढंग से प्रतिफलन करता हो, यदि साहित्यिक नामकरण से भ्रान्ति उत्पन्न होती हो तो अन्य उचित आधार ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस सम्पूर्ण संक्षिप्त विश्लेषण के आधार पर अध्ययन की सुविधा के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं को प्रस्तुत किया जा सकता है -

 

1. काल-विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों और रीति- आदर्शों की समानता के आधार पर होना चाहिए। 

2. युगों का नामकरण यथासंभव मूल साहित्य चेतना को अधार मानकर साहित्यिक प्रवृत्ति के अनुसार करना चाहिए किन्तु जहाँ ऐसा नहीं हो सकता वहाँ राष्ट्रीय-सांस्कृतिक प्रवृत्ति को आधार बनाया जा सकता है। या फिर कभी-कभी विकल्प न होने पर निर्विशेष कालवाचक नाम को भी स्वीकार किया जा सकता है। नामकरण में एकरूपता काम्य है, किन्तु उसे सायास सिद्ध करने के लिए भ्रांतिपूर्ण नामकरण उचित नहीं है। 

3. युगों का सीमांकन मूल प्रवृत्तियों के आरम्भ और अवसान के अनुसार होना चाहिए जहाँ साहित्य के मूल स्वर अथवा उसकी मूल चेतना में परिवर्तन लक्षित हो और नए स्वर एवं चेतना का उदय हो, वहाँ युग की पूर्व सीमा और जहाँ वह समाप्त होने लगे, वहाँ उत्तर सीमा माननी चाहिए।


हिंदी साहित्येतिहास : नामकरण की समस्या 

आचार्य शुक्ल ने हिंदी-साहित्य के इतिहास को चार कालों में विभाजित किया। 

1. वीरगाथा काल 

2. भक्ति काल 

3. रीतिकाल 

4. आधुनिक काल

 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जार्ज ग्रियर्सन और मिश्रबंधुओं से कुछ संकेत अवश्य ग्रहण किए हैं, परन्तु काल विभाजन और नामकरण की अन्तिम तर्क पुष्ट व्याख्या उनकी अपनी है। इनमें से भक्तिकाल और आधुनिक काल को तो यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, परन्तु वीरगाथाकाल और रीतिकाल के विषय में विवाद रहा है। 'वीरगाथा -काल' नाम के विरूद्ध अनेक आपत्तियाँ की गई हैं जिनमें प्रमुख यह है कि जिन वीरगाथाओं के आधार पर शुक्ल जी ने यह नामकरण किया है, उनमें से कुछ अप्राप्य है और कुछ परवर्ती काल की रचनाएं हैं। इनके अतिरिक्त जो साहित्य इस कलावधि में लिखा गया है उसमें सामन्तीय और धार्मिक तत्वों का प्राधान्य होने पर भी कथ्य और माध्यम के रूपों की ऐसी विविधता और अव्यवस्था है कि किसी एक प्रवृत्ति के आधार पर उसका सही नामकरण नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में आदिकाल- जैसा निर्विशेष नाम, जो भाषा और साहित्य की आरम्भिक अवस्था मात्र का द्योतक करता है, विद्वानों को अधिक मान्य है - और मैं समझता हूँ कि इसका कोई विकल्प नहीं है। 'रीतिकाल' के विषय में मतभेद की परिधि सीमित है। वहाँ विवाद का विषय इतना ही है कि उस युग के साहित्य में रीति-तत्व प्रमुख है या श्रृंगार-तत्व प्राचुर्य दोनों का ही है, पर इन दोनों में भी अधिक महत्व किसका है ? हमारा विचार है कि जिस युग में रीति-तत्व का समावेश श्रंगार में ही नहीं, भक्तिकाव्य और वीर-काव्य में भी हो गया था अथवा यह कहें कि जीवन का स्वरूप ही बहुत-कुछ रीतिबद्ध हो गया था उसका नाम 'रीतिकाल' ही अधिक समीचीन है। इसके विकल्प 'श्रंगारकाल' में अतिव्याप्ति है, क्योंकि श्रृंगार का प्राधान्य तो प्रायः सभी युगों में रहा है: वह काव्य का एक प्रकार से सार्वभौम तत्व है, अतः उसके आधार पर नामकर अधिक संगत नहीं होगा। इस युग का श्रृगांर रीतिबद्ध था, अतः रीति ही यहाँ प्रमुख है।

 

आधुनिक काल को शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभाजित किया है और उन्हें प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय उत्थान कहा है। प्रथम और द्वितीय उत्थान के विषय में उन्होंने यह संकेत भी कर दिया है कि इन्हें क्रमशः भारतेन्द्र-काल' और 'द्विवेदी काल' भी कहा जाता है। तीसरे उत्थान को कदाचित उसके प्रवाहमय रूप के कारण, उन्होंने कोई नाम नहीं दिया। पहला काल खण्ड जीवन और साहित्य में पुनर्जागरण का युग था, जब अतीत की गौरव-भावना के परिप्रेक्ष्य में नवजागरण की चेतना विकसित हो रही थी अतः इसे 'पुनर्जागरण - काल' नाम दिया जा सकता है और चूंकि भारतेन्दु के व्यक्तित्व और कृत्तिव में, जिन्होंने अपने जीवन काल में इस युग का नेतृत्व किया और जिनका प्रभाव मरणोपरांत भी बना रहा, यह चेतना सम्यक प्रतिफलित हो रही थी, इसलिए इसका नामकरण उनके नाम पर करने पर भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती। प्रायः इसी पद्धति और युक्ति से द्वितीय उत्थान का नामकरण भी किया जा सकता है: उसे हम औचित्यपूर्वक 'जागरण-सुधार काल या विकल्पतः द्विवेदीयुगकह सकते हैं। तीसरे चरण की सर्वप्रथम साहित्य प्रवृत्ति है - छायावाद, अतः उसका उचित नाम छायावाद-काल ही हो सकता है। उसका परवर्ती काल हमारे अत्यन्त निकट हैं और उसकी मूल चेतना इतनी जल्दी-जल्दी बदल रही है कि किसी एक स्थिर आधार को लेकर उसका नामकरण नहीं किया जा सकता। आरम्भ में प्रगतिवाद का दौर था जो कुछ ही वर्षों में समाप्त हो गया। इसके कुछ बाद प्रयोगवाद का आविर्भाव हुआ जो थोड़े समय तक इसके समानान्तर चलकर 1953 के आसपास नवलेखन में परिणत हो गया।

 

हिंदी साहित्य का इतिहास नवलेखन के आगे भी अपनी प्रवृत्ति के आधार पर विकसित होता रहा। समसामयिक साहित्य, नई कविता, अकविता, समानांतर कविता एवं कहानी नाम से अनेक आंदोलन निरंतर चलते रहे। समकालीन साहित्य एवं उत्तर आधुनिक साहित्य जैसे नामकरण भी प्रयोग में आते रहे हैं। अध्ययन की सामान्य धारा को ध्यान में रखते हुए डॉ. गणपति चंद्र गुप्त ने हिंदी साहित्य के सम्पूर्ण इतिहासचक्र के निम्नलिखित नामकरण सरणी के रूप में प्रस्तुत किया है।

 

आदिकाल -सातवीं शती के मध्य से चौदहवीं शती के मध्य तक

भक्तिकाल -चौदहवीं शती के मध्य से सत्रहवीं शती के मध्य तक

रीतिकाल -सत्रहवीं शती के मध्य से उन्नीसवीं शती के मध्य तक। 

आधुनिक काल - उन्नीसवीं शती के मध्य से अब तक:

 

पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) 1987-1900 ई. 

जागरण सुधार काल (द्विवेदी काल) 1900-1918 ई. 

3. छायावाद काल (1918-1938 ई.) 

4. छायावादोत्तर काल 

(क) प्रगति-प्रयोग काल 1938-1953 ई. 

(ख) नवलेखन-काल 1953 ई. से अब तक

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top