हिंदी साहित्येतिहास लेखन : काल - विभाजन की समस्या
हिंदी साहित्येतिहास एवं काल - विभाजन- परिचय
हिंदी साहित्येतिहास एवं काल - विभाजन
हिंदी साहित्य के इतिहास की एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है। इस लंबी परम्परा का एक साथ अध्ययन न केवल असुविधाजनक है, अपितु असंभव सा भी लगता है। यही कारण है कि साहित्य के विकास में समय-समय पर जो परिवर्तन हुए और उन परिवर्तनों हुए और इन परिवर्तनों के समानान्तर जो जो धाराएं विकसित हुई, उनका विभाजन अध्ययन को सुगम बना देता है। काल विभाजन की आवश्यकता इसलिए भी है कि ऐसा करके हिंदी साहित्य के विकास की परंपरा को
भली-भांति समझा जा सकता
है और यह भी जाना जा सकता है कि कब कौन सी धारा किन कारणों से विकसित हुई और उसकी
परिणति किस रूप में हुई यह तथ्य है कि कोई भी काव्यधारा क समाप्त नहीं होती, उसके थोड़े बहुत चिन्ह
बराबर दिखते रहते हैं, किंतु प्रमुख
प्रवृत्तियों में परिवर्तन आ जाता है। हिंदी साहित्य के प्रारम्भिक इतिहास लेखकों
में गार्सा द तासी, शिवसिंह सेंगर, आदि के नाम लिये जाते हैं, किन्तु इन्होंने काल
विभाजन की ओर ध्यान नहीं दिया। सर्वप्रथम इस ओर ध्यान देने वाले विद्वानों में डॉ.
ग्रियर्सन का नाम आता है। उन्होंने अपने ग्रंथ 'द मॉडर्न वर्नाक्यूलर ऑफ हिन्दुस्तान' में काल-विभाजन का एक
प्रयास किया है। उनके ग्रंथ में दिए गए अध्याय विशेष के सूचक हैं, किन्तु विडम्बना यह रहीं
कि उनके बाद के इतिहास लेखकों पश्चात् मिश्र बन्धुओं ने ‘मिश्रबंधु विनोद' में हिंदी साहित्य की
लंबी परंपरा को पहले पाँच भागों में विभाजित किया और बाद में उन्हें नौ कालखण्डों
में विभक्त कर दिया। मिश्रबंधुओं का यह प्रयास बाद के लेखकों को स्वीकार नहीं हुआ, क्योंकि यह अव्यवस्थित, अप्रामाणिक और आवश्यकता
से अधिक लंबा माना गया। ऐसी स्थिति में आचार्य शुक्ल सामने आए और उन्होंने पहली
बार एक व्यवस्थित काल-विभाजन प्रस्तुत करने का प्रयास किया। यद्यपि उनके काल
विभाजन में कतिपय त्रुटियाँ प्राप्त किए हुए है। काल-विभाजन की आवश्यकता और महत्ता
इस दृष्टि से भी है कि ऐसा करके ही हम हिंदी साहित्य की लंबी परंपरा का सम्यक् तथा
तटस्थ मूल्यांकन करने की ओर प्रवृत्त हो सकते हैं। काल- विभाजन कोई भी हो, यह निश्चित रूप से नहीं
कहा जा सकता कि किसी भी प्रामाणिक कहे जाने वाले काल-विभाजन में कोई त्रुटि नहीं
होगी । अध्येता के सामने अध्ययन की समस्या होती है। वह विकास की लंबी परंपरा को
स्पष्ट रूप से जानना और समझना चाहता है। उसकी यह इच्छा तभी पूर्ण हो सकती है जबकि
एक सुविधाजनक, सरल प्रमुख
बिन्दुओं को उभारने वाला काल विभाज सामने हो। यह तो नहीं कहा जा सकता कि कोई भी
काल विभाजन अपने आप में पूर्ण होगा और उसके बाद किसी और काल-विभाजन की आवश्यकता
नहीं पड़ेगी, किन्तु यह तो
माना ही जा सकता है कि काल-विभाजन ऐसा होना चाहिए जो परिस्थिति, प्रवृत्ति और रचनाकारों
की स्थिति को उजागर करता हो। इन्हीं सब कारणों से काल विभाजन की आवश्यकता और
महत्ता है और हमेशा रहेगी।"
काल विभाजन के आधार-
काल
विभाजन के अनेक आधार संभव हैं। कर्त्ता के नाम पर, प्रवृत्ति के नाम पर, शासक के नाम पर, साहित्यिकार के प्रभाव के
नाम पर और एक जैसी प्रवृत्ति की बहुलता 'के आधार पर नामकरण और काल विभाजन किया जा सकता है।
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि साहित्य की धारा में युगानुरूप प्रवृत्तिगत वैमिन्य भी
पाया जाता है। डॉ. हुकुमचन्द राजपाल कथन है कि विभिन्न प्रवृत्तियों का एक साथ
अध्ययन वैज्ञानिक भी बन जाता है। इसलिए साहित्यधारा को विभिन्न कालों में विभाजित
करके नामकरण करने की आवश्यकता होती है। अतः यह बात बराबर ध्यान में रखते हुए कि
साहित्य का अखण्ड परम्परा का निरूपण ही साहित्य का लक्ष्य है, समय-समय पर उपस्थित दिशा
परिवर्तनों और रूप परिवर्तनों के अनुसार विकासक्रम
अध्ययन करना एक अनिवार्य
आवश्यकता बन जाती है। इस आवश्यकता के अनुरूप हिंदी साहित्येतिहास के काल-विभाजन की
परंपरा विकसित हुई। हिंदी इतिहास लेखन परंपरा में काल विभाजन के विभिन्न आधारों
ऐतिहासिक काल क्रम तथा आदिकाल आदि, शासक और उनके शासनकाल क्रम यथा ऐलिजाबेथ, मराठा आदि, लोक नायक और उनके प्रभाव
कालक्रम अनुसार यथा चैतन्य काल, गांधी काल आदि साहित्य नेता एवं उसकी प्रभाव परिधि के
अनुसार भारतेन्दु द्विवेदी,
प्रसाद युग आदि, राष्ट्रीय सामाजिक अथवा
सांस्कृतिक आंदोलन आदि के अनुसार यथा- भक्तिकाल, पुनर्जागरण काल आदि, साहित्यिक प्रवृत्ति के
अनुसार यथा रीतिकाल, छायावाद, ,प्रगतिवाद आदि में से
समान प्रकृति और प्रवृत्ति के मुख्य आधार स्वीकारा गया है। इसके अनुसार साहित्यिक
प्रवृत्तियों और रीति- आदर्शों का स्तम्भ वैषम्य ही साहित्य के काल-विभाजन आधार हो
सकता है। समान प्रकृति और प्रवृत्ति की रचनाओं का कालक्रम से वर्गीकृत अध्ययन कर
साहित्य का इतिहासाकार सम्पूर्ण साहित्य सृष्टि का समवेत अध्ययन करने का प्रयास
करता है । फलत: हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में विभिन्न आधारों को लेकर एक
परंपरा विकसित हुई । "
हिंदी
साहित्येतिहास लेखन की सम्पूर्ण परम्परा का अध्ययन किया था तथा था कि हिंदी
साहित्य के इतिहास लेखन का प्रारम्भ पारसी विश्वविद्यालय में उर्द के प्रोफसर
गार्सा द तासी के फ्रेंच भाषा में लिखे ग्रंथ 'द इस्तवार द ल लितेरेत्यूर ऐंदुई ऐ ऐंदूस्तानी' के 1839 ई. में प्रकाशित प्रथम
भाग से हुआ था। 1847 ई. इसी ग्रंथ का
दूसरा भाग प्रकाशित हुआ था संस्करण के अंतर्गत तीसरा संस्करण 1870 ई. में प्रकाशित हुआ।
गास द तासी के सम्पूर्ण ग्रंथ को देखने के पश्चात् यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ
जाती है कि यह ग्रंथ अपनी भीतरी बुनावट के आधार पर इतिहास ग्रंथ नहीं माना जा सकता
। गास द तासी का यह ग्रंथ कालक्रमानुसार न होकर लेखकों के वर्णानुक्रम से है।
इस प्रकार यह बात स्पष्ट है कि हिंदी साहित्येतिहास के प्रथम ग्रंथ में लेखक काल विभाजन की समस्या से नहीं जूझा था। इसके पश्चात् आए दो महत्वपूर्ण इतिहास ग्रंथ ( 1 ) 'ए हिस्ट्री ऑफ उर्दू पोएम्स चीफली ट्रांसलेटेड फ्राम इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी' वाई. एफ ( फैलेन मौलवी करीमुद्दीन विथ ऐडिशन्सा देहली कॉलेज, 1848 एवं (2) शिवसिंह सेंगर कृत शिवसिंह सरोज (1878) भी इतिहास दृष्टि एवं काल विभाजन के संदर्भ में अनुल्लेखनीय ग्रंथ कहे जा सकते हैं
ग्रियर्सन द्वारा प्रतिपादित काल-विभाजन
इन ग्रंथों के पश्चात् सर्वप्रथम अंग्रेजी में अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन (जनवरी, 1851-मार्च, 1941) द्वारा लिखित 'द मॉर्डन वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑव हिन्दुस्तान' (1889) है। यह ‘‘पहला इतिहास ग्रंथ है जिसमें हमें काल-विभाजन मिलता है - भले ही हम उस विभाजन से सहमत न हों। किन्तु काल-विभाजन की दृष्टि से उसका बीजवपन करने वाला ग्रंथ होने की दृष्टि से, उसका ऐतिहासिक महत्व है। उसे कोरा कवि-नामावली ग्रंथ कहना लेखक के साथ अन्याय करना होगा। कुछ बातों की दृष्टि से हमें इस ग्रंथ का ऋण स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए। वैसे भी सर जॉर्ज ग्रियर्सन का नाम आधुनिक भारतीय साहित्य और भाषाओं के इतिहास में अमर रहेगा। ‘लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया' उनकी कीर्ति का जाज्वल्यमान स्तम्भ है। क्या हम भारतवासी कोई दसरा लिंग्विस्टिक सर्वे दे सके हैं ? इस समय उनके इतिहास ग्रंथ में दिया गया काल विभाजन विचारणीय है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में :
"The work is divided into
chapters, each roughly representing a period. The Sixteenth and Seventeenth
Centuries, the Augustan age of Indian Vernacular poetry, occupy six chapters,
not strictly divided according to groups of poets, commencing with the romantic
poetry of Malik Muhammad and including amongst others the Krishna Cult of Braj,
the works of Tulsi Das (To whom a special chapter has been allotted) and the
technical School of poets founded by Kesab Das” (भूमिका, पृ0 XV)
जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के अध्यायों का क्रम एवं काल विभाजन इस प्रकार है :
अध्याय 1. -The Bardic Period 700-1300 A.D, (वीरगाथा काल 700-1300 ई.)
अध्याय 2. -The Religious Revival of the fifteenth Centuary, (15वीं शताब्दी का धार्मिक जागरण)
अध्याय 3. -The Romantic Poetry of Malik Muhammad 1540 A.D, (मलिक मुहम्मद जायसी का प्रेमकाव्य, 1540 ई.)
अध्याय 4.- The Kishna Cult of Braj 1500-1600 AD,
(ब्रजभाषा का कृष्ण
अध्याय 6.- Tulsi Das (तुलसीदास)
अध्याय 7.- The Ars Poetica 1580-1692 A. D. (रीति काव्य, 1580-1692 ई.)
अध्याय 8.- Other Successors of Tulsi Das 1600-1700 A, D. Part I Religious Poets (तुलसीदास के परवर्ती कवि, 1600-1700 ई. भाग-1 धार्मिक कवि), Part II other Poests (भाग-2, अन्य कवि)
अध्याय 9.- The Eighteenth Century (अठारहवीं शताब्दी)
अध्याय 10.- Hindustan under the company 1800-1857 A. D. (कम्पनीकालीन हिन्दुस्तान, 1800-1857 ई.)
अध्याय 11.- Hindustan Under the Queen 1857-1887 A.D (साम्राजीकालीन हिन्दुस्तान, 1857-1887 ई.)”
‘'वास्तव में ग्रियर्सन ने शताब्दी - क्रम को अपने विभाजन और साहित्यिक प्रगति का मुख्य आधार माना है और उससे न तो विभिन्न युगों की मुख्य प्रवृत्ति स्पष्ट हो पाती है और न उस युग का समवेत रूप ही उभर पाता है। उसमें बिखराव है। "