हिंदी साहित्य नामकरण की समस्या : आदिकाल भक्तिकाल रीतिकाल आधुनिक काल |Hindi Sahitya Naamkran Ki Samsaya

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हिंदी साहित्य नामकरण की समस्या : आदिकाल भक्तिकाल रीतिकाल आधुनिक काल

हिंदी साहित्य नामकरण की समस्या : आदिकाल भक्तिकाल रीतिकाल आधुनिक काल
 

हिंदी साहित्य नामकरण की समस्या : आदिकाल

14वीं शताब्दी तक के अपभ्रंश साहित्य तथा अपभ्रंश प्रभावित कुछेक हिंदी रचनाओं की चर्चा हिंदी साहित्येतिहासिक की पूर्वपीठिका के रूप में होनी चाहिए ताकि हिंदी साहित्य के उद्भव तथा उसकी काव्य य-परंपराओं पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार संभव हो सकेकिन्तु इस काल को हिंदी साहित्येतिहासिक के एक स्वतंत्र के रूप में मान्यता देना तर्क संगत दिखाई नहीं देता। हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में जिस युग को हिंदी साहित्य का आदिकाल अथवा वीरगाथाकाल अथवा चारणकाल माना गया हैवह वस्तुतः अपभ्रंश भाषा के इतिहास का युग है। जनभाषा हिंदी (संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बोलियां) में साहित्य लेखन के छिटपुट प्रयत्न अवश्य होने लगे थे। डा. शिवकुमार ने सुझाव दिया है - यह युग हिंदी साहित्य के इतिहास की पूर्वपीठिका है न कि अपने आप में हिंदी साहित्य का एक दीर्घ युग। इसलिए इसको किसी नाम से संबंधित करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। यदि फिर भी कुछ विद्वान इन चार शताब्दियों के साहित्य को हिंदी का साहित्य मानने चाहें तो भी उन्हें इसे पुरानी हिंदी का साहित्य मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। उस दृष्टि से भी उस काल का विवेचन पुरानी हिंदी का साहित्य नामक शीर्षक के अन्तर्गत हिंदी साहित्य के इतिहास की भूमिका के रूप में ही होना चाहिए। इसके बावजूद इतिहासकारों ने हिंदी साहित्येतिहास के इस प्राथमिक उत्थान को आदिकाल कहना पसंद किया है।

 

हिंदी साहित्य के प्रथम युगजिसे हम आदिकाल वीरगाथाकाल आदि नामें से जानते है - का नामकरण एक विवादपूर्ण प्रश्न रहा है। सदैव ही साहित्येतिहासकार एवं अन्य विद्वान इस जटिल विवादपूर्ण प्रश्न अन्य विद्वान इस जटिल विवादपूर्ण प्रश्न को हल करते रहे हैं।

 

"भाषा के विद्वानों तथा इतिहासकारों ने जितना इस समस्या पर विचार किया हैउतना ही उलझाव पैदा किया है। कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश साहित्य को पुरानी हिंदी का साहित्य मानकर साहित्येतिहास के प्रथम युग का आरम्भ सातवीं अथवा आठवीं शताब्दी से मान लिया है। दूसरे वर्ग के विद्वान 1000 ई. के लगभग इस युग का आरम्भ मानने के पक्ष में हैं। तीसरा वर्ग उन विद्वानों का है जो खड़ी बोली को ही हिंदी के नाम से अभिहित करना चाहते हैंऔर ब्रजभाषा आदि के साहित्य को हिंदी साहित्येतिहास में स्थान देने के औचित्य की कटु आलोचना करते हैं। शिवदान सिंह चौहान ने विस्तार से इस समस्या पर विचार करते हुए सिद्ध करना चाहा कि हिंदी (सांस्कृतिनिष्ठ खड़ी बोली ) साहित्य का इतिहास भारतेन्दु हरिशचंद्र के पहले मौलिक प्रहसन वैदिकी हिंसा न भवति से आरम्भ होता है। वे लिखते हैं इस दृष्टि से देखे तो समूचे हिंदी (खड़ी बोली ) साहित्य का इतिहास अभ एक शताब्दी भी पार नहीं कर पाया।

 

इस प्रकार हिंदी के स्वरूप विस्तार का प्रश्न काफी टेढ़ा हो गया है। डा. नगेन्द्र ने ब्रजअवधीआदि भाषाओं को हिंदीसाहित्येतिहास के व्यापक रूप में प्रयुक्त किया है। उनके विचारानुसार हिंदी के विद्वान और अन्य भाषाविद प्रारम्भ से ही यह स्वीकार करते हुए आए हैं कि भारतवर्ष के जितने भू भाग में वर्तमान हिंदी या खड़ी बोली हिंदी सामाजिक व्यवहार अर्थात् पत्राचारशिक्षा-दीक्षासार्वजनिक आयोजन विचार-विनिमय तथा साहित्यिक अभिव्यक्ति आदि माध्यम भाषा हैवह सब का सब हिंदी प्रदेश है और उसके अन्तर्गत बोली जाने वाली सभी भाषाएं हिंदी की उपभाषाएं है।

 

हिंदी साहित्य के विभिन्न इतिहास- ग्रंथों में इस साहित्यिक परम्परा के प्राथमिक युग के नामकरण के बारे में कई मत प्रचलित हैं। सबसे अधिक विवाद आदिकाल के नामकरण के बारे में हैं। विभिन्न इतिहासकारों द्वारा प्रस्तावित नामकरण इस प्रकार हैं-

 

1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल -वीरगाथाकाल 

2.  चारणकाल- 

3. महावीर प्रसाद द्विवेदी -बीजवपनकाल 

4. राहुल सांकृत्यायान -सिद्ध सामंतकाल

5. डॉ. रामखेलावन पाण्डेय -संक्रमणकाल

6. मोहन अवस्थी - आधार काल 

7. डॉ. पृथ्वीनाथ कमल कुलश्रेष्ठ - अंधकार का 

8. डॉ. गणपति चंद्रगुप्त- प्रारंभिक काल

9. डा. रामशंकर शुक्ल 'रसाल'-बाल्यकाल 

10.शम्भुनाथ सिंह -प्राचीनकाल 

11. वासुदेव सिंह - उद्भव काल 

12. डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी- आदिकाल 

13. डा. रामप्रसाद मिश्र- संक्रांति काल 

14. डा. शैलेश जैदी- आविर्भावकाल

 

इस सब व्यवस्थित नामावली के अतिरिक्त अन्य विद्वानों ने भी हिंदी साहित्य के प्रथम युग के नामकरण की समस्या को हल करने का प्रयत्न किया है किन्तु सभी विश्लेषकों के प्रस्तावित नामों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा विश्लेषित नाम आदिकालसर्वमान्य है। 


हिंदी साहित्य नामकरण की समस्या : भक्तिकाल 

हिंदी साहित्येतिहास में 14वीं शताब्दी के जिस कालखण्ड को पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल कहा गया हैउसकी सम्पूर्ण दार्शनिकरचनात्मक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमिमध्यकालीन भक्ति आंदोलन में विद्यमान है। भक्तिकाल में पृष्ठभूमि के रूप में भक्ति आंदोलन के प्रादुर्भाव का मूलभूत कारण न तो हिन्दू जनता की पराजित मनोवृत्ति में विद्यमान है और न इस्लाम के प्रभाव के कारण ही भक्ति का ऐसा विस्तार साकार हुआ। यह ऐ ऐसा आंदोलन थाजिसने सम्पूर्ण भारत को प्रभावित किया और वह अधिकांशतः भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक परम्परा में ही विकसित हुआ।

 

भारतीय इतिहास के जिस कालखण्ड में भक्ति आन्दोलन के परिणाम स्वरूप निर्गुण और सगुण भक्ति का समानान्तर प्रवाह हिंदी साहित्य की उपलब्धियों का साक्षी बनाउसे हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग भी कहा जाता है। डा. श्यामसुंदर दास के अनुसार जिस युग में कबीरजायसीमीरा, - तुलसीसूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य धाती उनके अन्तःकरण से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थीउसे साहित्येतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं । "इस कालखण्ड में भक्ति के अतिरिक्त अन्य विषयों और रसों की रचनाएं भी स्फुट तौर पर मिलती हैंलेकिन निर्विवाद तौर पर भक्त्यात्मकता ही इस कालखण्ड की अन्यतम उपलब्धि है। इतिहासकारों ने पूरी सावधानी के साथ अपने इतिहास ग्रंथों में भक्ति भावना से आपूरित इस कालखण्ड को भक्तिकाल की संज्ञा दी है और अधिकांशतः यही संज्ञा स्वीकारी गई।

 

हिंदी साहित्येतिहास लेखन में भक्तिकाल संबंधी शुक्ल जी के काल निर्धारण को विशेष स्वीकृति मिली है तथा उनके द्वारा किया गया अन्तर्विभाजन प्रायः सभी इतिहासकारों द्वारा अपना लिया गया है। उन्होंने ही सर्वप्रथम हिंदी साहित्येतिहास के पूर्वमध्यकाल को भक्तिकाल का नाम दिया था इसकी कालावधि संवत 1375 से सं. 1700 तक मानी है। इसके अन्तर्गत उन्होंने चार भक्ति काव्याधाराओं की स्थिति मानी है। वे हैं.

 

1. निर्गुण धारा - ज्ञानाश्रयी शाखा 

2.  निर्गुण धारा -प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी शाखा)

3. सगुणधारा-रामभक्ति शाखा

4.सगुणधारा-कृष्णभक्ति शाखा।

 

हमारे देश में इस युग के नवजागरण की प्रकृति धार्मिक है तथा तत्कालीन हिंदी साहित्य भक्त कवियों की देन है। वे पहले भक्त थे और बाद में कवि इसलिए इस युग के काव्य में भक्ति का स्वर प्रधान रहा है। युग के अन्तर्विभाजन की दृष्टि से भी इस युग को भक्तिकाल कहना अधिक उचित है। भक्तिकाल के नामकरण और उसकी काल सीमा के बारे में विवाद बहुत कम है। डा. ग्रियर्सन ने 15वीं शताब्दी को धार्मिक पुनर्जागरण का काल घोषित कर जो स्थापना दी थीउसी जमीन पर आचार्य शुक्ल ने भक्तिकाल नाम की प्रस्तावना की। अपने इतिहास में उन्होंने संवत् 1375 से सं. 1900 तक के काल को मध्यकाल कहा हैं. 

 

शुक्ल जी के इस विभाजन से मतभेद बहुत कम प्रकट किया गया है।

 

यह स्वीकार लेने में किसी भी इतिहासकार को कोई आपत्ति नहीं हुई है कि भक्ति इस युग की प्रमुख प्रवृत्ति थी और इसके आधार पर 15वीं शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक रची गई काव्य- परम्परा के समूचे कालखण्ड को भक्तिकाल से बेहतर संज्ञा नहीं सकती।

 

हिंदी साहित्य नामकरण की समस्या : रीतिकाल

 

हिंदी साहित्येतिहासकारों ने जिस उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल की संज्ञा दी हैउसके नामकरण के बारे में इतिहासकारों के बीच पर्याप्त मतवैमिन्य रहा हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल नामकरण की प्रासंगिकता सिद्ध करते हुए रीति शब्द की विस्तृत व्याख्या की है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि रीति शब्द अपनी बहुआयामी गरिमा के कारण पर्याप्त व्यंजक तथा अर्थपूर्ण है. डा. शिवमूर्ति शर्मा के अनुसार हिंदी साहित्य के उत्तर मध्यकाल में रीति संबंधी ग्रंथों की प्रमुखता को देखते हुए शुक्ल जी ने इसका नामकरण रीतिकाल किया था।

 

उत्तर मध्यकाल के जिस कालखण्ड को रीतिकाल कहा जा रहा हैउसे उपलब्ध सामग्री और संदर्भों के आधार पर रीतिकाल कहने में इधर के इतिहासकारों ने संकोच का अनुभव किया है तो यह है कि रीतिकाल के कई नामकरणों और सीमाओं का उल्लेख इतिहासकार करते आए है। जैसे -

 

1. मिश्र बंधु-अलंकृतकाल 

2. एफ.ई. के चारणीकाल 

3.जॉर्ज अब्राहम - ग्रियर्सन रीतिकाल 

4. रामचंद्र शुक्ल -रीतिकाल

 

रीतिकाल के इन विभिन्न नामों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरमध्यकाल के इस काल खण्ड के नाम 'रीतिकाल पर विद्वान एकमत नहीं है परन्तु फिर भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा प्रस्तावित नाम रीतिकाल अब भी सर्वाधिक प्रचलित एवं मान्य रद्य है।

 

नामकरण की समस्या : आधुनिक काल

 

हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का प्रथम चरण पुनर्जागरणकाल या हरिश्चन्द्रकाल है। पुनर्जागणकाल नव सर्जना की स्फूर्ति का युग था । ब्रिटिश शासन के साथ पश्चिम के ज्ञान विज्ञान तथा संस्कृति-साहित्य का भी आयात इस देश की भूमि पर हो रहा थाजिसके संघात से एक नवीन चेतना का जन्म हुआ और भारत के प्रबुद्ध मनीषी नए दृष्टिकोण से अपने सांस्कृतिक रिक्थ का पुनर्विचार करने लगे। अतीत के प्रति नया आकर्षण और उसके द्वारा वर्तमान को समृद्ध करने की एक नवीन स्पृहा उनके चित्त में उत्पन्न हो गई हिंदी साहित्य के क्षेत्र में इस चेतना का प्रतिनिधित्व भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने किया और उनके नेतृत्व में हिंदी के कविलेखक बड़े उत्साह से अतीत के परिपार्श्व में वर्तमान युग के भाव-बोध की अभिव्यक्ति देने का प्रयास कर रहे थे।

 

‘“हिंदी साहित्य का आधुनिककाल अन्य साहित्यिक युगों में कालावधि की दृष्टि से जितना सीमित हैउतना ही साहित्यिक विविधता तथा विस्तार के कारण अत्यन्त जटिल है। अतः आधुनिक साहित्य को जो अपेक्षाकृत जटिलदुर्बोधसंशयग्रस्तसमाधानहीन जीवन को अंकित करता हैइतिहास की सीमाओं में बाँध पाना एक कठिन कर्म है। फिर भी हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने इस युग के अनेक रूप साहित्य का व्यवस्थित रूप से वर्गीकण रकने का प्रयत्न किया हैं तेजी से बदल हुए दस काल के साहित्य को भिन्न-भिन्न युगों में विभाजित करके उन युगों का नामकरण किया है।

 

समसामयिक युग में कहा जा सकता है कि रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिंदी साहित्य का इतिहासमें आधुनिककाल आश्चर्यजनक रूप से कमजोर और तारतम्यहीन हैकिन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्वप्रथम उन्होंने ही आधुनिक काल के इतिहास का सुविख्यात वर्गीकरण और उपविभाजन करने का प्रशंसनीय कार्य किया है। उन्होंने आधुनिक काल को दो खण्डों में विभाजित करके गद्य और के विकास का निम्नलिखित रूप में उपविभाजन किया है।

 

क - आधुनिक काल: गद्य खण्ड (सं. 1900 से 1980)

 

1. प्रकरण 1- गद्य का विकास 

2. प्रकरण 2- गद्य साहित्य का अविर्भाव 

3. आधुनिक गद्य साहित्य: परम्परा का प्रवर्तन प्रथम उत्थान (सं. 1925 से 1950) 

4. गद्य साहित्य का प्रसार: द्वितीय उत्थान (सं. 1950 से 1975) 

5. गद्य साहित्य की वर्तमान गति: तृतीय उत्थान (सं. 1975 से...........)

 

ख आधुनिक काल: काव्यखण्ड (सं. 1900 से)

 

1. पुरानी धारा (1900 से 1925)

2. नई धारा: प्रथम उत्थान (1925 से 1960)

3.नई धारा: द्वितीय उत्थान (1950 से 1975)

4. नई धारा: तृतीय उत्थान (1975 से..

 

इस विवेचन से एक तरफ जहाँ हिंदी साहित्य के सबसे नवीन युग क्रमशः साहित्य प्रवृत्ति का परिचय मिलता है वही दूसरी तरफ इस कालखण्ड के नामकरण की सार्थकता का भी आभास मिलता है। 'आधुनिकशब्द न केवल हिंदी साहित्य के चौथे कालखण्ड का द्योतक है अपितु वह (आधुनिक) साहित्य की आंतरिक प्रवृत्ति मौलिकता एवं विशेषता को भी इंगित करता है। हालाकि अनेक इतिहासकारों ने इस चौथे कालखण्ड के लिए अन्यान्य नामों को प्रस्तावित किया है परन्तु आचार्य शुक्ल द्वारा प्रदत्त आदिकाल नामसमीचीन हैं

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