हिन्दी साहित्येतिहास परम्परा का उद्भव एवं विकास
हिन्दी साहित्येतिहास परम्परा का उद्भव एवं विकास
किसी भी साहित्य का इतिहास लेखन बहुत जरूरी है। इतिहास लेखन इसलिए जरूरी नहीं कि उक्त साहित्य की सुदीर्घ परम्परा को कुछ पृष्ठों के उपयोग से जाना जा सके अपितु उस साहित्य के भीतर स्वयं अपने को पहचानने की आकाँक्षा इसका कारण होना चाहिए। दरअसल साहित्य केवल इसलिए नहीं होता है कि हम बीते हुए कालखण्ड को पहचान सकें अपितु साहित्य के इतिहास लेखन की प्रक्रिया अतीत के साथ-साथ वर्तमान को पहचानने की भी होती है।
1 हिन्दी साहित्येतिहास का स्वरूप
हिंदी साहित्येतिहास को
किसी भी कारण मिश्रबंधुओं से पहले नहीं खींचा जा सकता। हालांकि अन्ततः हिंदी
साहित्य का पहला व्यवस्थित इतिहास तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ( 1884-1941) का ‘हिंदी साहित्य का
इतिहास' (1929) ही है। परन्तु सर
ग्रियर्सन और मिश्रबंधुओं का अध्ययन हम हिंदी साहित्य के इतिहास को जाँचने वाली
मेधा के दो ध्रुवांतों के रूप में कर सकते हैं। एक इतिहास (मिश्रबंधु विनोद) उस
जाति की प्राचीन इतिहास-दृष्टि के साथ अपने वर्तमान को परिभाषित करने वाला दिखाई
देता है तो दूसरा इतिहास ( द मॉर्डन वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दुस्तान) उस जाति
की चेतना को औपनिवेशिक प्रत्यारोपण के माध्यम से परिभाषित करने की कोशिश करता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में पहली बार साहित्य और समाज के गतिशील
विकासवादी संबंधों को पहचानने की कोशिश की थी, जैसा कि उनका इतिहास संबंधी दृष्टिकोण है, जिसमें वे लिखते है:
‘‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब
होता है, तब यह निश्चित है
कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन
होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परख हुए
साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है।""
कोई भी इतिहास साहित्य का लिखा जाएगा तो साहित्य में जनता की चित्तवृत्ति के अनुरूप कैसे परिवर्तन हुआ है और चित्तवृत्तियों में परिवर्तनों का सामाजिक कारण क्या है इसे दिखलाए बिना इतिहास नहीं हो सकता और परिवर्तनों में जब तक आप परम्परा का निरूपण नहीं करेंगे, नैरंतर्य नहीं दिखाएंगे, तब तक इतिहास नहीं होगा। इसलिए उसमें परम्परा और परिवर्तन, सामाजिक आधार पर चित्तवृत्तियों के अनुरूप साहित्य में जैसे-जैसे परिवर्तन होगा, दिखाएँगे । यही इतिहास होगा। निश्चित ही शुक्ल जी ने हिंदी को उसका पहला व्यवस्थित इतिहास ही नहीं अपितु हिंदी को एक व्यवस्थित इतिहास-दृष्टि भी प्रदान की। उन्होंने अपने से पहले की सम्पूर्ण ऐतिहासिक चेतना तथा साहित्य विषयक सामग्री को जोड़कर यह कार्य किया। सामाजिक चेतना के मौलिक परिवर्तनों के साथ क्रमश: विकसित होती हुई ऐतिहासिक दृष्टि पर बात करते हुए प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं : "19वीं सदी से ही आधुनिक चिंतन सामान्य जन को केन्द्र में रखकर चलता है। इसलिए इतिहास में राज-वंशों के स्थान पर सामाजिक इतिहास का महत्व, साहित्य में क्लैसिक आभिजात्य के स्थान पर रोमोंटिकों की जनसामान्य में रूचि, दर्शन में मानववादी परिणति, जनतंत्र का उदय, ये सभी प्रवत्तियाँ एक ही दिशा की ओर संकेत करती है। इसी समय के आस-पास लोक इतिहास और लोक वार्ता में अध्ययन की निष्ठा जाग्रत होती है, और जर्मनी के पांडित्य में उस समय उपहास के विषय 'नव्य वैयाकरण' अतीत की गौरवशाली पर अब मृत भाषाओं के स्थान पर समकालीन जीवित एवं विकासशील जनभाषाओं के अध्ययन पर बल देते हैं।. . लोक जीवन और लोक शक्ति में आस्था आधुनिक विचारधारा की एक प्रमुख पहचान है।"
हिन्दी साहित्येतिहास की सामग्री एवं स्रोत
श्री देवलाल मौर्य ने 'हिंदी साहित्येतिहास लेखन
के उद्गम स्रोत का परिचय देते हुए लिखा "यह एक विचारणीय प्रश्न है कि हिंदी
के इस विकसित रूप का मूल स्रोत क्या है और वह कहाँ से निकलकर कहाँ तक प्रवाहित हुआ
है? मूल कृतियों के
अतिरिक्त जो सूचनाएँ अन्य स्थानों से प्राप्त होती है, उन्हें साहित्येतिहास के
स्रोत कहा जा सकता है। सामान्यतः इतिहास के स्रोत बहुमुखी होते हैं, परन्तु साहित्येतिहास के
स्रोत काफी सीमित एवं कई श्रेणियों में विभक्त होते हैं। उसके पश्चात् उसी युग में
लिखा गया अन्य साहित्य आता है। क्रमशः काल के विस्तार में लिखे गए साहित्य की
प्रमाणिकता संदिग्ध होती जाती है परन्तु उनसे कार्य लेने के अपने ऐतिहासिक तरीके
हैं।"
उन्होंने अपने से पूर्व
में हुए अध्ययनों के आधार पर हिंदी साहित्येतिहास की सामग्री को 10 भागों में विभाजित किया
है।
1- कविवृत्त-संग्रह,
2- पूर्ववर्ती इतिहास,
3- वार्ता - साहित्य,
4- भक्तमाल साहित्य
5- पश्चिमी साहित्य,
6- जीवनी साहित्य,
7. ग्रंथों में आए उद्धरण,
8- दरबारी ग्रंथ,
9- सांप्रदायिक ग्रंथ.
10- शिलालेख आदि ।
हिन्दी साहित्येतिहास लेखन के कुछ प्रमुख स्रोत
1. कविवृत्त-संग्रह -
• कविमाला (संवत् 1712) 75 कवि संकलित ।
• कालिदास हजारा (सन् 1719) 212 कवि ।
• अलंकार - रत्नाकर (संवत् 1792) ।
• सार संग्रह (संवत् 1880) |
• सत्कविगिराविलास (संवत् 1803) बदलेव कवि कृत- 17 कवि संकलित ।
• विद्वन्मोदतरंगिणी- राजासुब्बा सिंह (संवत् 1874) 44 कवि संकलित ।
• राग कल्पद्रुम - कृष्णानंद व्यासदेव रामसागर (संवत् 1900) 200 संत कवि संकलित ।
मिश्र बंधुओं ने इसी ग्रंथ को 'रामसागरोद्भव संग्रह' माना है।
• रामचन्द्रोदय -ठाकुर प्रसार त्रिवेदी (संवत् 1920) 242 कवि संकलित।
• दिग्विजय भूषण - लाला गोकुल प्रसाद 'बृज' (संवत् 1952) 192 कवि संकलित।
• सुन्दरी तिलक भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र (सन् 1869) 69 कवि संकलित ।
• भाषा काव्य संग्रह (महेश दत्त शुक्ल) (सन् 1873) ।
• हिंदी - कोविद-रत्नमाला (तीन भागों में)- डॉ. श्यामसुदंर दास (सन् 1909-1914) ।
• कविता कौमुदी (चार भागों में ) पं. रामनरेश त्रिपाठी (सन् 1922-1924)।
ब्रजमाधुरी सार- वियोगी
हरि (सन् 1923)
2. वार्ता साहित्य -
सुप्रसिद्ध पुष्टिमाग्रीय संप्रदाय में इन ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये दो
हैं
• चौरासी वैष्णवन की वार्ता (सन् 1568 के लगभग)।
• दो सौ बावन वैष्णवन की
वार्ता (सन् 1568 के लगभग)।
3. भक्तमाल साहित्य
• नाभादास कृत 'भक्तमाल' (लगभग 1585 ) ।
• जगाकृत 'भक्तमाल' |
• चैनजी 'कृत 'भक्तमाल'
• भगवत मुदित कृत 'रसिक अनन्यमाल' ।
4. परिचयी साहित्य-
यह भी
भक्तमाल की तरह सन्त-भक्त कवियों के परिचय (चरित्र - इत्यादि) का संकलन है।
• अनंतदास की परिचयियाँ ' सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
5. बीतक साहित्य या जीवनी साहित्य
‘बीतक' शब्द का अर्थ है – वृत्त या वृत्तान्त
• स्वामी लाल दास कृत बीत
• ब्रजभाषा कृत बीतक।
• हंसराज स्वामी कृत बीतक
इत्यादि ।
हिन्दी साहित्य से संबंधित ऐसी इतस्तत सामग्री का अपना ऐतिहासिक महत्व है। महत्वपूर्ण होते हुए भी यह सामग्री इतिहास नहीं अपितु यह अपने आप में इतिहास-दृष्टि देने में भी असमर्थ है। संभवत: इतिहास-दृष्टि इस सामग्री के सापेक्ष कहीं और विकसित होकर इस सामग्री को अपने योग्य नियोजित करती है। राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दशाएं किसी जाति को अपने इतिहास (राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक) लिखने की प्रेरणा प्रदान करती है।