मिश्रबंधुओं द्वारा प्रस्तावित काल - विभाजन
मिश्रबंधुओं द्वारा प्रस्तावित काल - विभाजन
जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के पश्चात् मिश्रबंधुओं (गणेश बिहारी मिश्र, रावराजा राय बहादुर श्यामबिहारी मिश्र, रायबहादुर शुकदेवबिहारी मिश्र) द्वारा लिखित सर्वप्रसिद्ध ग्रंथ 'मिश्रबंधु विनोद (हिंदी साहित्य का इतिहास तथा कवि कीर्तन) के पहले तीन भागों का प्रकाशन 1913 में हुआ। 1934 ई. में इस ग्रंथ के अंतिम भाग का प्रकाशन हुआ। 1934 ई. में इस ग्रंथ के अंतिम भाग का प्रकाशन हुआ। ‘"मिश्रबंधुओं ने कवियों की आलोचनाओं तथा जीवनी आदि विवरणों के उपकरण इकट्ठे किये; किन्तु हिंदी का साहित्यिक इतिहास लिखने की महत्वकांक्षा रखने वाले इन विद्वानों ने इन उपकरणों से इतिहास का स्थापत्य नहीं तैयार किया । "
मिश्रबंधुओं द्वारा प्रस्तावित काल - विभाजन इस प्रकार है -
आदि प्रकरण
- प्रारम्भिक एवं पूर्व माध्यमिक हिंदी
- हिंदी की उत्पत्ति और काव्य लक्षण
- वैदिक समय से सं. 700 तक
पूर्व प्रारम्भिक हिंदी
(सं. 700 से 1347 तक)
(1) चंद पूर्व की हिंदी
(सं. 700 से 1200)
(2) रासो काल (1201-1347)
उत्तर प्रारम्भिक हिंदी
(सं. 1348 1444)
पूर्व माध्यमिक हिंदी
(सं. 1445-1560)
प्रौढ़ माध्यमिक प्रकारण
प्रौढ़ माध्यमिक हिंदी
(सं. 1561 से 1680)
अष्टछाप (सं. 1561-1630)
सौर काल
(सं. 1561 से 11630 तक)
गोस्वामी तुलसीदास तथा तुलसी काल की हिंदी
(सं. 1631-1680)
पूर्व
(सं. 1631-1645)
माध्यमिक तुलसी-काल
(सं. 1646-1670)
अन्तिम तुलसीकाल (सं. 1670-1680)
अलंकृत प्रकरण (सं. 1681-1790)
पूर्वालंकृत हिंद
महाकवि सेनापत
सेनापति-काल (सं. 1681 से 1706)
बिहारी-काल (सं. 1707 से 1720)
भूषण काल (सं. 1721 से 1750)
आदिम देव - काल (सं. 1751 से 1771
माध्यमिक देव-काल (सं. 1771 से 1790)
घनआनन्द
उत्तरालंकृत प्रकरण (सं. 1791 से 1889 तक)
उत्तरालंकृत हिंदी
दास-काल (सं. 1791 से 1810)
सूदन- काल (सं. 1811 से 1830)
रामचंद्र काल (सं. 1831 से 1855)
बेनी प्रवीन - काल (सं. 1856 1875)
पद्माकर-काल (सं. 1876-1989)
अज्ञात कालिक प्रकरण
अज्ञात काल (जिन कवियों का काल-निरूपण न हो सका)
परिवर्तन प्रकरण (1890-1925)
परिवर्तनकालिक हिंदी
द्विजदेव- काल (1890-1915)
दयानन्द - काल (1916-1925)
"मिश्र बंधुओं के इस वर्गीकरण में भी तथ्य संबंधी अनेक असंगतियाँ हैं। इन्होंने जॉर्ज ग्रियर्सन की भाँति 'अपभ्रंश काल' को हिंदी साहित्य के साथ जोड़ दिया है। दो सौ वर्ष के माध्यमिक काल का दो भागों में विभाजन यह दर्शाता है कि सौ वर्ष के अनन्तर ही साहित्य प्रौढ़ हो गया जबकि पहले विभाजन में सात आठ वर्ष तक वह एक-सा रहा। अलंकृत काल के बाद 35 वर्ष की अवधि परिवर्तन काल की रही। प्रत्येक काल के बाद दूसरे काल के बीच की अवधि परिवर्तन काल के रूप में ही रहती हैं। यदि इस प्रकार परिवर्तनकाल का विभाजन किया जाए तो प्रत्येक काल के बाद 'परिवर्तन या संक्रमण काल' होगा जो कि अनावश्यक और अव्यावहारिक है। अलंकृत काल का नामकरण साहितय की आंतरिक प्रवृत्ति पर आधारित है। जबकि अन्य नामकरण साहित्य में विकास का सूचक है। इन्होंने नामकरण में एक-सी पद्धति नहीं अपनाई है। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि मिश्रबंधुओं का इतिहास निरर्थक अथवा महत्वहीन है। वास्तव में अगर इन चंद दोषों को छोड़ दिया जाये तो मिश्रबंधुओं के प्रौढ़ और सुलझें हुए प्रयासों की सराहना करनी चाहिए।"