निर्गुण भक्तिकाव्य की विशेषताएँ
निर्गुण भक्तिकाव्य की विशेषताएँ
निर्गुण अर्थात् गुणातीत, निराकार, अशरीरी, अजन्मा, अव्यक्त, इन्द्रियातीत ब्रह्म की उपासना को लेकर चलने वाले भक्ति मार्ग को निर्गुण भक्ति मार्ग और उसके साहित्य को निर्गुण भक्ति काव्य कहा गया है। कबीर, रैदास, दादू, कुतुबन, मंझन, जायसी आदि इस धारा के प्रमुख कवि हैं। निर्गुण भक्ति मार्ग भी दो भागों में विभक्त है- ज्ञानश्रयी शाखा अथवा संत काव्य और प्रेमाश्रयी शाखा अथवा प्रेममार्गी सूफी काव्य । एक में ब्रह्मज्ञान, तत्वचिंतन को प्रमुखता दी गयी तो दूसरे में तीव्र प्रेमानुभूति को। आईये हम निर्गुण भक्ति काव्य की विशेषताओं को देखते हैं
(1) निर्गुण ब्रह्म की उपासना-
निर्गुण भक्ति मार्ग में ईश्वर को साकार और अवतारी न मानकर निराकार, अजन्मा माना गया है। परम तत्व एक हैं, वहीं जगत का नियंता, जगत का स्वामी है। ब्रह्म को निर्गुण कहने का अभिप्राय उसकी गुणहीनता से नहीं है। निर्गुण का अर्थ है ‘गुणातीत'। वह परमात्मा गुणों से परे है। उसका कोई स्वरूप कोई आकार-प्रकार नहीं। वह इंद्रियातीत परमेश्वर अनिर्वचनीय है, अज्ञेय है। निर्गुण भक्ति मार्ग में अवतारवाद और बहुदेववाद का खण्डन, निर्गुण ब्रह्म की संकल्पना के कारण ही है। उस निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति, ब्रह्ममानंद की अनुभूति भक्ति द्वारा ही संभव है। कबीर ने अपनी भक्ति भावना को प्रकट करने के लिए दांपत्य रूपकों को सहारा लिया है। वह राम को अपना ‘भरतार’ और अपने को उनकी 'बहुरिया' मानते है । जायसी ने इश्कमिजाजी में इश्क हकीकी को दिखलाया है। कहने का तात्पर्य यह है कि निर्गुण कवि लौकिक प्रेम सम्बन्धों का सहारा लेकर ईश्वरीय प्रेम को प्रकट करते है। यद्यपि संतमत में तत्वबोध का महत्व है जो सद्गुरु की कृपा से लब्ध होता है, किंतु संत कवियों भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए उत्कट राग, अनन्य निष्ठा को ही सर्वाधिक महत्व दिया है।
(2) धार्मिक सामाजिक रूढ़ियों का विरोध-
निर्गुण भक्ति मार्ग में शास्त्रीय विधि-विधान कर्मकाण्ड, बाह्याचार, अंधविश्वास, ऊँच-नीच के भेद का विरोध मिलता है। धार्मिक सामाजिक रूढ़ियों-कट्टरताओं से मुक्त जिस भक्ति का निर्गुण कवियों ने प्रतिपादन किया है वह बाध्याचारमूलक न होकर भावमूलक है, आंतरिक है। इस भक्ति के लिए शास्त्र ज्ञान भी अपेक्षित नहीं है। निष्कलुष मन हृदय से परमात्मा के प्रति सच्ची निष्ठा सच्चा और निष्काम प्रेम ही इस भक्ति का आधार है।
(3) मानव-मात्र की एकता-
समता का प्रतिपादन - निर्गुण कवि ब्राह्मण-शूद्र, हिन्दू-मुस्लिम के भेद को नहीं मानते। उनकी दृष्टि में सभी मनुष्य समान है, क्योंकि एक ही परमात्मा के अंश हैं। कबीर कहते हैं- 'एक जोति थैं सब उपजा कौन ब्राहमन कौन सूदा ।' दरअसल निर्गुण भक्ति मार्ग जाति-संप्रदाय के भेदों से परे है। यहाँ राम-रहीम को एक माना गया है। मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखा गया है, ब्राह्मण-शूद्र, हिन्दू-मुसलमान के रूप में नहीं। सूफी कवि जायसी, मंझन, कुतुबन ने लोकप्रचलित, हिंदू-कथाओं को आधार बनाकर अपना काव्य सृजन किया है जो उनकी उदार दृष्टि का परिचायक हैं। इससे हिन्दू मुस्लिम की भावात्मक एकता का पथ प्रशस्त हुआ।
(4) रहस्यवाद-
रहस्यवाद निर्गुण भक्ति काव्य की एक मुख्य विशेषता है। दरअसल रहस्यवाद कोई विचारधारा नहीं, यह एक अनुभूति है, जिसकी विशेषता है- अगम्य, अगोचर, अज्ञेय, अनिर्वचनीय ब्रह्म के प्रति जिज्ञासा, उसके अस्तित्व में विश्वास, समूची सृष्टि में उसी परमतत्व की व्याप्ति देखना, उससे रागात्मक सम्बन्ध जोड़ना और अन्ततः एकात्म की अनुभूति । इस प्रकार रहस्यवाद के अंतर्गत अगोचर ब्रह्म अनुभूति के दायरे में आता है। आचार्य शुक्ल ने जायसी के रहस्यवाद का विवेचन करते हुए रहस्यवाद के दो भेद किए हैं-साधनात्मक रहस्यवाद और भावात्मक रहस्यवाद । तंत्र मंत्र, योगादि द्वारा ब्रह्म की सत्ता का साक्षात्कार और ब्रह्मानंद की अनुभूति साधनात्मक रहस्यवाद के अंतर्गत आता है। तीव्र गहन प्रेमानुभूति की स्थिति, परमात्मा से रागात्मक सम्बन्ध की स्थापना-भावात्मक रहस्यवाद की विशेषता है। जायसी के पद्मावत में भावात्मक रहस्यवाद की प्रधानता है। कबीर के यहाँ यौगिक क्रिया द्वारा ब्रह्मानुभूति का वर्णन होने से साधनात्मक रहस्यवाद है। दूसरी तरफ जब वे अपने को राम का बहुरिया कहते ब्रह्म को राग के धरातल पर उतारते हैं, तो वहाँ भावात्मक रहस्यवाद की उत्पत्ति होती है।