कार्यालयी तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद
कार्यालयी तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद- सामान्य परिचय
भाषा का प्रयोग भावों को
शब्द रूप देने में ही नहीं होता । वह विषयवस्तु, विभिन्न विषयों की सामग्री को व्यक्त करने में भी प्रयुक्त होता है इनमें
तकनीकी वैज्ञानिक विषय (जैसे फिजिक्स, इंजीनियरिंग, एरोनाटिक्स, वाणिज्य, प्रबंधन आदि ) अनेक विषय आते हैं इसके अलावा विभिन्न काम आने वाले विषय भी हैं
। इनमें कार्यालय का काम है, उसी प्रकार पत्रकारिता
में प्रयोग होता है । तो फिर विज्ञापन में भी और मीडिया के रूप में । भाषा जीवन के
सब क्षेत्रों में व्यक्त होने के लिए व्यवहृत होती है । इसीलिए इसे भाषा का
प्रयोजनमूलक रूप कहते हैं । जीवन के हर क्षेत्र की जरूरत इस में आ जाती है इस
प्रकार भावना से इतर सारे कार्य व्यापारों को इसमें रखा जाता है. -
हिंदी का प्रयोग अब तक
बहुत सीमित क्षेत्र में होता रहा है उभय भौगोलिक एवं विषय की दृष्टि से गांधीजी ने
इसे अंग्रेजी छोड़ अपने देश की भाषा के रूप में हथियार बनाया था । सारे देश का यह
राजनीतिक और एक करने का सांस्कृतिक काम हिंदी द्वारा संभव था । स्वतः लोग इस सीमित
हिंदी बड़ी सरलता से अपना सके, प्रयोग भी कर सके थे।
इसके लिए गांधीजी ने एक बड़ा राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया था
'राष्ट्रभाषा प्रचार सभा' - इसमें स्वयंसेवी दलों के संगठन देशभर में खड़े हुए। पुरुषोत्तम दासजी टंडन ने राष्ट्रभाषा द्वारा हिंदी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद में आरंभ किया। उधर राष्ट्र प्रचार सभा वर्धा में और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा चेन्नई में खड़ा हुआ । इसके बाद प्रचारक निकले जो गांव-गांव, शहर-शहर जाकर हिंदी का प्रचार करते । हिंदी की वर्णमाला सिखाते । यह काम अंग्रेजों के लिए देशद्रोह जैसा था । लोग पकड़कर जेल में भी डाले गए। तब हिंदी सीखना सिखाना जेल का काम था । आज हिंदी सीखना सिखाना पुरस्कार और मान-सम्मान का काम गया । वह फर्क आया है आजादी के पहले और उसके बाद की हिंदी गतिविधि में धीरे-धीरे हिंदी के पक्ष में वातावरण बन गया बिना किसी प्रतिवाद और बिना सरकारी नीति की परवाह किये काम होने लगा कन्याकुमारी केरल, बंगला, महाराष्ट्र सब जगह जय हिंद गूंज उठा । ... जय हिंद.
परंतु आजादी के बाद
संविधान सभा बनी वहाँ कामकाज का सवाल उठा । अंग्रेज गए, अब अंग्रेजी को भी जाना होगा । तो फिर काम काज
कैसे होगा ? संविधान निर्माता सभा ने
आदेश दिया कि पंद्रह साल तो हिंदी - अंग्रेजी दोनों में काम हो । इतना ट्रांजीशन
पीरियड काफी है ।
सारी संवैधानिक व्यवस्था
के बावजूद प्रयोग में वैसा हो न सका । हर क्षेत्र और हर अंचल अपनी-अपनी अस्मिता के
प्रति सचेत हो गया अतः राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता का मुद्दा पीछे रह गया।
पंद्रह वर्ष में हिंदी प्रयोग को लेकर कोई प्रगति नहीं हुई । सरकारी काम वैसे ही
अंग्रेजी में चलता रहा 1965 के बाद संविधान में संशोधन कर आगे भी सहयोगी भाषा के
अनुवाद की प्रक्रिया में तेजी आने लगी। अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भी समांतर रूप
में प्रवेश पाने लगी । सरकारी कार्यालय द्विभाषी रूप में उभर कर आने लगे । यहाँ पर
लोगों ने पहले बातचीत करना शुरू किया। हर सरकारी आदमी हिंदी में बात करने लगा । यह
मानसिकता का परिचायक था जो हिंदी बाजार और सड़कों पर बोली जाती अब बैंक, रेलवे, सेना और विविध कार्यालयों में देश भर में बोली जाने लगी अनुवाद के जरिये
धीरे-धीरे देश से बाहर भी प्रचार होने लगा और आज देश के बाहर भी हिंदी का महत्व
होने लगा है । इसके लिए सरकारी आधार भूमि (जैसे टाइपराइटर, देश की हर भाषा से अनुवाद व हिंदी अधिकारी एवं
हिंदी शब्दावली वाले द्विभाषी कोश) सब जगह उपलब्ध करायी गई तरह-तरह के प्रोत्साहन
रखे गए । कुल मिला कर वह आपसी समझ बूझ, सहमति, भाईचारे एवं सौहार्द के
बल पर आगे बढ़ने लगी । किसी तरह का बल प्रयोग, दंड या बाध्य बाधाकता अथवा भय का कोई भाव या भावना नहीं रखी गई । लोगों में
संशय की वह रात छंटने लगी। आपसी समझ बूझ बढ़ने लगी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी
पढ़कर कार्यालयों में आने वालों की संख्या में खूब बढोतरी हुई, हिंदी से करना जरूरी हो गया । अनुवाद के जरिये
हिंदी भी हापुड़ मेरठ, गाजियाबाद से चल कर
एमष्टर्डम, पारामारिबो,, फीजी, टोक्यो, न्यूयार्क अमेरिका चारों
ओर वैश्विक स्तर पर फैली । इसका स्वरूप (Local) के बाद ग्लोबल अथवा वैश्विक बनने लगा । बहुत कुछ अनुवाद और
नया समायोजन कर हिंदी का रूप नई चुनौतियों के लिए सजने संवरने लगा । इसमें
कलकारखानों, लेबारेटरियों, बैंकों और सेनाओं, रेलों और हवाई जहाजों में हिंदी को अनुवाद के
पहिये लगा कर दौड़ने का अवसर मिला ।
नीतिगत तौर पर सबने माना कि अपने-अपने राज्य में अपनी क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करेंगे । राष्ट्रीय स्तर पर और अंतराष्ट्रीय पहचान के लिए हिंदी को बढ़ावा देंगे । लगभग सारे देश-विदेश के भारतीयों ने इसे स्वीकार किया । इसमें हिंदी के लिए बारह लाख तकनीकी - वैज्ञानिक शब्दों का भंडार निर्मित हुआ । हजारों किताबें टेस्टबूरों ने और ग्रंथ अकादमियों ने अनुवाद करायी, प्रस्तुत कर हिंदी प्रसारित की गई प्रोत्साहन वाली योजनाएँ अपनी जगह थी हर दृष्टि से प्रयोजन के लिए हिंदी के पांव मजबूत किये गए । इस पर निगरानी करने हेतु संसदीय राजभाषा समितियाँ बनी । उन्होंने देश भर के विभिन्न कार्यालयों, कारखानों प्रयोगशालाओं एवं अन्य क्षेत्रों का दौरा कर स्थिति का जायजा लिया ।
मार्गदर्शन किया सीधे अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी । उस आधार पर बीच-बीच में राष्ट्रपतिजी के आदेश निकले हिंदी अनुवाद एवं प्रयोग के लिए नियम - विनियम, अध्यादेश ... निकले । तब जाकर हिंदी में कामकाज का स्तर बदला । अधिकारियों और कर्मचारियों सबने अदम्य उत्साह दिखाया ।
दरअसल यहाँ दो-तीन बातें ध्यान में रखनी पड़ती हैं। नई हिंदी का प्रयोग सारे देश में नये सिरे से शुरू करना था । एक ओर पुरानी आदत के अनुसार अंग्रेजी का विशाल भंडार, दूसरी ओर एक नये क्षेत्र का नया भाषाई संसार । उसमें सहम कर कदम रखना पड़ता । मनोविज्ञान कहता है नई आदतें आने में समय लगता है और जड़ता से छुटकारा पाने में पीढ़ियों तक प्रयास करना पड़ता है । तीसरी हमारी विशाल आबादी को तैयार करना इतना सहज न था । भावुकता के साथ-साथ यह जनसमूह बौद्धिक रूप में भी काफी प्रखर है । अतः इससे नया काम लेना बहुत सावधानी की मांग करता है । एक तो भाषा निर्माण फिर उसे सिखाना और तब काम में लगाना । तीन स्तर पर काम होना था । अतः समय लगना स्वाभाविक था इस बीच हमारी आर्थिक स्थिति भी बीच-बीच में बिगड़ी । राजनैतिक अस्थिरता आयी । सर्वोपरि विदेशी आक्रमणों ने भी हमारे ताने-बाने पर दबाव डाला । इस प्रकार हिंदी को लागू करने के प्रयास वाधाविघ्नों से होकर गुजरे हैं । संशोधनों को झेला है । तब जाकर हम इस स्थिति पर पहँचे हैं फिर भी कार्यालय हिंदी या प्रयोजनी हिंदी ज्यादातर अनुवादों के सहारे चल रही है । अत: उस पर चर्चा की जा रही है ।