प्रयोजनमूलक हिंदी में अनुवाद |साहित्यिक बनाम वैज्ञानिक अनुवाद | Prayojan Mulak Hindi Anuvaad

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प्रयोजनमूलक हिंदी में अनुवाद 

प्रयोजनमूलक हिंदी में अनुवाद |साहित्यिक बनाम वैज्ञानिक अनुवाद | Prayojan Mulak Hindi Anuvaad


 

प्रयोजनमूलक हिंदी में अनुवाद 

स्वतंत्रता से पूर्व इसमें अंग्रेजी ही एक मात्र कामकाज में व्यवहृत भाषा थी परंतु 1949 के बाद क्रमश: भारतीय भाषा, विशेष रूप में हिंदी का प्रयोग बढ़ने लगा । जहाँ सामग्री नहीं मिलती अंग्रेजी से अनुवाद कर लेते । अतः हम शुरू में बहुत अधिक अनुवाद पर निर्भर करते क्रमशः हम अपनी भाषा में समृद्ध होते रहे । भारतीय भाषाओं समेत हिंदी में प्रचुर अनुवाद हुआ । अत: साहित्य की मांग बढ़ने लगी तेजी से वैज्ञानिक तकनीकी ही नहीं कार्यालयी सामग्री के अनुवाद की भी जरूरत बढ़ने लगी । इस कार्य को व्यापक रूप में किया गया है ।

 

साहित्यिक बनाम वैज्ञानिक अनुवाद : 

पीछे हमने देखा कि साहित्यिक अनुवाद बहु स्तरीय होता है । भाषा का विशेष प्रयोग होने के कारण सिर्फ शब्दकोष भाषा उसके लिए यथेष्ट नहीं होती है । शब्दों को संदर्भ के साथ देखना पड़ता है और उनका प्रयोग अनुवादक जांच-परख करता है । आधुनिक साहित्य में तो शब्दों का व्यक्तिगत प्रयोग बढ़ गया । फलस्वरूप शब्द संकेत व्यक्ति के आधार पर अर्थ देते हैं। ऐसे में उसका उसी स्तर पर अर्थग्रहण करना होता है वहाँ पर तथ्य से अक तत्व और दर्शन समाहित होता है । सृजनात्मक साहित्य में भावों का समाहार है जो कि प्राय: अमूर्त होते हैं । शब्दों के माध्यम से उन्हें मूर्त रूप देने का प्रयास करता है । साहित्य अपने युग की अभिव्यक्ति होता है । अत: अनुवादक को उस युग से परिचित होना जरूरी है । एक साहित्यकार ही साहित्यिक सामग्री का अनुवाद करे तो उसमें अधिक सफल होता है लक्ष्य भाषा में नयी इमारत वही खड़ी कर सकता है । लक्ष्य भाषा में सृजन की सारी जटिलता सारी समस्या और सारी व्यवस्था मूल को हृदयंगम कर के चलता है ।

 

जब कि वैज्ञानिक - तकनीकी में शब्द की समस्या एक भिन्न स्तर पर रहती है वह तथ्य परक संदर्भों की समस्या है । यहाँ पर मूर्त रूपों का नई भाषा में मूर्त रूपांतरण होता है । सूचना प्रधान होने के कारण समानार्थी शब्दों को कोश में ढूंढा जा सकता है सब भाषाओं में अपनी-अपनी वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली बनी होती है संदर्भानुसार उन शब्दों को ढूंढ कर वह नई सामग्री का निर्माण कर लेता है वह शब्दों का अभिधा के आधार पर अर्थ निकाल लेता है । बस यही देखना है कि किस संदर्भ में वह शब्द प्रयुक्त हुआ है । एक ही शब्द का संदर्भ बदलने पर अर्थ बदल जाता है । अत: उस संदर्भ के आशयवाला शब्द व्यवहार कर सकता है। यहाँ एक संदर्भ में शब्द एकार्थी होता है । वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली की यह सबसे बड़ी सहूलियत है । यहाँ हम 'पारिभाषिक शब्दावली' का इस्तेमाल कर एक आसान राह पर चल सकते हैं। यह भाषा विषय को विवरण, विश्लेषण, विवेचन करती हैं । देश - काल या सांस्कृतिक - ऐतिहासिक कारक प्रभाव नहीं डालते । दूसरे शब्दों में वैज्ञानिक तथ्य लगभग सार्वभौमिक होते हैं । यह सूचना भर भाषानुवाद में रूपांतरित करते हैं । इनका विवरण लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करना होता है । यहाँ शब्द लक्ष्य भाषा में न होने पर मूल का शब्द भी रख देते हैं । क्योंकि वैज्ञानिक शब्दावली अपने-अपने देश के लोगों, वहाँ के अनुभवों एवं अनुसंधानादि से जन्म लेती है । अत: वह शब्दावली स्थानीय शब्द निर्माण शैली, परंपरा एवं व्यक्ति -स्थल विशेष को महत्व दे कर बनती है । उसका अनुवाद हर आदमी हर देश में अपने-अपने ढंग से नहीं कर सकता । विधि निर्मित व्यवस्था और लक्ष्य भाषा में स्वीकार्य समतुल्य शब्दों से बनती है । अतः उसकी अपनी सीमायें होती हैं अनुवादक के लिए यहाँ यह बंधन मानना जरूरी है । अत: इस भाषा की सामग्री का अनुवाद चार अनुवादक चार तरह से नहीं कर सकते । वह पारिभाषिक शब्दावली के अनुशासन में रह कर करता है ।

 

बहुत ज्यादा स्वतंत्रता नहीं रहती (वाक्य निर्माण संबंधी शैली गत थोड़ी छूट जरूरी रहती है ) वैज्ञानिक नियमों में और क्रिया-प्रक्रियाओं में बहुत छूट नहीं होती । वैविध्य की संभावना लगभग नहीं होती । विषय विवेचना के लिए विषय का ज्ञान जरूरी है लक्ष्य भाषा में उस संदर्भ में प्रयुक्त शब्दावली से परिचय जरूरी है मूल अर्थ को लेकर लक्ष्व भाषा में उसे उचित ढंग से प्रस्तुत न करने पर वह अनुवाद बोझिल हो जाता है । अटपटा लगने लगता है। संप्रेषण में कठिनाई पैदा कर सकता है । शब्द के बाद प्रतिशब्द एक-एक कर रखते जाना काफी नहीं होता । वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा में जीवन के विशेष अनुभव ही ज्ञान कहलाते हैं। यह ज्ञान - विज्ञान उस धरती के जीवन, वहाँ की जलवायु, परंपरा आवश्यकता, भौतिक जीवन की समस्या से जन्म लेता है । अनायास नहीं । सप्रयास और प्रयोगशाला से जन्म लेकर नूतन तथ्य संबलित साहित्य निर्मित होता है । कल्पना कर उन्हें विशेष परीक्षण निरीक्षण कर सत्य रूप में लाते हैं । वह साहित्य अनुवाद के लिए जब प्रस्तुत होता है वहाँ वे आवश्यकताएँ हो सकती हैं, पर उन अनुभवों की देन न होने के कारण वह शब्दावली प्रायः नहीं होती। उस समय या तो मूल को ग्रहण कर लेते हैं, या उसकी तरह गढ़ लेते हैं या फिर अपने (लक्ष्य में) कुछ शब्दों को उसके समकक्ष वह अर्थ वहन करने वाला मान लेते हैं । तब उसका प्रयोग कर अनुवाद कर लेते हैं यहाँ पर भाषा की पारदर्शी और एकाकी होना उसका सबसे बड़ा गुण होगा । इसीलिए सटीकता पर बल दिया जाता है । अभिधा के सहारे अनुवाद करने में दिक्कत नहीं रहती । जबकि साहित्यानुवाद में स्थिति पहले ही स्पष्ट की जा चुकी है ।

 

अत: साहित्य और विज्ञान अनुवादों का लक्ष्य एक है, प्रक्रिया - प्रविधि भी एक हैं । परंतु उसकी समस्यायें भिन्न-भिन्न हैं, औजार भिन्न हैं और स्तर भिन्न-भिन्न हैं प्रतीक दोनों में हैं, पर प्रतीकार्थ भिन्न हैं. 

 

यही कारण है कि इक्कीसवीं सदी में तकनीकी -वैज्ञानिक अनुवाद को इतना महत्व दिया जा रहा है देश में राष्ट्रीय अनुवाद मिशन' पर अरबों रुपये खर्च हो रहे हैं । देश में केंद्रीय सरकार ने अनुवाद बूरो बना कर देश भर में उसके प्रशिक्षण की व्यवस्था कर रखी है । विश्वविद्यालय स्तर पर चारों ओर प्रयोजनमूलक हिंदी और प्रयोजनी अनुवाद के पाठ्य क्रमों की सुचिंतित प्रणाली विकसित हो चुकी है । शब्दावली निर्माण हेतु विशाल एक केंद्रीय आयोग वर्षों से कार्यरत है जिसने अब तक बारह लाख शब्द निर्मित कर लिए हैं। सैकड़ों ग्रंथ निर्मित हुए हैं। भारतीय भाषाओं में अनुवाद का यह कार्य व्यापक स्तर पर चल रहा है। भारतीय भाषाओं में आधुनिक तकनीकी वैज्ञानिक सामग्री का अभाव नहीं रहेगा । प्रोत्साहन का अभाव नहीं है । आज इस दिशा में कर्मठ कार्यकर्ताओं का अभाव अभिलक्षित हो रहा है ।

 

दर असल 

i) विषयगत प्रामाणिकता 

ii) यथा तथ्यता 

(iii) सुपाठ्यता

 

तीन प्रमुख गुण इस अनुवाद के लिए जरूरी हैं। इसके अलावा शैली को आगे चलकर समाहित करें तो सोने में सुगंध होती है । यह बात मुहावरे आने पर उठती है । तब भाषा सजाने का, अधिक सुन्दर करने का प्रयास संभव है । यहाँ पर संकेत अपने अपने संदर्भ में एकदम विशिष्ट अर्थ वहन करते हैं । चिन्हों का उपयोग भी उसी प्रकार विशिष्ट होता है । ये वैज्ञानिक तकनीकी प्रतीक सामान्य भाषा में नहीं चलते उन्हें विशेष जानकार ही समझ पाता है । हाँ कुछ चिन्ह सार्वदेशिक हो जाते हैं। T और सारे विश्व में उनका प्रयोग समरूप में होता है । अत: कह सकते हैं कि यह भाषा भी विशेषीकृत हैं । वैज्ञानिक -तकनीकी भाषा को वैसे ही वैज्ञानिक तकनीकी रूप में लक्ष्य भाषा में रखना होता है । यहाँ भी पहले से प्रयुक्त क्षेत्र नहीं होता शुरू में अटपटा लग सकता है

 

पारिभाषिक शब्दावली और उसका महत्व : 

यह वैसे ही जैसे डालर को रुपयों में बदलना अथवा रुबल या दीनार या येन को रुपयों में करेंसी के स्तर पर परिवर्तन करना होता है । फर्क यही है कि करेंसी में भाव घटते-बढ़ते हैं । परंतु तकनीकी प्रयोग हेतु प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली का मूल्य स्थिर होता है । इसीलिए पारिभाषिक शब्दावली को वैज्ञानिक साहित्य की आधारशिला कहा जाता है । यहाँ शब्द की (अर्थगत) सीमा बांध कर सुनिश्चित कर दी गई होती है । इसकी तीन विशेषताएँ होती हैं ।

 

i) ये सीमित अर्थ की सूचना देते हैं 

ii) उस अर्थ को वहन करने हेतु एक ही शब्द प्रयुक्त होता है । विकल्प नहीं । 

iii) यहाँ अर्थ विशिष्ट होता है । एक संदर्भ में प्रयुक्त शब्द सामान्य अर्थ नहीं, वह संदर्भ का अर्थ प्रदान करता है ।

 

जब प्रयोग बढ़ जाता है तो वही शब्द सामान्य जैसा लगने लगता है प्रयोक्ता भूल जाता है कि इसका निर्माण विशेष अर्थ में हुआ । यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि हम भाषा विकास के दौर से गुजर रहे हैं। हिंदी में तकनीकी - वैज्ञानिक प्रयोग की भाषा और शब्दावली बन रही है साथ-साथ देश इस क्षेत्र में द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है। रिसर्च के जरिये नये क्षेत्र जुड़ रहे हैं । जो लोग स्थिर मानक शब्दावली की बात करते हैं उन्हें इस बात को भी ध्यान में रखना होगा हम अभी स्थिर एवं जड़

 

पारिभाषिक शब्दावली के स्तर तक नहीं पहुँचे । विकास के दौर में रघुवीर द्वारा निर्मित शब्दावली तक को पीछे छोड़ चुके हैं । आज उनका महान कार्य हमारे लिए ऐतिहासिक महत्व का जरूर है परंतु प्रयोग के स्तर पर तकनीकी एवं वैज्ञानिक शब्दावली आयोग द्वारा स्वीकृत एवं निर्मित शब्दावली ही विशेष महत्व रखती है

 

फिर भी यूनेस्को द्वारा प्रकाशित प्रो. ए. सेवोदिन के ग्रंथ 'साइंटिफिक एंड टेक्निकल ट्रांसलेशन एंड अदर एस्पेक्ट आफ लेंग्वेज प्राब्लम' के अनुसार पारिभाषिक शब्दों की प्रमुख विशेषता निम्न हैं -

 

i) उच्चारण में सरलता - 

पारिभाषिक शब्द का उच्चारण प्रयोग करने वाले के लिए सरल हो । तभी वह उसे ज्यादा से ज्यादा व्यवहार करने में समर्थ होगा । यहाँ पराई भाषा से ग्रहण किये शब्द को अपने अनुकूल बनाने की प्रक्रिया खूब चल रही है -

 

Under - अंदर 

Lantern - लालटेन

Interim - अंतरिम 

Academy -अकादेमि

Tragedy - त्रासदी

Comedy - कामेडी 

Glucose -ग्लूकोस


 

(ii) पारिभाषिक शब्द का अर्थ 

स्पष्ट, सुबोध और सुनिश्चित होना चाहिए अर्थ संकोच या अर्थ विस्तार से फिर वह पारिभाषिक न रह कर सामान्य शब्द बन जाता है

 

iii) विषयबद्ध - 

पारिभाषिक एक विषय संदर्भ में अर्थ प्रदान करता है दूसरे संदर्भ में या दूसरे विषय क्षेत्र में वही अर्थ नहीं देगा । यहाँ पर उस विषय की सूचना वही शब्द देगा । जैसे Goverment शब्द का अर्थ सरकार और शासन दोनों हैं । हमारे देश में हिंदी का रूप संस्कृतनिष्ठ और उर्दूनिष्ठ दोनों स्वीकार्य होने के कारण बहुत बार दो शब्द पारिभाषिक रूप में स्वीकार्य होते हैं । जैसे कार्यालय, दफ्तर, नौकर- चपरासी अफसर, अधिकारी ।

 

iV) संक्षिप्तता - 

शब्द संक्षिप्त हो तो बार-बार प्रयोग में सुविधा रहती है । जैसे कर, आय, बैंक, ऋण, तार, इनका प्रयोग खूब होने लगा है क्योंकि ये शब्द संक्षिप्त और आसान हैं ।

 

v) उर्वरता 

पारिभाषिक शब्द में प्रत्यय, उपसर्ग लगा कर अनेक शब्द बनाने की क्षमता होनी चाहिए जैसे उत्पादक -उत्पादकीय, विद्युत विद्युतीकरण कर कराधान, राज्य राजकीय | 

इस प्रकार प्रयोक्ता का कार्य आसान हो जाता है

 

vi) मूलनिष्ठता - 

पारिभाषिक शब्द जिस मूल से बना, उस अर्थ के निकट हो तभी वह अर्थ सही ढंग से स्पष्ट होगा। जैसे प्रेषण संप्रेषण, निकट निकटता, सन्निकट । 

 

vii) स्वतंत्रता एवं स्वायसत्ता

 ये अर्थ प्रदान में स्वायत्त होते हैं और विशिष्ट होते हैं । - इससे कोई संदेह या दुविधा नहीं होती - नियम अधिनियम, नियमावली । 

 

viii) सांकेतिकता- 

इसमें शब्द संक्षिप्तिकरण करते हैं विज्ञान में इसका विशेष महत्व है । जैसे - H2o का प्रयोग पानी के लिए होता है, उ.नि. उपनिदेशक

 

इन विशेष व्यवस्थाओं के बीच अनुवाद उन संकल्पनात्मक शब्दों का रूपांतरण होता है मूल तो आविष्कर्ता अपनी भाषा में उन्हें जन्म देता या ढालता है अनुवाद के समय उस संकल्पना पर जोर देकर ढालना पड़ता है । यहाँ पर्याय चुनते समय कुछ कम या कुछ अधिक हो जाता है । उसे बोध स्तर पर मूल जैसा प्रभावी होना चाहिए । यह हमेशा संभव नहीं होता । कोई शब्द ग्रहणीयता का प्रश्न बना रहता है । कोई शब्द ग्रहण हो जाता है, चल पड़ता है । कोई छूट जाता है । इसमें लोकमानस महत्वपूर्ण होता है । राजनीति और सामाजिक चलन ज्यादा भूमिका निभाते हैं आज AIR का हिंदी 'आकाशवाणी' खूब चलता है । TV का वैसे ही दूरदर्शन चल पड़ा है। प्रो. सूरज भानसिंह ने इस पर गौर कर स्वीकारा है । वे कहते हैं -

 

" हर नया ज्ञान भाषा से शब्दावली और अभिव्यक्ति की मांग करता है । जो अन्वेषक नया आविष्कार देता है, वही उसे नाम देता है ।" इस प्रकार शब्दों का जन्म मूल रूप में भिन्न है तो अनुवाद में उसे समझ उसी प्रकार उत्पन्न करना या अनुकूलन करना पड़ता है । जब कोई संकल्पना विशिष्ट है, तो उसे व्यक्त करने वाला शब्द भी विशिष्ट होता है । यह सामान्य भाषा में हो भी सकता है, या अर्थ विशिष्ट व्यक्त करेगा । अतः सामान्य हिंदी जानकार इनके विशेष संदर्भ को लेकर विशेष अर्थ में उसे जाने तब बात बनती है ।

 

यहाँ स्मरण की बात है कि पारिभाषिक शब्दावली की चर्चा सामान्यजन के लिए नहीं है । इसका प्रयोग विशिष्टजन के लिए है जो उस क्षेत्र से संबद्ध हैं या उसमें किसी न किसी रूप में कार्यरत हैं । औरों का उससे काम कम पड़ता है. 

 

यह वास्तव में ध्यान देने की बात है कि तकनीकी एवं वैज्ञानिक शब्दावली एक-एक विषय विशेष के लिए रूढ़ हुआ करती हैं उसका सामान्य प्रयोग अन्य संदर्भ में संभव नहीं । अतः हिंदी में तकनीकी शब्दावली के संदर्भ में जो 'दुरुहता', अबोध्यता और 'अप्रचलित' शब्दावली का आरोप लगाया जाता है यह अनावश्यक और दुर्भावना प्रेरित भी हो सकता है । जो उसका प्रयोग नहीं चाहतेवे कुछ विशेष उद्देश्य रखकर ऐसा आक्षेप कर देते हैं। उदाहरण के लिए मेडिकल में प्रयुक्त पूरी शब्दावली जर्मन, जापान अथवा फ्रेंच आधार पर बनी हैं। हमारा उस प्रणाली, दवा अथवा प्रक्रिया में कहीं कोई योगदान नहीं है। हम कृतज्ञता पूर्वक उसे ग्रहण कर रहे हैं, मानवीय उपकार को ध्यान में रख कर । इसे साधारण दृष्टि से देखें तो यह एकदम अटपटी, दुरुह और अपरिचित लगेगी । परंतु इनका संबंध उत्पादन, अनुसंधान, प्रयोग एवं अन्य दृष्टि से अंतराष्ट्रीय अविच्छेद्य संबंध है । अत: इसमें (जैसा नामावली) संशोधन, परिवर्तन, समीकरण या भारतीयकरण संभव नहीं होगा इससे हम एक वृत्तहर कार्यक्रम से कट कर स्थानीय बन कर रह जायेंगे । उससे जुड़ी वैश्विक प्रगति से नये संधानों से हमारा संबंध छूट जायेगा यह तकनीक में ज्यादा महत्व रखती है क्योंकि बहुत तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं इस शब्दावली से छेड़छाड़ हमारे हित में नहीं होगी। जो इन क्षेत्रों (जैसे डाक्टर, इंजीनियर, टेक्नोक्रेट आदि) जुड़े हैं, इन शब्दों का उन्हीं से संबंध है । वे इसके साथ अभ्यस्तं हो जाते हैं । क्योंकि उनकी मेधा ही वैसी बन जाती है । इस प्रकार तकनीकी शब्दावली के अंतर्राष्ट्रीय अंश पर टिप्पणी करते समय हमें विशेष सावधान होना पड़ेगा उसमें नाम सूचक शब्दों के अलावा भाषा के अन्य अंगों (Com ponents) ) विचार कर सकते हैं वहाँ जटिलता से उनका कार्य कठिन होगा । उन्हें कोई सुविधा नहीं मिलेगी इस बात को ध्यान में रख कर हम हिंदी के भाषागत प्रयोग पर चर्चा करेंगे। लंबे अर्से तक केंद्रीय शब्दावली आयोग सिर्फ हिंदी शब्दावली निर्माण पर ध्यान केंद्रित किये रहा । परंतु अब सांविधिक मेंडेट के कारण यह राष्ट्रीय जिम्मेदारी का केन्द्र बन गया । क्षेत्रीय भाषा शब्दावली का कार्य तेजी से करने में तत्पर हो गया है । यहाँ तक कि बोडो जैसी सद्य स्वीकृत भाषा पर भी अनुवाद  के सहारे उल्लेखनीय प्रगति करने में सफल हुआ है. 

 

परंतु हिंदी में निर्मित पारिभाषिक शब्दावली ज्यादातर अंग्रेजी से बनी है । भारत की अन्य भाषायें भी इसे आदर्श मान कर चलती हैं। हिंदी अनुवाद में सतर्क रहने की विशेष जरूरत है । इसी कारण संस्कृत की ओर झुकाव अधिक है । वैसे संविधान बहुविध सामासिक संस्कृति की बात कहता है विकास सारे देश में चल रहा है। नैसर्गिक विकास प्रक्रिया में शब्द निर्माण एवं भाषा परिवर्तन का क्रम साथ-साथ जारी है अनुवाद प्रक्रिया को सहज और सरल बनाने हेतु हिंदी में अनुवाद को मानक रूप प्रदान करना होगा । अतः हिंदी में प्रयुक्त शब्दावली को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रत् दिशा निर्देशानुसार बनाना होगा । इसमें आयोग की बनाई शब्दावली का प्रयोग करना होगा । इसमें किसी संशोधन का भी दायित्व इसी का है प्रयोग करते-करते जहाँ समस्या हो वहाँ सुधार कर सकते हैं । ऐसे में सारे देश के लिए समस्तर पर अनुवाद कार्य संभव होगा। प्रो. केशरीलाल वर्मा, आयोग के अध्यक्ष कहते हैं - आयोग तकनीकी शब्दावली एवं भाषा की प्रगति भारत की सभी बाईस भाषाओं में करने के लिए प्रतिबद्ध है उदाहरणार्थ केंद्रीयहिंदी निदेशालय ने 'महाकोश' निर्मित किया । इसमें भारत की मान्य सभी भाषाओं के मानक शब्दों के समान रूप उपलब्ध हैं। इससे तकनीकी व वैज्ञानिक भाषा ही नहीं प्रशासन की भाषा भी एक स्तर पर स्थिर हो सकेगी । हमारे विकास का भाषाई रोड़ा हट सकेगा और सामंजस्य स्थापित होना संभव होगा । फिर अनुवाद (वैज्ञानिक एवं तकनीकी) की भाषा को मानक रूप मिलेगा और देश भर में स्वीकार्य हो सकेगी । गांव-कस्बे देहात से शहर नगर और राजधानी तक सर्वत्र सम भाषा बनेगी यह हमारे विकास को त्वरा प्रदान कर सकेगी। ऐसे समाज में वैज्ञानिक विकास की धारा सार्वजनिक जीवन को स्पर्श करते हुए गुजरेगी ।

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