आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा प्रस्तावित काल- - विभाजन
आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा प्रस्तावित काल- - विभाजन
हिंदी साहित्येतिहास परम्परा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं इतिहास दृष्टि सम्पन्न रचना आचार्य रामचंद्र शुक्ल (4 अक्टूबर, 1884-2 फरवरी, 1941) कृत हिंदी साहित्य का इतिहास (सन् 1929) है। अपने इतिहास के आरम्भ में ही आचार्य शुक्ल अपनी इतिहास - दृष्टि का परिचय देते हुए लिखते हैं, ‘" जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्ततक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है। अत: कारण स्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित् दिग्दर्शन भी साथ ही साथ आवश्यक होता है ।" इसी संदर्भ को विकसित करते हुए आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के विकासात्मक कालखण्ड को सर्वमान्य विभाजन के रूप में निम्नलिखित 4 काल-खण्डों में विभाजित करते हैं, "उपर्युक्त व्यवस्था के सकते हैं - अनुसार हम हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार कालों में विभक्त कर सकते हैं -
- आदिकाल (वीरगाथाकाल, संवत् 1050-1375)
- पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)
- उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)
- आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900-1984)
प्रस्तुत काल विभाजन को व्याख्यायित करते हुए आचार्य ने लिखा, "यद्यपि इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है, पर यह न समझना चाहिए कि किसी विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया हैं, पर यह न समझना चाहिए कि किसी विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है, पर यह न समझना चाहिए कि विशेष काल में और प्रकार की रचनाएं होती ही नहीं थीं। जैसे, भक्तिकाल या रीतिकाल को लें तो उसमें वीररस के अनेक काव्य मिलेंगे जिनमें वीर राजाओं की प्रशंसा उसी ढंग की होगी जिस ढंग की वीरगाथाकाल में हुआ करती थी । अत: प्रत्येक काल का वर्णन इस प्रणाली पर किया जाएगा कि पहले तो उक्त काल की विशेष प्रवृत्तिसूचक उन रचनाओं का वर्णन होगा जो उस काल के लक्षण के अंतर्गत होगी, पीछे संक्षेप में उनके अतिरिक्त और प्रकार की ध्यान देने योग्य रचनाओं का उल्लेख होगा। इस प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'स्वयं के द्वारा किए गए आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा प्रदत्त काल-विभाजन का विश्लेषण करते हुए डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने लिखा है कि आचार्य शुक्ल द्वारा किए गए काल विभाजन के दो आधार थे। वाह्य परिस्थितियों के कारण बदली हुई चित्तवृत्ति के फलस्वरूप एक विशेष काल में विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता के अतिरिक्त अन्य प्रकार की रचनाएं भी हो सकती हैं। किन्तु प्रचुर मात्रा में हुई रचनाएं ही ध्यान में रखी जाएंगी। एक विशेष काल में एक विशेष ढंग के ग्रंथों की प्रसिद्धि जिनसे उस काल की लोक-प्रवृत्ति प्रतिध्वनित होती हो। "
""आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो काल विभाजन प्रस्तुत किया है, वह न केवल प्रौढ़ है, आजकल भी एक सीमा तक मान्य है। इसमें केवल एक ही त्रुटि नजर आती है और वह भी इसिलए कि नये अनुसंधानों ने उस त्रुटि की ओर इशारा कर दिया है। वह त्रुटि यह है कि शुक्ल जी ने अपने अपभ्रंश युग को हिंदी साहित्य का आदिकाल माना है. यह तथ्य वर्तमान अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में तर्कसंगत नहीं लगता है। यद्यपि यह सत्य है कि शुक्ल जी ने आदिकाल की सीमा 1050 से प्रारंभ मानकर यथार्थ से अधिक निकट जाने का प्रयास किया है। आचार्य शुक्ल ने जो काल विभाजन प्रस्तुत किया है, उसके संबंध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कुछ मौलिकताएं प्रस्तुत की हैं। द्विवेदी जी ने प्राचीन परम्पराओं के सातत्य की खोज की और इसी आधार पर शुक्ल जी की कतिपय मान्यताओं में संशोधन किया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल जी की ऐतिहासिक दृष्टि के स्थान पर परम्परा का महत्व प्रतिपादित किया और उन मान्यताओं का खण्डन किया जो एकांगी दृष्टिकोण पर टिकी हुई थीं। इसी कारण द्विवेदी जी ने भक्ति आंदोलन के स्रोतों की खोज की थ दक्षिण भारत के सातवीं-आठवीं शताब्दी से चल रहे वैष्णव भक्ति आंदोलन पृष्ठभूमि की विस्तार से चर्चा की। उन्होंने इस धारणा को निर्मूल बतलाया कि भक्ति आंदोलन इस्लामी आतंक की प्रतिक्रिया का परिणाम था। द्विवेदी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "मैं इस्लाम के महत्व को नहीं भूल रहा हूँ। लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता, जैसा आज है।" द्विवेदी जी ने संत, काव्य परम्परा को सिद्धों नाथों से तथा प्रेमाख्यानों को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश को काल परंपरा से जोड़ा। इस संदर्भ में उन्होंने 'हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास तथा 'हिंदी साहित्य का आदिकाल' जैसी रचनाओं में अपने विचारों को व्यवस्थित रूप देकर प्रस्तुत किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि आचार्य द्विवेदी पहले विद्वान थे, जिन्होंने आचार्य शुक्ल की मान्यताओं को चुनौती दी और पुष्ट प्रमाणों के आधार पर हिंदी साहित्य
अध्येताओं के निमित्त एक व्यापक और संतुलित इतिहास दर्शन की पीठिका तैयार की। यह भी निर्विवाद है कि शुक्ल जी ने जहाँ युग की स्थिति पर जो दिया, वहीं आचार्य द्विवेदी जी ने परम्परा र ऐसी स्थिति में दोनों के मत एक-दूसरे के पूरक लगते हैं। डॉ. हुकुमचंद्र राजपाल का यह कथन उचित है कि ‘‘आचार्य द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल द्वारा प्रतिपादित प्रथम तीन कालखण्डों को पूर्णत: झकझोर देने के बाद भी अपनी ओर से उनमें परिवर्तन का कोई प्रयास नहीं किया। वस्तुत: उन्होंने अपनी धारणाओं को आचार्य शुक्ल द्वारा प्रतिपादित मूल ढाँचे के अंतर्गत ही रखा। इसी कारण उनके इतिहास की रूपरेखा काल विभाजन पद्धति व काव्यधारा की नियोजना में आचार्य शुक्ल के अनुरूप रही"
”आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति के साहित्य को निर्गुण और सगुण दो धाराओं में विभाजित किया साथ ही निर्गुण धारा का अध्ययन और मूल्यांकन ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी शाखाओं के रूप में प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं, आधुनिक काल को भी उन्होंने पहले तो गद्य-खण्ड और पद्य खण्ड में विभाजित किया, फिर प्रत्येक खण्ड को तीन-तीन उपखण्डों में विभाजित कर प्रथमोत्थान काल, जिसकी सीमा संवत् 1925 से 1950 तक द्वितीय उत्थान- जिसकी सीमा संवत् 1950 से 1975 तक, तृतीय उत्थान-संवत् 1975 के बाद तक। पहले और दूसरे उत्थान के विषय में शुक्ल जी ने यह भी संकेत किया है कि इन दोनों उत्थानों को क्रमश: भारतेन्तु युग और द्विवेदी युग भी कहा जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि आचार्य शुक्ल ने जो काल विभाजन प्रस्तुत किया, उसमें जो असंगतियाँ थी उन्हें दूर करने का यथासंभव प्रयास आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कुशलतापूर्वक किया।