सगुण भक्ति काव्य की विशेषताएँ
सगुण भक्ति काव्य की विशेषताएँ
सगुण भक्ति मार्ग में ईश्वर को साकार - इंद्रियगम्य, सविशेष माना गया है। तुलसी, सूर, आदि इसी के अंतर्गत आते है। सगुण भक्ति काव्य की निम्नलिखित विशेषताएं हैं
(1) अवतारवाद में विश्वास
सगुणभक्त कवियों का दृढ़ विश्वास है कि परमात्मा, अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना लिए जीव रूप धारण कर अवतरित होता है। वह लीला के लिए अवतरित होता है, उसकी लीलाएँ लोकरंजन और लोक रक्षण के निमित्त होती है। सगुण भक्ति काव्य में नारायण के दो अवतारों-राम, कृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। सगुण भक्ति काव्य ईश्वर की लीलाओं का गान है।
(2) ब्रह्म के सगुण - निर्गुण दोनों रूपों की मान्यता-
सगुण भक्ति काव्य निर्गुण दोनों रूपों को स्वीकार किया गया है। धर्म और धरा के कल्यार्थ ही निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है। तुलसीदास कहते हैं- 'सगुनहि सगुनहि नहि कछु 'भेदा।' सूर भी निर्गुण-सगुण दोनों रूपों को मानते हैं-' 'आदि सनातन हरि अविनाशी, निर्गुण-सगुण धरे तन दोइ।' किन्तु निर्गुण ब्रह्म रूप-रेख -गुन-जाति- जुगुति विहीन' है, वह मन और वाणी से परे हैं, वह 'गुंगे के गुड़' की तरह है। इसलिए सूर सगुन लीला के पद गाते हैं। दरअसल सुगम्यता दिया है। के कारण ही तुलसी, सूर ने सगुण भक्ति को स्वीकारा है, महत्व
(3) भक्ति का एक विशिष्ट स्वरुप-
सगुण भक्ति के दो रुप दिखलाई पड़ते हैं, वैधी भक्ति और रागानुगा भक्ति। वैधी भक्ति में जहाँ शास्त्रानुमोदित विधि - निषेधों के सम्यक अनुशीलन पर बल है, वहीं रागानुगा के अंतर्गत शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और कांत या माधुर्य भाव की भक्ति है। सगुण भक्ति में रागानुगा भक्ति को महत्व दिया गया हैं। अलग-अलग भक्तों ने भिन्न-भिन्न भाव से प्रभु को भजा है। किसी के यहाँ दास्य भाव है तो कहीं वात्सल्य भाव। भागवत पुराण की नवधा भक्ति-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चना, वंदना, दास्य, संख्य तथा आत्मनिवेदन या शरणागति की भी सूर, तुलसी, मीरा की भक्ति-पद्धति में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है।