अनुवादक और अनुवाद
अनुवादक और अनुवाद
अनुवाद कार्य को आज भी कुछ लोग ठाले बैठे का कार्य कहते हैं । अथवा किसी के अनुरोध पर किया द्विभाषिक कार्य मानते हैं दरअसल हमारे यहाँ एक बार पूछा गया - यशोदा जिस पूत को पाल-पोस बड़ा कर उसका मुँह खोल कर देखती है, वह सब क्या किसी को बोलकर बता सकती है ? कहेगी तो कौन मानेगा कि इसके अंदर कितना कुछ समाया है अत: वह सजा कर उसे मथुरा भेज देती है और वह वहाँ देखते ही कंस को मंच से गिरा देता और फिर द्वारका यात्रा तथा महाभारत में योगेश्वर का रूप दिखाता है। अनुवादक के कार्य, उसकी क्षमता और निस्पृहता का एक मानदंड बना दिया है.
यशोदा ने इस पंक्तियों में -
हौं तो धाय-तिहारे सुत की
मैया करती रहियो ।”
जन्म न देकर भी कृष्ण को 'यशोदानन्दन' कहा गया है! लेकिन यशोदा कृष्ण के सारे गुणावगुणों से भलीभांति परिचित है, उसकी सारी आदतें जानती हैं। जेल में जन्मे कृष्ण का रूपांतर यशोदा करती है, देवकी नहीं.
जब अनुवादक और अनुवाद के रिश्ते को टटोलते हैं तो ये स्तरी बातें सार्थक लगती हैं । इनका संकेतार्थ बहुत कुछ कह देता है । अनुवादक के प्रमुख गुण यहाँ संकेतित हो रहे हैं जिनको इस प्रकार भाषित कर सकते हैं ।
कहते हैं अनुवादक मूल की आत्मा में प्रवेश करता है ! यह असंभव है ? इसे कहें कि अपने बाह्य या अपनी आत्मा में मूल को धरण करता है, वहाँ उसके साथ एकाकार हो कर वह 'नवकलेवर' प्रदान करता है अब वह नया रूप लेकर जगन्नाथ (सारे जगत का मंगलकर्ता स्वामी) श्रीगुंडिचा मंदिर की ओर प्रस्थान करता है, वहाँ सबको दर्शन देते, सबका अपना बनने वहाँ निवास कर फिर लौटता है । हमने पीछे बताया उनकी यह 'यात्रा' ही अनुवाद यात्रा है । अनुवादक सारथी बना रथ हांकता है, दिशा संकेत करता रहता है उसे फिर से उन्हें रत्नसिंहासन पर बिठाना है अनुवाद और अनुवादक का यह रिश्ता कुछ हद तक सही व्याख्या कर रहा है । शत प्रतिशत व्याख्या देनेवाली परिभाषा अब तक नहीं बनी है।
1) अत: अनुवादक को कृति और कृतिकार के साथ अंतरंग होना सबसे बड़ी बात है ।
2) सहमत हो या न हो, हर कृति उसी की रुचि एवं विचारधारा में लिखी नहीं होती । यह मूल का अपना क्षेत्र (डोमेन) है। अनुवादक उसे धारण कर ईमानदारी से उसे व्यक्त करता है । अगर संशोधन चाहता है तो मूल लेखक के पास चल कर अनुरोध करे और फिर इसकी संभावना बनती है । अगर मूल न हो तो वह फुटनोट में इस तरह की दृष्टि दे सकता है ।
3) मूल से अपनी तुलना कभी न करे । उसे धैर्यशील होना है बहुत कुछ उठा न पाये, स्थानान्तर न कर सके, पुनर्निर्माण न कर सके अथवा पुनः व्याख्यायित न कर सके धैर्य से मूल के संकेत देकर आगे बढ़े । अपने को वहाँ उलझा न ले । भाषास्तर और विषयस्तर दोनों पर उसे अनूदित पाठ संप्रेषणीय बनाना है । इसीलिए कहते हैं कि पुनर्गठन के वक्त वह (अनुवादक) लेखक की भूमिका निभाता है यह एक प्रकार का 'सहपाठ' प्रस्तुत कर रहा है
4) जब मूल से जूझता है, उसे आत्मा में ग्रहण करता है । तब वह 'श्रद्धेय पाठक' की भूमिका में होता है । इस श्रद्धा बिना पाठक नहीं हो सकता । इससे पाठ को सही परिप्रेक्ष्य में वह अपना लेता है । अब वह पाठ उसका अपना बन जाता है । उस विषय वस्तु को अपना मान कर व्यक्त करता है । अनुवादक में यह गुण न हो तो वह कभी सफल अनुवादक नहीं बन सकता ।
5) बन जाने के बाद अलग हट कर निर्मम रूप में उसे फिर देखता है । यह पुनरीक्षण स्वयं न कर वैसे ही संवेदनशील, वैसे ही ममतापूर्ण व्यक्तित्व को अनुवाद सौंपता है । जो उस नये रूप को आत्मीयता पूर्वक पठन योग्य प्रस्तुत करता है । इन संशोधनों से डरना नहीं इन पर आक्रोश नहीं । ये तो पुनरीक्षक का दिया Golden Touch होता है । जो लोहे को सोना तक बना देता है । यह पुनरीक्षण के लिए प्रस्तुत रहना अनुवादक की सहनशीलता एवं दूसरे की दृष्टि को स्वीकार करने जैसा कार्य है । सब के लिए संभव नहीं होता ।
6) अब आता है टंकण ! हमारे देश में अनुवादक प्रायः टंकण नहीं कर पाता चाहे 'कंप्यूटर हो या टाइपराइटर अथवा स्पीचरीडर । अनुवादक को टंकण की त्रुटियां देखना, प्रूफ रीडिंग करना और जगह-जगह प्रमादवश छूटे अंशों को पुनः स्थापित करना पड़ता है । यह पुनर्गठन अत्यंत महत्वपूर्ण स्तर है । यहाँ अनूदित पाठ को अंतिम रूप मिलता है । यहाँ होने वाली गलतियाँ अनुवाद किये पाठ पर शंका, संदेह, अविश्वसनीयता पैदा कर देती हैं यहाँ स्वयं अनुवादक को ही आगे बढ़कर समूची अनूदित कृति से हो कर फिर एक बार गुजरना पड़ता है ।
7) अब नवाधान में नवकलेवर में कृति प्रस्तुत है । अनुवादक को सरसरी तौर पर पूरी को उलटना होता है । कई बातें छूट जाती हैं । इस स्तर पर उनकी तरफ ध्यान देकर कृति को अंतिम रूप देता है ।
8) अनुवादक का अपना दृष्टिकोण देखना है । पाठक रूप में देखते हैं कि वह किस उद्देश्य से यह कार्य हाथ में ले रहा है । यहाँ पर उसका अभिप्रेरक Motivation देख लें । अनुवादक को बड़े राष्ट्रीय मुद्दे से जुड़ कर अनुवाद करना है या वह कुछ पन्ने शब्द गिन कर पैसे कमाने अनुवाद कर रहा है अथवा कोई छोटा-मोटा अनुवाद पुरस्कार बटोरने अनुवाद कर रहा है अथवा वह किसी और की इसमें मदद कर रहा है । आज के युग में यह बहुत धुंधली दृष्टि साफ-सुथरी और स्पष्ट होनी चाहिए वरना वह एक बड़े पाप,, अन्याय का सहभागी बन जाता है । आजकल अनुवाद पुरस्कारों की कमी नहीं रही । अनुवाद की सीढ़ी से पुरस्कारों तक पहुँचना आसान हो गया है ।
कभी-कभी अनुवादक को अपने प्रचार-प्रसार (राजनीति, धार्मिक, सांप्रदायिक, वैचारिक) के लिए विशेष धारा से जोड़ लेते हैं । ऐसे अनुबंधित अनुवादक जान ही नहीं पाते कि उनके कर्म का फल कितना दूर प्रसारी होगा दक्षिण अमेरिका में आगन्तुकों ने वहाँ की भाषा सीखी । उसे अनुवाद के माध्यम से अपना कर वहाँ के मूल निवासियों की निरीहता पर करारे प्रहार कर अपनी धाक जमा ली ।
यहाँ तक कि वह जाति ही अनुवाद के हथियार हाथ में आने के बाद निपोत कर दी गई ओड़िशा में धर्म प्रचारकों ने अपने धर्म ग्रंथों का अनुवाद कराया । बौध - कंधमाल, संबलपुर, बलांगीर, कालाहांडी, कोरापुट जिलों में संप्रदाय प्रचार चला उस अंधे भीमभोई ने अपने महिमा गोसांई की बात उठाई । उसने वेद-उपनिषद आदि का रूपांतरण किया । उसी क्षेत्र को शिक्षित किया । प्रचार और विदेशी प्रभाव के सामने वह अकेली आवाज दीवार बन कर खड़ी हो गई । अब अनुवाद का अनुवाद से सामना था । मुकाबला था । एक ओर निहत्था, अनपढ़ और निस्संबल बनवासी कंध । दूसरी और अत्याधुनि साधनों, मशीनों, क्षमता एवं शासन समर्थन पर प्रचार चला। गांव-गांव भटका । फिर भी भीम के महिमा गोसाईं उस क्षेत्र की जबान पर ऐसे चढ़े कि सारे संसार ने माना
" मो जीवन पछे नर्के पड़ि थाउ
जगत उद्धार होउ ।”
अनुवादक अंधे की यह दृष्टि सारे संसार की आज जगतीकरण' के रूप में आँख बनी हुई हैं । अनुवाद की क्षमता और उसकी दृष्टि कितनी दूर जा सकती है, भीम भोई से कोई अनुवादक सीख सकता है । अनुवादक का धर्म, उसका संप्रदाय, उसका लक्ष्य प्राप्त सब भीम भोई में मिल जाता है । अतः अनुवादक की अकिंचनता, उसकी दुर्बलता न समझें । वह समाज के उस छोर पर होता है जहाँ से नया साहित्य, नयी दिशा और नई दृष्टि जन्म लेती है वाल्मीकि के बाद तुलसीदास, सारलादास, जगन्नाथदास, सूरदास इसीलिए देदीप्यमान ज्योतिष्क बन सके । अनुवादक को अपनी अस्मिता पहचान कर इस पवित्र कार्य में अजातशत्रु की तरह काम करना है और
कीरति भनिति भूति भलि होई
सुरसरि सम सब कैंह हितहोई । "
सर्वमंगलकारी अनुवाद की उससे समाज अपेक्षा करता है ।