कृष्ण भक्ति काव्य प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं प्रमुख कवि
कृष्ण भक्ति काव्य
विष्णु के अवतारी रूप कृष्ण को लेकर पूर्वमध्यकाल में प्रचुर मात्रा में काव्य रचा गया। कृष्ण के ईश्वरीय रूप की प्रतिष्ठा भागवत में होती है। जिसका रचनाकाल 6वीं और 9वीं सदी के बीच माना जाता है। दक्षिण के आलवार भक्तों के यहाँ भी कृष्णभक्ति प्रचलित थी । वल्लभाचार्य और मध्वाचार्य ने कृष्ण भक्ति को शास्त्रीय आधार दिया और उसे जनता में प्रचारित किया । कृष्ण भक्ति काव्य का आधार भागवत पुराण है। भागवत में वर्णित कृष्ण की लीलाओं की अत्यंत सरस प्रस्तुति कृष्ण भक्ति काव्य में की गई है। आइए कृष्ण भक्ति काव्य की प्रवृत्तियों का हम अध्ययन करें।
कृष्ण भक्ति काव्य प्रमुख प्रवृत्तियाँ
(क) लीला गायन-
कृष्णभक्तिकाव्य में अवतारी कृष्ण की विविध लीलाओं का गान किया गया है। ये लीलाएं मुख्यतः कृष्ण के शिशु रूप एवं किशोर वय की है। जैसे-बालकृष्ण की विविध चेष्टाएँ, माखनचोरी, गोदोहन, गोचारण, पूतना वध, कालिया दमन, दान लीला, मान लीला, चीरहरण, लीला, रास लीला, मथुरा गमन, कंस वध, कुब्जा प्रसंग, उद्धव संदेश इत्यादि। लीलागान के क्रम में वात्सल्य, सख्य और माधुर्य भाव की भक्ति प्रकट हुई है। वस्तुतः लीलागान ही कृष्ण भक्त कवियों का उद्देश्य है। कृष्ण की लीलाओं के चित्रण में इन कवियों की कल्पनाशीलता और सहृदयता अत्यंत प्रभावशाली रूप में प्रकट हुई है। इस मामले में कृष्ण भक्त कवियों में सूर अद्वितीय है। वात्सल्य और श्रृंगार की विविध मनोदशाओं, सूक्ष्म स्थितियों का उन्होंने बहुत बारीक और विशद् अंकन किया है, कोई भी पक्ष उनसे छूटा नहीं है। ईश्वर रूप श्रीकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने लौकिक धरातल पर चित्रित किया है, जो बहुत ही आत्मीय लगता है। समूचे कृष्ण भक्ति काव्य में राग और रस की अजस्र धारा प्रवाहित होती है।
(ख) लोकरंजन-
कृष्ण की लीलाओं का उद्देश्य लोकरंजन है। कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण लोकरंजनकारी, लीला पुरुषोत्तम रूप को ही सर्वाधिक महत्व दिया है। उनके योगी और योद्धा रूप के चित्रण में उनका मन कम रमता है। इसी कारण कृष्ण भक्ति काव्य में वात्सल्य एवं श्रृंगार का चित्रण अधिक है।
(ग) शास्त्रज्ञान की अनावश्यकता-
कृष्ण भक्त कवियों ने भक्ति के लिए शास्त्रज्ञान को अनावश्यक माना है। उनकी भक्ति रागानुगा भक्ति है। इस भक्ति के लिए हरि के प्रति उत्कट राग, सच्ची समर्पणशीलता अपेक्षित है न कि ज्ञान। भ्रमरगीत प्रसंग में तो गोपियों द्वारा ज्ञान का खण्डन, शास्त्र की उपेक्षा की गई, और प्रेम को वरेण्य, सर्वथा मंगलकारी माना गया है।
(घ) निर्गुण-
सगुण दोनों की स्वीकृति- कृष्ण भक्ति काव्य में ब्रह्म के निर्गुण रूप को स्वीकार करते हुए अवतारी कृष्ण को परमब्रह्म परमेश्वर के रूप में देखा गया है। निर्गुण ब्रह्म दुस्साध्य है, निर्गुण ब्रह्म अनुभवातीत है, 'गूंगे के गुड़' के समान है, इसीलिए इन भक्तों ने ब्रह्म के सगुण रूप को स्वीकार कर लीला गान किया है। ब्रह्म लीला के लिए ही धरती पर अवतरित होता है।
(ङ) अभिव्यंजना पक्ष-
कृष्ण भक्ति का मुख्य केन्द्र ब्रज क्षेत्र रहा है, इसीलिए अधिकांशतः कृष्ण भक्तिपरक काव्य ब्रजभाषा में रचा गया। कृष्ण के समग्र जीवन की अपेक्षा उनके जीवन के कुछ पक्षों पर केन्द्रित होने के कारण मुक्तक काव्य की रचना ज्यादा हुई। कृष्ण भक्ति काव्य गीत शैली में रचा गया। इसमें गीतिकाव्य की सभी प्रवृत्तियों भावात्मकता, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता, सुकोमल पदावली इत्यादि विद्यमान है। छंद की दृष्टि से यहाँ कवित्त, सवैया, छप्पय, कुण्डलिया, गीतिका, हरिगीतिका का प्रयोग अधिक हुआ है।
कृष्ण भक्ति काव्य के प्रमुख कवि
(1) सूरदास -
कृष्ण भक्त कवियों में सर्वाधिक ऊँचा स्थान सूरदास का है। उनका जन्म 1478 में 'सीही' नामक गाँव में हुआ और देहावसान 1583 ई. में हुआ। उनके अंधत्व को लेकर अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है। उन्होंने बल्लभाचार्य से दीक्षा ली। बल्लभाचार्य से दीक्षित होने के पूर्व उनकी भक्ति दास्य भाव की थी। बल्लभ ने उनसे लीलागान करने कहा। उन्हें 'पुष्टिमार्ग का जहाज' कहा जाता है। उनकी मृत्यु पर दुखी होकर विट्ठलनाथ ने कहा था- 'पुष्टिमारग को जहाज जात है सो जोको कछु लेना होय सो लेउ ।' सूरदास की तीन रचनाएं हैं- सूरसागर, साहित्यलहरी और सूरसारावली । सूरसागर की रचना भागवत की तरह द्वाद्वश स्कंधों में हुई है। 'साहित्य लहरी' में उनके दृष्टिकूट पदों का संग्रह है जिसमें प्रतीकात्मक शैली में राधा-कृष्ण के प्रेम का वर्णन है। अलंकार निरूपण की दृष्टि से भी यह ग्रंथ महत्वपूर्ण है। 'सूरसारावली' की प्रामाणिकता संदिग्ध है। सूरसागर ही सूर की सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति है । कृष्ण भक्ति ही इसका मुख्य विषय है। सूर का ध्यान कृष्ण के लोकरंजनकारी रूप पर अधिक है। इसमें बालकाल से लेकर कैशोरवय तक की विविध लीलाओं का अत्यंत हृदयहारी चित्रण कृष्ण हुआ के है। आचार्य शुक्ल का कहना है- ' इनके सूरसागर में वास्तव में भागवत के दशम स्कंध की कथा संक्षेपतः इतिवृत के रूप में थोड़े से पदों में कह दी गई हैं। सूरसागर में कृष्णजन्म से लेकर श्रीकृष्ण के मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से फुटकल पदों में गायी गयी हैं। भिन्न-भिन्न लीलाओं के प्रसंग को लेकर इस सच्चे रसमग्न कवि ने अत्यंत, मधुर और मनोहर पदों की झड़ी सी बाँध दी है। इन पदों के सम्बन्ध में सबसे पहली बात ध्यान देने की यह है कि चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्य रचना होने पर भी वे इतने सुडौल और परमार्जित हैं। यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यपूर्ण है कि आगे होने वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी - सी जान पड़ती है। अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीतिकाव्य परंपरा का चाहे वह मौखिक ही रही हो - पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।' (हिन्दी-साहित्य का इतिहास, पृ0 108) नवीन प्रसंगों की उद्भवना, भावात्मकता, अन्तर्मन का उद्घाटन, विभिन्न काव्यांगों का सुंदर प्रयोग, गीतात्मकता, प्राजंल एवं प्रवाहपूर्ण भाषा, ब्रज के लोक जीवन की जीवंत प्रस्तुति, अपूर्व रसात्मकता के कारण सूरसागर हिन्दी साहित्य की एक श्रेष्ठकृति हैं जो सूरदास को महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। सूरसागर 'जीवनोत्सव' का काव्य है और सूरदास भावाधिपति हैं। बालकृष्ण की विविध लीलाएँ नंद-यशोदा का वात्सल्य, गोपियों का निर्मल और उमंग से भरा प्रेम, भ्रमरगीत-सूरसागर के उत्कृष्ट प्रसंग हैं। सूरसागर में शांत, दास्य, वात्सल्य, सख्य और माधुर्य भाव की भक्ति देखी जा सकता है वैसे प्रमुखता वात्सल्य और माधुर्य भक्ि की है।
(2) नंददास-
साहित्यिकता की दृष्टि से अष्टछाप के कवियों में सूरदास के बाद नंददास का स्थान आता है। उनकी रचनाएं है- अनेकार्थ मंजरी, मानमंजरी, रसमंजरी, रूपमंजरी, विरह मंजरी, प्रेम बारह खड़ी, श्याम सगाई, सुदामाचरित, रूक्मिणी मंगल, भंवर गीत, रासपंचाध्यायी, सिद्धांत पंचाध्यायी, दशमस्कंधभाषा, गोवर्धनलीला, नंददासपदावली । 'भंवरगीत ' और ‘रासमपंचाध्यायी” उनकी श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। उनकी भाषा अत्यंत परमार्जित है । प्रसंगानुकूल सटीक शब्दों के चयन के कारण नंददास को 'जड़िया' कहा जाता है।
(3) हितहरिवंश -
हितहरिवंश ( 1505-1552 ) का जन्म 30 प्र0 के सहारनपुर जिले के देवबंद में हुआ। 'हितचौरासी' उनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। उनकी भक्ति माधुर्य भाव की है। उन्होंने राधावल्लभ संप्रदाय का प्रवर्तन किया। सरसता और भाषा का प्रांजल रूप उनकी रचनाओं की विशेषता है।
(4) स्वामी हरिदास -
स्वामी हरिदास (1535-1578) ने सखी सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, जिसे टट्टी संप्रदाय भी कहा जाता है। हरिदास एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे। अकबर के दरबारी तानसेन को इन्हीं का शिष्य बतलाया जाता है। 'सिद्धांत के पद' और 'केलिमाल' उनकी रचनाएं है।
(5) मीराबाई -
मीराबाई (1504-1558) चित्तौड़ के राजघराने की थी। उनका विवाह चित्तौड़ के राणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ, था किंतु कुछ ही वर्षों बाद वह विधवा हो गयी। मीरा रचित ग्यारह ग्रंथ बतलाये जाते है, जिनमें केवल 'स्फुट पद' ही प्रामाणिक है। गिरधर गोपाल के प्रति अगाध प्रेम ही मीरा की रचनाओं का मुख्य विषय है। उनकी रचनायें मध्यकालीन सामंती परिवेश में नारी की पीड़ा और उसकी मुक्ति की आकांक्षा को भी प्रकट करती हैं। उनकी भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रज है।
(6) रसखान -
रसखान (1533-1618) ने अत्यंत सरस और मार्मिक रचनाएँ की हैं। उन्हें वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित बतलाया जाता है। सुजान रसखान, प्रेम वाटिका, दान लीला, अष्टयाम-उनकी रचनाएं है। मुस्लिम होकर भी उन्होंने कृष्ण भक्तिपरक रचनाएं लिखी, यह उनकी उदारता का प्रमाण है।
कृष्ण भक्ति काव्य की उपलब्धियाँ
कृष्ण भक्ति कवियों ने अपनी रचनाओं में कृष्ण की लीलाओं का गान किया है, उससे समाज में रागात्मकता का संचार होता है, उससे जीवन के प्रति चाह बढ़ती है। विविध संप्रदायों द्वारा कृष्ण भक्ति का विभिन्न रूपों में पल्लवन होता है जिससे साहित्य समृद्ध होता है। साहित्य और संगीत को जोड़ने में इन कवियों का योगदान महत्वपूर्ण है। विभिन्न राग-रागनियों में रचित कृष्ण काव्य में संगीत का विकास होता है। कृष्ण भक्ति काव्य की भाव सम्पदा और परमार्जित अभिव्यक्त से साहित्यिक दृष्टि से ब्रज भाषा समृद्ध होती है और वह मध्यकाल की सर्वप्रधान काव्य भाषा बन जाती है।