वक्रोक्ति और अभिव्यंजना वाद, वक्रोक्ति और शैलीविज्ञान
वक्रोक्ति और अभिव्यंजना वाद
हिन्दी में क्रोचे के अभिव्यंजनावाद का उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रन्थ चिन्तामणि- भाग 2 में किया है। उनका कथन है- 'योरप का यह 'अभिव्यंजनावाद' हमारे यहाँ के पुराने 'वक्रोक्तिवाद' - वक्रोक्तिः काव्यजीवितम् का ही नया रूप या विलायती उत्थान है।' शुक्ल जी के इस कथन के बाद हिन्दी में वक्रोक्तिवाद और अभिव्यंजनावाद की तुलना की परम्परा चल पड़ी। क्रोचे का अभिव्यंजना सिद्धान्त सहजानुभूति अभिव्यंजना पर आधारित है, जो उनके अनुसार चेतना की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया है । सहजानुभूति को उन्होंने इण्ट्यूशन (अन्तः प्रज्ञा) कहा है। कलाकार जगत में जो कुछ देखता है, उसके यथार्थ का बोध सहजानुभूति के रूप में उसके मन में उभरता है। यह एक अपूर्व प्रतीति होती है। क्रोचे के विचारानुसार यह सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है और मानस के अन्दर सहानुभूति प्रभावों की अभिव्यंजना ही कला है। संक्षेप में हम कह सकते है-
• अन्तः प्रज्ञा और अभिव्यंजना में भेद नहीं है।
• प्रत्येक अन्तः प्रज्ञा कला है।
• कला का सृजन केवल आन्तरिक है।
• कला रूप में है वस्तु में नहीं।
• कला अखण्ड है।
वस्तुतः इन दोनों सिद्धान्तों में साम्य कम, वैषम्य अधिक है। हम इसे निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं
(1) ‘अभिव्यंजनावाद' सभी कलाओं को दृष्टि में रखकर स्थापनाएं करता है, जबकि 'वक्रोक्तिवाद' मात्र काव्य-कला को ही दृष्टि में रखकर निर्णय देता है।
(2) अभिव्यंजनावाद कला की रचना-प्रक्रिया का विवेचन करता है, जबकि वक्रोक्तिवाद काव्य में "आस्वाद' पक्ष की व्याख्या भी करता है।
(3) वक्रोक्तिवाद वस्तु और रूप दोनों का महत्व स्वीकार करता है जबकि अभिव्यंजनावाद केवल रूप की ही सत्ता मानता है।
(4) अभिव्यंजनावाद में कला का कोई उद्देश्य नहीं माना गया है, जबकि वक्रोक्ति सिद्धान्त में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की सिद्धि को काव्य का उद्देष्य माना गया है।
(5) अभिव्यंजनावाद में कला स्वतः स्फूर्त अन्तः प्रज्ञा की देन है।
(6) ) क्रोचे कला का वर्गीकरण नहीं मानते हैं जबकि कुन्तक का समग्र विवेचन, चाहे वह वक्रोक्ति हो, गुणों का हो - विभाजन और वर्गीकरण पर ही आधारित है।
इस प्रकार अभिव्यंजनावाद और वक्रोक्ति सिद्धान्त में वैषम्य अधिक है। साम्य मात्र एक या दो बातों में है। प्रथम कुन्तक और क्रोचे दोनो ही उक्ति (अभिव्यंजना) महत्व देते है। दूसरे, दोनो ही अलंकार की बाह्यता का खण्डन करते है। वे मानते है कि अलंकार ऊपर से आरोपित वस्तु नही है । अतः अभिव्यंजनावाद को वक्रोक्तिवाद का विलायती उत्थान नहीं कहा जा सकता है।
वक्रोक्ति और शैलीविज्ञान
शैलीविज्ञान आधुनिक आलोचना का एक सशक्त प्रतिमान है। इस भाग में हम शैलीविज्ञान एवं वक्रोक्ति सिद्धान्त के सम्बन्ध से परिचित होंगे।
शैली भाषा का विषिष्ट चयन-संयोजन है। काव्य में शैली के इस विषिष्ट चयन संयोजन का अध्ययन ही शैली विज्ञान कहलाता है। विचलन, चयन, विपथन, ध्वनि, पद, वाक्य एवं अर्थ के स्तर पर होता है। ऊपर प्रत्यय वक्रता के उदाहरण के रूप में जायसी का निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया गया है: पिय सों कहेउ संदेसड़ा, हे भौंरा ! हे काग! यहाँ 'ड़ा' प्रत्यय के व्यवहार से प्रत्यय वक्रता है। यह 'ड प्रत्यय नागमती की विरह व्यथा को, जिससे उसका हृदय विदीर्ण हो रहा है, साभिप्राय रूप में प्रकट कर देता है। सामान्य शब्द संदेष है, जिसका विचलित रूप 'संदेसड़ा' है। अतः यहाँ शैलीविज्ञान की दृष्टि से विचलन है। इसी प्रकार लिंग वैचित्र्य वक्रता में आंसू की निम्नलिखित पंक्तियां उद्धृत की गई है -
शशि मुख पर घूँघट डाले अंचल में दीप छिपाये
जीवन की गोधूली में कौतूहल से तुम आये।
यहाँ नारी को सम्बोधित किया है जिसके लिए आए क्रिया का प्रयोग है जो कि पुल्लिंग है। यह लिंगवैचित्र्य वक्रता रूप स्तरीय विचलन पर आधारित है। शैलीविज्ञान में चयन को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वर्ण्य विषय के अनुकूल शब्दों एवं वाक्यों के प्रयोग को चयन कहते हैं। जिस कवि की चयन शक्ति जितनी ही विवेकपूर्ण तथा भाव, प्रकरण एवं प्रसंग के अनुकूल होगी, उसकी शैली उतनी ही प्रौढ़ होगी। आचार्य कुन्तक ने भी शब्द चयन के विषय में कहा है-
शब्दो विवक्षितार्थैकवाचकोऽन्मेषु सत्स्वपि ।
अर्थः सह्रदयाहृलादकारिस्वयन्द सुन्दरः ।
निराला का गीत है -
सुमन भर न लिए
सखि वसन्त गया-
यहाँ सुमन केवल सामान्य पुष्प का अर्थ नहीं होता है। वह रंगों की चमक से युक्त तो है ही, गंध से भी भरा हुआ है। सुमन का अर्थ है- सुन्दर मन वाला। फूल का तन ही सुन्दर नहीं है, मन भी सुन्दर है अर्थात फूल गंधयुक्त है। अतः यहाँ पर्यायवक्रता के साथ-साथ शैली विज्ञान की 'चयन प्रक्रिया भी सक्रिय है।
‘समान्तरता' भी शैली विज्ञान का एक महत्वपूर्ण प्रतिमान है। समान्तरता का आषय है - किसी रचना में समान या विरोधी भाषिक इकाईयों का समान्तर प्रयोग। यह आवृत्ति ध्वनि, शब्द, रूप या वाक्यादि की हो सकती है। कुन्तक की वर्णविन्यास वक्रता का भी पूरा मण्डान आवृत्ति पर ही टिका है। पन्त की निम्नलिखित कविता में वर्णविन्यास वक्रता एवं समान्तरता के गुणों को एक साथ परिलक्षित किया जा सकता है-
मृदु मंद मंद मंथर मंथर
लघु तरणि हंसिनी-सी सुन्दर
तिर रही खोल पालों के पर।
शैलीविज्ञान का एक तत्व है - विपथन । विचनल सदैव नियमों से होता है जबकि विपथन सिद्धान्तों या ढाँचों से होता है। प्रकरण वक्रता का एक भेद है- उत्पाद्य लावण्य वक्रता । इसे अविद्यमान की कल्पना कहा गया है। यह वक्रता वहाँ होती है जहाँ एकदम नवीन प्रसंग को कथा में गुंफित किया गया हो। 'राम की शक्तिपूजा में निरालाजी हनुमान को महाकाश में पहुंचाते हैं-
शत घूर्णावर्त तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल - राशि - राशि - जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बंध-प्रति-संध, धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय- अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष |
शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से यहाँ प्रोक्ति स्तर का विपथन सक्रिय है, क्योंकि पूर्ववर्ती कथाओं में यह प्रसंग प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार शैली विज्ञान के सभी प्रतिमान- विचलन, विपथन, समान्तरता एवं विरलता आदि किसी न किसी रूप में वक्रोक्ति - सिद्धान्त के भेदों-प्रभेदों में बिखरे रूप में मिल जाते है।