काव्य में अलंकारों का महत्व, अलंकारों का वर्गीकरण
काव्य में अलंकारों का महत्व-
विभिन्न आचार्यों के अलंकारों के स्वरूप से संबंधित विवेचना से हम जान चुके हैं कि अलंकार मूलतः काव्य के बाह्य साधन हैं. हम जानते हैं कि काव्य में अलंकारों द्वारा चमत्कार और आनन्द उत्पन्न किया जाता है जिससे काव्य और अधिक रोचक और ग्राह्य बनता है। प्राचीन से अर्वाचीन तक के सभी साहित्याचार्यों की अलंकार संबंधी विवेचना पर गौर किया जाए तो कहना न होगा कि अलंकार काव्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं तो आवश्यक जरूर हैं वे काव्य में उस गुण सृष्टि करने में समर्थ होते हैं. जिसके कारण पाठक बार-बार काव्य की ओर आकर्षित होता है। काव्य का कुशल कलाकार अलंकारों के प्रयोग के समय सचेत रहता है कि कहीं काव्य में अलंकार हावी न हो जाए और कविता की मूल संवेदना में बाधा न पहुँचे इसलिए वह सन्तुलित होकर चलता है. यह सन्तुलन संवेदना और सौन्दर्य का होता है तात्पर्य यह कि जब कोई पाठक कविता का रसास्वादन करे तो संवेदना तक पहुँचे इन्द्रधनुषी रंगो के साथ। न कि रूखे-सूखे धुन्ध भरे आकाश की तरह कविता में इन्द्रधनुषी रंग अलंकारों के माध्यम से ही भरे जा सकते हैं। कहना न होगा कि काव्य में नीरसता को दूर करने के लिए अलंकारों का समुचित प्रयोग आवश्यक जान पड़ता है।
इससे पहले भी आप जान चुके हैं कि स्त्री में प्राकृतिक सुन्दरता होने पर भी वह अपने सौन्दर्य में वृद्धि के निमित्त आभूषणों का प्रयोग करती है। कारण साफ है कि वह बाह्य सौन्दर्य वृद्धि के साथ-साथ अपनी आन्तरिक तुष्टि चाहती है यह तुष्टि उसके प्रसन्नचित चेहरे से प्रकट होकर उसके प्राकृतिक सौन्दर्य में चार चाँद लगा देती है। ठीक इसी सन्दर्भ में हम अलंकारों को देखें तो मूलतः अलंकार काव्य में वाह्य शोभा वृद्धि के कारक है, किन्तु यह कहने में अति न होगी कि इनके समावेश से की आन्तरिक ध्वन्यात्मकता भी आकर्षक एवं हृदय ग्राही रूप धारण कर सहृदय को चरमोल्लास की स्थिति तक पहुँचाती है। काव्य में अलंकारों के महत्व पर विचार करते समय इस सन्दर्भ में भी विचार करना महत्वूपर्ण लगता है कि क्या अलंकारों के अतिशय प्रयोग से काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि हो सकती है? आप सभी जानते हैं कि सुन्दर नारी यदि आभूषणों से ही लद जाए तो वह सुन्दर के बजाए कुरूप ही अधिक लगेगी, उसका भड़कीलापन सहृदय में कुरूचि ही उत्पन्न करेगा। ठीक यही कविता पर भी लागू होती है। अभिव्यक्ति के समय कवि को अलंकारों के संयमित प्रयोग के लिए सचेत रहना चाहिए क्योंकि किसी भी काव्यांग की अधिकता काव्य के लिए उचित नहीं जान पड़तीं. शब्दों के माध्यम से अत्यधिक चमत्कार उत्पन्न कर देना और जटिल अर्थों की अत्यधिक योजना के कारण कहीं ऐसा न हो कि 'बात सीधी थी पर भाषा के चक्कर में टेढी हो गई।' तात्पर्य यह कि अलंकारों की अधिकता से कवि की मूल संवेदना सहृदय तक पहुँचे ही नहीं। इसलिए अलंकार पर अपने मत व्यक्त करने वाले सभी आचार्य इस तथ्य पर एकतम हैं कि अलंकार न केवल चमत्कार और कौतुहल उत्पन्न करने के लिए प्रयुक्त न हों अपितु उनका प्रयोग मूल संवेदना की रक्षा सहृदय के मनोरंजन के लिए हो।
अलंकारों का वर्गीकरण
आप काव्य में अलंकारों के महत्व को जान चुक हैं. आइए अब उनके वर्गीकरण के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- अलंकार वर्णन करने की चमत्कार पूर्ण शैलियाँ हैं. शैलियाँ न जाने कितनी हो सकती हैं अलंकारों के वर्गीकरण व संख्या के संबंध में इनकी यह टिप्पणी अक्षरसः सही है। भारतीय साहित्यशास्त्र के पहले प्रथम उपलब्ध एवं प्रामाणिक ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' के रचानाकार भरतमुनि ने अलंकारों की संख्या चार निर्धारित की थी बाद में इस संख्या में उतरोत्तर वृद्धि होती गई जहाँ तक अलंकारों के सर्वप्रथम वर्गीकरण का प्रश्न है इसे आधार दिया है राजानक रुय्यक ने । इन्होंने जो मान्यताएँ दी उनके आधार पर अलंकारों के वर्गीकरण से संबंधित दो सिद्धान्त उभरकर सामने आते हैं-
पहला- आश्रयाश्रित सिद्धान्त ।
दूसरा- अन्वयव्यतिरेक सिद्धान्त ।
आश्रयाश्रित सिद्धान्त-
12 वीं शताब्दी के अन्त में आचार्य रूय्यक ने अपने ग्रन्थ 'अलंकार सर्वस्व' में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया इनके अनुसार जो अलंकार शब्द पर आश्रित है वे शब्दालंकार है और जो अर्थ पर आश्रित हैं वे अर्थालंकार.
अन्वयव्यतिरेक सिद्धान्त-
इस सिद्धान्त के संबंध में आचार्य मम्मट ने कहा है कि विशिष्ट शब्द - होने पर अलंकार विशेष हों तो शब्दालंकार होगा और विशिष्ट शब्द के न रहने पर शब्दालंकार अलंकारत्व में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अन्वय व्यतिरेक तर्क का आधार है- पूर्ववर्ती आधार के ह पर आघृत का रहना। इसके लिए 'प्रवृत्ति सहत्व' साक्ष्य है। उदाहरणार्थ बन्दहु गुरू पद पदुम परागा को लें तो यहाँ पर 'प' वर्ण की आवृत्ति बार - बार होनेपर अनुप्रास अलंकार है इसके स्थान पर यदि यही अर्थ ध्वनित करने वाले पद 'चरण-कमल-मकरन्द' करे रख दें तो अर्थ तो वही रहेगा लेकिन अनुप्रास अलंकार नहीं रहेगा। इसी सन्दर्भ में आगे चलकर अग्निपुराण के रचयिता ने अलंकारों के तीन स्पष्ट विभाजन किए जो बहुप्रचलित हैं-
1. शब्दालंकार
2. अर्थालंकार
3.उभयालंकार
तत्पश्चात् आचार्य भोज ने दण्डी के वर्गीकरण को केन्द्र में रखकर सभी अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थालंकार, उभयालंकार में विभाजित किया साथ ही इन तीनों वर्गों के अन्तर्गत आने वाले अलंकारों की सूची भी दी जिसका विवरण निम्न प्रकार है-
शब्दालंकार-
जाति, रीति, गति, वृति, छाया, उक्ति, मुद्रा, भणति, गुम्फन, शय्या, पठिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वक्रोवाक्य, प्रहेलिका, गूढ़ प्रश्नोतर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनय.
उभयलंकार- उपमा, रूपक, साक्य, संशयोक्ति, समाधि, युक्ति, अपहन्हुति, उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष, दीपक, क्रम, परिकर, अतिशय, पर्याय, संतुष्टि, भाविक एवं
आधुनिक काल में भी बहुविद्य समालोचकों ने उनमें सर्वाधिक मान्यता डॉ० नगेन्द्र के वर्गीकरण को मिली अपने ग्रन्थ ‘रीति काव्य की भूमिका' में इन्होंने व्यक्ति की मानसिक दशाओं को आधार बनाकर अलंकारों को छ: वर्गों में विभाजित किया है-
1. साधर्म्य प्रधान (मानसिक स्पष्टता)
2. अतिशय मूलक (विस्तार)
3. वैसम्य मूलक (आश्चर्य)
4. औचित्य मूलक (अन्विति)
5. वक्रता मूलक (जिज्ञासा)
6. चमत्कार मूलक (कोतुहल)
अलंकारों के प्रमुख भेद
आप अलंकारों के वर्गीकरण की परम्परा और विभिन्न आचार्यों द्वारा किए गए उनके वर्गीकरण के बारे में जान चकें हैं। आइए अब अलंकारों के बहुप्रचलित वर्गीकरण शब्दालंकार, अर्थालंकार, और उभयालंकार के साथ ही इनके अन्तर्गत आने वाले प्रमुख अलंकारों के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
1 शब्दालंकार-
जहाँ काव्य में शब्दों के माधम से चमत्कार उत्पन्न होता है वह शब्दालंकार होता है। जैसा कि नाम और परिभाषा से ही जाहिर है कि इसमें शब्दों का सौन्दर्य ही प्रमुख होता है ये शब्द पर आधारित होते हैं। इनमें कुछ विशेष शब्दों द्वारा काव्य सौन्दर्य में वृद्धि होती है ये विशेष शब्द जिस सौन्दर्य का प्रतिपादन करते हैं उनके स्थान पर यदि उनके पर्यायवाची शब्दों को रख दिया जाए तो काव्य सौन्दर्य में वृद्धि असम्भव है। मसलन हम कहें कि- चारू चन्द्र की चंचल किरणे खेल रही थी जल, थल यहाँ चारू, चन्द, और चंचल शब्दों में सौन्दर्य है इनके स्थान पर यदि इनके पर्यायवाची शब्द सुन्दर, मयंक, और अस्थिर रख दें तो काव्य में न ही नादात्मक सौन्दर्य आ पाएगा और न ही संगीतात्मकता कहना न होगा कि शब्दालंकार में विशिष्ट शब्दों का विशेष महत्व होता है।
यह शब्दालंकार काव्य में मूलतः दो प्रकार से आ सकता है।
- 1- वर्ण सौन्दर्य के द्वारा
- 2- वाक्य सौन्दर्य के द्वारा।
- आचार्य मम्मट ने मूलत: छः शब्दालंकार माने हैं- अनुप्रसा, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति, पुनरूक्तवदाभास तथा चित्र।
यहाँ हम प्रमुख शब्दालंकारों की विवेचना करेंगे- अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति, पुनरूक्तवदाभास, वीप्सा, तथा पुनरुक्ति प्रकाश ।
अनुप्रास-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं तात्पर्य यह कि जब एक वर्ण या वर्ण दो या उससे अधिक बार आवृति हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
“कल-कल कोमल कुसुम कुंज पर ।
मधु बरसाने वाला कौन।”
नोट- व्यंजनों की बार-बार आवृति होने पर ही अनुप्रास अलंकार होता है स्वरों की नहीं अनुप्रास मूलतः दो प्रकार का होता है- वर्णानुप्रास और पदानुसार। वर्णानुप्रास के भी दो भेद होते हैं- छेकानुप्रास और वृत्यानुप्रास ।
छेकानुप्रास-
छेक का अर्थ है चतुर ! जहाँ अनेक वर्णों की एक बार स्वरूप और क्रम से आवृति (सादृश्य) हो वहाँ छेकानुप्रास होता है चतुरों को अधिक प्रिय होने के कारण इसका नाम छेकानुप्रा पड़ा।
"सर सर हँस न होत बाजि गजराज न दर-दर ।
तरू तरू सुफल न होत नारि पतिव्रता धर-धर।।”
इन पंक्तियों में ‘सर-सर’, ‘दर-दर', 'तरू तरू', में छेकानुप्रास है क्योंकि यहाँ अनेक वर्णों की एक बार स्वरूप और क्रम से आवृति हुई है।
वृत्यानुप्रास-
जब एक साथ अनेक वर्णों की अनेक बार आवृति हो वहाँ वृत्यानुप्रास होता हैं जैसे-
'सम सुवरन सुखमाकर सुखद न थोर ।
सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर ।। "
इन पंक्तियों में 'स' वर्ण की अनेक बार आवृति क्रमशः हई है अतः वृत्यानुप्रास अलंकार है।
लाटानुप्रास
छेकानुप्रास और वृत्यानुप्रास में आप देख चुके हैं कि दानों में वर्ण या समूह की आवृति होती है लेकिन लाटानुप्रास में एक शब्द या वाक्य दो या उससे अधिक बार आता है किन्तु अन्वय करने पर उसका अर्थ भिन्न हो जाता है। लाट देश यानी गुजरात के विदग्ध लोगों को विशेष रूप से प्रिय होने के कारण इसे लाटानुप्रास कहते हैं. जैसे-
'पराधीन जो जन नहीं स्वर्ग नरक ता हेतु
पराधीन जो जन, नहीं स्वर्ग नरक ता हेतु । "
इस दोहे का अर्थ अन्वय करने पर इस प्रकार होगा- जो मनुष्य गुलाम नहीं, उसके लिए नरक भी स्वर्ग है। जो मनुष्य गुलाम है उसके लिए स्वर्ग, स्वर्ग नहीं नरक है।
एक बहुप्रचलित उदाहरण और देखिए-
पूत सपूत तो का धन संचय ? पूत कपूत तो का धन संचय?
यमक:
जब एक या एक से अधिक शब्द एक से अधिक बार प्रयुक्त हों एवं उनका प्रत्येक बार अर्थ अलग-अलग हो वहाँ यमक अलंकार होता है। जैसे-
"तों पर वारौं उरवसी सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उस वसी है, उसवसी समान ।। "
यहाँ पहली पंक्ति में उरवसी का अर्थ उर्वशी है दूसरी में उर वसी यानी हृदय में वसी के अर्थ में है।
श्लेष -
श्लेष का अर्थ है चिपकना। जहाँ किसी एक शब्द में कई अर्थ चिपके हों वहाँ श्लेष अलंकार होता है तात्पर्य यह कि जहाँ कवि एक से अधिक अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग करके काव्य में चमत्कार उत्पन्न करता है वहाँ श्लेष अलंकार होता है उदाहरण के लिए-
'चरन धरत शंका करत भावत नीद न शोर'
सुबरन को ढूढ़त फिरत कवि, व्यमिचारी चोर ।”
यहाँ सुबरन शब्द से काव्य में चमत्कार उत्पन्न हुआ है और उसके विभिन्न संदर्भों में तीन अर्थ हैं- कवि के संदर्भ में सुन्दर वर्ण, व्यभिचारी के संदर्भ में सुन्दर रूप रंग या शरीर, चोर के सन्दर्भ में सोना अतः उपरोक्त में श्लेष अलंकार है।
एक और उदाहरण देखिए-
'रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून ।
पानी गए न उबरे मोती मानस चून।। "
यहाँ भी पानी शब्द तीन विभिन्न अर्थ संदर्भों में प्रयुक्त हुआ है। मोती के सन्दर्भ में कान्ति, मनुष्य के संदर्भ में प्रतिष्ठा और चूने के संदर्भ में पानी । अतः श्लेष अलंकार है।
वक्रोक्ति-
वक्रोक्ति का अर्थ है ‘वक्र या टेढी उक्ति' अर्थात् किसी वक्ता द्वारा कही गई उक्ति का अर्थ घुमा-फिरा कर दूसरा ही ग्रहण करना। कहना न होगा कि जहाँ किसी उक्ति में वक्ता के अभिप्रेत आश्य से भिन्न अर्थ की कल्पना की जाए वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है- इसके दो भेद हैं-
1- श्लेष वक्रोक्ति
2- • काकु वक्रोक्ति-
उदाहरण के लिए रावण अंगद का संवाद देखिए- -
"सो भुजबल राख्यो उर घाली
तीतेउ सहसबाहु बलि, बाली।”
यहाँ जीतेउ का अर्थ हारेउ हो गया है अर्थात् उपरोक्त पंक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा- सहस्रार्जुन, बलि बालि से आप हारे थे। अतः वक्रोक्ति अलंकार है।
पुनरूक्तिवदाभास-
जहाँ दो शब्दों के अर्थ में पुनरूक्ति का अभास हो किन्तु वास्तविक अर्थों में दोनों एक ही अर्थ के द्योतक न होकर भिन्न-भिन्न अर्थों के द्योतक हों वहाँ पुनरूक्तिवदाभास अलंकार होता है। जैसे-
समय जा रहा है काल है आ रहा ।
में सचमुच उल्टा भाव भुवन में छा रहा ।।
उपरोक्त पंक्तियों में ‘समय' और 'काल' शब्दों से प्रतीत हो रहा है कि दोनों के अर्थ समान हैं गौर करें तो यहाँ काल का अर्थ 'मृत्यु है न कि समय । अतः यहाँ पुनरूक्ति न होकर पुनरुक्ति का आभास हो रहा है अतः यहाँ पनरूक्तिवदाभास अलंकार है।
पुनरूक्ति प्रकाश-
जहाँ काव्य में एक शब्द की एक या एक से अधिक बार आवृति हो उनका अर्थ भी समान हो वहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार होता है। जैसे-
छिल छिल कर छाले फोड़े, मल-मल कर मृदुल चरण से
घुल-घुल कर वह रह जाते, आँसू करूणा के कण से ।।
उपरोक्त काव्यांश में ‘छिल-छिल,' ‘मल-मल, ' 'घुल-घुल', शब्दों में पुनरूक्ति प्रकाश है। नोट- पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार काव्य में अर्थ की रूचिरता बढ़ाने के लिए प्रयुक्त होता है।
वीप्सा-
पुनरुक्ति प्रकाश की तरह ही इस अलंकार में भी शब्दों की पुनरावृत्ति होती है किन्तु यह आवृति अर्थ की रूचिरता या सौन्दर्य वर्धन के लिए नहीं अपितु मनोवेगों मसलन आदर, उत्साह, आश्चर्य, शोक,घृणा आदि की तीव्रता प्रकट करने के लिए होती है। काव्य में जहाँ ऐसा हो वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
'राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई । ”
यहाँ राम कहत चलु की बार-बार आवृति मूलतः भक्ति का आवेग प्रकट करने के लिए हुई है। अतः यहाँ वीप्सा अलंकार है।
अर्थालंकारः
आप शब्दालंकार एवं उसके अन्तर्गत आने वाले महत्वपूर्ण अलंकारों के संबंध में जान चुके हैं। आइए अब हम अर्थालंकार और इसके अन्तर्गत आने वाले कुछ महत्वपूर्ण अलंकारों के बारे में जानकारी प्राप्त करें। जब काव्य में सौन्दर्य शब्द के बजाय उसके अर्थ द्वारा आता है वहाँ अर्थालंकार होता है अब आप अर्थालंकार के स्वरुप को समझ गए होंगे। शब्दालंकार में जहाँ काव्य में चमत्कार शब्द में निहित होता है वहीं अर्थालंकार में चमत्कार अर्थ में निहित होता है। आइए अब कुछ महत्वपूर्ण अर्थालंकारों उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान, संदेह, मानवीकरण और विरोधाभास की परिभाषा सहित व्याख्या करते हैं।
उपमा-
उपमा का शाब्दिक अर्थ है 'उप' (समीप) 'मा' (मापना तौलना) अर्थात् जहाँ दो भिन्न पदार्थों की आपस में तुलना कर उनकी समानता व्यक्त की जाए वहाँ उपमा अलंकार होता है. यह सभी सादृश्यमूलक अलंकारों का मूलाधार माना जाता है। इसके चार अंग हैं।
1. उपमेय- जिसको उपमा दी जाए।
2. उपमान- जिससे उपमा दी जाए।
3. साधारण धर्म- उपमेय तथा उपमान में उपस्थित वह गुण जो दानों में समान रूप से पाया जाता है जैसे 'मुख चन्द्रमा सा सुन्दर' है. इस वाक्य में मुख (उपमेय) चन्द्रमा (उपमान) और दोनों में समान रूप से पाया जाने वाला साधारण धर्म यानी गुण सुन्दर है।
4. वाचक शब्द- उपमेय तथा उपमान में सादृश्य बताने वाला शब्द (समान, सा, सदृश्य) वाचक कहलाता है। जैसे मुख चन्द्रमा के सा सुन्दर है वाक्य में 'सा' शब्द वाचक है।
उपमा के प्रमुख दो भेद होते हैं-
1. पूर्णोपमा
2. लुप्तोपमा
रूपक -
जहाँ उपमेय और उपमान का निषेध रहित आरोप हो वहाँ रूपक अलंकार होता है। आरोप से आशय है - एक वस्तु से दूसरी वस्तु को साथ इस प्रकार रखना कि दोनों में अभेद हो जाए अर्थात् कोई अन्तर न रहे।
जैसे-
'अधर-लता के फूल सुनहले, लाज- अनिल से झर जाते।'
इसकी प्रथम पंक्ति में अधर (उपमेय) का लता (उपमान) का दूसरी पंक्ति में लाज (उपमेय) का अनिल (उपमा) का निषेध रहित आरोप है अतः यहाँ रूपक अलंकार है।
उत्प्रेक्षा-
उत्प्रेक्षा का शाब्दिक अर्थ है- उत्कृष्ट रूप में प्रकष्ट (उपमान) को देखना अर्थात् सम्भावना करना। यानी जहाँ उपमेय और उपमान भिन्न होते हुए भी इनमें समानता की सम्भावना मानी जाए वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे-
'सोहत ओढ़े पीत-पट श्याम सलोने गात।'
मनहूँ नीलमनि शैल पर आतप परयो प्रभात।"
उपरोक्त दोहे में पीताम्बर धारी श्याम कृष्ण बिहारी (उपमेय) में नीलमणि पर्वत पर प्रातः कालीन धूप (उपमान) । की सम्भावना व्यक्त की गई है अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।
भ्रान्तिमान -
जहाँ सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान का भ्रम हो, साथ ही उपमेय को उपमान समझ लिया जाए वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है। जैसे-
बिल विचार कर नाग सूँड में घुसने लगा विषैला साँप ।
काली ईख समझ विषधर को उठा लिया गज ने झट आप ।।
उपरोक्त पंक्तियों में भ्रम के कारण हाथी के सूँड का छिद्र साँप को बिल प्रतीत हो रहा है तथा हाथी को बिषैले साँप में काली ईख का भ्रम हो रहा है अतः यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है ।
संदेह -
जहाँ उपमेय और उपमान में अत्यधिक समानता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि इनमें कौन उपमेय है? कौन उपमान। अर्थात् संदेह बना रहता है वहाँ संदेह अलंकार होता है।
जैसे-
सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
कि सारी ही कि नारी है कि नारी ही कि सारी है?
उपरोक्त पंक्तियों में द्रापदी के चीर हरण के समय चीर का ढेर देखकर संदेह हो रहा है कि साड़ी के बीच में नारी है कि नारी के बीच में साड़ी है अतः यहाँ संदेह अलंकार है।
मानवीकरण -
जहाँ प्रकृति, पशु-पक्षी, एवं निर्जीव पदार्थों अर्थात् मानव से इतर पदार्थों में मानवीय गुण आरोपित किए जाएँ वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है। जैसे-
बीती विभावरी जाग री'
अम्बर- पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा नगरी।।”
यहाँ रात्रि बीतने और उषा काल का वर्णन करते समय कवि ने उषा को युवती के रूप में चित्रित किया है जो आकाश रूपी पनघट में तारे रूपी घड़े को डुबो रही है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
विरोधाभास -
जहाँ वास्तव में दो वस्तुओं में विरोध न हो केवल विरोध का आभास हो वहाँ विराधाभास अलंकार होता है। जैसे '
तंत्री नाद कविता रस, सरस राग, रति रंग ।
अनबूढ़े तिरे जे बूढ़े सब अंग ॥
उपरोक्त दोहे में ‘जो नही डूबे थे वे डूबे गए ओर जो अच्छी तरह डूब गए वे तर गए' में विरोध प्रतीत हो रहा है। लेकिन वास्तव में विचार किया जाए तो यहाँ कवि का तात्पर्य यह है कि जो संगीत, काव्य और प्रेम में लीन नहीं होते वे असफल हो जाते हैं जो पूरी तरह तल्लीन हो जाते हैं वे सफल हो जाते हैं अतः यहाँ विरोध का आभास मात्र है विरोध नहीं। इसलिए यहाँ विरोधाभास अलंकार है ।
उभयालंकार:
आइए अब उभयालंकार के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। काव्य में अनेक बार एक ही स्थान पर दो या दो से अधिक अलंकार विद्यमान होते हैं ऐसे स्थान पर उभयालंकार होता है।
जैसे-
सम सुबरन सषमाकर सुखद न थोर ।
सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर ॥
उपरोक्त पंक्तियों में पहली पंक्ति में पहली पंक्ति में अनुप्रास और दूसरी पंक्ति में व्यतिरेक अलंकार है। अतः यहाँ पर उभयालंकार है।