अलंकार सिद्धान्त ( अलंकार सम्प्रदाय)
अलंकार से आप क्या समझते हैं
अलंकार शब्द की
व्युत्पत्ति अलं शब्द से हुई है. आचार्य दण्डी के शब्दों में कहें तो- “काव्य शोभाकारान
धर्मानलंकार प्रचक्षते ।”
(आचार्य दण्डी) अर्थात काव्य की शोभा बढाने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं ।
अलंकार को और अधिक स्पष्ट रूप में परिभाषित करें तो हम इस दो रूपों में जान सकते
हैं।
(एक) साधन परक रूप
में इस रूप में दो प्रकार से जाना जा सकता है
प्रथम-
अलंक्रियतेऽनेन इति अलंकारः अर्थात जो अलंकृत करे या काव्य की शोभा में वृद्धि
करे।
द्वितीय-
"अलंकरोति इति अलंकारः । " अर्थात् अलंकृत करे या शोभित करे ।
(दो) भाव परक रूप
में - “ अलंकृति अलंकारः
। ” अर्थात् अलंकरण
ही अलंकार है । अब आप जानना चाहेंगे कि ” अलंकरण करना क्या है? इसका तात्पर्य है शोभित करना, सौन्दर्य बढ़ाना । दरअसल सुन्दरता सभी
प्राणियों की प्रिय वस्तु है जिस प्रकार उचित रहन-सहन, खान-पान, वेश- भूषा आदि
मनुष्य के सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं उसी प्रकार अलंकारों के उचित प्रयोग से
काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि होती है।
अलंकार का मूल
अर्थ तो अब आप समझ गए होंगे आइए आगे अलंकार के संबंध में और अधिक जानकारी प्राप्त
करें।
अलंकार मूलतः
साहित्य के सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले कारक हैं उसकी आत्मा नहीं। वे साधन है
साध्य नहीं। उनके उचित प्रयोग से ही काव्य की शोभा में बृद्धि होती है। यह भी
स्मरणीय है कि काव्य में अलंकारों का अतिशय प्रयोग उसके मूल सौन्दर्य को नष्ट कर
देता है मसलन जब कोई सुन्दर नारी आभूषण पहनती है तो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग
जाते हैं इसके विपरीत वह आभूषणों से ही लद जाए तो वह सुन्दर के बजाय कुरूप ही अधिक
लगेगी।
अलंकार संबंधी अलंकारवादी मत-
अलंकार शास्त्र
के जन्म के कई शताब्दी पहले भारतीय साहित्य में अलंकारों का प्रयोग होता रहा है.
ऋग्वेद की हम बात करें तो उसमें 'अरंकृति' शब्द का प्रयोग मिलता है-
“का तेऽस्त्यरंकृतिः सूक्तै कदा नूनं ने महावन दारमे।” (ऋग्वेद 7129131)
लेकिन सर्वप्रथम भारतीय काव्य शास्त्र का उपलब्ध प्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थ आचार्य भरतमुनि प्रणीत नाट्य शास्त्र है जिसमें इन्होंने उपमा, रूपक, दीपक एवं यमक इन चार अलंकारों का उल्लेख किया है। तत्पश्चात आचार्य मेहाविन का नाम केवल परवर्ती ग्रन्थों में मिलता इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। वास्तविक अर्थों में अलंकार संबंधी शास्त्रीय मत परम्परा की असल शुरूआत छठीं शताब्दी में हुई इसे प्रतिष्ठित करने में आचार्य भामह का नाम उल्लेखनीय है इन्होंने अपने ग्रन्थ ‘काव्यालंकार' में अऽचालीस अलंकारों का उल्लेख किया है साथ ही अलंकारों को काव्य का अनिवार्य तत्व माना है-न कान्तमपि निर्भूसं विभति वनिता मुखम् (काव्यालंकार 1.13) (जिस प्रकार कमनीय नारी का सुन्दर मुख भी बिना आभूषणों के शोभा नहीं देता उसी प्रकार अलंकारों के अभाव में काव्य सुन्दरता को प्राप्त नहीं करता)। आचार्य भामह के बाद अलंकारवादियों में आचार्य दण्डी का प्रमुख स्थान है अपने ग्रन्थ काव्यदर्श में इन्होंने इकतीस अलंकारों का विवेचन किया है और समस्त शोभादायक धर्मों को अलंकार कहा है-
“
काव्य शोभाकारान धर्मानलंकार प्रचक्षते ।” (काव्यादर्श 2.1)
दण्डी के बाद लगभग आठवीं शताब्दी के साहित्यशास्त्रियों उद्भट और वामन का नाम उल्लेखनीय है। इनके ग्रन्थ क्रमशः काव्यालंकार सार संग्रह और काव्यालंकारसूत्रवृत्ति है उद्भट ने 48 अलंकारों को अपने ग्रन्थ में विवेचित किया है। आचार्य वामन अलंकारों को काव्य में महत्वपूर्ण स्थान देते है। काव्य सौन्दर्य की प्रतिष्ठा अलंकारों में निहित मानते हैं इनके विचार से 'सौन्दर्य' ही अलंकार है सौन्दर्य के समावेश से ही काव्य ग्रहण करने योग्य है-
काव्यं
ग्राह्यमलंकारात। सौन्दर्यमलंकारः (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति)
वामन के उपरान्त अलंकार सम्प्रदाय के समर्थन में मत व्यक्त करने वाले आचार्यों में कमी आती दिखाई पड़ती है वह इसलिए कि नवीं सदी के आरम्भ में ध्वनि सिद्धान्त का प्रवर्तन हो चुका था जिसके प्रतिपादक आचार्य आनन्दवर्धन थे। जिसमें रस, अलंकार आदि सिद्धान्त ध्वनि के अन्तर्गत विवेचित किए जाने लगे थे। इसके बावजूद भी महिम भट्ट, कुन्तक, नामिसाधु ने अलंकारों पर अपने मत व्यक्त किए।
महिम भट्ट
अलंकारों को काव्य में अभिधा रूप में स्वीकार करते हैं और इन्हें भणिति की भंगिमा
का रूप मानते हैं। कुन्तक की दृष्टि में कथ्य की विशेष शैली ही अलंकार है साथ ही
ये शैली में वक्रता का होना अपरिहार्यं मानते हैं।नामि साधु सभी हृदय जीतने वाले
अर्थ प्रकारों को अलंकार की सीमा में संनिहित मानते हैं।
उपरोक्त अलंकारवादियों के मतों से ज्ञात होता है कि-
- इन्होंने अलंकार शब्द का प्रयोग एवं ग्रहण व्यापक अर्थों में किया है इनकी दृष्टि में अलंकार काव्य सौन्दर्य के सभी साधनों को अपने में समाहित करता हैं
- इनकी दृष्टि में अलंकार काव्य का सर्वस्व है इन्होंने इसे काव्य की आत्मा कहा है किन्तु रस, ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति, आदि सम्प्रदायों की तरह 'स्पष्ट रूप में काव्य की आत्मा घोषित नहीं किया इसे काव्य की प्राणधारा जरूर माना है।
- अग्निपुराण में तो रस को काव्य की आत्मा मानते हुए भी अलंकार को काव्य की प्राणधारा माना है और साथ ही यह भी कहा है कि- अलंकार रहिता विधवैव सरस्वती" अर्थात् अलंकारों के अभाव में वाणी विधवा के समान है।
अलंकार सम्प्रदाय क्या है
आप अलंकार संबंधी
विभिन्न साहित्याचार्यों के मतों को जान चुके हैं आइए अब अलंकार सम्प्रदाय के
स्वरूप के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं-
आप जान चुके हैं
कि अलंकार सम्प्रदाय के प्रतिपादक आचार्य भामह हैं. इन्होंने अलंकारों के स्वरूप
के बारे में कहा है, “अलंकार काव्य का
अन्तरंग तत्व है और उसका सर्वस्व वक्रोक्ति है अर्थात् इन्होंने अलंकार का मूल ही
वक्रोक्ति यानी वचन के टेढ़ेपन को माना है इनकी दृष्टि में साधारण शब्द अर्थ नहीं
वल्कि वक्र शब्द अर्थ ( अलंकृत शब्द और अर्थ ) ही काव्य है। आचार्य दण्डी ने भी रस, भाव आदि को
स्वतंत्र न मानकर इन्हें अलंकार के अन्तर्गत मान है इन्होंने सभी शोभा कारक
उपकरणों को अलंकार के अन्तर्गत समाहित करने का प्रयास किया है। आचार्य वामन
अलंकारों की स्वतंत्र सत्ता को नकारते हुए उन्हें गुणों के माध्यम से काव्य
सौन्दर्य के विधायक धर्म मानते हैं। इन्होंने गुणों को काव्य का नित्य धर्म बताया
है और अलंकार को उसका सहायक माना है। नौवीं शताब्दी के आरम्भ में ध्वनि सम्प्रदाय
के अविर्भाव से अलंकार सम्प्रदाय की प्रतिष्ठ में कमी होती नजर आती है। आचार्य
आनन्दवर्धन ने अलंकारवादी आचार्यों की मान्यताओं का खण्डन करते हुए कहा है, अलंकारों का
विधान रसादि के अंग के रूप में होना चाहिए न कि अंगी के रूप में- “विवक्षा
तत्परत्वेन लाँगित्वेन कदाचन् । ” ( ध्वन्यालोक 2 / 1 ) इनकी दृष्टि से अलंकार काव्य का प्राण तत्व
नहीं बल्कि रस को प्रकाशित करने वाला धर्म है जो अपने धर्म द्वारा साधारणीकृत होने
में सहयोग करता है। यों तो आचार्य मम्मट रसवादी हैं लेकिन इन्होंने अपने समय (11वीं सदी) तक
प्रचलित सभी काव्य सिद्धान्तों का अपने ग्रन्थ 'काव्य प्रकाश' में समन्वय किया है। इनकी दृष्टि में अलंकारों
का मुख्य उद्देश्य रस को पुष्ट करना है. ये मानते हैं कि हार, आभूषण आदि अलंकार
के प्रकार हैं जो रस के उपकारक हैं।
आचार्य मम्म्ट तो
स्पष्ट शब्दों में 'अनलंकृति पुनः
क्वापि' कहकर काव्य में
अलंकारों की अनिवार्य उपयोगिता को ही समाप्त कर देते हैं। किन्तु 13 वीं शताब्दी के
आचार्य जयदेव को मम्मट की मान्यता स्वीकार नहीं है। मम्मट की मान्यताओं का खण्डन
करते हुए वे कहते हैं- जिसे काव्य में अलंकार स्वीकार नहीं वह अग्नि को उष्णता
रहित क्यों नहीं मानता - " अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थालंकृति। असौ न
मन्यते कस्मादनुस्णमनलंकृति || ” (चंद्रलोक 1/8 ) आचार्य विश्वनाथ ( चौदहवीं शताब्दी ) ध्वनिवादी आनन्दवर्धन
और रसवादी मम्मट से प्रेरणा लेकर अलंकार को शब्द ) और अर्थ का अस्थि धर्म मानते
हैं।
अलंकारों के
स्वरूप के संबंध में विभिन्न आचार्यों के मतों की विवेचना का जो सार है उसे हम
निम्न बिन्दुओं के रूप में ग्रहण कर सकते हैं-
काव्य में
अलंकारों की उपस्थिति अनिवार्य है अलंकारों के अभाव में काव्य सौन्दर्य को प्राप्त
नहीं कर सकता। जैसे सुन्दर स्त्री की सुन्दरता आभूषणों के अभाव में फीकी लगती है।
- काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य मूलतः गुण, रस, रीति, आदि अलंकार पर आश्रित है।
- अलंकारों के अन्तर्गत गुण, दोष आदि सभी काव्यांगों की गणना की जाती है।
- अलंकार रस या काव्य का प्राणतत्व नहीं बल्कि रस को प्रकाशित करने वाला धर्म है.
- अलंकार काव्य में सीधे सौन्दर्य प्रदान करने वाले साधन मात्र नहीं बल्कि गुणों को उत्कर्ष प्रदान करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. गुण ही हैं जो काव्य को शोभा प्रदान करते हैं।
उपरोक्त विवेचना से निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि अलंकार काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं है वह शब्दार्थ के साधन द्वारा रस का उपकारक है। 'अनलंकृति पुनः क्वापि' के माध्यम से आचार्य मम्मट ने मूलतः यही सिद्ध करने का प्रयास किया है. कहना न होगा कि अलंकार काव्य के बाह्य शोभा कारक धर्म हैं। आचार्य विश्वनाथ और मम्मट के विचारों से यही पुष्ट होता है। भामह, दण्डी, उद्भट भी केवल अलंकारों को काव्य का अनिवार्य साधन मानते हैं। आन्तरिक धर्म नहीं। यह दृष्टिकोण मूलतः ध्वनिवादियों का है। अलंकार वादी तो अलंकार को काव्य का सर्वस्व मानते हैं।