सहसम्बन्ध गुणांक एवं प्रकार |Correlation Coefficient and Normal types

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सहसम्बन्ध गुणांक एवं प्रकार 

सहसम्बन्ध गुणांक एवं प्रकार  |Correlation Coefficient and Normal types



 सहसम्बन्ध गुणांक प्रकार प्रस्तावना

 

किसी केन्द्रीय प्रवृत्ति की मापें स्थित सूचक मान तथा विचलनशीलता गुणांक द्वारा किसी एक चर के आधार पर किसी समूह की प्रकृति को जाना जा सकता है। परन्तु किसी समूह के व्यक्तियों या छात्रों के लिए दो चरों या विशेषताओं के साथ-साथ बढ़ने या घटने की प्रवृत्ति का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। सांख्यिकी प्रविधियों में दो चरों के बीच सम्बन्ध ज्ञात करने के लिए सह सम्बन्ध गुणांक का प्रयोग किया जाता है। यदि किसी चर जैसे- बुद्धि, अभिवृत्ति या शैक्षिक उपलब्धि आदि पर प्राप्त अंकों का आवृत्ति वक्र तैयार किया जाता है तो उसकी आकृति एक घण्टे के रूप में आ जाती है जिसमें अधिकांश प्राप्तांक मध्य में स्थित होते है तथा वक्र के दोनों ओर प्राप्तांकों की संख्या क्रमशः घटती जाती है। इस प्रकार के वक्र लगभग सममित और औसत वक्रता वाले होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समूह का आकार अर्थात आवृत्तियाँ बढ़ती जाती है जिसे सामान्य प्रायिकता वक्र कहते हैं। सांख्यिकी में प्रदत्तों के विश्लेषण की दृष्टि से सामान्य प्रायिकता वक्र का महत्वपूर्ण उपयोग है। 


सहसम्बन्ध तथा सहसम्बन्ध गुणांक (Correlation and Coefficient of Correlation)

 

सहसम्बन्ध से तात्पर्य दो चरों या परीक्षणों पर अर्जित प्राप्तांकों में निहित सम्बन्धों से होता है। अर्थात् सहसम्बन्ध युग्मित प्राप्तांकों के बीच सहगामी परिवर्तनों को बताता है। यह बताता है कि किसी चर के मान में परिवर्तन होने पर दूसरे घर के मान में क्या प्रभाव पड़ता है दो चरों के निहित सम्बन्धों को सहसम्बन्ध गुणांक के रूप में व्यक्त किया जाता है। 


सह सम्बन्ध गुणांक दो चरों के बीच होने वाले सहगामी परिवर्तनों की माप करता है। गिलफोर्ड (Guilford) ने सहसम्बन्ध को परिभाषित करते हुए कहा हैं-

 

"सहसम्बन्ध गुणांक वह अंक है जो यह बतलाता है कि दो वस्तुएँ कहाँ तक सम्बन्धित है तथा कहाँ तक एक में परिवर्तन होने पर दूसरे में भी परिवर्तन होता है।" डाउनी एवं हेथ (Downie and Health, 1970) ने भी कहा है कि "सहसम्बन्ध मूलतः दो चरों के बीच के सम्बन्धों का मान है।"

 

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि-

 

(i) सहसम्बन्ध को सहसम्बन्ध गुणांक के रूप में व्यक्त किया जाता है । 

(ii) सहसम्बन्ध गुणांक एक आनुपातित संख्या है। जो सहसम्बन्ध की शक्ति या मात्रा को बताता है। इसका मान - 1.00 से +1.00 के बीच होता है। 

(iii) सहसम्बन्ध गुणांक का गणितीय चिन्ह सहसम्बन्ध की दिशा को बताता है। धन चिन्ह बताता है कि एक चर के मान में परिवर्तन होने पर अर्थात् एक चर के घटने या बढ़ने पर दूसरे चर का मान भी उसी दिशा में परिवर्तित होता है अर्थात् घटने पर घटता है तथा बढ़ने पर बढ़ता है जबकि श्रण चिन्ह बताता है कि परिवर्तन वितरीत दिशा में होता है अर्थात एक चर के घटने पर दूसरा बढ़ता है या एक के बढ़ने पर दूसरा घटता है।

 

उदाहरण के लिए कोई शोधकर्ता यदि जानना चाहता है कि 20 छात्रों की बुद्धिलब्धि तथा शैक्षिक उपलब्धि में कोई सहसम्बन्ध है या नहीं तो वह बुद्धिलकि T के प्राप्तांकों तथा शैक्षिक उपलब्धि के प्राप्तांकों के मध्य सहसम्बन्ध गुणांक को परिकलित कर जान सकता है कि बुद्धिलब्धि के प्राप्तांकों में परिवर्तन होने पर शैक्षिक उपलब्धि के प्राप्तांक कहाँ तक और किस दिशा में परिवर्तन हुए है।

 

सहसम्बन्ध के प्रकार :

 

सांख्यिकी विशेषज्ञों ने सहसम्बन्ध के मुख्य दो प्रकार बतलाये है-

 

(क) गुणात्मक सहसम्बन्ध

 

जब दो चरों में सहसम्बन्ध को किसी विशेष गुण जैसे सीधी रेखी या वक्रीय रेखा द्वारा व्यक्त किया जाता है तो उसे गुणात्मक सहसम्बन्ध कहा जाता है। गुणात्मक सहसम्बन्ध के निम्न दो प्रकार होते है-

 

(i) रेखीय सहसम्बन्ध (Linear Correlation)

 

जब दो चरों के सहसम्बन्ध को एक सीधी रेखा द्वारा व्यक्त किया जाता है, तो वह सहसम्बन्ध रेखीय कहलाता है. 



(ii) वक्ररेखीय या अरेखीय सहसम्बन्ध (Curvilinear or Non-linear Correlation) जब दो घरों के सहसम्बन्ध को टेढी-मेढ़ी रेखा या वक्र के रूप में व्यक्त किया जाता है तो यह सहसम्बन्ध वक्ररेखीय या अरेखिक सहसम्बन्ध कहलाता है। 

 

(ख) परिमाणात्क सहसम्बन्ध

 

जब दो चरों के मध्य सहसम्बन्ध को संख्या द्वारा व्यक्त किया जाता है तो परिमाणात्मक सहसम्बन्ध कहते है। परिमाणात्मक सहसम्बन्ध के तीन प्रकार होते है-

 

(i) धनात्मक सहसम्बन्ध (Positive Correlation) 

जब दो चरों के मध्य का सहसम्बन्ध इस प्रकार का होता है कि एक चर में परिवर्तन होने पर दूसरे में परिवर्तन ठीक उसी तरह का होता है तो ऐसे सहसम्बन्ध को धनात्मक सहसम्बन्ध कहते हैं अर्थात् एक चर के बढ़ने पर दूसरा चर भी बढ़े या एक चर के घटने पर दूसरे चर में घटोत्तरी हो। उदाहरण के लिए आयु तथा परिपक्वता के मध्य सहसम्बन्ध को धनात्मक सहसम्बन्ध कह सकते हैं। क्योंकि आयु में वृद्धि होने पर परिपक्वता में भी वृद्धि होती है। 

 

(ii) ऋणात्मक सहसम्बन्ध (Negative Correlation )

 ऋणात्मक सहसम्बन्ध में धनात्मक के विपरीत स्थिति पाई जाती है । अर्थात् यदि एक चर में बढ़ोत्तरी होने पर दूसरे चर में घटोत्तरी हो या एक चर के मान में घटोत्तरी होने पर दूसरे चर के मान में बढ़ोत्तरी हो तो ऐसे सह सम्बन्ध को ऋणात्मक सहसम्बन्ध कहते है। उदाहरण के लिए किसी वस्तु के मूल्य तथा पूर्ति के मध्य का सहसम्बन्ध । ऋणात्मक सहसम्बन्ध की स्थिति को निम्न चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-

 

(iii) शून्य सहसम्बन्ध (Zero Correlation)

 

ऐसे सहसम्बन्ध को शून्य सहसम्बन्ध कहते है जिसमें दो चरों के मध्य किसी प्रकार का संगत सम्बन्ध न हों। अर्थात् एक चर के मान में परिवर्तन होने पर दूसरे चर के मान में कोई स्पष्ट परिवर्तन न हो । शून्य सहसम्बन्ध को निम्न चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-

 

उपरोक्त प्रकारों के अतिरिक्त भी अन्य आधारों पर सहसम्बन्ध के विभिन्न प्रकारों को व्यक्त किया जा सकता है-

 

शाब्दिक व्याख्या के आधार पर सहसम्बन्ध के प्रकार

 

शाब्दिक व्याख्या के दृष्टि से सहसम्बन्ध के प्रकारों को निम्न तालिका में देखा जा सकता है-

 

शाब्दिक व्याख्या के आधार पर सहसम्बन्ध के प्रकार

कारणता के आधार पर सहसम्बन्ध के प्रकार-

 

दो चरों के मध्य सहसम्बन्ध तीन कारणों से हो सकता है। इसी आधार पर सहसम्बन्ध को तीन प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है-

 

(i) सममित सहसम्बन्ध (Symmetrical Correlation)

 

सममित सहसम्बन्ध की स्थिति में दोनों चर किसी तीसरे चर से प्रभावित होने के कारण सहसम्बन्ध होते है। जैसे विभिन्न विषयों के मध्य सहसम्बन्ध बुद्धि से प्रभावित होते है। इसी प्रकार भार व ऊँचाई के मध्य आयु के कारण उच्च सहसम्बन्ध पाया जाता है।

 

(ii) असममित सहसम्बन्ध ( Asymmetrical Correlation)

 

असममित सहसम्बन्ध की स्थिति में एक चर दूसरे चर को प्रभावित करता है। प्रभावित करने वाला चर कारण होता है तथा प्रभावित होने वाला चर प्रभाव होता है। जैसे बुद्धि तथा शैक्षिक उपलब्धि के मध्य असममित सहसम्बन्ध होता है।

 

सहसम्बन्ध ज्ञात करने की विधियाँ :

 

सहसम्बन्ध ज्ञात करने की कई विधियाँ है जिनमें से प्रमुख विधियाँ निम्न है-

 

(i) गुणन-आघूर्ण सहसम्बन्ध (Product Moment Correlation) 

(ii) श्रेणी क्रम सहसम्बन्ध (Rank Order Correlation) 

(iii) संगति गुणांक (Coefficient of Concordance) 

(iv) द्विपाक्तिक सहसम्बन्ध (Biserial Concordance) 

(v) अंक द्विपांक्तिक सहसम्बन्ध (Point - biserial Correlation) 

(vi) चतुष्कोष्टिक सहसम्बन्ध ( Tetrachoric Correlation) 

(vii) फाई सहसम्बन्ध (Phi-coefficient of Correlation) 

(viii) आसंग गुणांक (Coefficient of Contingency) 

(ix) आंशिक सहसम्बन्ध (Partial Correlation) 

(x) सहसम्बन्ध समानुपात (Correlation Ratio) 

(xi) बहु सहसम्बन्ध (Multiple Correlation )

 

उपरोक्त विधियों में श्रेणी क्रम सहसम्बन्ध तथा गुणन-आघूर्ण सह सम्बन्ध गुणांक का प्रयोग व्यावहारिक रूप में ज्यादा होता है। इसलिए इन्हीं दो विधियों द्वारा सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात करने की प्रक्रिया का वर्णन ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

 

गुणनफल आघूर्ण सहसम्बन्ण गुणांक : (Product-Moment Coefficient Correlation)

 

गुणनफल या घूर्ण सहसम्बन्ध गुणांक का प्रतिपादन कार्ल पियरसन (Karl Pearson) के द्वारा सन् 1896 में किया गया था। इसलिए इस विधि को पियर्ससन विधि भी कहते हैं । इस विधि में दोनों चरों पर विभिन्न व्यक्तियों के प्राप्तांकों के सापेक्ष जेड़ प्राप्तांकों की गुणाओं का आघूर्ण अर्थात् गुणनफल आघूर्ण ज्ञात किया जाता है। यह गुणनफल आघूर्ण ही दोनों चरों के बीच सहसम्बन्ध की मात्रा को इंगित करता है। इसे आंग्लभाषा के अक्षर (आर) से प्रदर्शित किया जाता है। अतः

गुणनफल आघूर्ण सहसम्बन्ण गुणांक : (Product-Moment Coefficient Correlation)


गुणनफल आघूर्ण सहसम्बन्ण गुणांक : (Product-Moment Coefficient Correlation)


श्रेणीक्रम सहसम्बन्ध गुणांक (Rank Order Correlation Coefficient)

 

श्रेणी क्रम सहसम्बन्ध गुणांक का प्रयोग दो क्रमित स्तर पर मानित चरों के मध्य सहसम्बन्ध ज्ञात करने के लिए किया जाता है। श्रेणी क्रम सहसम्बन्ध गुणांक वास्तव में श्रेणीबद्ध प्रदत्तों के मध्य गुणनफल-आघूर्ण सहसम्बन्ध गुणांक है। इसीलिए इसे गुणनफल आघूर्ण सहसम्बन्ध का एक अच्छा विकल्प माना जाता है तथा व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए इसकी व्याख्या गुणनफल आघूर्ण सहसम्बन्ध गुणांक के समान ही की जाती है। इस विधि का प्रतिपादन चार्ल्स स्पीयरमैन (Charles Spearman) ने किया था इसलिए इसे स्पीयरमैन सह- सम्बन्ध गुणांक भी कहते है। इसे लैटिन भाषा के अक्षर रो (Rho) से व्यक्त किया जाता है। इस विधि में निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है-

 

श्रेणीक्रम सहसम्बन्ध गुणांक (Rank Order Correlation Coefficient)



गणना का सोपान

 

इस विधि द्वारा सहसम्बन्ध गुणांक की गणना हेतु निम्न सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

 

(i) एक चर (X) के प्राप्तांकों को क्रमबद्ध करके सबसे बड़े प्राप्तांक को प्रथम क्रम अर्थात् श्रेणी तथा सबसे छोटे प्राप्तांक को सबसे बाद का क्रम प्रदान कर Ry प्राप्त करना ।

 

(ii) इसी प्रकार से दूसरे चर (Y) के प्राप्तांकों को क्रमबद्ध करके सबसे बड़े प्राप्तांक को पहला क्रम तथा सबसे छोटे प्राप्तांक को सबसे बाद का क्रम प्रदान करके R प्राप्त करना । 

(iii) प्रत्येक छात्र / व्यक्ति द्वारा प्राप्त RX तथा RY का अन्तर प्राप्त करना । 

(iv) प्रत्येक का D वर्ग कर D2 प्राप्त करना । 

(v)  D2 के सम्बन्ध का योग करके ZD2 प्राप्त करना । 

(vi) N तथा 2D के प्राप्त मानों को उपरोक्त सूत्र में रखकर P की गणना कर सह-सम्बन्ध गुणांक ज्ञात करना ।

 

विशेष - 

श्रेणीक्रम विधि से सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात करके समय कभी किसी एक चर या दोनों चरों के कुछ प्राप्तांकों का मान एक समान होता है। ऐसी प्राप्तांकों को समान प्राप्तांक (Tied Scores) कहते है ऐसी स्थिति में क्रम प्रदान के लिए सर्वप्रथम सभी प्राप्ताकों को आकार के अनुरूप व्यवस्थित करके अस्थायी क्रम देते है तथा समान प्राप्तांकों के द्वारा प्राप्त विभिन्न क्रमों का औसत ज्ञात कर लेते हैं फिर सह सम्बन्ध गुणांक की गणना के लिए क्रम देते समय उन समान प्राप्तांकों में से प्रत्येक को यह औसत दे दिया जाता है।

 

उपरोक्त गणना के सोपानों तथा समान प्राप्तांक स्थिति को निम्न उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है।

 

उदाहरण - 10 छात्रों के गणित तथा विज्ञान विषयों के परीक्षण पर प्राप्तांक निम्नानुसार थे। गणित तथा विज्ञान के प्राप्तांकों के बीच निम्नानुसार थे। गणित तथा विज्ञान के प्राप्तांकों के बीच श्रेणी क्रम सहसम्बन्ध की गणना कीजिये।

 

श्रेणीक्रम सहसम्बन्ध गुणांक (Rank Order Correlation Coefficient)

 

सहसम्बन्ध गुणांक की विशेषतायें :

 

सहसम्बन्ध गुणांक की निम्न प्रमुख विशेषतायें होती है-

 

(i) सहसम्बन्ध गुणांक प्रकसार - 1.00 से लेकर +1.00 के मध्य होता है । अर्थात् सहसम्बध गुणांक का सैद्धान्तिक प्रसार - 1 से +1 तक है। इसका मान कभी -1 से कम तथा +1 से अधिक नहीं हो सकता है।

 

(ii) सहसम्बन्ध गुणांक एक शुद्ध अंक है। इसकी कोई इकाई नहीं होती है यदि प्राप्तांकों को इकाइयों में बदल दिय जाये तब भी सहसम्बन्ध गुणांक के मान में कोई अन्तर नहीं आता है।

 

(iii) किसी एक अथवा दोनों चरों के प्राप्तांकों में किसी स्थिरांक को जोड़ने, घटाने, गुणा करने या भाग देने पर सहसम्बन्ध गुणांक अप्रभावित रहता है।

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