भारतीय साहित्य सिद्धान्त - औचित्य | Hindi Sahitya Auchitya

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भारतीय साहित्य सिद्धान्त - औचित्य

भारतीय साहित्य सिद्धान्त - औचित्य | Hindi Sahitya Auchitya


 

भारतीय काव्यशास्त्र में औचित्य की पूर्व परम्परा

 

इस भाग में हम आचार्य क्षेमेन्द्र के पूर्व के आचार्यों भरत, भामह, दण्डी, रुद्रट, आनन्दवर्द्धन आदि के औचित्य विषयक विचारों के बारे में पढ़ेंगे।

 

यद्यपि औचित्य की स्थापना आचार्य क्षेमेन्द्र ने की है तथापि उनसे पूर्व भारतीय काव्यशास्त्र में औचित्य के चिन्तन की एक पुष्ट परम्परा विद्यमान है। नाट्यशास्त्र' ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य भरतमुनि ने औचित्य का नाम न लेते हुए नाट्यांगों के मध्य अनुकूलता एवं अनुरूपता पर बल दिया है, जिसमें आचार्य क्षेमेन्द्र के औचित्य के बीज निहित है:

 

वयोऽनुरूपः प्रथमस्तु वेशो, 

वेशानुरूपश्च गतिप्रचारः। 

गतिप्रचारानुगतं च पाठ्यम् 

पाठ्यानुरूपोऽभिनयश्च कार्यः ।। (नाट्यशास्त्र -13/64)

 

अर्थात् वय के अनुरूप वेश, वेश के अनुरूप गति, गति के अनुरूप पाठ्य तथा पाठ्य के अनुरूप अभिनय का कार्य होना चाहिए। इस प्रकार आचार्य भरत के औचित्य विषयक चिन्तन में स्वाभाविकता की झलक है। इनका स्पष्ट कथन है कि प्रतिकूल वेश कदापि उसी प्रकार शोभाकारक नहीं हो सकता जैसे ग्रीवा में मेखला शोभाकारक न होकर उपहास का कारण बनती है-

 

अदेशजो हि वेशस्तु न शोभां जनयिश्यति । 

मेखलोरसि बन्धे च हास्यायैवोपजायते।। (नाट्यशास्त्र-21/71)

 

इस प्रकार भरत मुनि ने नाटक में औचित्य के निर्वाह को आवश्यक माना है।

 

आचार्य भरत के पश्चात् आचार्य भामह का नाम महत्वपूर्ण है, जिन्होंने अलंकार सिद्धान्त के अन्तर्ग दोष विवेचन करते हुए परोक्ष रूप से औचित्य को ही प्रतिष्ठित किया है। उनका कहना है कि विशेष संयोजन के परिणामस्वरूप दोषपूर्ण उक्ति भी उसी प्रकार शोभा से संयुक्त हो जाती है जैसे माला के मध्य पलाश । उचित आश्रय से असाधु वस्तु भी उसी प्रकार सुन्दर हो उठती है जैसे रमणी के नेत्रों में पड़ा हुआ काजल भामह के अनुसार -

 

सन्निवेशविशेषाद् दुरुक्तमपि शोभते। 

नील पलाशमाबद्धमन्तराले स्रजामिव ।। 

किंचित आप्रयसौन्दर्यात् धत्ते शोभायसाध्वपि ।

कान्ताविलोचनन्यस्तं मलीयमीवाञ्नम्।। (काव्यालंकार)

 


 

आचार्यप्रवर ने औचित्य की जगह, नाट्य, युक्तता आदि पर्यायों का प्रयोग किया है। गुणों के प्रसंग में उन्होंने कहा है कि प्रसाद तथा माधुर्य गुणों से युक्त उक्ति में अधिक समासों के प्रयोग नहीं हो चाहिए इसके विपरीत ओजगुण के लिए समासों का विधान आवश्यक होता है। भामह के बाद आचार्य दण्डी ने भी दोष विवेचन में औचित्य को ही आधार बनाया है। उनका विचार है कि देश, काल, लोक आदि के प्रतिकूल बातें भी कवि की कुशलता से औचित्य का आश्रय पाकर काव्य गुण के रूप में परिवर्तित हो जाती है। औचित्य शब्द का काव्य में सबसे पहले प्रयोग कन्नौज के राजा यशोवर्मन ने किया है। इन्होने अपने नाटक 'रामाभ्युदय' मे कहा है-

 

औचित्यं वचसा प्रकृत्यनुगतं, सर्वत्र पात्रोचिता, 

पुष्टिः स्वावसरे रसस्य च कथामार्गेचातिक्रमः । 


अर्थात् नाटक में वचनों का औचित्य होना चाहिए, पात्रों के अनुकूल रस की पुष्टि होनी चाहिए तथा कथा की योजना में कोई अतिक्रम नहीं होना चाहिए। काव्यशास्त्रीय परम्परा में आनन्दवर्द्धन के पूर्व रूद्र पहले आलंकारिक हैं जिन्होंने औचित्य शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया है। यमक का विवेचन करने के बाद वे कहते हैं कि औचित्य तत्व का जानकार कवि ही रसपोषक सुन्दर यमक का सन्निवेष कर सकता है। रीति और रसों का सम्बन्ध स्थापित करते हुए उन्होंने कहा कि श्रृंगार, करुण, भयानक और अद्भुत में वैदर्भी और पांचाली रीति के प्रयोग उचित हैं, रौद्र में गौड़ी या लाटी का, शेष रसों में औचित्य का विचार करते हुए रीतियों का प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार रुद्रट का औचित्य विवेचन महत्वपूर्ण है। भारतीय साहित्यशास्त्र में, क्षेमेन्द्र से पूर्व आचार्य आनन्दवर्धन ने औचित्य की विधिवत् मीमांसा की है। उन्होंने ध्वनि सिद्धान्त की स्थापना की है तथा ध्वनित रस ( रसध्वनि) को काव्य की आत्मा कहा है। उन्होने औचित्य शब्द का प्रयोग करते हुए उसके छः प्रकार निश्चित किए हैं- रसौचित्य, अलंकारौचित्य, गुणौचित्य, संघटनौचित्य एवं रत्यौचित्य । इनके संक्षिप्त परिचय से अवगत होना आवश्यक है.

 

रसौचित्य

 

इसका सम्बन्ध रस से है। आचार्य आनन्दवर्धन ने रसभंग का कारण अनौचित्य को ही माना है-

 

अनौचित्याद् ऋतेनान्यद्रसभंगस्य कारणम् । 

औचित्योपनिबन्धस्तु रसस्योपनिषत् परा ।। 


रस के औचित्य के लिए ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने जो नियम निर्धारित किए है, उनमें महत्वपूर्ण हैं. - शब्द और उनके अर्थ का औचित्यपूर्ण नियोजन, व्याकरण की दृष्टि से शब्दों के प्रबन्धकाव्यों में रस के अनुकूल सन्धि, घटना आदि के प्रयोग, अवसर के अनुकूल शुद्ध प्रयोग, रसों के उद्दीपन, प्रशमन की योजना तथा विश्रान्त होते हुए प्रधान रस का अनुसंधान तथा रसानुरूप अलंकार योजना। इस प्रकार आचार्य के मतानुसार रस के विभिन्न अवयवों एवं विरोधी रसों का समन्वय उचित रूप से होना चाहिए, तभी रस की निष्पत्ति सम्भव हो सकती है।

 

अलंकारौचित्य 

अलंकार के उचित सन्निवेष के सम्बन्ध में आचार्य आनन्दवर्धन ने कहा है कि काव्य में अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। प्रयत्नसाध्य अलंकार काव्य में अस्वाभविकता को जन्म देते हैं। अलंकारों की योजना भावों की पुष्टि करने के लिए होनी चाहिए। उनका महत्त्व मुख्य न होकर गौण ही हैं अतः यमक, श्लेष आदि अलंकारों की योजना चमत्कार के लिए न होकर रस के पोषण के लिए होनी चाहिए।

 

गुणोंचित्य

आनन्दवर्धन के अनुसार गुणों का साक्षात् सम्बन्ध रसों से है। रस धर्मी है तो गुण धर्म हैं। अतः व्य में गुणों का प्रयोग रस के अनुकूल होना चाहिए। उदाहरणार्थ, श्रृंगार रस में माधुर्य, वीर रस एवं शान्त र में प्रसाद गुण की योजना रस 'को' पुष्ट करने वाली होगी। गुणों की अभिव्यक्ति वर्णों द्वारा होती है। अतः गुणों को प्रकट करने हेतु ऐसे वर्णों का प्रयोग होना चाहिए जो सर्वथा रस के अनुकूल हों। उदाहरणार्थ, श्रृंगार रस की निष्पत्ति के लिए कोमल एवं सुकुमार वर्णों तथा सानुनासि संयुक्त वर्णों का प्रयोग किया जाता है रौद्र रस की अभिव्यंजना परुष वर्णो द्वारा उपयुक्त मानी गई है।

 

संघटनौचित्य

 

विशिष्ट पद योजना ही संघटना है। संघटना का आधार गुण है जो रस के अनुकूल होती है। आनन्दवर्द्धन ने संघटना तीन प्रकार की मानी है। -

 

असमासा समासेन मध्यमेन च भूषिता । 

तथा दीर्घसमासेति त्रिधा संघटनोदिता।। ध्वन्यालोक- 3/5

 

असमासा, मध्यमसमासा और दीर्घसमासा नामक तीनों संघटनाएं गुणाश्रित रहकर रसाभिव्यक्ति करती हैं। संघटना में रस का औचित्य तो होना ही चाहिए, साथ ही इसे वक्ता (काव्य अथवा नाटक के पात्र) और वाच्य (प्रतिपाद्य विषय) के अनुकूल भी होना चाहिए।

 

प्रबन्धौचित्य

 

आनन्दवर्धन ने प्रबन्ध-ध्वनि के प्रसंग में प्रबन्धौचित्य का विवेचन किया है। उन्होंने काव्य तथा नाटक कें इतिवृत्तों में औचित्य के निर्वाह को आवश्यक माना है । इतिवृत्त दो प्रकार का होता है- प्रख्यात तथा कल्पना प्रसूत । आचार्य का कहना है कि प्रख्यात तथा कल्पित वृत्तों में समानुपात होना चाहिए। कथा संगठन के समय प्रख्यात के नीरस भाग को छोड़ देना चाहिए। उन्हीं घटनाओं को काव्य में स्थान मिलना चाहिए जो औचित्यपूर्ण हों तथा रसाभिव्यंजना में सहायक हों। पात्रों का चरित्रांकन उनकी प्रकृति के अनुकूल हो तथा प्रासंगिक घटनाओं का विस्तार अंगी रस की दृष्टि से ही किया जाए ।


रीति औचित्य

आनन्दवर्धन ने रीति और वृत्ति के औचित्य पर विचार किया है। उनके अनुसार नाटक या काव्यादि में कौशिकी तथा उपनागरिका आदि वृत्तियों को रस के अनुकूल प्रयुक्त करने का विवेचन किया है।

 

अभिनवगुप्त ने आनदवर्धन के ग्रन्थ ध्वन्यालोक पर टीका लिखकर उनके मत को ही ट किया है। उन्होंने भी माना है कि रसौचित्य तभी सम्भव होगा जब उसके अंगभूत विभाव- अनुभाव आदि का औचित्य होगा। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय साहित्यशास्त्र में आचार्य क्षेमेन्द्र पहले औचित्य विषयक गहन चिन्तन-मनन हो चुका था। आचार्य कुन्तक, महिम भट्ट आदि ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में औचित्य को आवश्यक बताया है।

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