काव्य प्रेरणा के विषय में आचार्यों की दृष्टि
काव्य प्रेरणा विषयक भारतीय दृष्टि
इस इकाई के आरम्भ में हमने वाल्मीकि द्वारा काव्यप्रेरणा के सन्दर्भ में क्रोंचवध के प्रसंग की चर्चा थी और उसके आधार पर यह जाना था कि कवि किसी घटना, किसी व्यक्ति, किसी वस्तु से बहुत अधिक प्रभावित हो जाता है और उसकी चेतना से वह घटना, परिस्थिति, व्यक्ति या वस्तु इतनी व्याप्त हो जाती है कि उसके मनोमस्तिष्क से वह हटती ही नहीं है, तब साहित्य का जन्म होता है। आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी का कहना है कि काव्य की प्रेरणा अनुभूति से मिलती है, यह एक स्वत: अनुभूत तथ्य है। यह अनुभूत तथ्य एक ओर रचनाकार को आविष्ट सा कर देता है, उस समय उसकी संवेदना उस घटना आदि के साथ तदाकार हो जाती है, जैसे आदि कवि की चेतना क्रोंची की ही तरह व्यथा से आविष्ट हो गई थी दूसरी ओर कवि का चिन्तनपक्ष प्रबल हो जाता है और वह विभिन्न सामाजिक मूल्यों की खोज करने लगता है। इस प्रकार 'काव्यप्रेरणा दो प्रकार की हो सक है- एक तो भावना के दबाब से अनजाने फूट पडने वाली और दूसरे जीवन-मूल्यों की खोज और प्रतिष्ठा की चिन्ता से उत्पन्न होने वाली। एक में संवेग की प्रधानता है, दूसरे में बौद्धिक चिन्तन की।' (साहित्यानुशीलन, साहित्य की प्रेरणा, पृ. 33)।
काव्य प्रेरणा विषयक पश्चिम की दृष्टि
पश्चिम में काव्यप्रेरणा के विषय में विस्तार से विचार किया गया है। सर्वप्रथम हमें काव्य-प्रेरणा विषयक दो सिद्धान्त प्राचीन यूनान में मिलते हैं। 1. दैवी प्रेरणा का सिद्धान्त और 2. अनुकरण का सिद्धान्त । यूनान के प्राचीन चिन्तक यह मानते हैं कि कवि का काव्यरचना की प्रेरणा काव्य-देवी (द म्यूज) से प्राप्त होती है। यूनान के आदि कवि होमर इस दैवी प्रेरणा पर विश्वास रख थे। प्लेटो का मत है कि 'जैसे चुम्बक अपने चारों ओर बिखरे हुए लोहे के कणों को आकर्षित करता है और लोहे के कण बहुत से लौह कणों को अपनी ओर खींचते हैं, इसी प्रकार कला की देवी जिनको प्रेरित करती है, वे अन्य बहुत से लोगों को प्रेरणा प्रदान करते हैं। वास्तव में जो सुकवि महाकाव्यों की रचना करते हैं वे अपनी खुद की कला का जरा भी उपयोग नहीं करते, जब वे अपनी सुन्दर रचना का प्रणयन करते हैं तो दैवी प्रेरणा से ही करते हैं। .... उस समय ईश्वर कवियों को मस्तिष्क विहीन करके अपना अनुचर बना लेता है। कवि तब तक रचना नहीं कर सकता जब तक कि वह अनुप्रेरित होकर इन्द्रियज्ञान शून्य न हो जाए (साहित्यानुशीलन, साहित्य की प्रेरणा )। यूनान तथा रोम के अनेक चिन्तक काव्य की देवी म्यूज के वरदान के परिणाम स्वरूप ही काव्यरचना होती है, यह मानते थे । भारमीय समीक्षक भी यह मानते हैं कि काव्यरचना की प्रेरणा ईश्वरीय देन ही है। अरस्तू की दृष्टि में सफल काव्य की सृष्टि अन्त: प्रेरणा की अवस्था में ही सम्भव है। अरस्तू जीवन की मूल प्रवृत्ति अनुकरण को मानते हैं और उसे पकृति का अनुकरण मानते हैं। क्रोचे ने आत्माभिव्यंजना को काव्य का मूल प्रेरणास्रोत मानते हुए उसे सहजानुभूति के रूप में व्यक्त किया है। स्वच्छन्दतावादी कवि वर्डस्वर्थ के अनुसार मानवमन की वासनाएं वैचारिक और सांवेगिक आवश्यकताएं कारचना के लिए कवि को प्रेरित करती हैं। शैली काव्यसृष्टि को दिव्यशक्ति मानते हैं- कविता सचमुच एक दिव्यशक्ति है (इन डिफेन्स ऑव पोयट ) मनोविश्लेषण शास्त्र के जन्मदाता फ्रायड के अनुसार बालक क्रीडा में अपनी इच्छानुसार संसार का निर्माण करता है और बडा होकर दिवास्वप्नों में अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने लगता है। फ्रायड का मत था कि 'हमारी अभुक्त या अतृप्त कामवासना स्वप्न या अचेतनावस्था में और काव्यसृजन की अर्धचेनावस्था में परितृप्त होती है। यह अतृप्त कामना काव्य के मूलाधार भावचित्रों की जननी है। अतः हृदय की दबी हुई वासनाएं अपने विकास का मार्ग खोजती काव्य, कला तथा स्वपन आदि की सृष्टि करती है (काव्यशास्त्र व समालोचना, एम.ए.एच.डी; वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा, पृ. 39 ) । वस्तुत: कला या साहित्य दिवास्वप्न का उन्नयन है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति की कौतुहल प्रियता, सौन्दर्याभिलाषा, स्वाभाविक आकर्षण, मानव के क्रियाव्यापारो में अनुराग और आत्माभिव्यक्ति की कामना उसके काव्यसृजन का मूल स्रोत है । आचायभरतमुनि ने काव्य के प्रयोजनों की चर्चा के प्रसंग में लिखा है कि 'ऐसी कोई कला नहीं है, ऐसा कोई शास्त्र नहीं है, ऐसी कोई विद्या नहीं है, ऐसा कोई शिल्प नहीं है, जो काव्य का विषय न बन सके। काव्यप्रेरणा के पीछे भी यही भाव है। जब रचनाकार किसी घटना, विषय, वस्तु आदि से प्रभावित होता है, तब आवेश की स्थिति में काव्यसृजन के लिए तत्पर होता है, उस समय रचनाकार की चेतना के मूल में किसी अभाव की प्रखर अनुभूति रहती है, यह अनुभूति कवि की सर्जनाशक्ति जागरित करने में प्रेरक का काम करती है। पश्चिम के प्रतिभा, आत्माभिव्यक्ति, इच्छापूर्ति, अधिकार भावना आदि से सम्बन्धित काव्यप्रेरणा विषयक सिद्धान्तों के मूल मे भी यही भाव है.