क्षेमेन्द्र का औचित्य सिद्धान्त
क्षेमेन्द्र का औचित्य सिद्धान्त
अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के औचित्य सम्बन्धी विचारों से प्रेरणा प्राप्त कर क्षेमेन्द्र ने भारतीय साहित्यशास्त्र में ‘औचित्य' नामक एक स्वतन्त्र सिद्धान्त स्थापित किया। इस भाग में हम क्षेमेन्द्र के औचित्य विषयक विचारों का अध्ययन करेंगे।
औचित्य परिभाषा एवं स्वरूप
काव्यशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में औचित्य का अर्थ होगा - लोक एवं शास्त्र की दृष्टि से योग्य एवं उपयुक्त।
आचार्य क्षेमेन्द्र के मतानुसार -
उचितं प्राहुराचार्याः सदृशं किल यस्य यत्
उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते ।। (औचित्यविचारचर्चा)
अर्थात् आचार्यो ने कहा है कि जो जिसके अनुरूप है, सदृश है - वह उसके लिए उचित है और इसी उचित का भाव औचित्य है। 'औचित्य विचार चर्चा' में उन्होंने औचित्य विषयक गहन चिन्तन करते हुए उसे काव्य का जीवित (प्राण) तत्व माना है । वे कहते हैं कि काव्य में प्रयुक्त अलंकार एवं गुण तत्व आदि सब व्यर्थ हैं, यदि उनमें औचित्य का निर्वाह न हुआ हो.
अलंकारास्त्वलंकारा गुणा एव सदा गुणाः ।
औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् ।। (औचित्यविचारचर्चा)
क्षेमेन्द्र काव्य सौन्दर्य के विधायक सभी तत्वों में औचित्य का होना आवश्यक बताते हैं औचित्य के अभाव में न तो गुण ही काव्य के आभूषण हो सकते हैं और न ही अलंकार। क्षेमेन्द्र का कथन है-
उचितस्थानविन्यासादलंकृतिरलंकृतिः ।
औचित्यादच्युता नित्यं भवन्त्येव गुणागुणाः ।।
कण्ठे मेखलया नितम्ब फलके तारेण हारेण वा,
पाणौ नूपुरबन्धनेन चरणे केयूरपाशेन वा ।
शौर्येण प्रणतै, रिपौ करुणया नायान्ति के हास्यताम्।
औचित्येन बिना रुचिं प्रतनुते नालंकृतिर्नोगुणाः।।
अर्थात् उचित स्थान पर विन्यस्त होने पर ही अलंकार अलंकार और गुण गुण होते है। गले मेखला, कटि में हार, हाथों में नूपुर, चरणों में केयूर पहनने पर, शरणागत पर शौर्य दिखाने तथा शत्रु के प्रति करुणा-प्रदर्षन से किसका हास्य नहीं होता है? औचित्य के अभाव में न तो अलंकार ही रुचिकर होते हैं और न ही गुण । इस प्रकार आचार्य क्षेमेन्द्र ने उचित के भाव को औचित्य कहते हुए काव्य के सभी शोभादायक तत्वों में इस औचित्य का निर्वाह आवशयक बताया है।
औचित्य के भेद
आचार्य क्षेमेन्द्र के औचित्य की व्याप्ति पद से लेकर प्रबन्ध तक है। औचित्य के भेदों का निर्धारण करते हुए उन्होंने काव्य के सूक्ष्म अवयव से लेकर उसके विशालतम रूप को ध्यान में रखा है। भेदों पर प्रकाश डालते हुए उनका कथन है-
पदे वाक्ये प्रबन्धार्थे गुणेऽलंकरणे रसे।
क्रियायां कारके लिंगे वचने च विशेषणे ।।
उपसर्गे निपाते च काले देशे कुले व्रते ।
तत्वे सत्त्वेप्यभिप्राये स्वभावे सार संग्रहे ।
प्रतिभायां मवस्थायां विचारे नाम्न्यथाशिषि ।
काव्यस्यांगेषु च प्राहुरौचित्यं व्यापि जीवितम् ।।
अर्थात् पद
वाक्य, प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकार, रस, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात, काल, देश, कुल, व्रत, तत्व, सत्व, अभिप्राय, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिभा, अवस्था, नाम, आषीर्वाद तथा काव्य के अन्य विविध अंग औचित्य के भेद हैं। विचार,
उपर्युक्त भेदों को सुगमता की दृष्टि से मोटे तौर पर चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है:-
(क) भाषा विज्ञान तथा व्याकरण विषयकः पद, वाक्य, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात।
(ख) काव्यशास्त्रीय तत्व:- प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकार, रस, प्रतिभा, सारसंग्रह, तत्त्व, आषीर्वाद, अन्य काव्यांग
(ग) चरित्र सम्बन्धी: व्रत, सत्व, अभिप्राय, स्वभाव, विचार, नाम ।
(घ) परिस्थिति सम्बन्धी:- काल, देश, कुल, अवस्था।
आज के सन्दर्भ में उपर्युक्त अनेक भेद व्यर्थ हो चुके हैं। हिन्दी काव्य में से सभी तत्व आज सार्थक नहीं कहे जा सकते है। यहाँ औचित्य के कुछ प्रमुख भेदों का परिचय दिया जा रहा है -
(1) पदौचित्य -
जहाँ किसी पद के उचित प्रयोग से काव्य में सौन्दर्य की अभिवृद्धि हो, वहाँ पदौचित्य होता है। संस्कृत के वैयाकरणिक] सुप् और तिङ् प्रत्ययों के योग से बने शब्दों को पद कहते है। हिन्दी में द के भेद है - संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, क्रिया विशेषण आदि । क्षेमेन्द्र ने पदौचित्य की महत्ता का निरूपण करते हुए लिखा है -
तिलकं बिभ्रती सूक्तिर्भात्येकमुचितं पदम्।
चन्द्राननेव कस्तूरीकृतं श्यामेव चन्दनम्।
अर्थात् एक ही उचित पद को धारण करती हुई सूक्ति कस्तूरी धारण की हुई चन्द्रानना तथा चन्दन- चर्चित श्यामा के समान सुषोभित होती है। उदारहणार्थ-
नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे, खेली होली ।
प्रिय-कर- कठिन- उरोज परस कस कसक मसक गयी चोली,
एक वसन रह गयी मन्द हँस अधर दसन अनबोली
कली-सी कांटे की तोली। (गीतिका, निराला)
यहाँ पदों के प्रयोग में विशेष औचित्य है। कठिन शब्द जहाँ हाथ की कठिनता को प्रकट कर रहा है, वहीं उरोज के वैशिष्ट्य का भी निरूपण कर रहा है।
(2) अलंकारौचित्य
जहाँ अलंकार के प्रयोग द्वारा कोई वस्तु, भाव या विचार विषेष प्रभाव से सम्पन्न या चमत्कार- पूर्ण हो जाता है, वहाँ अलंकारौचित्य होता है। क्षेमेन्द्र ने अलंकारौचित्य के महत्त्व को स्वीकार करते हुए लिखा है कि अर्थगत औचित्य से परिपूर्ण अलंकार योजना से उक्ति उसी प्रकार सुषोभित हो जाती है। जैसे उत्तुंग पयोधर पर स्थित तरल हार से मृगलोचना रमणी -
अर्थोचित्यवता सूक्तिरलंकारेण शोभते ।
पीन स्तनस्थितेनेव हारेण हरिणेक्षणा ।। ( औचित्यविचारचर्चा)
अलंकारौचित्य का एक उदाहरण प्रस्तुत है -
उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बाल पतंग।
विकसे संत सरोज सब, हरसे लोचन भृंग ।। (रामचरितमानस, तुलसीदास)
यहाँ उपमेय उपमान में पूर्ण साम्यता दिखाकर एकरूपता व्यक्त की गई है।
(3) वाक्यौचित्य
काव्य में जब किसी वाक्य के उचित प्रयोग से विशेष चमत्कार उत्पन्न हो, तो वाक्यौचित्य होता है। वाक्यौचित्य के सम्बन्ध में क्षेमेन्द्र का विचार है-
औचित्यरचितं वाक्यं सततं सम्मतं सताम्
त्यागोदग्रमिवैश्वर्यं शीलोज्ज्वलमिवश्रुतम्।।
अर्थात् औचित्य से निर्मित वाक्य त्याग से उन्नत ऐश्वर्य के समान तथा शील से उज्ज्वल प्रसिद्धि के समान विद्वानों में निरन्तर प्रशंसनीय होता है। वाक्यौचित्य का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
फागु की भीर अभीरन में गहि गोविन्द लै गई भीतर गोरी ।
भाई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की झोरी ।
छीनि पितम्बर कम्मर दै सु विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाइ कही मुसकाइ लला फिरि आइयो खेलन होरी ।।
इस छन्द में अन्तिम वाक्य औचित्यपूर्ण है। इसकी व्यंजना है कि अब आप होली खेलने का नाम नहीं लेंगे।
(4) लिंगौचित्य
जहाँ लिंग के उचित प्रयोग से काव्य में सौन्दर्य उत्पन्न होता है, वहाँ लिंगौचित्य होता है। क्षेमेन्द्र का मत है कि राजचिह्न से युक्त शरीर के समान उचित लिंग प्रयोग से काव्योक्ति भी चमक उठती है । उदाहरणार्थ 'आँसू' की पंक्तियाँ प्रस्तुत है-
गौरव था नीचे आये, प्रियतम मिलने को मेरे ।
मैं इठला उठा अकिंचन, देखें ज्यों स्वप्न सवेरे ॥
यहाँ नायिका के लिए पुल्लिंग का प्रयोग होने से काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है।
(5) रसौचित्य
रसौचित्य का तात्पर्य है - काव्य में रस का औचित्यपूर्ण प्रयोग | किसी रस के प्रयोग के कारण यदि काव्य में रमणीयता एवं प्रभावोत्पादकता आती है, तो वहाँ रसौचित्य होता है। पद्माकर का एक सवैया दर्षनीय है -
आ अनुराग की फाग लखौ जँह रागती राग किसोर किसोरी।
त्यों पद्माकर धालि धली फिरि लाल ही लाल गुलाल किसोरी।
जैसी को तैसी रही पिचकारी काहू न केसरि रंग में बोरी ।
गोरिन के रंग भीजिगो साँउरो साँउरे के रंग भीजि गो गोरी ||
यहाँ कृष्ण एवं गोपियों के मध्य फाग खेलने का चित्रांकन हुआ है। पिचकारियाँ केसर के रंग में डुबोई भी नहीं गई हैं, वास्तविक फाग हुआ ही नही हैं। फिर भी कृष्ण का अन्तरतम गोपियों के रंग से तथा गोपियों के अन्तरतम कृष्ण के रंग से रंग गये है । इस अनुराग के फाग में आत्मीयता का आधिक्य से रसौचित्य है।
(6) प्रबन्धौचित्य
जब किसी काव्य या नाटक में प्रबन्ध के अंगों - कथा, चरित्र, प्रकृति, भाषा आदि में औचित्य निर्वाह कर उसे भव्य एवं आह्लादकारी बनाया जाता है, तो वहाँ प्रबन्धौचित्य होता है। रामचरितमानस, पद्मावत, कामायनी, साकेत, राम की शक्तिपूजा आदि में इसे देखा जा सकता है।
(7) क्रियाऔचित्य
जहाँ क्रियाओं के प्रयोग में औचित्य का निर्वाह कर काव्य को मनोहारी बनाया जाता है, तो वहाँ क्रिया- औचित्य होता है। उदाहरणार्थ- जाती हूँ । मैं भी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल भुज लता फँसाकर नर-तरु से झूले से झोंके खाती हूँ। (कामायनी) यहाँ 'तुलना' क्रिया के रम्य प्रयोग से क्रिया-औचित्य है।
(8) विषेषणौचित्य
विशेषण के उचित प्रयोग से काव्य के गुण एवं सौन्दर्य में वृद्धि होती है। विशेषण अभिधेय अर्थ के अनुरूप होना चाहिए। विशेषणौचित्य का एक उदाहरण प्रस्तुत है -
छूट-छूट अलस फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमल ऋजु कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ ।
इस उदारहण में ‘केश-गुच्छ के कई रमणीय विशेषणों (कोमल, ऋजु, कुटिल, प्रसारकामी) ने कविता की चारुता में वृद्धि की है। प्रसार कामी विशेषण सर्वथा उपयुक्त है। बाल यद्यपि लम्बे है तो भी उनकी प्रसार की कामना अभी और अधिक है।
(9) उपसर्गौचित्य
जहाँ उचित उपसर्गों के प्रयोग के कारण काव्य में रमणीयता आती है, तो वहाँ उपसर्गौचित्य होता है। जैसे-
कहते आते थे यही अभी नरदेही,
माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही ।
इस उदाहरण में 'कु' उपसर्ग का सुन्दर प्रयोग किया गया है।
(10) गुणौचित्य
अर्थ एवं भावों के अनुरूप माधुर्य, ओज आदि गुणों का प्रयोग काव्य में सौदर्न्य की सृष्टि करता है। राम की शक्ति पूजा' में हनुमान के उड्डयन प्रसंग में ओज गुण का सुन्दर समावेष है-
हो श्वसित पवन उनचास पिता पक्ष से तुमुल एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़ जल राशि राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़।
(11) स्वभावौचित्य
कृत्रिमता काव्य की सरसता में व्यवधान पहुँचाती है तो स्वाभाविकता काव्य को सरस एवं प्रभावकारी बनाती है। 'उर्वशी' से एक उदाहरण प्रस्तुत है-
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।
बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के वाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुसकान से ।
यहाँ पुरुष के स्वभाव का सहज चित्रण किया गया है। श्रेष्ठ वीर भी अपनी पत्नी को अप्रसन्न करना नहीं चाहता है। चरित्रगत सहजता से कविता औचित्यवान एवं प्रभावषाली बन पड़ी है।
यहाँ औचित्य के उन प्रमुख भेदों का अध्ययन हमने किया हैं जो हिन्दी कविता में उपयोगी है। कम उपयोगी अथवा अनुपयोगी औचित्य-भेदों का वर्णन विस्तार भय से छोड़ दिया गया है। आचार्य क्षेमेन्द्र के वर्गीकरण के अतिरिक्त भी हम उन भेदों को औचित्य में समाहित कर सकते है, जिनके निर्वाह से काव्य प्रभावशाली बनता है, जैसे- कल्पना, बिम्ब, प्रतीक, मिथक आदि।
पाश्चात्य साहित्य शास्त्र और औचित्य
पाश्चात्य आलोचना-जगत में भी औचित्य पर पर्याप्त विचार हुआ है। यूनान के प्रसिद्ध विद्वान अरस्तू ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थों 'पोइटिक्स' और 'रेटारिक' में औचित्य की विषद विवेचना की है। 'पोइटक्स' में औचित्य के चार भेदों का वर्णन है- घटनौचित्य, रूपकौचित्य, विशेषणौचित्य और विषयौचित्य । अरस्तू के अनुसार साहित्य में वर्णित घटना वास्तविक जगत से सम्बंधित होनी चाहिए तथा स्वाभाविक होनी चाहिए। प्रासंगिक घटना का मुख्य घटना से भी उचित संबंध होना चाहिए। रूपकौचित्य के विषय में उनका कहना है कि गद्य को प्रभावशाली बनाने के लिए रूपक का प्रयोग अपेक्षित होता है। वस्तु के उत्कर्ष को द्योतित करने के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया जाए, वे उत्कृष्ट गुणों से युक्त होने चाहिए। इसी प्रकार वस्तु का अपकर्ष दिखाने के लिए विशेषण हीन गुणों से युक्त होने चाहिए। अरस्तू मानते हैं कि उपमान और उपमेय में गुण, जाति, धर्म आदि का आवश्यक होता है। प्रकरण के अर्थ को पुष्ट करने के लिए उपयुक्त विशेषण आवश्यक हैं तथा विषय के अनुरूप भाषा का प्रयोग भी अपेक्षित होता है। 'रेटारिक' में अरस्तू ने मुख्य रूप से शैली सम्बन्धी गुणों एवं तत्त्वों के औचित्य पर प्रकाश डाला है। लौंजाइनस ने भी काव्य में औदात्य की प्रतिष्ठा के लिए औचित्य को महत्त्वपूर्ण माना है। वे उदात्त के लिए भाव की तीव्रता को उपयुक्त मानते हैं तो अलंकारों के समुचित प्रयोग को भी जरूरी मानते हैं। उनका विचार है कि अलंकार का प्रयोग त सार्थक होता है जब यह पता ही न चले कि इनका प्रयोग तभी उचित होता है जब अभिव्यक्ति की मनोहरता में उनका योगदान अनिवार्य हो ।
प्रसिद्ध समीक्षक होरेस ने से भी साहित्य में औचित्य की उपयोगिता सिद्ध की है। अपने ग्रंथ 'आर्स पोएतिका' के आरम्भ में वे लिखते हैं यदि कोई चित्रकार मनुष्य के सिर में घोड़े की गर्दन जोड़ दे, सब प्रकार के जन्तुओं के अंगों को एकत्र कर उनमें किस्म-किस्म के पंख लगा दे और ऊपरी हिस्से में भद्दी मछली बना दे तो मेरे मित्रों! क्या इन्हें देखकर आप अपनी हँसी रोक पाएंगे। होरेसने के मन में औचित्य काव्यरचना का प्रधान गुण है। विषय, भाव, भाषा, छन्द, सर्वत्र वे औचित्य के आग्रही हैं।
औचित्य की आवश्यकता एवं महत्ता
औचित्य की महत्ता इस बात से सिद्ध हो जाती है कि उसकी आवष्कयता मात्र काव्य में ने होकर जीवन के सभी अंगों में होती है। भारतीय साहित्य शास्त्र में काव्य को सौन्दर्यमण्डित करने वाले अलंकार, रीति, वक्रोक्ति आदि के चिन्तन की सुदृढ़ परम्परा विद्यमान है। वस्तुतः सभी काव्यांगों के प्रयोगों में औचित्य आवष्यक है क्योंकि उसके अभाव में भूषण भी दूषण बन जाते हैं।
औचित्य का निर्वाह न होने पर कविता हास्यस्पद हो जाती है। 'कुमारसम्भव' में शंकर एवं पार्वती के श्रंगारिक चित्रण में औचित्य का निर्वाह न होने पर उसे विद्वानों ने निन्दित किया है । छन्दों, अंलकारों एवं भाषा के प्रयोग में अनौचित्य होने के कारण 'रामचन्द्रिका' के कवि केशवदास को 'कठिन काव्य का प्रेत’ एवं ‘हृदयहीन’ होने की उपाधि मिली है। निष्चित रूप से औचित्य की प्रतिष्ठा से एक बहु बड़े अभाव की पूर्ति हुई। इससे अलंकारवादियों, रीतिवादियों एवं वक्रोक्तिवादियों की अत्यंत चमत्कारवादी प्रवृतियों पर अंकुश लगा तथा काव्य में स्वाभाविकता को स्थान मिला।
अतः समझना चाहिए कि औचित्य वह तत्त्व है जो काव्य में सौन्दर्य का सन्निवेष करता है। क्षेमेन्द्र ने आलोचकों को यह बताया कि यदि वे किसी भी कृति का मूल्यांकन करना चाहे तो उसके विभिन्न मार्मिक अवयवों में औचित्य की समीक्षा करें। वे देखें कि गुण, अलंकार अपने स्थान पर उचित हैं या नहीं। अंग और अंगी का संतुलन है या नहीं?