पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का आधुनिक युग
अठारहवीं शताब्दी की यूरोपीय समीक्षा
यूरोपीय काव्यशास्त्र के इतिहास में 18वीं शताब्दी का बहुत महत्व है। इस युग में आधुनिक प्रवृत्तियों के उदय के साथ यूरोपीय समीक्षा का बहुमुखी विकास हुआ। इस शताब्दी में समीक्षा प्राचीनतावादी और स्वछंदतावादी दो धाराएं सक्रिय हुई। दोनों में गहरा वाद-विवाद होता रहा। इससे यूरोपीय समीक्षा अधिक समृद्ध और व्यापक बनी। अंग्रेजी के पोव और डॉ0 सैमुअल जान्सन जैसे समीक्षकों ने साहित्य में कल्पना से बुद्धि को अधिक महत्व प्रदान करते हुए स्पष्टता, सरलता और प्रबोधता पर विशेष बल दिया तथा समीक्षा को एक वैज्ञानिक और सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया। ये लोग प्राचीनतावादी कहलाए। इसी के साथ-साथ बुद्धि की अपेक्षा कल्पना को अधिक महत्व देने वाली स्वछंदतावादी समीक्षा भी विकसित हो रही थी। इसका समर्थन अंग्रेजी के प्रसिद्ध समीक्षक एडीसन ने भी किया। इन सभी की विचारधारा प्रसिद्ध यूनानी समीक्षक लोन्जायनस के कल्पनावादी सिद्धांत से प्रभावित थी। इस समय यूरोपीय साहित्य पर फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो के प्रकृतिवाद का भी प्रभाव पड़ रहा था। रूसो की मान्यता थी कि मनुष्य इस कारण दुखी है कि उसने प्रकृति साथ छोड़ दिया है और कृत्रिम जीवन अपना लिया है। मानव प्रकृति मूलतः कल्याणकारी है, इसलिए उस पर प्रेम को छोड़ अन्य प्रकार के नैतिक बंधन लगाना अहितकर है।
रूसो के अतिरिक्त अनेक जर्मन दार्शनिक भी इस समय यूरोपीय साहित्य को प्रभावित कर रहे थे। लेसिंग, शीलर, गेटे, कांट, युंग, आदि अनेक जर्मन विचारकों ने एक प्रकार से स्वछंदतावादी विचारधारा का ही समर्थन किया। कुंजे ने सौंदर्यप्रियता पर बल दिया और कांट ने सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांतों का विवेचन करते हुए स्वछंदता और सौंदर्य में समन्वय स्थापित किया। युंग ने प्राचीन और नवीन के विवाद का विरोध करते हुए साहित्यकारों को “स्वयं को समझो” और 'स्वयं का सम्मान करो' का परामर्श देकर उनमें स्वाभिमान की भावना जागृत की।
अठारहवीं सदी में यूरोपीय समीक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। इस काल में समीक्षक प्राचीन मतों को ही एक मात्र आदर्श न मानकर साहित्य के विभिन्न रूपों का मूल्यांकन करने के लिए नए-नए समीक्षा सिद्धांत निर्मित कर रहे थे। यह यूरोपीय समीक्षा का बहुमुखी क्रांतिकारी युग था ।
उन्नीसवीं सदी: स्वछंदतावाद का उत्कर्ष
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यूरोपीय साहित्य में स्वछंदतावादी प्रवृत्ति अपने चरम पर थी । मानव को सर्वोपरि मानते हुए प्राचीन परंपरा के प्रति मोह का घोर विरोध किया जा रहा था। साहित्यकार के व्यक्तित्व और मौलिकता को ही सर्वोपरि माना जाने लगा। प्रकृति-प्रेम' और 'सौंदर्य के प्रति जिज्ञासा' प्रधान कविकर्म बन गया। वर्डस्वर्थ, कॉलसिज, शेली, कीट्स, वाहाम आदि अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवियों ने काव्य का लक्ष्य 'आनंद देना' माना। इनकी रचनाओं में प्रकृति प्रेम को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ, जिसने सूक्ष्म रहस्यात्मकता को जन्म दिया। समष्टि रूप में मानव जीवन के प्रति इनका दृष्टिकोण पवित्र, महान और आदर्शवादी था। नैतिकतापरक और उपदेश पूर्ण साहित्य का विरोध किया जाने लगा। इस नवीन काव्य प्रवृत्ति ने शिल्प विन्यास का परिष्कार कर भाषा, छंद, शैली तथा अलंकार आदि के क्षेत्र में नवीनता का प्रवर्तन किया। इसके समर्थक समीक्षकों ने काव्य- समीक्षा को काव्य के गुण-दोष-दर्शन की परिधि से ऊपर उठाकर उसे सौंदर्य दर्शन का भव्य और उदात्त रूप प्रदान करते हुए समीक्षा के महत्व को बढ़ाया।
दूसरी ओर अनेक यथार्थवादी समीक्षकों ने स्वछंदतावाद को जीवन और समाज से पलायन करने वाला घोषित करके इसका उग्र विरोध भी किया। एवर क्रोम्बो, वाल्टर पेटर, कालरिज, मैथ्यू आर्नल्ड आदि इस युग के प्रसिद्ध समीक्षक माने जाते हैं। समीक्षकों का एक दल भौतिकवाद का समर्थन करता रहा और दूसरा दल साहित्य पर नैतिक और सामाजिक अंकुश रखने की बात करता रहा। दूसरे दल के आदर्शवादी समीक्षक कवि को समाज सुधारक और भविष्य द्रष्टा मानते थे।
19वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवियों और काव्यशास्त्रियों में विलियम ब्लेक, वर्डस्वर्थ, कौलरिज, कीट्स तथा शैले आदि प्रमुख हैं। इनमें भी वर्डस्वर्थ और कौलरिज के सिद्धांत अधिक महत्वपूर्ण हैं। कौलरिज ने कल्पना सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए काव्य में संगीत माधुरी, व्यक्तित्व की अभिव्यंजना, कविकल्पना और खंड के स्थान पर अखंड की श्रेष्ठता का प्रचार किया। वर्डस्वर्थ कविता के शिल्प के विषय में महत्वपूर्ण स्थापनाएं कीं। वे मानते थे कि गद्य और पद्य की भाषा एक जैसी होनी चाहिए। इस सदी के अन्य महत्वपूर्ण आलोचकों में मैथ्यू आरनोल्ड, टॉल्स्टॉय तथा रसकिन के नाम उल्लेखनीय हैं। मैथ्यू आर्नोल्ड (1822-1188ई0) ने आधुनिक अंग्रेजी आलोचना का सूत्रपात किया। वे प्राचीन यूरोपीय साहित्य के अरस्तू तथा हिंदी के आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाँति महान युग प्रवर्तक आलोचक माने जाते हैं।
कलावाद का उदय-
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में ‘कला कला के लिए' सिद्धांत के समर्थकों ने आदर्श और नैतिकता का तीव्र विरोध करना आरंभ कर दिया। फ्रांस में बोदलेयर इस कलावादी सिद्धांत की स्थापना पहले ही कर चुका था। इंग्लैण्ड में वाल्टर पेटर आदि ने इसका व्यापक प्रचार किया। उमर खय्याम की रुबाइयों के अनुवाद ने वहाँ 'खाओ पीओ मौज करो' की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। इससे साहित्य के क्षेत्र में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गई। सब लोग स्वयं को ही प्रमाण मानकर मनमाना साहित्य रचने लगे।
बीसवीं शताब्दी: विभिन्न समीक्षा धाराएं
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक चरण में यूरोप के दो विचारकों ने यूरोपीय साहित्य और समीक्षा को सर्वाधिक प्रभावित किया। ये दो विचारक थे- फ्राइड और मार्क्स । फ्रायड ने मनोविश्लेषण सिद्धांत का प्रवर्त्तन किया और मार्क्स ने साम्यवादी विचारधारा की नींव डाली। मनोविश्लेषण पर आधारित चेतना धारा ने यूरोपीय साहित्य में एक नए युग का आरंभ किया। मार्क्स ने 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' नामक सिद्धांत की स्थापना करके साहित्यिक मूल्यांकन का एक सर्वथा नूतन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। बीसवीं सदी के आरंभ में इन दोनों दृष्टिकोणों से भिन्न भी साहित्य रचना और समीक्षा होती रही। यीट्स नामक अंग्रेजी के एक कवि ने रहस्यवाद को पुनः आगे बढ़ाया। इसके साथ ही फ्रांस में यथार्थवाद का एक नया रूप उभरा। इसके समर्थकों ने मानव की सहज प्रवृत्तियों को ही मानवीय व्यवहार का प्रमुख कारण स्वीकार करते हुए अतियथार्थवादी साहित्य का निर्माण किया । यह नया यथार्थवाद स्वछंदतावाद का ही एक नया और निकृष्ट रूप था। एमिल नोला आदि ने पहले ही यथार्थवाद का विरोध करते हुए ऐसे साहित्य को अस्वस्थ, निराशावादी, अश्लील और हानिकर घोषित किया था।
बीसवीं शताब्दी के प्रमुख समीक्षक-
बीसवीं शताब्दी के तीन समीक्षकों ने यूरोपीय समीक्षा को सर्वाधिक प्रभावि किया। ये तीन समीक्षक हैं - 1. बेनेदेतो क्रोचे 2. आई0ए0 रिचर्ड्स तथा 3. टी0एस0 इलियट । क्रोचे ने परंपरा से हटकर अभिव्यंजनावाद की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत की। परिणामस्वरूप बीसवीं सदी में अन्तश्चेतनावाद, प्रकृतिवाद, प्रभाववाद, बिंबवाद, प्रतीकवाद, दादावाद, अतियथार्थवाद, निर्वैयक्तितावाद और मनोवैज्ञानिक मूल्यवाद जैसे सिद्धांत यूरोप में प्रतिपादित होकर पूरे विश्व में फैले। इनमें फ्रायड का अन्तश्चेतनावाद तथा इलियट का निर्वैयक्तिकतावाद सबसे महत्वपूर्ण हैं। इलियट ने वस्तुगत समीक्षा सिद्धांत प्रस्तुत करने के साथ ही परंपरा और निर्वैयक्तिकता का विवेचन करते हुए काव्य तथा काव्य-भाषा के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किए। इसी अवधि में रिचर्ड्स के सिद्धांत भी सामने आए। बीसवीं शताब्दी में काव्यालोचना विषयक इतने अधिक मत और सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ कि उनके आधार पर सर्वमान्य सिद्धांतों की स्थापना करना कठिन हो गया। फलतः काव्य-शैलियों की भाँति आलोचना की भी अनेक धाराएं और शैलियाँ विकसित हुईं। इनके अतिरिक्त रस्किन, ज्यां पाल सार्त्र, कीर्के गार्द, अलबर्ट , हर्बर्ट रीड, जेम्स ज्वायस, हेनरी जेम्स, कामू एजिरा पाउड तथा के० रैम्सम आदि पाश्चात्य जगत के ऐसे साहित्यकार, विचारक और समीक्षक हैं; जिन्होंने समीक्षा को नई-नई दिशाएं प्रदान की हैं। आधुनिक पाश्चात्य काव्यशास्त्र में शास्त्रीयता और स्वछंदता का द्वंद्व देखा जा सकता है। इटैलियन कवि दांते से काव्य और कला को शास्त्रीयता से मुक्त करने का कार्य आरंभ हुआ, जिन्होंने रचना में जनभाषा को महत्व प्रदान किया। प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कान्ट की इस मान्यता और स्थापना से कि “प्रतिभा, नियम या शास्त्र का अनुगमन नहीं करती'; यूरोप में स्वछंदतावादी आंदोलन का आरंभ हुआ। उससे रोमांटिक या स्वछंदतावादी मान्यताओं को बल मिला। स्वछंदतावाद के साथ-साथ ही कलावाद, अभिव्यंजनावाद और अस्तित्ववाद के मतों का विकास भी हुआ । अस्तित्ववाद एक प्रकार से स्वछंदतावाद के व्यक्ति- स्वातंत्र्य तथा मनोविश्लेषण के अहंवाद का परिणाम ही है। मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव से व्यक्तिवाद तथा समाजवाद का द्वंद्व आरंभ हुआ। व्यक्तिवाद का एक रूप यथार्थवाद के अंतर्गत देखा जाता है; जो अस्तित्ववादी साहित्य का प्रधान तत्त्व बना। इससे काव्य में कुंठा, निराशा आदि यथार्थ चित्रण होने लगा। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मूल्य-सिद्धांत, निर्वैयक्तिकता का मत, इतिहास और परंपरा बोध तथा संप्रेषणीयता के सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ। इसमें कवि और कलाकार के जीवन और मनोवृत्तियों के विश्लेषण के स्थान पर कृति को महत्व दिया जाने लगा; जिसमें शब्द- विन्यास, प्रतीक विधान एवं बिंब योजना को प्रमुख आधार माना गया। बाद में धीरे-धीरे काव्य का विवेचन शैली विज्ञानिक दृष्टि से होने लगा; जिसमें कभी मनोतत्त्व पर बल दिया जाता है; तो कभी भाषा तत्व पर।
पाश्चात्य साहित्यशास्त्र सारांश
पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्लेटो से लेकर टी0एस0 इलियट तक के ढाई हजार वर्ष के इतिहास का आरंभिक रूप आदर्शवादी और वस्तुपरक था। बीच में लगभग एक हजार वर्षों तक क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हो पाया। परंतु पन्द्रहवीं शताब्दी में नव-जागरण की जो नई लहर फैली उसके साथ ही यूरोपीय साहित्य और समीक्षा द्रुत गति से विकास करते हुए मानव के चिंतन को है। गूढ़ और व्यापक बनाते गए। यूरोपीय समीक्षा ने आज संपूर्ण सभ्य संसार को प्रभावित कर रखा
यूरोपीय समीक्षा के मूल उद्गम स्थान ग्रीस (यूनान) और रोम हैं। उसके बाद फ्रांस के आलोचकों ने इंग्लैंड तथा अन्य देशों के आलोचकों को प्रभावित किया। फ्रांस में जितने वादों और आंदोलनों का जन्म हुआ, उतना किसी अन्य देश में नहीं हुआ। फ्रांसीसी आलोचना पद्धतियों में एक सूक्ष्म 'और गंभीर अंतर्दृष्टि उपस्थित रहती है। सत्रहवीं तथा उन्नीसवीं सदी की फ्रांसीसी आलोचना सर्वाधिक प्रभावशाली है, क्योंकि इसमें आलोचना के दार्शनिक आधार विद्यमान हैं।