भारतीय काव्यशास्त्र में रीति का स्वरूप ,आचार्य वामन और रीति सिद्धान्त
भारतीय काव्यशास्त्र में रीति का स्वरूप
भारतीय काव्यशास्त्र के आदि ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में रीति का उल्लेख स्पष्ट रूप से तो नहीं है, किन्तु उसमें चार प्रवृत्तियों का उल्लेख अवश्य मिलता है, जिसमें रीति का पूर्वाभास खोजा जा सकता है। भरत के अनुसार नाट्यप्रयोगों के लिए आवन्ती, दाक्षिणात्य, पांचाली तथा गौड़मागधी. -चार प्रवृतियाँ हैं। आवन्ती पश्चिम से, दाक्षिणात्य दक्षिण से, पांचाली उत्तर से और गौड़ मा पूर्व से सम्बन्धित है। प्रवृत्ति की परिभाषा देते हुए भरत ने कहा है कि पृथ्वी के नाना देशों के वेश, भाषा, आचार और वार्ता का जो कथन करती है, उसे प्रवृत्ति कहते हैं - पृथिव्यां नानादेशवेशभाषाचारवार्त्ता: प्रवृत्तिः'। इस प्रकार भरतोक्त प्रवृत्ति के अन्तर्गत अनेक देशों के आचार, विचार, रहन-सहन इत्यादि का ज्ञान आ जाता है। इसके साथ ही भरत ने गुण, दोष, लक्षण आदि के विवेचन में उन सभी तत्त्वों को अन्तर्हित कर लिया है, जो आगे चलकर रीति के आधारभूत तत्त्व सिद्ध हुए। यद्यपि वामन के द्वारा वर्णित रीति केवल भाषा से सम्बन्ध रखती है, फिर भी ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि रीति की परिकल्पना प्रवृत्ति के आधार पर ही की गई होगी। अर्थात् हो सकता है कि भरत के नाट्यशास्त्र में प्रवृत्तियों का उल्लेख देखकर परवर्ती विद्वानों के मन में यह विचार आया हो कि काव्यभाषा और शैली का विवेचन ही प्रदेशगत आधार पर किया जा सकता है। यद्यपि कुन्तक ने यह कहकर कि यह मातुलेय भगिनि से विवाह की जैसी प्रथा नहीं है, जो देशाचार के रूप में स्वीकार की जा सके' देशभेद के आधार पर रीतियों के वर्गीकरण को अस्वीकार किया है, किन्तु हम देशभेद के आधार पर किये गए वर्गीकरण के महत्व को नकार नहीं सकते हैं।
आज भी हम अंग्रेजी कविता की विशेषताएं, बंगला साहित्य की विशेषताएं आदि कहकर देशभेद को स्वीकार करते हैं। बाणभट्ट ने हर्षचरित के प्राक्कथन में देशभेद पर आधारित रीतियों की विशेषता बताई। उनका कहना है कि उत्तर के लोग श्लेषमयी रचना करते हैं, पश्चिम के लोग साधारण अर्थ तक ही अपने को सीमित रखते हैं, दाक्षिणात्यों की शैली उत्प्रेक्षा प्रधान है और गौड (बंगाली) लोग आडम्बरपूर्ण शैली को पसन्द करते हैं किन्तु बाण इनमें से किसी एक को पसन्द करने के पक्षपाती नहीं हैं, उनको सभी गुणों का समन्वय अच्छा लगता है और ऐसी शैली को वे दुर्लभ कहकर कवि की कसौटी मानने का संकेत देते हैं। ( हर्षचरितम् 1/7-8)
भामह के काव्यलंकार में रीतियों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, किन्तु उन्होंने रीति शब्द का प्रयोग न करके काव्य शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने काव्यभेदों के अन्तर्गत वैदर्भ और गौड़ की चर्चा की और कहा कि अन्यों के मत से वैदर्भ और गोड़ में अन्तर है, किन्तु हमारे मत में वैदर्भ ही गौडीय है। दोनों को अलग-अलग मानना गड्डलिकाप्रवाह है। भामह ने इस प्रकार श्रेष्ठ काव्य को ही महत्ता प्रदान ही है। उनका निर्भ्रान्त मत है कि अलंकारयुक्त, अग्राम्या, अर्थवान्, न्याय्य, अनाकुल गौडीय मार्ग भी श्रेष्ठ है और इन गुणों से रहित वैदर्भ मार्ग भी श्रेष्ठ नहीं है। भामह के सम्बन्ध में एक बात उल्लेखनीय है कि उन्होंने गुणों की स्वतन्त्र रूप से विवेचना ही है। उनकी दृष्टि में गुणों का सम्बन्ध वैदर्भ और गौड़ काव्यों से नहीं, अपितु सत्काव्य मात्र से है।
रीति का सबसे व्यवस्थित विवेचन दण्डी से मिलता है। यद्यपि रीति शब्द का प्रयोग उन्होंने भी नहीं किया है। दण्डी के अनुसार परस्पर अत्यन्त सूक्ष्म भेद वाले वाणी के अनेक मार्ग हैं। इनमें से वैदर्भी और गोड़ीय मार्गों का अन्तर स्पष्ट है। श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सौकुमार्य, अर्थव्यक्ति, उदारत्व, ओज, कान्ति और समाधि-ये दशगुण 'वैदर्भमार्ग के प्राण हैं। गोड़ मार्ग में प्रायः इनका विपर्यय लक्षित होता है। (काव्यादर्श, 1/40-42)।
रीति विषयक इस ऐतिहासिक क्रम का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति के विकास की चार अवस्थाएं दिखाई पड़ती हैं। सबसे आरम्भ में रीति का सम्बन्ध भौगोलिक आधार पर किया गया। आचार्य भरतमुनि, बाणभट्ट आदि के समय में रीतियों का आधार भौगोलिक परिक्षेत्र ही है। इसके उपरान्त रीतिनिर्धारण की भौगोलिक सीमाओं की अपेक्षा काव्य विषय और अन्य काव्यगुणों के आधार पर रीतियों का निर्धारण किया जाने लगा। तीस अवस्था में कुन्तक आदि के समय में काव्य की शैलियों का निर्धारण कविस्वभाव के आधार पर हुआ और वामन, आनन्दवर्धन, रुद्रट आदि के समय तक आते-आते रीति का मूलाधार समास, गुण, रस आदि ठहराए गए। वामन ने रीति को काव्य की आत्मा कहा। किन्तु वामन ने इसे आत्मतत्व के रूप में जो प्रतिष्ठा दी, वह आनन्दवर्धन आदि को स्वीकार्य नहीं हुई और उन्होंने तथा अन्य रस- ध्वनिवादियों ने रीति को रस का उपकारक मानकर रसाभिव्यक्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया।
आचार्य वामन और रीति सिद्धान्त
आचार्य वामन का स्थान काव्यशास्त्र के क्षेत्र में केवल रीति सम्प्रदाय की दृष्टि से ही नहीं, अपितु अन्यान्य सम्प्रदायों की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्पूर्ण है, क्योंकि सर्वप्रथम वामन ने काव्यात्मा के अनुसन्धान का सूत्रपात किया और भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के आत्मतत्त्व के रूप में रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि और औचित्य सिद्धान्त और सम्प्रदायों का अनुसन्धान हुआ। । रीति शब्द की परिभाषा और स्वरूप की व्याख्या करने के कारण ही वामन को रीति सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है। यद्यपि इससे पूर्व भी भामह और दण्डी ने रीति की चर्चा अवश्य की है। पर रीति को काव्य की आत्मा के रूप में वामन ने ही प्रतिष्ठित किया। रीति के सन्दर्भ में वामन का कहना है कि -
रीतिरात्मा काव्यस्य (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, 1 /2/6)- काव्य की आत्मा रीति है।
विशिष्ट पदरचना रीति: (का.सू.वृ., 1/2/7)- वह रीति विशिष्ट पदरचना है। विशेष गुणात्मा (का.सू.वृ., 1/2/8) - विशिष्ट का अर्थ गुणों की सम्पन्नता से है। काव्यशोभायाः कर्त्तारौ धर्मा गुणा: (का. सू.वृ., 3/11) - गुण काव्य में शोभा को उत्पन्न करने वाले हैं।
इन गुणों को वामन ने शब्द गुण और अर्थगुण के रूप में विभक्त किया है। अतः वामन के मत में शब्द तथा अर्थ के चमत्कार या सौन्दर्य से युक्त पदरचना ही रीति है। इसीलिए गुण काव्य में नित्य हैं। अलंकार अनित्य । अतएव नित्य गुणों को ही वामन रीति का प्रधान तत्त्व स्वीकार करते हैं।
वामन का मानना है कि कवि का उपास्य तत्त्व है- रमणीयता। और रमणीयता को ध्यान में रखकर वह काव्यरचना करता है। यह रमणीयता शब्द में भी है और अर्थ में भी। वामन के अनुसार शब्दगुण | शब्द की रमणीयता को प्रकट करते हैं और अर्थगुण अर्थ की रमणीयता को । इन्हें शब्द चमत्कार और अर्थ चमत्कार भी कहा जा सकता है।
स्पष्ट है कि रीतियों का आधार गुण हैं अतः रीति को जानने से पहले गुणों के विषय में जानना आवश्यक है।
1 काव्यगुण-
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्यगुणों पर काव्यशास्त्रीय चिन्तन के आरम्भ से ही विचार किया जाने लगा था। सामान्यतः गुण का अर्थ है- विशेषता, श्रेष्ठता, दोषाभाव, उत्तमता स्वभाव, आकर्षक तथा शोभाकारक धर्म। काव्य के सन्दर्भ में गुण काव्यसौन्दर्य के आवश्यक उपादान हैं। वामन अलंकारों और गुणों को पृथक् पृथक् मानते हुए गुणों को काव्यशोभा को करने वाले उत्पादक धर्म और अलंकारों को काव्यशोभा को बढ़ाने वाले तत्त्व कहकर यह मानते हैं कि अलंकारों के बिना काम चल जाएगा क्योंकि अलंकार काव्य के अनित्य धर्म हैं, किन्तु गुणों के बिना काव्य में शोभाधान नहीं हो सकता-
'काव्यशोभाया: कर्त्तारो धर्माः गुणाः तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः।
ये धर्माः काव्यशोभां कुर्वन्ति ते गुणाः ।
ते चौजः प्रसादयः ओजः प्रसादादीनां तु खलु शब्दार्थयोः केवलानामस्ति काव्यशोभाकरत्वमिति । पूर्वे नित्याः ।
पूर्वेगुणा: नित्याः । तैर्विना काव्यशोभानुपपत्ते। (का.सू.वृ. 3/1/1-3)।
वामन ने गुणों को रस का धर्म नहीं, शब्दार्थ का धर्म मानते हुए काव्य में उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की। हालांकि बाद में ध्वनिवादी आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा मानकर गुणों को रस का अपरिहार्य और उत्कर्षाधायक धर्म माना। मम्मट ने काव्यप्रकाश में गुण को इस रूप में पारिभाषित किया-
'ये रसस्यांगिनो धर्मा: शौर्यादयः इवात्मन: ।
उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयोः गुणा:।। (काव्यप्रकाश, 8/66)
जैसे शौर्य आदि आत्मा के धर्म हैं, इसी तरह गुण काव्य के अंगी रस के धर्म हैं और काव्य के उत्कर्षाधायक ये धर्म सदैव रस में रहते हैं। आचार्य भरतमुनि से लेकर आधुनिक काल तक गुण विषयक अनेक उद्भावनाएं हुई हैं और यह बात सर्वस्वीकार्य है कि काव्यगुण 'काव्यसौन्दर्य के आवश्यक उपादान हैं और काव्य के नित्य धर्म हैं। यह हम पहले ही जान चुके हैं कि वामन की रीति का आधार ये गुण ही हैं। इन रीतियों को समझने के लिए काव्यगुणो के भेदों पर विचार करना भी आवश्यक है। इस विषय मे आचार्यों में मतभेद है। आचार्य भरतमुनि ने काव्यगुणों की संख्या दस निर्धारित की। ये दस गुण हैं- श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, सुकुमारता, और उदारता । अर्थव्यक्ति
'श्लेष: प्रसाद: समता समाधि माधुर्यमोजः पदसौकुमार्यम्।
अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च कान्तिश्च कायार्थगुणाः दशैते । । नाट्यशास्त्र, 17/69
आचार्य मम्मट द्वारा वर्णित इन दस गुणों को वामन ने शब्द ओर अर्थ के आधार पर बीस भेद कर दिये। भामह, आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ पण्डितराज जगन्नाथ ने इन दस गुणों का अन्तर्भा प्रसाद, माधुर्य और ओज- इन तीन गुणों में कर दिया। दूसरी ओर अग्निपुराणकार ने काव्यगुणों के शब्दगत (श्लेष, लालित्य, गाम्भीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य, यौगिकी), अर्थगत (माधुर्य ( संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढि, सामयिकता) तथा शब्दार्थगत ( प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, उदारता, पाक तथा राग) - अर्थात् उन्नीस काव्यगुणों की चर्चा की है। कुन्तक औचित्य तथा सौभाग्य नामक दो साधारण गुणों और माधुर्य, प्रसाद, लावण्य और आभिजात्य नामक चार विशेष गुणों का उल्लेख करते हैं। भोज के अनुसार गुण 24 हैं और इनके बाह्य, आभ्यन्तर और वैशेषिक रूप से विभाजन करने पर काव्यगुणों की संख्या 72 ठहरती है। गुणों की संख्या के विषय में इस वैभिन्न्य से यह सिद्ध होता है कि काव्यशास्त्रियों ने गुणों के विषय में अत्यन्त विस्तार से विचार किया है। भरतोक्त दस गुण ओर ध्वनिवादियों के द्वारा वर्णित तीन प्रसाद, ओज ओर माधुर्य की विशेष चर्चा हुई अतः वामन द्वारा वर्णित बीस गुणों का यहाँ परिचय दिया जा सकता है। वामन द्वारा वर्णित गुणों के प्रकार ये हैं:
काव्य के गुण-
शब्दगुण
2. प्रसाद
3. श्लेष
4. समता
5. समाधि
6. माधुर्य
7.सौकुमार्य
8. उदारता
9. अर्थव्यक्ति
10. कान्ति
अर्थगुण
1. ओज
2. प्रसाद
3. श्लेष
4. समता
5. समाधि
6. माधुर्य
7. सौकुमार्य
8. उदारता
9. अर्थव्यक्ति
10. कान्ति
शब्दगुण
वे गुण, जो शब्दों पर आधारित हों, शब्दगुण हैं। दस शब्दगुणों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- रचना की गाढ़बन्धता ओज है। इसमें संयुक्त, रेफबहुल वर्णों का प्राधान्य रहता है। जहाँ के साथ शिथिलता मिली हो, वहाँ प्रसाद गुण होता है। श्लेष गुण वहाँ होता है, जहाँ अनेक पद एकदूसरे से जुड़े प्रतीत हों। जिस शैली में काव्यरचना आरम्भ की जाय, अन्त तक उसका निर्वाह हो, वहाँ समता है। उतार-चढ़ाव के ठीक ठीक नियमों का पालन होने पर समाधि गुण होता है। जहाँ समास रहित पदों का प्रयोग हो, वहाँ माधुर्य और जहाँ अक्षर- विन्यासादि में परुषता का अभाव हो, वहाँ सौकुमार्य गुण होता है। अर्थ स्पष्ट हो और उसकी तुरन्त प्रतीति हो, तो अर्थव्यक्ति और रचनाशैली की नवीनता होने पर कान्ति नामक शब्दगुण होता है।
अर्थगुण
वे गुण, जो अर्थ से सम्बन्धित हों, अर्थगंण हैं। अर्थप्रौढि ओजगुण है। यानी कवि को यह मालूम होना चाहिए कि बात को कहाँ विस्तार से कहना है ओर कहाँ संक्षेप में, यह कला ही अर्थप्रोढि है। अर्थ की निर्मलता को प्रसाद गुण कहा जाता है। विशिष्ट प्रकार की संघटना यानी क्रम, कुटिलता, प्रसिद्ध वर्णन की शैली और युक्त विन्यास के योग में श्लेष तथा अवैषम्य समता अर्थात् सुगमता नामक अर्थगुण है। नवीन अर्थ के अवलोकन की शक्ति समाधि है । उक्तिवैचित्र्य माधुर्य और कठोरता का अभाव सौकुमार्य है। अग्राम्यत्व या वाग्वैदग्ध्य में उदारता है और पदार्थों का स्पष्ट वर्णन अर्थव्यक्ति है। भरतोक्त श्रृंगारादि रसों का जहाँ पूर्ण परिपाक हो, वहाँ कान्ति गुण कहलाता है। इन शब्द और अर्थगुणों तथा रीति का अविभाज्य सम्बन्ध भारतीय काव्यशास्त्र में माना गया है। काव्य में गुणों की महत्ता अक्षुण्ण है। वे काव्य में अनिवार्यत: शोभा का आधान करने वाले हैं, शब्दार्थ की शोभा के हेतु हैं, रस के उत्कर्षाधायक हैं अत: काव्य की उत्कृष्टता के भी हेतु हैं।
रीतियाँ
व्यगुणों के आधार पर वामन ने तीन रीतियाँ मानी हैं- वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली इन रीतियों में से वैदर्भी को वामन समग्रगुणा और सब गुणों में श्रेष्ठ मानते हैं। गौड़ी में ओज और कान्ति- दो गुण होते हैं ओर पांचाली में माधुर्य और सौकुमार्य । वामन का मानना है कि समग्रगुणा वैदर्भी रीति की प्रशंसा कवियों के द्वारा की गई है। प्रशंसा का कारण यह है कि इस रीति में काव्यदोषों का अभाव और वीणा के स्वर के सदृश श्रवण मनोहरता होती है-
अस्पृष्टा दोषमात्राभिः समग्रगुणगुम्फिता ।
विपंचीस्वरसौभाग्या वैदर्भीरीतिरिष्यते।। (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, 1/2/11)
वैदर्भी रीति में सुकुमार वर्णयोजना होती है। ट, ठ, ड, ढ जैसे कठोर वर्णों का प्रयोग वैदर्भी रीति में वर्जित है। श्रृंगार, करुण, आदि कोमल रसों के लिए यह रीति सर्वथा उपयुक्त है। यथा-
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि, कहत लखन सम राम हृदय गुनि ।
तुलसीदास की इन पंक्तियों में समासरहित पदयोजना है, कोमल पदावली का प्रयोग है, कठोर वर्णों का प्रयोग नहीं किया गया है, अतः यहाँ वैदर्भी रीति है। गौडी रीति में ओज और कान्ति ये दो ही गुण पाये जाते हैं। वामन के अनुसार इस रीति में माधुर्य और सौकुमार्य गुणों का अभाव होने के कारण समासबहुलता होती है और कठोर वर्णों का प्रयोग होता है (का.सू.वृ., 1/2/12)। जैसे-
आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत शिप्रकर वेग प्रखर ।
शतशेल सम्वरण शील नील नभ गर्जित स्वर। - निराला, राम की शक्तिपूजा
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि गौडी रीति का प्रयोग वीर, रौद्र, भयानक आदि रसों की अभिव्यक्ति के लिए उत्तम है। इसमें माधुर्य गुण का पूर्णत: अभाव होता है। पांचाली रीति में माधुर्य और सौकुमार्य गुणों का विधान रहता है। छोटे छोटे समास होते हैं। (का. सू. वृ., 1 / 2 / 13 ) |यह मध्यम स्तर की ि मानी गई है। उदाहरणत:-
विजन वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तरुणी जूही की कली। निराला, जूही की कली
वामन के अनुसार इन तीन रीतियों में काव्य उसी प्रकार समाविष्ट हो जाता है जैसे रेखाओं भीतर चित्र प्रतिष्ठित होता है- 'एतासु तिसृषु रीतिषु रेखास्विव चित्रं काव्यं प्रतिष्ठितमिति' (का.सू.वृ. 1/2/13)| वामन के अनुसार वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली इन तीनों रीतियों में से सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण कवियों को वैदर्भी रीति में ही रचना करनी चाहिए। अन्य रीतियों में कुछ ही गुण पाये जाते हैं, अत: इन रीतियों से युक्त काव्य आह्लादकारी नहीं होता, जितना वैदर्भी प्रयोग से आनन्दित होता है। कुछ विद्वानों के अनुसार गोड़ी और पांचाली रीतियों का प्रयोग वैदर्भी रीति तक पहुँचने में सहायक होता है। वामन इस मत का दृढता से खण्डन करते हुए कहते हैं-
जिस प्रकार सन की सुतली बॉटने वाला अभ्यासी तसर या रेशम के सूत को बुनने में दक्षता प्राप्त नहीं कर सकता है, उसी प्रकार ये दोनों रीतियाँ वैदर्भी रीति के प्रयोग में सहायक नहीं हो सकती हैं, क्योंकि अतत्त्व का अभ्यासी व्यक्ति तत्त्व को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। वामन के मत में वैदर्भी के माध्यम से सामान्य अर्थ भी सुस्वाद्य हो जाता है और अर्थगुण सम्पदा से युक्त वैदर्भी रीति के प्रयोग में तो अतिविशिष्टता आ ही जाती है। वामन के रीति विषयक विचारों का विश्लेषण करने पर हम कह सकते हैं कि वामन की दृष्टि कवि को काव्यरचना का मर्म समझाने की रही है, जिसके तहत वे रीति को काव्य की आत्मा मानते हैं। कहने का आशय यह है कि काव्यशिल्प के विषय में जानकर ही कवि श्रेष्ठ रचना कर सकता है। उसकी कथनपद्धति ही काव्य में रस का समावेश कर सकती है, अत: रीति के विषय में जानना अत्यावश्यक है। इस सन्दर्भ में यह भी ध्यातव्य है कि वामन ने काव्यांग विवेचन करते हुए लोक, विद्या और प्रकीर्ण के विषय में जो चर्चा की है, उसके द्वारा वे यह स्पष्ट करते हैं कि विविध विषयों का ज्ञान पाकर जब रचनाकार विभिन्न शास्त्रों का अभ्यास कर लेता है और गुरुजनों की सेवा में रहकर काव्य रचना के लिए अभ्यास कर लेता है, तब रीति की सहायता से या यों कहें कि 'कवित विवेक' से काव्यरचना में समर्थ होता है। अत: रीति काव्य का अनिवार्य तत्त्व है।
काव्यात्मा और रीतिसिद्धान्त
काव्य के अनिवार्य सारतत्त्व के अनुसंधान के लिए आचार्य आरम्भ से ही यत्नशील रहे थे, किन्तु काव्यात्मा की स्फुट रूप से प्रतिष्ठा आचार्य वामन ने की और रीति को काव्य की आत्मा कहा। वामन के उपरान्त रुद्रट, आनन्दवर्धन, कुन्तक, राजशेखर आदि आचार्यों ने रीति सिद्धान्त के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों में केशवदास ने रस की दृष्टि से भरत की चार वृत्तियों का निरूपण किया। चिन्तामणि ने कविकल्पतरु में रीति को पुरुष का स्वभाव और वृत्ति को उसका व्यवहार कहा। कुलपतिमिश्र ने रसरहस्य में गुणों और वृत्तियों का उल्लेख किया है। आधुनिक युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्यामसुन्दरदास, आचार्य रामचन्द्रशुक्ल, बाबू गुलाबराय, डॉ. नगेन्द्र आदि ने रीति के सन्दर्भ में विचार किये हैं। पर रीति को बाद के आचार्यों ने काव्य की आत्मा नहीं माना और यह कहा कि रीति काव्य का अनिवार्य तत्व तो है, लेकिन वह काव्य का साधन है, साध्य तो रस ही हो सकता है।
रीति और पाश्चात्य साहित्यशास्त्र
पश्चिम में विषयानुरूप शैली के प्रयोग के सन्दर्भ में समय समय पर विद्वानों ने विचार किये हैं। अरस्तू ने स्तुति, करुणा, प्रोत्साहन आदि भावों के आधार पर शैली में परिवर्तन का निर्देश किया है। डेमेट्रियस ने शैली के सन्दर्भ में लिखा है कि कुछ ऐसे विषय होते हैं, जिनमें ओजस्विनी शैली अधिक उपयुक्त होती है। लांजाइनस महान शैली को आत्मा की प्रतिध्वनि मान हैं। शॉपेनहावर स्पष्टता, सुन्दरता और शक्ति सम्पन्न शैली को काव्य के लिए अनिवार्य मानते हैं।
ध्यातव्य है कि पश्चिम में रिचर्डस की अर्थमीमांसा पद्धति, नयी समीक्षा, शैलीविज्ञान और उत्तर आधुनिक विचारधारा में शैली के सन्दर्भ में विस्तार से चर्चा निरन्तर होती रही है। पश्चिम की नव्य आलोचना का सिद्धान्त सूत्र है - 'Poetry is a language in different form' वामन के सूत्र - विशिष्ट पदरचनारीति के पर्याप्त सन्निकट है। शैलीविज्ञान और रीतिविज्ञान में समानता को परिलक्षित करते नाम ही रीतिविज्ञान रखा है। हुए ही विद्यानिवास मिश्र ने शैलीविज्ञान विषयक अपनी रचना का