ध्वनि सम्प्रदाय, ध्वनि और शब्द - शक्तियाँ
भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख सम्प्रदाय ध्वनि प्रस्तावना:
भारतीय
काव्यशास्त्र की परम्परा में ध्वनि सिद्धान्त का बहुत महत्व है। इसके प्रवर्तन का
श्रेय आचार्य आनन्दवर्धन को जाता है। इस सिद्धान्त से पहले भारतीय काव्यशास्त्र के
क्षेत्र में तीन सिद्धान्तों को आचार्यों ने अत्यधिक विस्तार और गहराई से विवेचन
किया था। आचार्य भामह, दण्डी, उद्भट, रुद्रट आदि
आचार्यों ने अलंकार सम्प्रदाय को प्रतिष्ठित किया था, भारतीय
काव्यशास्त्र के आद्याचार्य भरतमुनि ने रस को महत्वपूर्ण स्थान का अधिकारी सिद्ध
किया था और आचार्य वामन ने रीति सम्प्रदाय का विश्लेषण विवेचन करके रीति के लिए
काव्यात्मा शब्द का व्यवहार किया।
आचार्य वामन ने
भारतीय काव्यशास्त्र के क्षेत्र में काव्यशास्त्रियों को काव्य के जीवनाधायक
सूक्ष्म तत्व के विषय में विचार करने के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी, जिसके
परिणामस्वरूप अन्य सिद्धान्तों- ध्वनि, वक्रोक्ति, औचित्य का आचार्यों
ने काव्यात्मा के रूप में प्रतिपादन किया। ध्वनि सिद्धान्त इन सभी सिद्धान्तों में
सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्यसिद्धान्त बना। इस सिद्धान्त का स्रोत वैयाकरणों के 'स्फोट' सिद्धान्त है। इस
सिद्धान्त की स्थापना के लिए ध्वनिवादियों को काव्यशास्त्रियों के बहुत विरोध का
सामना करना पड़ा था, लेकिन प्रतिष्ठित
होने के बाद यह सिद्धान्त काव्यशास्त्रियों के विवेचन का विषय शताब्दियों तक रहा।
आज भी उत्तर-आधुनिकतावादी चिन्तन के सूत्र ध्वनि सिद्धान्त में खोजे जा सकते हैं।
इस इकाई के
अध्ययन से आप ध्वनिसिद्धान्त के विषय में समग्रतः परिचित हो सकेंगे कि ध्वनि क्या
है? ध्वनि के आधार पर काव्य के कौन कौन से भेद हैं। काव्य में
शब्दशक्तियों का क्या महत्व है? पश्चिम में कल्पना विषयक विचार और
ध्वनिसिद्धांत में परस्पर क्या समानताएं हैं.
ध्वनि का अभिप्राय
ध्वनि से पूर्व जो तीन काव्यसिद्धान्त काव्यशास्त्रियों की विवेचना का विषय बने, उन पर यदि हम विचार करें तो सामान्यतः हम कह सकते हैं कि रससिद्धान्त यदि काव्य के भावपक्ष पर विशेष प्रकाश डालता है, तो अलंकार सिद्धान्त काव्य के अभिव्यक्ति पक्ष पर। हालांकि अलंकारवादियों ने रसवदादि अलंकारों के द्वारा काव्य के वस्तुपक्ष पर भी विचार किया, लेकिन काव्य के बाह्य रूपाकार पर विशेष ध्यान रखने के कारण इस सिद्धान्त द्वारा काव्य का पूरा पूरा विवेचन नहीं किया जा सकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए रीतिसिद्धान्त के प्रवर्तक वामन ने गुणाधारित रीति व्यवस्था का निर्देश किया और गुणों के द्वारा काव्य की शैली को समझने का प्रय किया, उन्होंने रस को 'कान्ति' नामक गुण का विषय माना और अलंकारों को काव्योत्कर्ष का साधन मानकर रस और अलंकार को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। पर कतिपय दोषों के कारण यह सिद्धान्त बहुत स्वीकृत नहीं हो सका। परिणामत: परवर्ती आचार्यों ने ऐसे तत्वों की खोज करनी शुरु की, जो काव्य में गुणों से परे हो, जो काव्य में व्याप्त हो और जो शब्द और अर्थ से परे हो, और इस खोज के परिणामस्वरूप ध्वनि सिद्धान्त का उदय हुआ। यह सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि काव्य में सामान्य शब्दार्थ के अतिरिक्त कोई अन्य अर्थ छिपा होता है, जो शब्द और अर्थ में नहीं होता है, पर रचनाकार का अभिप्रेत होता है।
ध्वनि शब्द
काव्यशास्त्र में वैयाकरणों के स्फोट सिद्धान्त से काव्यशास्त्र के क्षेत्र में
आया है, जिसका सामान्यतः अर्थ है आवाज़, दो वस्तुओं के
परस्पर टकराने से उत्पन्न आवाज़, कानों को सुनाई पड़ने वाला नाद। 'स्फुटति अर्थो
अस्मादिति स्फोट:- यानी जिस शब्द से अर्थ फूटता है, अभिव्यक्त होता
है, वह स्फोट यह नित्य एक और अखण्ड । यह स्फोट शब्द का होता है, वाक्य का होता है, पूरे प्रबन्ध का
होता है। वैयाकरणों की दृष्टि में स्फोट का अर्थ है- 'पूर्ववर्ती
वर्णों के उच्चारण के संस्कार के साथ अन्तिम वर्ण के उच्चारण के अनुभव से अर्थ की
अभिव्यक्ति' । अर्थात् व्याकरण के अनुसार कोई भी शब्द ध्वनियों का समूह
है। जब हम किसी शब्द का उच्चारण करते हैं। तो क्रमश: कई ध्वनियाँ हमारे कानों तक
पहुँचती हैं, लेकिन शब्द की अन्तिम ध्वनि कानों तक पहुँचते पहुँचते आरम्भ
की सभी ध्वनियाँ तिरोहित हो जाती हैं। यहाँ सवाल उठता है कि हमें शब्द के अर्थ का
बोध किस ध्वनि से होता है? यदि हम संगीत शब्द का उच्चारण करते हैं, तो सं उच्चारण के
समय ग्, ई, तू और अ ध्वनियाँ तो हैं ही नहीं, यदि हम यह मानते
हैं कि त ध्वनि अर्थ का बोध कराती है, तो अग्ई त् और अ
ध्वनियों की क्या जरूरत? इसके लिए वैयाकरण एक नित्य शब्द की कल्पना करते
हैं और उसे स्फोट कहते हैं। वे कहते हैं कि पृथक् पृथक् वर्णों से अर्थबोध न होकर
स्फोट से होता है। तीनों ध्वनियों का उच्चारण एकसाथ हो नहीं सकता। इसके उत्तर में
यह कहा जा सकता है कि ठीक है कि तीनों ध्वनियाँ एक साथ उच्चरित नहीं हो सकतीं, लेकिन पूर्व
पूर्व वर्ण संस्कार रूप में तो हमारे मानस में स्थित हो जाते हैं, ये संस्कार
अन्तिम वर्ण के उच्चारण के साथ अर्थबोध कराते हैं। किसी भी शब्द में वर्णों के
संयोग-वियोग से (जैसे संगीत शब्द में स्+अ+ अनुस्वार+ग्+ई + त् + अ इन सात वणों का
उपयोग होता है, ये सभी वर्ण अनित्य हैं और इनसे उच्चरित किये जाने वाले
शब्द से नित्य ध्वनिरूप शब्द प्रकट होता है और इससे ) जो स्फोट उत्पन्न होता है, उसे ध्वनि कहते
हैं-
यः संयोगवियोगाभ्यां करणैरुपजायते ।
स स्फोट: शब्दजः
शब्दोध्वनिरित्युच्यते बुधैः । भर्तृहरि, वाक्यपदीयम्
स्पष्ट है कि
स्फोट के व्यंजक अर्थ को ध्वनि कहते हैं। ध्वनि सिद्धान्त के आचार्यों ने यह पाया
कि शब्द के कोशगत, व्यवहार में प्रयुक्त अर्थ सामान्यतः स्वीकृत
होते हैं, शास्त्रादि विषयों के विवेचन में भी समर्थ होते हैं लेकिन
साहित्य में कोशगत अर्थ से काम नहीं चलता। वहाँ तो कवि का अभिप्रेत अर्थ मुख्य हो
जाता है। उदाहरणत: यदि कवि यह कहता है कि-
'कितना चौड़ा पाट नदी का कितनी भारी शाम,
कितने खोये खोये
से हम कितना तट निष्काम'- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,
तो कवि नदी के
चौड़े पाट के विषय में नहीं बता रहा होता है, वह अपनी
अन्यमनस्कता, अपनी उदासी के विषय में भी बता रहा होता है। वह जो बताना
चाहता है, वह शब्दों में नहीं कह रहा है, पर शब्दों से जो
अर्थ निकल रहा है, वही अभिप्रेत अर्थ ध्वनिवादियों के अनुसार
ध्वनि है। यह ध्वनि काव्य की आत्मा है। स्पष्ट है कि ध्वनिवादियों ने जिस ध्वनि की
व्याख्या की हैं, उसका सम्बन्ध शब्द की व्यंजना शक्ति से है अतः
ध्वनि को जानने से पहले शब्दशक्तियों के विषय में जानना जरूरी है।
ध्वनि और शब्द - शक्तियाँ
संस्कृत में शब्द
को ब्रह्म की संज्ञा दी गई है- शब्दं ब्रह्म । इसका आशय यह है कि शब्द में अ
क्षमता होती है। यह क्षमता उसकी अर्थ सामर्थ्य से आती है। इस सामर्थ्य को शक्ति
कहा जाता है। हम जब से भाषा सीखते हैं, शब्द और उसके
अर्थ के विषय में जानते हैं और यह भी जानते हैं कि शब्द और अर्थ का शाश्वत सम्बन्ध
है। अर्थ के बिना शब्द शव के समान है और शब्द के बिना अर्थ अस्तित्वहीन है।
तुलसीदास का कहना है कि शब्द और अर्थ जल और जल में उठनेवाली लहर के समान हैं, जिन्हें पृथक्
नहीं किया जा सकता है- 'गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न'। शब्द का
उच्चारण करते ही हमारे मन में, कल्पना में और अनुभूति में शब्द का अर्थज्ञात
हो जाता है। स्वादिष्ट व्यंजन का नाम लेते ही मुँह में पानी आ जाता है, गुलाब शब्द का
उच्चारण करते ही फूल रंग और गंध का बोध होने लगता है, स्पष्ट है कि
शब्द का अर्थबोध किसी शक्ति के द्वारा होता है, अतः शब्द का
अर्थगत व्यवहार ही शब्दशक्ति है।
हम अपने परिवेश से, शब्दकोशों से, लोकव्यवहार से, वृद्धजनों के अनुभव से शब्दों के अर्थादि के विषय में जानते हैं। हम यह भी पाते हैं कि प्रत्येक शब्द का एक निश्चित अर्थ निर्धारित है। सामान्य तौर पर हम उसी अर्थ का व्यवहार करते हैं, किन्तु शब्द के सामान्य अर्थ की अपनी सीमा होती है और कभी कभी हम अपने विचार उससे अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं, तब हम कुछ प्रतीकों का या बिम्बों का या कल्पना का सहारा लेकर अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश करते हैं, शब्दके इस व्यापार को साहित्यशास्त्री शब्द का लक्षणा व्यापार या व्यंजना व्यापार कहते हैं। इस तरह से शब्द के तीन व्यापार दृष्टिगत होते हैं- अभिधा- अर्थात् शब्दादि के निर्धारित अर्थ को बताने वाला व्यापार, लक्षणा- अर्थात् शब्द के लाक्षणिक अर्थ को बताने वाला व्यापार और व्यंजना- अर्थात् शब्द से व्यंजित होने वाले अर्थ को बताने वाला व्यापार । सामान्य बोलचाल में भी हम अक्सर प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं, ताकि अपनी अनुभूतियों को अधिकाधिक स्पष्ट तरीके से अभिव्यक्त कर सकें। जैसे यह सड़क दिल्ली जाती है, पेट में चूहे कूद रहे हैं, आँखों में रात कट गई, वह हाथ पर हाथ रखकर बैठा है, मुँह में दही जमा है, वह घोड़े बेच कर सोया है - जैसे वाक्यों को हम व्याकरण की दृष्टि से देखें तो ये सभी वाक्य गलत हैं, लेकिन इनका हम अक्सर व्यवहार करते हैं और इनकी अभिव्यंजना की शक्ति से हम अच्छी तरह से परिचित हैं। ऐसे भाषिक प्रयोग साहित्य में निरन्तर प्रयुक्त होते हैं। इसीसे काव्यभाषा और सामान्यभाषा का अन्तर भी स्पष्ट होता है। रोज के परिचित विषयों, घटनाओं आदि का वर्णन जब सामान्य व्यक्ति करता है, तो वह सुनने वालों पर उतना प्रभाव नहीं छोड़ता, पर जब कवि वही वर्णन करता है, तो अनेकानेक पाठक, श्रोता विस्मित हो जाते हैं। सन्ध्याकाल में जब सूर्यास्त होता है, सूर्य की रक्तिम किरणें पेड़ों की चोटियों पर पड़ती हैं, तो प्रत्येक संवेदनशील उस दृश्य से प्रभावित होता ही है, पर जब कवि वर्णन करता है-
दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो उठा,
तरुशिखा पर थी अवराजती, कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा (प्रियप्रवास, हरिऔध )
तो उसका
प्रभाव पाठकों पर अक्षुण्ण रूप से पड़ता है। स्पष्ट है, शब्दार्थ की यही
सामर्थ्य साहित्यजगत् में शब्दशक्ति कहलाती है।
आचार्यों का
मानना है कि शब्द तीन प्रकार के होते हैं- वाचक, लक्षक और व्यंजक
और इन शब्दों के अर्थ वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ कहलाते हैं। इन तीन
प्रकार के शब्दों से सम्बन्धित शक्तियाँ भी तीन हैं- अभिधा, लक्षणा और
व्यंजना । कुछ आचार्य तात्पर्या नामक चौथी शक्ति भी मानते हैं और उसको इस रूप में
पारिभाषित करते हैं- जो वृत्ति अभिधा द्वारा प्रतिपादित अर्थों को अन्वित कर एक
विशेष या अभिनव अर्थ का बोध कराए और वह अर्थ वाच्यार्थों का योग मात्र ही न होकर
कुछ विलक्षण प्रकार का वाक्यार्थ हो, उसे
तात्पर्यावृत्ति कहते हैं। लेकिन अधिकांश आचार्यों का यह मानना है कि तात्पर्या
शक्ति अभिधा, लक्षणा और व्यंजना से पृथक् नहीं है, अत: अलग से उसका
उल्लेख आवश्यक नहीं है। आचार्य विश्वनाथ ने इन शब्दशक्तियों का उल्लेख इस रूप में
किया है-
वाच्योऽर्थोऽभिधया बोध्यो लक्ष्यो लक्षणया मतः ।
व्यंङ्ग्यो
व्यंजनया तास्स्युस्तिस्रः शब्दस्य शक्तयः । - साहित्यदर्पण
शब्दशक्तियों के विषय में
1 अभिधा-
यह हम सब जानते
हैं कि शब्द और अर्थ का अनादि सम्बन्ध है और प्रत्येक शब्द के लिए अर्थ और अर्थ के
लिए शब्द नियत है। जो शब्द साक्षात्संकेतित अर्थ को यानी कोशगत, व्यवहार में
प्रयुक्त अर्थ को बताता है, वह वाचक शब्द है- साक्षात्संकेतितमर्थमभिधत्ते
स वाचकः । इस वाचक शब्द से व्याकरण, कोश, व्यवहार, वाक्यशेष, आप्तवाक्य, विवृत्ति (विवरण), सिद्धपद सान्निध
आदि के द्वारा जो मुख्य अर्थ अभिव्यक्त होता है, वह अभिधा है।
यानी शब्द की जिस शक्ति द्वारा मुख्यार्थ, वाच्यार्थ, साक्षात्संकेतित
अर्थ का बोध हो, उसे अभिधा कहते हैं-
स मुख्योऽर्थस्तस्य
मुख्यव्यापारोऽस्याभिधोच्यते ।
-शब्द का वह
मुख्य व्यापार जो शब्द के मुख्य अर्थ, साक्षात्संकेतित
अर्थ, वाच्यार्थ का बोधक है, अभिधा है। अभिधा
शब्द की मुख्य शक्ति है। लक्षणा और व्यंजना का बोध होने से पहले अभिधा शक्ति से
अर्थबोध होता है। यद्यपि साहित्यजगत् में व्यंजना शक्ति को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण
माना जाता है, पर लक्षणाशक्ति या व्यंजनाशक्ति भी वाच्यार्थ के उपरान्त
प्रकट होती हैं, इसी से हमारे रीतिकालीन आचार्य कवि देव का कहना है-
अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा हीन
अधम व्यंजना रस कुटिल उलटी कहत नवीन ।
2 लक्षणा
जैसा कि हमने
पहले देखा कि कभी-कभी शब्दों के सामान्य अर्थ से कहने वाले का अभिप्राय प्रकट नहीं
होता है और फिर वक्ता कहने के नये-नये तरीके खोजता है। तब श्रोता वक्ता की प्रयोग
सामर्थ्य को समझकर अर्थबोध कर लेता है। भावों में जब अधिक तीव्रता हो, वक्ता कथन में
रमणीयता लाना चाहे, तब वाच्यार्थ के अशक्त होने पर जिस दूसरी शब्द
शक्ति से काम लिया जाता है, वह लक्षणा है। लक्षणा की परिभाषा है-
मुख्यार्थबाधे
तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत् लक्षणाSSरोपिता क्रिया।
-मुख्यार्थ के बाधित होने पर रूढि अथवा प्रयोजन के आधार पर मुख्यार्थ से सम्बन्धित दूसरा अर्थ जहाँ आरोपित किया जाता है, वहाँ लक्षणा शब्दशक्ति होती है। आचार्यों ने लक्षणा की तीन शर्तें बताई हैं- 1. शब्द के मुख्यार्थ से अर्थ की सम्यक् प्रतीति न हो, यह मुख्यार्थबाध है, 2. मुख्यार्थ के स्थान पर कोई ऐसा अर्थ ले लिया जाए, जो मुख्यार्थ से सम्बन्धित हो और जिससे वक्ता का अभिप्रेत सिद्ध हो जाए और 3. मुख्यार्थ से सम्बन्धित जो अन्यार्थ लिया जाए, वह या तो परम्परा से किसी अर्थ में रूढ़ हो गया हो या किसी प्रयोजन की सिद्धि करता हो। लक्षणा को पारिभाषित करते हुए आचार्यों ने यह भी माना है कि लक्षणा में जो मुख्यार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ लिया जाता . वह 'आरोपित किया जाता है। उदाहरणस्वरूप यदि हम वाक्य प्रयोग करते हैं कि- वहाँ तो लाठियां चल रही हैं, तो इस वाक्य में मुख्यार्थ बाधित है, क्योंकि लाठियां स्वत: नहीं चल सकतीं, पर लाठियां चलाई जा सकती हैं, यह मुख्यार्थ से योग है। मुख्यार्थ से सम्बन्धित जो दूसरा अर्थ लिया गया है, वह प्रयोजन के सहारे लिया गया है और इस अर्थ को आरोपित किया गया है। अतः यहाँ लक्षणा शब्दशक्ति है। इसी तरह यदि कहा जाय कि 'वह कविता लिखने में प्रवीण है' तो भी मुख्यार्थ बाधित होगा क्योंकि प्रवीण शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है- वीणा बजाने में कुशल । लेकिन प्रवीण शब्द कुशल, चतुर के अर्थ में रूढ़ हो चुका है अतः यहाँ रूढ़ से मुख्यार्थ से सम्बद्ध अन्यार्थ ग्रहण करने पर भी लक्षणा शक्ति है। लक्षणा शक्ति या तो रूढ़ि पर आधारित होती है या प्रयोजन पर, अत: इस दृष्टि से लक्षणा के दो भेद हैं- रूढ़ा लक्षणा और प्रयोजनवती लक्षणा । प्रयोजनवती लक्षणा दो प्रकार की है - गौणी और शुद्धा । गौणी लक्षणा में बाधित मुख्यार्थ से लक्ष्यार्थ का सम्बन्ध गुणों का होता है। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति के लिए कहा जाय कि वह बैल है, तो इसका आशय यह होता है कि उसमें बैल के समान गुण हैं, अत: यहाँ गौणी लक्षणा मानी जाएगी। जहाँ मुख्यार्थ से लक्ष्यार्थ का सम्बन्ध गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य सम्बन्ध पर आधारित हो, वहाँ शुद्धा लक्षणा है। जैसे यह सडक दिल्ली जा रही है - यहाँ क्योंकि सड़क जड़ है, वह दिल्ली नहीं जा सकती, तो मुख्यार्थ बाधित हो गया। सड़क दिल्ली नहीं जा सकती, लेकिन उस पर चल कर व्यक्ति दिल्ली पहुँच सकता है, यह दूसरा अर्थ गुणेतर सम्बन्धों पर आधारित है। इसके बाद लक्षणा के अनेक अर्थ किये गये हैं, किन्तु आचार्य मम्मट द्वारा हैं- निर्धारित भेद स्वीकार किये गए। छ: ये भेद निम्नांकित छ:
3 व्यंजना-
शब्द की अभिधा और
लक्षणा शक्तियों द्वारा भी कभी कभी वक्ता का अभिप्रेत स्पष्ट नहीं हो पाता है, तब वक्ता के कहने
के ढंग से, परिवेश की दृष्टि से स्थान की दृष्टि से, वक्ता की
भावभंगिमा से श्रोता किसी अन्य अर्थ को ग्रहण करता है। साहित्यशास्त्रियों की
दृष्टि में यह अन्य अर्थ व्यंजना है। जब अभिधा शक्ति शब्द का अर्थ बताने में
असमर्थ हो जाती है, तो लक्षणा द्वारा उसका अर्थ निकलता है। पर कुछ
ऐसे भी अर्थ होते हैं, जिनकी प्रतीति अभिधा या लक्षणा द्वारा नहीं
होती और ऐसी स्थिति में एक अन्य शक्ति की परिकल्पना करनी पड़ती है, यह शक्ति ही
व्यंजना है। आचार्य विश्वनाथ ने व्यंजना को इस रूप में पारिभाषित किया है-
विरतास्वभिधाद्यासु
यथार्थो बोध्यते परः। सा वृत्तिर्व्यञ्जना नाम शब्दस्यार्थादिकस्य च।।
साहित्यदर्पण, 2/12-13 -
हमने देखा कि
लक्षणा में भी अन्य अर्थ लक्षित होता है, और व्यंजना में
भी। पर लक्षणा में किसी न किसी रूढिया प्रयोजन से ही अन्यार्थ की प्रतीति होती है, जबकि व्यंजना में
किसी प्रकार की शर्त नहीं होती । व्यंजनाशक्ति का शाब्दिक अर्थ है' वह शब्दशक्ति, जो अर्थ को
स्पष्ट करें, चित्रित करे, चमका दे और सजा
दे। यह शक्ति नवीन अर्थ को द्योतित करने वाली शक्ति है। इस शक्ति विषय में हम इस
तरह से समझ सकते हैं- मान लीजिए हम एक वाक्य का प्रयोग करते हैं कि 'अब तो रात हो गई
है'- इस वाक्य का अभिधा से अर्थ निकलता है कि दिन समाप्त वक्ता
का प्रयोजन यदि यह बताना है कि अब देर हो गई है, तो लक्षणा शक्ति
से यह अर्थ निकलता गया है, है, किन्तु वक्ता का
अभिप्राय कुछ और हो सकता है, कोई श्रोता उसका यह अर्थ कर सकता है कि घर
जल्दी पहुँचना चाहिए, किसी मुमुर्षु के लिए इसका अर्थ हो सकता है कि
अब जीवन का अन्तिम पड़ाव आ गया है, किसी को किसी से
मिलना है तो अर्थ निकलता है कि जल्दी-जल्दी जाना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि
वक्ता की विशेषता से, संबोध्य ( जिससे कोई बात कही जा रही हो उसकी), उच्चारण का ढंग, वाक्यरचना की
विशेषता, वाच्यार्थ की विशेषता, अन्य व्यक्ति के
निकट होने की विशेषता, प्रस्ताव की विशेषता, देश, काल, चेष्टा आदि की
विशेषता, शारीरिक भंगिमा, दृष्टि निक्षेप
आदि के कारण जो अभिप्रेत व्यक्त होता है, उसे ही व्यंजना
कहा जाता है। ध्यातव्य है कि वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ में स्वरूप, काल, आश्रय, निमित्त, प्रभाव, संख्या, विषय आदि की
दृष्टि से भेद होता है। जैसे वाच्यार्थ एक होता है, ओर उसके
व्यंग्यार्थ अनेक हो सकते हैं। सूर्यास्त हो गया का वाच्यार्थ एक होगा पर
व्यंग्यार्थ अनेक होंगे। युद्ध के अवसर पर इसका अर्थ होगा युद्ध रोकने का समय आ
गया, किसी भक्त के लिए इसका अर्थ होगा- पूजा का समय हो गया, शाम को घूमने
जाता है तो उसके लिए इसका अर्थ होगा कि घूमने का समय हो गया। शब्द और अर्थ दोनों
पर आधारित होने से व्यंजना के दो भेद हैं- शाब्दी व्यंजना और आर्थी व्यंजना ।
शाब्दी व्यंजना अभिधा पर भी आधारित होती है और लक्षणा पर भी । इस दृष्टि से शाब्दी
व्यंजना के दो भेद - अभिधामूला व्यंजना और लक्षणामूला व्यंजना। अभिधाशक्ति द्वारा
अनेकार्थी शब्दों में एक अर्थ निश्चित हो जाने पर जिस शक्ति के द्वारा अन्यार्थ का
ज्ञान होता है, उसे अभिधामूला व्यंजना कहते हैं, -
और जहाँ मुख्यार्थ की बाधा होने पर लक्षणाशक्ति से अन्यार्थ निकलता है, वहाँ लक्षणामूल व्यंजना होती है। कि यह जोड़ी बिल्कुल एक दूसरे के उपयुक्त है, यह शाब्दी व्यंजना का व्यापार है। इसी तरह जो शब्दशक्ति वक्ता, बोधव्य, काकु, वाक्य, वाच्य, प्रकरण, देश, काल, चेष्टा आदि की विशेषता के कारण व्यंग्यार्थ की प्रतीति कराती है, वह आर्थी व्यंजना है। आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा कहते हैं और व्यंजना को उसका प्राण मानते हैं- 'व्यंजकत्वैकमूलस्य ध्वनेः (ध्वन्यालोक, 1/18)। अब हम ध्वनि के विषय में विचार करेंगे।