साहित्य शास्त्रियों का ध्वनि चिन्तन
हिन्दी साहित्य शास्त्रियों का ध्वनिचिन्तन
हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यों ने प्रायः सभी काव्यसिद्धान्तों के विषय में विचार किया है। हालांकि रीतिकाल में रस और अलंकार की प्रधानता रही है पर ध्वनिसिद्धान्त का भी सैद्धान्तिक विवेचन आचार्यों ने किया है। इन आचार्यों ने विशेषतः मम्मट के काव्यप्रकाश के आधार पर ध्वनि- सिद्धान्त का निरूपण किया है। चिन्तामणि, कुलपति, भिखारीदास, आदि अनेक आचार्यों ने ध्वनि- सिद्धान्त का निरूपण किया है। केशव और देव ध्वनिविरोधी हैं पर सेनापति ने अपने काव्य में - जामे धुन है' कहा है तो कुलपति ने रसरहस्य में ध्वनि को काव्य की आत्मा माना है। भिखारीदास ने काव्यनिर्णय के छठे अध्याय में 74 छन्दों में ध्वनि का विवेचन किया। उन्होंने काव्य की आत्मा रस को माना है, पर ध्वनिवादियों की तरह रसध्वनि को महत्व दिया है। प्रतापसाहि की व्यंग्यार्थमुदी प्रतिष्ठा करती है। कन्हैयालाल पोद्दार ने संस्कृत काव्यशास्त्र के विभिन्न विषयों को सरल हिन्दी में अवतरित करने का स्तुत्य प्रयास किया। रामदहिन मिश्र ने ध्वनि विषयक सैद्धान्तिक विवेचन संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर किया और आधुनिक हिन्दी काव्य के उदाहरणों द्वारा उसे समसामयिक दृष्टि से व्याख्यात करने का यत्न किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'रसमीमांसा' तथा डॉ. नगेन्द्र ने अपने शोधप्रबन्ध के प्रथम भाग 'रीतिकाव्य की भूमिका' में ध्वनि विषयक विवेचन किया है। डॉ. जगन्नाथ पाठक, डॉ रामसागर त्रिपाठी, भोलाशंकर व्यास आदि अनेक विद्वानों ने विस्तारपूर्वक ध्वनि विवेचन किया है।
पश्चिम के साहित्यशास्त्रियों का ध्वनिचिन्तन
पश्चिम में भी शब्द और अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा बहुत पहले से होती रही है। वहाँ 'एल्यूजन', 'डबलसेन्स', आइरनी, एलीगरी, मेटाफर, आदि को व्यंग्यार्थ के एक रूप में देख सकते हैं। वाच्यार्थ से भिन्न सूक्ष्म अर्थ की चर्चा करते हुए पश्चिम में वाणी के चारुत्व के रूप में विट(Wit) की चर्चा की गई है। इसी तरह रिचडर्स की अर्थमीमांसापद्धति में भी ध्वनि के सूत्र मिलते हैं। ध्वनिवादी आचार्य मानते हैं कि कवि अपनी रचना द्वारा अपनी अनुभूति को सहृदय के प्रति भाषा के द्वारा संवेद्य बनाता है और पाठक उस रचना को पढ़ते हुए केवल अर्थबोध ही नहीं करता अपितु कवि जैसी रागात्मक अनुभूति से भी सम्पन्न होता है। इसके लिए कवि भाषा का विशिष्ट प्रयोग करता है। आज के मनोवैज्ञानिक भी यही मानते हैं और रिचडर्स भी भाषा के वैज्ञानिक और रागात्मक (Scientific and Imotive) दो रूपों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि वैज्ञानिक भाषा का प्रयोग किसी वस्तु या तथ्य का बोध कराने के लिए होता है, तो रागात्मक प्रयोग भाव जगाने के लिए। रिचर्डस यह मानते हैं कि उक्ति वह है जिसमें वक्ता के कथ्य का अर्थबोध ही अधिक महत्व का होता है। इसी तरह रिचर्डस अर्थ के अभिधेयार्थ, भावनात्मक, पाठक के प्रति वक्ता की अभिवृत्ति और उद्देशात्मक - इन चार रूपों के प्रयोग की बात करते हैं और उनके द्वारा वर्णित सैन्स - अभिधेयार्थ का
अभिप्राय वाच्यार्थ से और फीलिंग, टोन और इन्टेन्शन का अभिप्राय व्यंग्यार्थ से है। पश्चिम की नई समीक्षा, संरचनावादी समीक्षा, उत्तर आधुनिकतावादी समीक्षा शब्द और अर्थ की जिस विलक्षणता की बात करते हैं, वह ध्वनिसिद्धान्त के पर्याप्त निकट है। ध्वनि में जिस 'अनकहे' के महत्व को स्वीकार किया गया है, उत्तरआधुनिकतावादी चिन्तकों के द्वारा वर्णित 'ट्रेस' और 'स्पेस' भी उसी अनकहे के महत्व को स्वीकार करता है। एम्प्सन के द्वारा उल्लिखित 'एम्बिग्युटी' भी ध्वन्यार्थी प्रतीति कराती है। संरचनावादी समीक्षा में टेंशन और स्ट्रक्चर के द्वारा रचना की बनावट और के सन्दर्भ में जो विचार किया गया है, उसमें भी ध्वन्यार्थ के तत्त्व मिलते हैं। बुनावट
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि ध्वनि और कल्पना में भी परस्पर सम्बन्ध है। ध्वनि कल्पना के द्वारा ही सच्ची अनुभूति प्रदान कर सकती है और कल्पना ध्वनित होने पर ही व्यंजिक हो सकती है। डॉ. नगेन्द्र का मानना है कि कल्पना का एक मुख्य कार्य है रिक्त स्थानों को भरना, जगत् में जो वस्तुएं पूर्ण नहीं हैं, न्यूनता या दोष से युक्त हैं, हमारी कल्पना उन्हें भरने का यत्न करने लगती है। उक्ति वैचित्र्य के द्वारा हमारी कल्पना उन न्यूनताओं को भरती है और ध्वन्यार्थ की प्रतीति कराती है। स्पष्ट है कि भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों में आज भी जो सिद्धान्त सर्वाधिक प्रासंगिक है, वह ध्वनि सिद्धान्त ही है और इससे सिद्ध हो जाता है कि ध्वनि सिद्धान्त काव्यशास्त्र के क्षेत्र में एक सार्वजनीन और महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के रूप में मान्य है।
ध्वनिसिद्धान्त सारांश
ध्वनिसिद्धान्त एक व्यापक सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त से पहले के अलंकार और रीतिसिद्धान्त काव्य के एक पक्ष- उक्तिचारुता या पदरचना पर ही प्रकाश डालते हैं, पर ध्वनि की , सत्ता उपसर्ग और प्रत्यय से लेकर महाकाव्य तक है। एक कविता की पंक्ति है - 'वह चितवन और कछु, , जेहि बस होत सुजान' सुजान को मन्त्रमुग्ध करने वाली चितवन तो कुछ और ही है, जो सौन्दर्य के प्रसिद्ध उपादानों से अलग है, जिसे लावण्य के नाम से जाना जाता है, जिसे हम सामान्य बोलचाल में कहते हैं कि देखो यद्यपि वह सुन्दर नहीं है, पर उसमें कितना नमक है, जिसे साहित्य में हम प्रतीयमान अर्थ के रूप में जानते हैं और इस प्रतीयमान अर्थ को व्यंजित करने वाली शक्ति ही ध्वनि है। व्यंजना शब्दशक्ता ध्वनि का प्राण है।
आचार्यों की दृष्टि में रस और ध्वनि परस्पर सम्बद्ध हैं। रस का सम्बन्ध अनुभूति के साथ है, ध्वनि का कल्पना के साथ। हालाँकि रस की परिधि ध्वनि से अधिक विस्तृत है, पर रसात्मक बोध लिए ध्वनि की महत्ता भी नकारा नहीं जा सकता। इसलिए हम कह सकते हैं कि काव्य की चरम सिद्धि आस्वाद रूप रस है और ध्वनि उस रस का अनिवार्य वाहक है। इसीसे ध्वनिवादी आचार्य रसध्वनि को काव्यात्मा के रूप में स्वीकार करते हैं।