भारतीय साहित्य सिद्धान्त-वक्रोक्ति
भारतीय साहित्य सिद्धान्त-वक्रोक्ति प्रस्तावना
सम्पूर्ण वाड्मय में, काव्य को अपनी ललित पदावली, मनोहर शैली तथा भावाभिव्यंजक मार्मिक
अभिव्यंजना पद्धति के वैषिष्ट्य के आधार पर महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। स्पष्ट
है कि व्यवहार एवं काव्य की भाषा में अन्तर होता है। काव्य की उक्ति अधिक मार्मिक
एवं उसकी पद-रचना अधिक सुसज्जित होती है। काव्य-मीमांसक आचार्यों ने काव्य के इस
चारुत्व एवं मार्मिकता का आधार अलग-अलग बताया है। कविता की इसी चारुता, मनोज्ञता एवं
आह्लादकता की खोज के लिए अलंकार, रीति, ध्वनि, रस,
औचित्य आदि
सिद्धान्तों का उद्भव हुआ। वक्रोक्ति भी इन्हीं सिद्धान्तों में से एक है जिसके
उद्भावक आचार्य कुन्तक हैं।
वक्रोक्ति दो शब्दों से मिलकर बना है- वक्र तथा उक्ति ।
वक्रता का शाब्दिक अर्थ है- टेढ़ापन, विचित्र, असामान्य आदि। इस प्रकार वक्रोक्ति का अर्थ हुआ वह उक्ति, जो लोकोत्तर हो, विचित्र हो एवं
चमत्कारपूर्ण हो।
वक्रोक्तिः परम्परा एवं स्वरूप
यद्यपि वक्रोक्ति सिद्धान्त की स्थापना आचार्य कुन्तक
द्वारा दसवीं शताब्दी में की गई तथापि इससे पूर्व भी वक्रोक्ति का प्रयोग काव्य
एवं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में होता रहा है। कादम्बरी एवं हर्षचरित सदृष अनेक
साहित्यिक ग्रन्थों में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। अलंकार सिद्धान्त के
प्रवर्त्तक आचार्य भामह हैं जिन्होंने छठी शताब्दी में अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकार' में वक्रोक्ति का
विधिवत् विवेचन किया है। उन्होंने वक्रोक्ति को ही सभी अलंकारों का मूल माना है।
उनकी मान्यता है कि वक्रोक्ति के बिना कोई अलंकार हो ही नहीं सकता है:-
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते ।
यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया बिना ।।
इस प्रकार
भामह ने वक्रोक्ति को अलंकार की आत्मा के रूप में ग्रहण किया है।
भामह के पश्चात अलंकारवादी आचार्य दण्डी ने अपनी रचना 'काव्यादर्श' में काव्य को दो
भागों में विभाजित किया है- स्वभावाक्ति एवं वक्रोक्ति। वे श्लेष को वक्रोक्ति का
शोभादायक गुण मानते हुए भी रस से युक्त मानते हैं-
श्लेषः सर्वासु पुष्णाति प्रायोवक्रोक्तिशु श्रियम्।
द्विधा भिन्नं स्वभावोक्तिर्वक्रोतिष्चेति वाड्मयम्।।
दण्डी के बाद आचार्य वामन ने 'काव्यालंकार
सूत्र' में वक्रोक्ति को
सादृष्य के आधार पर व लक्षणामूलक अलंकार ही कहा है- 'सादृश्याल्लक्षणा
वक्रोक्तिः । वामन के परवर्ती रुद्रट ने वक्रोक्ति को और भी संकुचित कर दिया और वह
शब्दालंकार मात्र रह गई।
इस प्रकार भारतीय काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति का चिन्तन किसी न किसी रूप में विद्यमान था।
आचार्य कुक ने वक्रोक्ति को अत्यन्त व्यापक स्वरूप प्रदान किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत परिभाषा निम्नवत है-
उभावेतावलंकार्यो तयोः पुनरलंकृति ।
वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगी मणितिरुच्यते ।। (वक्रोक्ति जीवितम)
अर्थात् यह दोनों शब्द और अर्थ अलंकार्य होते है । वैदग्ध्य
भंगीभणिति ही वक्रोक्ति है। उन्होने - वैदग्ध्य का अर्थ विदग्धता अथवा कविकर्म
कौशल किया है। भंगी, शोभा, विच्छित्ति, वक्रता, सौन्दर्य ये सभी
शब्द काव्यशास्त्र में प्राय: समान अर्थ में ही प्रयुक्त होते हैं। भणिति का अर्थ
उक् अथवा कथन है। अतः कहा जा सकता है कि वक्रोक्ति एक ऐसी कथन-भंगिमा है जो लोक
व्यवहार प्रयुक्त तथा शास्त्र आदि में उपनिबद्ध सामान्य प्रणाली से भिन्न हो, प्रतिभाशाली कवि
के कौशल से पूर्ण हो तथा काव्यमर्मज्ञों के हृदय को आह्लादित करने में समर्थ हो।
काव्य का लक्षण प्रस्तुत कर हुए कुन्तक कहते हैं कि सहृदय को आह्लादित करने वाले
एवं मन को आकर्षित करने वाले कवि व्यापार से युक्त वाक्य-विन्यास में सुन्दर ढंग
से व्यवस्थित एवं साहित्यमय शब्द और अर्थ को काव्य कहा जाता है -
शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि ।
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ।।
इस प्रकार वक्रोक्ति के स्वरूप के विषय में कहा जा
सकता है. -
1. वक्रोक्ति एक कथन-प्रणाली है। यह अलंकार्य न होकर अलंकार है ।
2. है। वक्रोक्ति सामान्य कथन प्रणाली एवं लोकषास्त्र में प्रयुक्त कथनप्रणाली दोनों से भिन्न होती.
3. यह वक्रोक्ति सहृदयजनों को आह्लादित करने में समर्थ होती है।
4. प्रतिभा के बल पर ही कवि वक्रोक्ति का निर्माण करने में समर्थ होता है।
5. वक्रोक्ति काव्य
का प्राण तत्व है।
वक्रोक्ति के भेद
इस भाग में आप वक्रोक्ति के भेदोपभेदों की जानकारी प्राप्त
करते हुए जानेंगे कि वक्रोक्ति कविविदग्धता एवं चमत्कार कविता में वर्ण से लेकर
प्रबन्ध तक व्याप्त है। आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति के छः भेद किए हैं-
वर्णविन्यास, वक्रता, पद-पूर्वार्ध
वक्रता, पद- परार्धवक्रता, वाक्य वक्रता, प्रकरण वक्रता और
प्रबन्ध वक्रता। यहाँ इनका अलग-अलग विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।
1 वर्णविन्यास वक्रता
जहाँ एक या दो या अनेक वर्ण थोड़े-थोड़े अन्तर से बार-बार
प्रयुक्त होते है, वहाँ
वर्ण-विन्यास वक्रता होती है-
एकौ द्वौ बहवो वर्णाः मध्यमानाः पुनः पुनः ।
स्वल्पान्तर विधा सोक्ता वर्णविन्यास वक्रतो ।।
(वक्रोक्तिजीवितम्)
यहाँ वर्ण से तात्पर्य व्यंजन वर्णों से है। इसके अतिरिक्त
शब्दालंकार- अनुप्रास, यमक, विभिन्न
वृत्तियों एवं शब्दगुणों का समावेश है। कुन्तक ने यह भी स्पष्ट किया है कि
वर्णयोजना विषयानुकूल होनी चाहिए तथा वर्णों में कृत्रिमता न होकर सहजता होनी
चाहिए। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
इस करुणा कलित हृदय में क्यों विकल रागिनी बजती,
क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती?
यहाँ स्वल्प अन्तर के साथ 'क' वर्ण की आवृत्ति होने से वर्णविन्यास वक्रता है।
2 पदपूर्वार्ध वक्रता
पद के आरम्भ (प्रकृति या मूल धातु) में उत्पन्न वक्रता को
पदपूर्वार्ध वक्रता कहते है। इसके अनेक भेद है जिनका विवेचन प्रस्तुत है -
रूढ़िवैचित्रय वक्रता
जब कवि अपनी प्रतिभा से किसी शब्द के रूढ़ अर्थ को
परिवर्तित कर उक्ति में लालित्य ला देता है, तो वहाँ रूढ़िवैचित्र्य वक्रता होती है। ध्वनि सिद्धान्त के
अन्तर्गत विवेचित लक्षणामूला ध्वनि के दोनों भेद-अर्थान्तर संक्रमित और अत्यन्त
तिरस्कृत इसके अन्तर्गत लिए जाते हैं। उदाहरणार्थ -
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ।
मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ।।
यहाँ 'राम'
का रूढ़ अर्थ 'दशरथ के पुत्र
हैं, परन्तु यहाँ इस
शब्द में वीरता, दृढ़प्रतिज्ञा
एवं उत्साह का भाव संक्रमित हो गया है। अतः रूढ़िवैचित्र्यवक्रता है।
पर्याय वक्रता
एक ही अर्थ को व्यक्त करने वाले अनेक पर्यायवाची शब्दों में
से कवि जब किसी एक का चयन कर उक्ति में लालित्य उत्पन्न करता है, तो वहाँ पर्याय
वक्रता होती है। जैसे
रो रोकर सिसक-सिसक कर कहता मै करुण कहानी
तुम सुमन नोचते फिरते करते जानी अनजानी। (आंसू)
उपर्युक्त उदाहरण में ‘सुमन' पद में पर्याय वक्रता है। सुमन का अर्थ फूल है परन्तु उसका
वाच्यार्थ है। इसके स्थान पर यदि इसका अन्य पर्यायवाची (कुसुम, पुष्प आदि) रख
दिया जाए, तो इसका सौन्दर्य
नष्ट हो जाएगा।
उपचार वक्रता
उपचार का अर्थ है - भिन्न पदार्थों में सादृश्य के कारण उत्पन्न होने वाली समानता। इस वक्रता में मूर्त उपमेय के लिए अमूर्त उपमान और अमूर्त उपमेय के लिए मूर्त उपमान का प्रयोग किया जाता है। इसमें अचेतन में चेतना का आरोप भी किया जाता है। रूपक, मानवीकरण अलंकार इसी में आते है।
उदाहरणार्थ-
हे लाज भरे सौन्दर्य बता दो मौन बने रहते हो क्यों?
प्रसाद जी के गीत की इस पंक्ति में सौन्दर्य पर चेतना का
आरोप किया गया है। लज्जा से भरना, मौन बने रहना एवं बतलाना मानव-धर्म है। यहाँ अचेतन पर चेतना
के आरोप से उपचार वक्रता है।
विशेषण वक्रता
आचार्य कुतक का कहना है -
विशेषणस्य महात्म्यात् क्रियायाः कारकस्य वा ।
यत्रोल्लसति लावण्यं सा विशेषणवक्रता ।।
अर्थात् जहाँ विशेषण के प्रभाव से क्रिया या कारक का
सौन्दर्य उल्लसित होता है,
वहाँ विशेषण
वक्रता होती है। उदारहणार्थ- शीतल ज्वाला जलती थी ईधन होता दृग जल का यह व्यर्थ
सॉस चल चल कर करती है काम अनिल का।
यहाँ प्रसाद जी ने ज्वाला के विशेषण के रूप में शीतल का प्रयोग कर अर्थ की रमणीयता में वृद्धि है।
संवृति वक्रता
संवृति का अर्थ है- छिपाना या गोपन । जब वैचित्र्य कथन के
उद्देश्य से सर्वनाम आदि के द्वारा वस्तु का गोपन या संवरण किया जाता है, तो वहाँ संवृति
वक्रता होती है -
अनियारे दीरघ दृगनि किती न तरुनि समान ।
वह चितवनि और कछू, जेहि बस होत
सुजान।।
वृति वक्रता
इस वक्रता में, वृत्ति का तात्पर्य उपनागरिका, परुषा आदि
वृत्तियों से न होकर समास,
तद्धित, सुब् धातु आदि
व्याकरणिक वृत्तियों से है। इसमें समास, तद्धित, या कृदन्त के चमत्कारिक प्रयोग से सौन्दर्य उत्पन्न होता
है। उदाहरणार्थ-
आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत- क्षिप्र-कर वेग- प्रखर
शतसेल संवरण शील, नील नभ गर्जित-स्वर,
प्रतिपल-परिवर्तित-व्यूह भेद-कौशल समूह,
राक्षस - विरुद्ध- प्रत्यूह- क्रुद्ध कपि-विषम-हूह
विच्छुरित-वहि-राजीवनयन-हत लक्ष्य-वाण
लोहितलोचन -
रावण-मदमोचन महीयान
समासयुक्त शैली होने के कारण यहाँ वृत्ति वक्रता है।
लिंग वैचित्र्य वक्रता
जहाँ पर विषिष्ट लिंग के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न हो, तो वहाँ लिंग
वैचित्र्य होती है। उदारहणार्थ -
शशि मुख पर घूँघट डाले अंचल में दीप छिपाये।
जीवन की गोधूली में कौतूहल से तुम आये।
‘आँसू' के इस छन्द में
प्रसाद जी ने नायिका के लिए पुल्लिंग क्रिया का प्रयोग किया है, अतः लिंगवैचित्रय
वक्रता है।
क्रियावैचित्र्य वक्रता
जब कविता में क्रिया का चमत्कारपूर्ण प्रयोग किया जाता है, तो वहाँ
क्रियावैचित्र्य वक्रता होती है। उदाहरणार्थ-
तिर रही अतृप्ति जलधि में नीलम की नाव निराली ।
यहाँ प्रसाद जी ने 'तरना क्रिया का चमत्कारपूर्ण प्रयोग किया है। अतः क्रिया
वैचित्र्य वक्रता है।
3 पदपरार्ध वक्रता
पद के परार्ध भाग में प्रत्यय एवं विभक्तियों आदि की गणना की जाती है। इसके अन्तर्गत कालवैचित्र्यवक्रता, कारकवक्रता, संख्या वक्रता, पुरुष वक्रता, प्रत्ययवक्रता आदि की सोदाहरण चर्चा आचार्य कुन्तक ने की है। इनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है-
कालवैचित्र्य वक्रता
जहाँ कवि वर्तमान के धरातल पर अतीत के चित्र अंकित करता है
या औचित्य के अनुरूप काल के प्रयोग में चमत्कार होता है, वहाँ कालवैचित्र्य
वक्रता होती है। यथा-
जा थल कीन्हें विहार अनेकन ता थल कांकरी बैठि चुन्यो करें।
रसना सो करी बहु बातन ता रसना सो चरित्र गुन्यो करें।
आलम जौन से कुंजन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करें।
नैनन में जो सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यौ
करें ।।
कारक वक्रता
जब किसी अभिप्राय विषेष की अभिव्यंजना के लिए कवि कारक के
प्रयोग में विपर्यय कर देता है, तो वहाँ कारक वक्रता होती है, जैसे-
झींगुर के स्वर का प्रखर तीर, केवल प्रषान्त को रहा चीर ।
यहाँ 'तीर' का प्रयोग करण कारक के रूप में न होकर कर्ता कारक के रूप में होने से कारक वक्रता है।
पुरुष वक्रता
जहाँ पुरुषों के विपर्यय से काव्य को अलंकृत किया जाता है, वहाँ पुरुष वक्रता होती है।
उदाहरणार्थ -
करके ध्यान आज इस जन निश्चय वे मुसकाये।
फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बन्धूक
यहाँ स्वयं के लिए उर्मिला ने उत्तम पुरुष का प्रयोग न करके
प्रथम पुरूष 'इस जन का प्रयोग
किया है। अतः यहाँ पुरूष वक्रता है।
संख्या वक्रता
इसे वचन वक्रता भी कहा जाता है। जहाँ एक वचन के स्थान पर बहुवचन और बहुवचन के स्थान पर एकवचन के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न किया जाए तो वहाँ संख्या वक्रता होती है। जैसे- स्वयं सुसज्जित करके क्षण में प्रियतम को प्राणो के पण में, हमीं भेज देती है रण में क्षात्र धर्म के नाते ।
यहाँ एकवचन ‘मैं'
के स्थान पर
बहुवचन 'हमी' के प्रयोग से
संख्या वक्रता है।
उपग्रह वक्रता
उपग्रह का अर्थ धातु होता है। संस्कृत में परस्मैपद एवं
आत्मनेपद नामक दोनों धातुओं का प्रयोग होता है परन्तु हिन्दी में सामान्यतया
परस्मैपदी धातुओं का ही प्रयोग होता है। फिर भी कभी-कभी काव्य-षोभा की वृद्धि के
लिए आत्मनेपदी धातुओं का चमत्कारी प्रयोग होता है। ऐसा कर्मवाच्य में होता है।
नीचे की पंक्तियों में प्रसाद जी ने 'तुलना' क्रिया का दोनों रूपों में सुन्दर प्रयोग किया है-
मैं भी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ।
भुजलता
फँसा कर नर तरु से झूले से झोंके खाती हूँ।
प्रत्यय वक्रता
इस वक्रता में प्रत्यय के प्रयोग से चमत्कार उत्पन्न होता
है। जैसे-
पिय सों कहेहु सँदेसड़ा हे भौंरा ! हे कागा ।
सो धनि विरहै जरि मुई तेहिक धुँआ हम लाग ।।
यहाँ 'संदेसड़ा' में प्रत्यय के कारण प्रत्यय वक्रता है।
उपसर्ग वक्रता
जहाँ उपसर्ग के सुन्दर प्रयोग द्वारा काव्य में सौन्दर्य का
विधान किया जाता है, वहाँ उपसर्ग व
होती है। उदाहरणार्थ -
एक दिवस अति मुदित उदधि के बीचि-बिचुम्बित तीरे ।
सुख की भाँति मिला प्राणी से आकर धीरे-धीरे।।
निपात वक्रता
निपात अव्यय होते हैं। जहाँ निपातों के कारण कविता को
चमत्कार सम्पन्न किया जाता है, वहाँ निपात वक्रता होती है। उदाहरणार्थ -
उसके आशय की थाह मिलेगी किसको
जनकर जननी ही जान न पाई जिसको
।
इसमें 'ही'
के प्रयोग के
कारण निपात वक्रता है।
4 वाक्य वक्रता
वाक्य-वक्रता को वाच्य-वक्रता और वस्तु वक्रता भी कहा जाता
है। इस वक्रता का आधार सम्पूर्ण वाक्य होता है। जहाँ वस्तु का उत्कर्षयुक्त तथा
स्वभाव से सुन्दर रूप में केवल सुन्दर शब्दों द्वारा वर्णन होता है, वहाँ वाक्य
वक्रता होती है। यह वाक्य वक्रता दो प्रकार की होती है - सहजा एवं आहार्या ।
आचार्य कुन्तक का कथन है-
सैषा सहजार्यभेदभिन्ना वर्णनीयस्य वस्तुनो द्विप्रकारस्य
वक्रता ।
(1) सहजा वक्रता
सहजा वक्रता में वस्तु का स्वाभाविक अथवा प्राकृत वर्णन
किया जाता है। यह वर्णन कभी स्वभाव- प्रधान होता है तो कभी रसपूर्ण। इसमें
अलंकारों का प्रयोग प्रायः नही होता है। यदि अलंकार आ भी जाते है तो वे काव्य की
सहजता में बाधा नहीं उत्पन्न करते है। यथा-
मैया मोंहि दाउ बहुत खिझायो।
मों सौ कहत मोल को लीन्हों, तू जसुमति कब जायो।
(2) आहार्या वक्रता
शिक्षा एवं अभ्यास के द्वारा अर्जित कौशल से कवि जब काव्य
में रमणीय चित्रांकन करता है, तो वहाँ आहार्या वक्रता होती है। इसमें उपमा, रूपक, मानवीकरण आदि
अलंकारों के रम्य प्रयोग द्वारा कविता को सौन्दर्य एवं अर्थगौरव से संयुक्त किया
जाता है। 'कामायनी' के आशा सर्ग से
यह उदाहरण प्रस्तुत है -
सिन्धु सेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी।
प्रलय निशा की हलचल स्मृति-सी मान किये सी ऐंठी-सी ।
इन पंक्तियों में प्रलयकालीन समुद्र में तैरती हुई पृथ्वी
का सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। ज प्रकार कोई नवविवाहिता वधू विगत रात्रि
में पति द्वारा किए गये रति सम्बन्धी निर्दय व्यवहार का स्मरण करते हुए, संकोचपूर्वक
इठलाकर बैठी हुई होती है। वैसे ही जल से थोड़ा ऊपर उठी हुई पृथ्वी मानवती नायिका
के समान आभासित हो रही है। यहाँ उपमा, रूपक, समासोक्ति एवं मानवीकरण आदि के कारण काव्य चमत्कृत एवं
प्रभावषाली हो गया है।
5 प्रकरण-वक्रता
प्रकरण-वक्रता से आचार्य कुन्तक का अभिप्राय वर्णित
प्रसिद्ध ऐतिहासिक अथवा पौराणिक इतिवृत्तों में कविकल्पना से प्रसूत अनेक मार्मिक
और मौलिक प्रसंगों की उद्भावना से है । कुन्तक ने प्रकरण वक्रता के निम्नलिखित भेद
किए है-
(1) भावपूर्ण स्थिति की उद्भावना
(2) अविद्यमान की कल्पना और विद्यमान प्रकरण का सोचि परिष्कार
(3) प्रकरणों का उपकार्य-उपकारक भाव
(4) एक ही स्थिति का बार- बार नवनवायमान उपस्थापन
(5) काव्य को रमणीय बनाने के लिए कथावैचित्र्य सर्जक जलक्रीड़ा आदि प्रसंगो का उद्भावन
( 6 ) गर्भीक योजना
(7) सन्धि विनिवेष
आदि ।
'कामायनी' में लज्जा सर्ग
अपनी समग्रता में एक भावमय योजना है। निराला के 'तुलसीदास' में नवजागरण की शक्तिवादी मान्यता के अनुरूप कल्मष को दू
करने के लिए रत्नावली के रूप में सरस्वती की उद्भावना की गई है, जो अविद्यमान की
उद्भावना है। कवियों द्वारा प्रबन्ध काव्य में विस्तार हेतु नगर, समुद्र, ऋतुवर्णन, जलक्रीड़ा आदि का
मनोग्राही, मार्मिक एवं
रसानुभूति से परिपूर्ण चित्रण करते है।
निष्कर्ष यह है कि कवि अपनी प्रातिभ क्षमता और प्रातिभ
स्वतन्त्रता से प्रबन्ध में बाँकपन लाने के लिए प्रकरण- वक्रता की योजना करता है।
6 प्रबन्ध वक्रता
प्रबन्ध प्रकरणों का समुच्चय है। वह खंडकाव्य और महाकाव्य
हो सकता है तथा नाटक भी। यह वक्रोक्ति का एक व्यापक रूप है। इसके प्रमुख भेद हैं-
(1) प्रबन्धरस परिवर्तन वक्रता
(2) समापन वक्रता
(3) कथा विच्छेद वक्रता
(4) आनुषंगिक फल वक्रता
(5) नामकरण वक्रता
प्रातिभ कवि प्रबन्ध-वक्रता द्वारा काव्य को प्रभावषाली
बनाने में समर्थ होते है। अभिज्ञान शाकुन्तलम, रामचरितमानस, साकेत, प्रियप्रवास, कामायनी आदि प्रबंध वक्रता सम्पन्न श्रेष्ठ रचनायें है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को अत्यन्त व्यापक स्वरूप प्रदान किया है जिसमें काव्य के सभी प्रचलित सिद्धान्त समाहित हो गये है।