काव्य विषयक आधुनिक हिन्दी आचार्यों की दृष्टि
काव्य विषयक आधुनिक हिन्दी आचार्यों की दृष्टि
आपने संस्कृत, रीतिकाल तथा पश्चिम के विचारकों की दृष्टि से काव्य स्वरूप के विषय में जाना। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में आधुनिक काल में गद्यविधाओं का सर्वतोमुखी विकास होने के साथ साथ साहित्यविषयक गम्भीर चिन्तन भी आरम्भ हुआ और अब साहित्य विषयक सिद्धान्तों को नई दृष्टि से परखा गया। हिन्दी के साहित्यचिन्तकों के सामने भारतीय काव्यशास्त्र की एक सुदीर्घ परम्परा थी और पश्चिम की भी । यह बडी स्वाभाविक बात है कि इस परम्परा का प्रभाव आधुनिक काल के चिन्तकों पर पडा और हिन्दीगद्य के आरम्भिक आचार्यों के काव्यविषयक अभिमत संस्कृत के आचार्यों के मतों से प्रभावित रहा। कुछ परिभाषाओं का उल्लेख करते हैं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अपनी रचना रसज्ञरंजन में काव्य की परिभाषा इस रूप में दी 'कविता प्रभावशाली रचना है, जो पाठक या श्रोता के मन पर आनन्ददायी प्रभाव डालती है। ..... मनोभाव कल्पना का रूप धारण करते हैं, वही कविता है, चाहे वह पद्यात्मक हो चाहे गद्यात्मक ... अन्त:करण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है ( रसज्ञरंजन)। द्विवेदी जी की दृष्टि में काव्य आनन्दात्मक है। पर इस आनन्द के सम्पादनकारी अवयवों का उल्लेख उन्होंने नहीं किया है, दूसरे चित्त का प्रत्येक मनोभाव कवित नहीं हो सकता अतः यह परिभाषा उपयुक्त नहीं है। इस परिभाषा पर विश्वनाथ का प्रभाव स्पष्टत: दिखाइ देता है। आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी मानवीय अनुभूति, कल्पना और सुनदरता के समन्वित रूप को काव्य कहते हैं-'.. काव्य तो प्रकृत मानव-अनुभूतियों का नैसर्गिककल्पना के सहारे ऐसा सौन्दर्यमय चित्रण है, जो मनुष्यमात्र में स्वभावतः अनुरूप भावोच्छवास और सौन्दर्य-संवेदन उत्पन्न करता है (हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली ) । यह कथन काव्यनिर्माण प्रक्रिया और उसके भावात्मक प्रभाव पर प्रकाश डालती है, पर यहाँ काव्यभाषा का उल्लेख नहीं है। -
श्यामसुन्दरदास काव्य को 'हृदय में अलौकिक चमत्कार की सृष्टि करने वाला'; गुलाबराय रसप्रधान साहित्य को काव्य तथा जयशंकर प्रसाद आत्मा की अनुभूति को कविता कहते हैं। महादेवी वर्मा की नजर में : 'कविता कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण है; और यह चित्रण इतना ठीक है कि उससे वैसी ही भावनाएं किसी दूसरे के हृदय में आविर्भूत होती हैं। आप ध्यान से इन परिभाषाओं को परखेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि इन परिभाषाओं को आप काव्य की निर्दुष्ट परिभाषा नहीं मान सकते क्योंकि इनमें भी काव्यभाषा की चर्चा नहीं है।
काव्यविषयक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की परिभाषा प्रामाणिक है, सार्थक है; उन्होंने काव्य को सम्पूर्णत: पारिभाषित करने का प्रयास किया है - जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं ( रसमीमांसा, कविता क्या है )। शुक्ल जी यहाँ रस दशा को ज्ञानदशा के समकक्ष मानकर काव्य की अलौकिकता सिद्ध करते हैं, इस रसदशा तक पहुँचाने वाली कवि की विशिष्ट वाणी की चर्चा करते हैं। उन्होंने काव्य के भाव और कला दोनों पक्षों का उल्लेख यहाँ कर दिया है। काव्य के अन्यान्य लक्षण भी हैं, विषय विस्तार के भय से अब हम उनके विषय में विचार नहीं कर रहे हैं।
कुल मिलाकर काव्य के विषय में अनन्त अभिमत हैं, फिर भी कावय की कोई सर्वांगपूर्ण परिभाषा नहीं दी जा सकती हैं, किन्तु काव्य के विषय में हम एक निश्चित अवधारणा कर सकते हैं कि काव्य शब्दार्थ का साहित्य है। ये शब्दार्थ लोकसामान्य शब्दार्थों से भिन्न हैं, इनमें सहृदय को अपनी ओर आकर्षित करने की पूरी क्षमता है, कवि का यह अलौकिक व्यापार है जिसके द्वारा वह अनेकानेक विषयों को अत्यन्त प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्त करता है।