आई0ए0 रिचर्ड्स परिचय एवं सिद्धान्त
आई0ए0 रिचर्ड्स परिचय एवं सिद्धान्त
प्रस्तुत इकाई के अध्ययन द्वारा आप अपने समय के महान साहित्यालोचक एवं
साहित्यशास्त्री आई0ए0 रिचर्ड्स के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं उनके
महत्वपूर्ण साहित्यिक सिद्धान्तों का अध्ययन विस्तारपूर्वक करेंगे। इस इकाई के
अध्ययन के बाद आप आई0ए0 रिचर्ड्स के महत्व तथा प्राचीन एवं समकालीन साहित्य के
संदर्भ में उनकी महत्ता एवं प्रासांगिकता का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।
आई0ए0 रिचर्ड्स युगीन परिस्थितियाँ साहित्यिक परिवेश
इलियट से
प्रारम्भ होकर आई0ए0 रिचर्ड्स, जॉन क्रो रैनसम, क्लीन्थ ब्रुक्स, विलियम एम्पसन, एफ0आर0लीविस, एलेन टेटे, आर0पी0 ब्लैकमर, केनेथ वर्क, डब्ल्यू) के
विमसाट आदि आलोचकों की रचनाओं में नयी समीक्षा परवान चढ़ी। बीस वर्ष तक नयी
समीक्षा का विकास इस हद तक हुआ कि सन् 1940 के आसपास द कीनियन रिव्यू और द सिवानी
जै आलोचनात्मक पत्रिकाओं पर इस समीक्षा-दृष्टि का पूर्ण प्रभुत्व हो गया। कुल
मिलाकर नयी समीक्षा के उदय और विकास का काल दो विश्वयुद्धों के बीच का काल है।
रिचर्ड्स का युग विज्ञान और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि के चरम प्रकर्ष का समय था । ऐसे वातावरण में कविता की उपयोगिता और सार्थकता के विषय में उनकी चिंता स्वाभाविक थी। ऐसे में बहुत सी बातों के आलावा रिचर्ड्स ने दो समस्याओं पर मुख्य रूप से विचार किया। इनमें से एक थी काव्य के मनोवैज्ञानिक प्रभाव की मूल्यपरकता और दूसरी काव्य-भाषा की प्रकृति की पहचान। इन प्रश्नों पर विचार करते समय उन्होंने मनोविज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति का सहारा लिया।
आधुनिक जीवन में
कविता के सन्दर्भ पर प्रकाश डालते हुए रिचर्ड्स ने सम्पूर्ण और स्वस्थ मानव- जीवन
में काव्य के महत्व और मूल्य पर भी विचार किया है। आई0ए0 रिचर्ड्स ने कविता की
सार्थकता पर विचार करते हुए टॉमस लव पीकॉक का स्मरण करना जरूरी समझा। पीकॉक ने
वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टि द्वारा यथार्थ के तर्कपूर्ण और क्रमबद्ध विवेचन को
तरजीह देते हुए सवाल उठाया था कि 'क्या कवि इस सभ्य
समाज में अर्ध-बर्बर नहीं प्रतीत होता?" उन्हें कवि बीते
हुए जमाने का प्राणी नज़र आया। काव्य की उपयोगिता उन्हें नागरिक समाज की आदिम
अवस्था में ही परिलक्षित हुई। जो लोग अच्छे काम कर सकते हैं, उन्हें 'लक्ष्यहीन
बौद्धिक व्यायाम करते देखकर उन्होंनें खेद प्रकट किया। इस पर विचार करते हुए
रिचर्ड्स ने पीकॉक के मत को प्रस्तुत कर उसके विरोध में तर्क देने की आवश्यकता
समझी। इससे यही सिद्ध होता है कि विज्ञान के समकक्ष काव्य की उपयोगिता की पड़ताल
करना रिचर्ड्स को जरूरी लगा ।
ऐसा नहीं है कि
रिचर्ड्स से पूर्व किसी विचारक ने यह दबाव महसूस नहीं किया। अगर रिचर्ड्स से पहले
मैथ्यू आर्नल्ड की बात करें तो उन्होंने भी इस दबाव को महसूस करते हुए काव्य की
उपयोगिता को मूल्यों से संबद्ध करके सिद्ध किया था लेकिन रिचर्ड्स उनसे महत्वपूर्ण
इस रूप में सामने आते हैं कि उन्होंने काव्य की मूल्यवत्ता और उपयोगिता का केवल
गुणानुवाद नहीं किया और न ही उसके पक्ष में भावोद्गारों की अभिव्यक्ति की जिसका
प्रमाण उनकी रचनाएँ और वे सिद्धान्त है जिन्होंने पाश्चात्य साहित्य में योगदान
दिया।
आई०ए० रिचर्ड्स : जीवन परिचय और महत्वपूर्ण कृतियाँ
नयी समीक्षा के
प्रसिद्ध सिद्धान्तकार आइवर आर्मस्ट्रॉंग रिचर्ड्स का जन्म 26 फरवरी 1893 में
इंग्लैण्ड के चेशायर में तथा मृत्यु 7 सितम्बर, 1979 को हुई।
उनका नाम पाश्चात्य साहित्य जगत में नयी समीक्षा के अग्रगणनीय आलोचकों में से एक
के रूप में लिया जाता है। टी0एस0. इलियट के समकालीन रिचर्ड्स की ख्याति एक
व्याख्याकार और सिद्धान्त - निर्माता के रूप में अधिक रही है। अगाध ज्ञान के
स्वामी रिचर्ड्स साहित्य के अतिरिक्त अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, मानव विज्ञान, सौन्दर्य शास्त्र
आदि विषयों में समान रूप से पैठ रखते थे। अपनी इसी बहुज्ञता और असाधारण क्षमता का
परिचय उन्होंने अपने सिद्धान्त - निरूपण में दिया है।
इनकी शिक्षा क्लिफ्टन और कैम्ब्रिज में हुई थी। इन्हें केम्ब्रिज और पेकिंग (चीन) के विश्वविद्यालयों में नियुक्ति मिली थी। कुछ समय कार्य करने के उपरान्त सन् 1944 से सन् 1963 तक आप हार्वर्ड विश्वविद्यलय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। इनके अध्यापन में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अध्यापन का प्रभाव पड़ा। इनके अध्यापन में मनोविज्ञान एवं अर्थविज्ञान का विशेष योगदान था।
रिचर्ड्स का रचना काल पूरी आधी शताब्दी तक फैला है। सी0के0 ऑडन और जेम्स वुड साथ सहयोगी लेखन के रूप में उनकी पहली आलोचनात्मक कृति 'द फाउंडेशन ऑफ एस्थेटिक्स' सन् 1922 में प्रकाशित हुई तथा मृत्यु से पाँच वर्ष पहले उनकी अंतिम रचना 'बियोंड' सन् 1974 में आपकी सर्वाधिक चर्चित कृतियों में 'प्रिंसिपल ऑफ लिटरेरी किटिसिज्म' (1924) 'कॉलरिज ऑन इमेजिनेशन' (1934) है। लगभग अर्द्ध शताब्दी तक लेखन में सक्रिय इनकी लगभग बारह आलोचनात्मक कृतियाँ और एक काव्य संकलन प्रकाश में आया। इसके अतिरिक्त 'मेन्सियस ऑफ द माइन्ड', (1931), 'एक्सपेरिमेंट्स इन मल्टिपिल डेफिनीशन' (1932), ' बेसिक रूल्ज ऑफ रीजन' (1933), 'द फिलॉसफी ऑफ रेटरिक' (1936), 'इंटरप्रिटेशन इन टीचिंग' (1938), 'द स्पेक्युलेटिव इंस्ट्रूमेन्टस' (1955), 'पोएट्रीज : देयर मीडिया एंड ऐड्स ' (1973), 'हाउ टु रीड ए पेज' (1942) इत्यादि इनकी चर्चित कृति रही हैं।
आई०ए० रिचर्ड्स के सिद्धान्त की अन्तर्वस्तु
रिचर्ड्स ने
मनोविज्ञान के संदर्भ में कविता और कला की सार्थकता स्वीकार की। ब्रेडले के
"कला, कला के लिए' के सिद्धान्त के
विरोध में इन्होंने मूल्य सिद्धान्त की स्थापना की। इनका मानना था कि
साहित्यालोचना का सिद्धान्त 'मूल्य और सम्प्रेषणीयता' पर आधारित होना
चाहिए।
आई0ए0 रिचर्ड्स का मूल्य सिद्धान्त
रिचर्ड्स की काव्य सम्बन्धी मान्यताएँ मनोवैज्ञानिक धरातल से उद्भूत हैं। आज के हासोन्मुख जीवन-मूल्यों के युग में काव्य-कला मूल्य उद्बोधन के निकष पर परखी जानी चाहिए। उनके जो कविता पाठक के मानस को जितना प्रभावित करने में सक्षम हो, उतनी ही उत्कृष्ट होगी। अनुसार रिचर्ड्स के अनुसार मानव-मन में संवेगों का आरोह-अवरोह बना रहता है। काव्य और अन्य कलाएँ इन आवेगों से सुसंगति व सन्तुलन बनाये रखने का प्रयत्न करती हैं। एक सभ्य सुशिक्षित समाज कविता के माध्यम से अपने मानस का सन्तुलन बनाये रखने में समर्थ होता है। मानव मन के आवेगों की दो कोटियाँ निर्धारित हैं- 1. काम्य ( वांछनीय) और 2. अकाम्य (अवांछनीय)। ये दोनों ही आवेग मानव-मन में सन्तुलित रूप में विद्यमान रहते हैं। काम्य आवेग मानव मन में स्थिरता, सन्तुलन और व्यवस्था बनाये रखते हैं और बिना किसी को हानि पहुँचाए विकासोन्मुख रहते हैं। मन की सर्वोत्तम अवस्था ही वही है जहाँ समस्त मानसिक व्यापार परस्पर ताल-मेल बैठाते हुए मन के तनाव व विघटन को समाप्त कर देते हैं। कविता या अन्य कलात्मक विधाएँ मनुष्य के विशिष्ट, सीमित अनुभव को व्यवस्थित रूप में विकसित करने में सहायक सिद्ध होती है। कविताएँ मानव मन की संवेदनाओं और अनुभूतियों को व्यापक फलक प्रदान करती हैं और उनमें संवेदनात्मक एकता प्रदान करती हैं। रिचर्ड्स के मतानुसार काव्य और कला का प्रमुख गुण सन्तुलन और समन्वय करना ही है। दूसरे शब्दों में कहें तो कविता मानव मनोवेगों को सन्तुलित करती है। दार्शनिक 'सन्तायन' की मानें तो कला में अभिव्यक्त सौन्दर्य भी यही कार्य करता है जिससे उद्वेलित मन शान्त हो जाता है।
सन्तुलन की
प्रक्रिया को रिचर्ड्स ने सिनेस्थीसिस नाम दिया है और यह भी माना कि काव्य द्वारा
सम्पन्न 'सिनेस्थीसिस' की प्रक्रिया
पाठक को ताज़गी प्रदान करती है। रिचर्ड्स के इस सिद्धान्त को ‘सिनेस्थीसिस’, सामंजस्य या
सन्तुलन का सिद्धान्त या मूल्य-बोध का सिद्धान्त कह सकते हैं। मानव मन अनेक
काम्य-अकाम्य मनोवगों का भण्डार है। जीवन में यह द्वन्द्व एक सामान्य अवस्था है। यह
सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है कि सभी आवेगों के स्वतंत्र निष्पन्न होते हुए भी
इनमें अद्भुत संतुलन बना रहे। कविता और कला इस संदर्भ में सर्वाधिक मूल्यवान मानव
क्रियाएँ हैं क्योंकि ये ही मानव मनोवेगों में अपना सर्वाधिक प्रभाव डालती हैं और
संतुलन तथा व्यवस्था बनाये रखने में समर्थ होती हैं। किसी भी काव्य-कृति की
उत्कृष्टता व निकृष्टता भी मानव मन को प्रभावित करने की क्षमता पर ही निर्भर है।
सामान्य जीवन की अनुभूति और काव्य की अनुभूति में केवल मात्रा का अंतर है।
काव्यानुभूति अधिक जटिल और वैविध्य पूर्ण है इसलिए मनोवेगों के क्रमशः उद्दीपन, प्रकटन और
संवर्धन से गुणात्मक भिन्नता नहीं आती।
रिचर्ड्स का
स्पष्ट मानना था कि सौन्दर्य शास्त्रीय प्रसंग में मूल्य की सर्वथा उपेक्षा करना
उचित नहीं है। कला-सम्बन्धी अनुभव कई अर्थों में मूल्यवान होते हैं। सभी प्रकार के
अनुभव कला-मूल्यों से सायुज्य हैं। किसी भी कृति में उपस्थित सौन्दर्य का अनुभव -
मूल्य के साथ जुड़ा रहता है। कला हमारे सम्बन्धित मूल्यों का ही कोष है। कला के
द्वारा ही हम यह जान पाते हैं कि कौन से अनुभव अधिक मूल्यवान हैं। असाधारण पुरुषों
के जीवन क्षणों में उद्भूत अनुभव मानव में उत्पन्न उलझन और किंकर्तव्यविमूढ़ता के
स्थान पर एक स्वच्छ व स्पष्ट दृष्टि देते हैं। अनुभव के मूल्यों के संदर्भ में
प्राप्त हमारे निर्णयों का कला लेखा-जोखा रखती है।
रिचर्ड्स काव्य
में 'मूल्य और नैतिकता' को समान महत्व
प्रदान करते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिकता का सम्बन्ध न स्वीकार करने वाले विचार
अविवेकी, फूहड़ और व्यर्थ हैं। रिचर्ड्स का यह भी मानना था कि मनुष्य
के अन्तःकरण का विकास अव्यवस्था से व्यवस्था की ओर होता है। जबकि हम उनके तरीकों
के बारे में नहीं जानते । नैतिकता को उन्होंने गतिशील मूल्य के रूप में स्वीकारा।
परम्परा और के नवीनता, संस्कार और आवश्यकता, अतीत और वर्तमान
ये सब मिलकर नैतिक मानदण्डों की स्थापना करते हैं। अजय तिवारी ने अपनी मार्क्सवादी
धारणा के अनुरुप रिचर्ड्स के मूल्य सम्बन्धी सिद्धान्तों को इस रूप में स्वीकृति
दी है, “शाश्वत सत्य और चिंरतन नैतिकता वाले आर्थिक ढाँचे तोड़कर
आधुनिक पूँजीवादी समाज की गतिशील प्रक्रिया के अनुरूप साहित्य और नैतिकता के
पुर्नगठन की आवश्यकता रिचर्ड्स के सिद्धान्तों की मूल प्रेरणा है। जहाँ तक वह
मध्यकालीन सनातन ढाँचों के विरुद्ध है, वहाँ तक उसकी
भूमिका सकारात्मक है। जहाँ वह आधुनिक समाज के प्रति आलोचनात्मक रूख अपनाने के बदले
संतुलन लाने का प्रयास करता है, वहाँ वह पूंजीवादी हितों का अनुमोदन करता है।
विरोधी वृत्तियों का संतुलन कला में सौन्दर्य मूल्य है; कला और जीवन के
अनुभव में अंतर नहीं है, कला में जो मूल्य है, समाज में वही
नैतिकता है; विरोधी हितों में संतुलन नैतिक मूल्य है।
रिचर्ड्स के
मूल्य सिद्धान्त की गहन आलोचना भी हुई है। एलेंसियों वाइवास ने तर्क किया कि
रिचर्ड्स ने अपने सिद्धान्त को किसी भी प्रकार के उदाहरणों को देकर स्पष्ट नहीं
किया है कि कोई भी रचना कितने और किन मनोवेगों का सामंजस्य करती है । फलतः यह
सिद्धान्त बेहद अमूर्त है। रिचर्ड्स का सिद्धान्त अच्छी और बुरी कविता का अंतर
बताता है। रिचर्ड्स के सिद्धान्त में दुरूहता होते हुए भी कविता में नैतिकता और
श्रेष्ठता का समावेश है।
आई0ए0 रिचर्ड्स सम्प्रेषण का सिद्धान्त
आईए रिचर्ड्स का
द्वितीय आलोचना सिद्धान्त सम्प्रेषण- सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। मानव एक
सामाजिक प्राणी है। वह बचपन से ही अनुभवों का आदान-प्रदान सम्प्रेषण के माध्यम से
करता है। सम्प्रेषण के माध्यम से ही मनुष्य समाज का भौतिक विकास सम्भव हुआ है।
रिचर्ड्स के अनुसार मनुष्य सम्प्रेषण क्रियाका सर्वाधिक उपयोग कला के माध्यम से ही
कर पाता है। यद्यपि कलाकारको प्रत्यक्ष रूप से इसकी जानकारी नहीं रहती । कलाकार
अपनी कृति की रचना में जितना तन्मय होता है उतनी ही उसकी सम्प्रेषण क्षमता बढ़
जाती है। कवि अपनी सम्प्रेषण क्षमता के माध्यम से ही पाठकों में संवेदना को जगाता
है। रिचर्ड्स के अनुसार कविता सर्वाधिक सम्प्रेषणीय माध्यम है।
रिचर्ड्स के
अनुसार सम्प्रेषण तभी सम्भव है जबकि अनुभूति प्रदाता और अनुभूति ग्रहणकर्ता मानसिक
अवस्था समान हो। इस प्रकार से यह एक जटिल प्रक्रिया भी है लेकिन कवि की परीक्षा भी
इसमें निहित है। उनके अनुसार सम्प्रेषण तब होता है जब किन्हीं परिस्थितियों को कोई
मन इस तरह लिया करता है कि दूसरा मन प्रभावित हो जाए और जब उस दूसरे मन में पहले
वाले मन जैसा अनुभव घटित हो और वह उस अनुभव से कुछ हद तक अनुप्राणित हो। दोनों
अनुभव थोड़ी बहुत मात्रा में समान हो सकते हैं और दूसरा अनुभव पहले पर कमोबेश
निर्भर हो सकता है।' किसी भी कृतिकार की क्षमता की कसौटी भी यही है
कि वह अपनी अनुभूतियों को पूरा का पूरा या उसके अंश को पाठकों तक उसी रूप में
पहुँचा सके। एक अच्छे सम्प्रेषण के लिए आवश्यक है कि कवि की अनुभूति व्यापक और
विस्तृत हो, उसमें वस्तु-आकलन की भरपूर क्षमता हो तथा सामाजिक अनुभवों
से तारतम्य स्थापित होने की क्षमता हो । रिचर्ड्स के अनुसार 'कलाकृति जितनी
सुसंगत होती है, वह कलाकार की अनुभूति से मेल खाती है, उतना ही पाठक के
लिए सम्प्रेष्य होती है यानि उसमें अपने जैसा भाव जगा पाती है। कविता में यदि लय, छन्द और स्वर-
समायोजन उचित हो तो सम्प्रेषण क्षमता बढ़ जाती है। कविता का आनन्द पाठक या श्रोता
तभी ले सकता है जबकि वह कवि के विशिष्ट अनुभवों को हृदयंगम कर पा रहा हो ।
रिचर्ड्स के अनुसार सम्प्रेषण के माध्यम से ही समाज में ज्ञान और संस्कृति का
विकास होता है और मानव संवेदनाएँ परिष्कृत - परमार्जित होती हुई अपने व्यापक और
उदात्त रूप में प्रकट होती हैं।
आई0ए0 रिचर्ड्स व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त
रिचर्ड्स ने अपने
एक ग्रंथ 'प्रेक्टिकल क्रिटिसिज्म' में अपने आलोचना
के निष्कर्ष स्वरूप विचारों को रखा है। इस ग्रंथ में उन्होंने अपने विचारों का
आधार भारतीय काव्य-साहित्य को भी दृष्टि-पटल पर रखकर किया है। रिचर्ड्स का उद्देश्य
यहाँ शिक्षा पद्धति के नूतन मार्ग को दृष्टि देना और साहित्य और संस्कृति की
समकालीन स्थिति को उजागर करना भी रहा है।
व्यवहारिक
समीक्षा हेतु उन्होंने 'काव्य' का चयन किया है।
उनकी दृष्टि में गणित, विज्ञान, व्यापार, कानून, उद्योग आदि विषय
सभी व्यक्तियों की रुचि के अनुरूप नहीं होते। इसी प्रकार धर्म, दर्शन, आध्यात्म, नीति, अचार, सौन्दर्य शास्त्र
के प्रति अनेक व्यक्ति आकर्षित तो होते हैं किंतु उनके शास्त्रीय स्वरूप के प्रति
उनका कोई रुझान नहीं होता। केवल काव्य ही ऐसा है जो व्यापक जन समुदाय को करता है।
व्यावहारिक समीक्षा के प्रयोग के द्वारा रिचर्ड्स ने समीक्षा के क्षेत्र में अनेक कठिनाइयों का उल्लेख किया है।
1. रिचर्ड्स ने पाया कि अधिकांश व्यक्ति वास्तविक अर्थ ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं। वे कविता का अर्थ और वास्तविक तात्पर्य नहीं समझ पाते।
2. अधिकांश पाठकों में ऐन्द्रिय बोध की न्यूनता रहती है जिस कारण वे कविता के ध्वन्यात्मक प्रभाव को ग्रहण करने में असमर्थ होते हुए काव्यानन्द व उसके वास्तविक प्रभाव से वंचित रह जाते हैं। यही नहीं बिम्ब-ग्रहण करने की क्षमता का अभाव होने के कारण वे पंक्तियों का वास्तविक रसास्वादन नहीं कर पाते।
3. समीक्षा के क्षेत्र में एक जटिलता यह भी है कि कभी-कभी आलोचक कवि की भाव दशा से अपनी भाव दशा का तादात्म्यीकरण कर लेता है। ऐसी अवस्था में यह वस्तुनिष्ठ नहीं रह पाता।
4. अतिशय भावुकता भी समीक्षा के क्षेत्र में कठिनाई उत्पन्न करती है।
काव्याभिव्यक्ति
के चार प्रमुख चरण हैं- अर्थ, भावानुभूति, ध्वनि और
उद्देश्य । एक समीक्षक को इन सभी तत्वों का सम्यक् ज्ञान आपेक्षित है। काव्य एक
पूर्ण अभिव्यक्ति है अतः इसमें शब्द, अर्थ, भाव, कल्पना, बुद्धि तत्व- सभी
का सामंजस्यपूर्ण संतुलन रहता है। अन्य विषय जैसे वैज्ञानिक उक्तियों में अर्थ और
बुद्धितत्व का प्राधान्य है। दार्शनिक उक्तियों में अर्थ, बुद्धि और कल्पना
तत्व समावेश है, वहीं काव्योक्ति उक्त सभी पाँचों तत्वों का सम्यक् समन्वय
कर सजीव और प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति दर्ज कराती है। काव्य में शब्दों का नीरस उपयोग
नहीं वरन् एक अद्भुत आकर्षण है। ध्वन्यात्मकता, अलंकृत प्रयोग और
छन्दोबद्धता से काव्य में प्रयुक्त शब्द केवल उपकरण मात्र न रहकर एक प्रभावशाली व
सशक्त माध्यम बन जाता है। इसी प्रकार अर्थ तत्व, कल्पना और
अनुभूति के उद्बोधन में सहायक बनता है। कारण यह है कि काव्य में व्यंग्यार्थ
अभीप्सित है। यहाँ सामान्य अर्थ कोई मायने नहीं रखता। कल्पना और भाव तत्व काव्य की
एक अन्य बड़ी विशेषता है। भावों के उद्बोधन हेतु कृति का अलंकारिक होना स्वाभाविक
है, जो कवि - कल्पना से प्रेरित होता है। काव्य केवल कोरा तर्क
नहीं है अतः प्रसंग परम्परा और प्रयोग के आधार पर हम काव्य का मूल्यांकन करते है
और अलंकरित उक्तियों को कल्पना चमत्कार व भाव बोधन का उत्स मानते हैं। कल्पना
शक्ति के माध्यम से अलंकारिक अभिव्यक्ति के द्वारा कवि सूक्ष्म से सूक्ष्म
अनुभूतियों को प्रकट कर सकता है। अन्ततः हम कह सकते हैं कि नित्य नये सिद्धान्तों
के क्रम में रिचर्ड्स का व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त एक नवीन प्रयत्न
है, जो एक नयी दृष्टि रखता है।
आई०ए० रिचर्ड्स का महत्व और प्रासंगिकता
अंग्रेजी साहित्य
में पहली बार व्यापक और व्यवस्थित सौंन्दर्य शास्त्र ( काव्य शास्त्र) के निर्माण
का श्रेय रिचर्ड्स को है। रिचर्ड्स ने आधुनिक जीवन में कविता के सन्दर्भ पर प्रकाश
डालते हुए सम्पूर्ण और स्वस्थ मानव-जीवन में काव्य के महत्व और मूल्य पर भी विचार
किया। इनका व्यक्तित्व मूलतः एक महान् शिक्षक का था। ये सुप्रसिद्ध समालोचक, कवि एवं भाषाविद्
थे । समीक्षा के क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण स्थान है।
मनोविज्ञान के
परिप्रेक्ष्य में कविता की सार्थकता और महत्ता पर इनके मौलिक विचार हैं जैसे
रिचर्ड्स ने पाश्चात्य काव्यशास्त्र में पहली बार कविता के संप्रेषण और पाठकों पर
पड़ने वाले प्रभाव के बारे में प्रयोगशाला पद्धति से कुछ निष्कर्ष प्राप्त किये।
भले ही उनके यह निष्कर्ष मान्य न रहे हों लेकिन संप्रेषण और आस्वाद के विषय में
कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी सामान्य सिद्धान्त अप्रतिम हैं। अगर उदाहरण के
रूप में देखा जाए तो पाठकीय प्रतिक्रिया के विश्लेषण के आधार पर आस्वाद में दस
प्रकार के विघ्नों की चर्चा हो या कवि की आस्था के साथ सहमति और असहमति का प्रश्न
हो, एक महत्वपूर्ण विचार है।
रिचर्ड्स का मत
था कि आज के युग में जब प्राचीन परम्परायें और जीवन-मूल्य विघटित हो रहे हैं, तब कविता का
मूल्य, उसकी मन को प्रभावित करने की क्षमता पर निर्भर करता है। जिस
कविता में जितनी अधिक सम्प्रेषणीयता होगी, वह उतनी ही
उत्कृष्ट होगी। इनके विचार से स्नायु विषयक व्यवस्था और उसकी आंशिक क्रियाशीलता ही
मन है। जो कविता इस व्यवस्था के उपयुक्त होगी, वही कल्याणकारी
होगी।
अतः रिचर्ड्स की
इस बात को श्रेय देना ही होगा कि उन्होंने विज्ञान के युग में साहित्यालोचन को
वैज्ञानिक निश्चितता और वस्तुनिष्ठता प्रदान करने की दिशा में पहल की। साथ ही पाठक
पर पड़ने वाले प्रभाव और प्रतिक्रिया को कमोबेश नापने का एक पैमाना प्रस्तुत करने
का प्रयास किया।
इस दौर में
सौंदर्यवादियों के ‘कला कला के लिए सिद्धान्त पर अंतिम आक्रामक वार
करने का हौसला रिचर्ड्स ने ही दिखाया। आलोचना के वाग्जाल की निरर्थकता समाप्त करते
हुए कला के संदर्भ में सहजानुभूति, अभिव्यंजना जैसे
शब्दजाल की निरर्थकता को उद्घाटित करते हुए आलोचना से उन्हें खारिज करने की वकालत
की। कलानुभव की अलौकिकता और सौंदर्य और सौंदर्यानुभव की अतींद्रियता के प्रभामंडल
को समाप्त करते हुए रिचर्ड्स ने उसे जीवनानुभव की ठोस जमीन दी। इसी के साथ
रिचर्ड्स ने नयी आलोचना की भाषा को बहुत से शब्द भी दिये । पाश्चात्य क्षेत्र में
अपनी अप्रतिम देन के बावजूद कुछ त्रुटियाँ भी उनके सिद्धान्तों में दिखाई देती हैं
लेकिन इसके बावजूद भी अंग्रेजी भाषी जगत में रिचर्ड्स का बहुत मान और प्रभाव रहा
है। बीसवीं शताब्दी में एक इलियट को छोड़कर यशस्विता में उनका कोई प्रतिस्पर्धी
नहीं है। उनकी आलोचना पद्धति के सूत्र को पकड़कर इंग्लैण्ड में विलियम एंपसन ने शायद
ठीक ही कहा था कि रिचर्ड्स जहाँ गलती करते थे वहाँ भी सोचने के लिए कोई नयी चीज
देते थे। उनका 'न्यू क्रिटिसिज्म' नामक
आलोचना-संप्रदाय का विकास इसी का प्रतिफल है।