अरस्तू के काव्य सिद्धांत (Aristotle Kavya Sidhant)
अरस्तू के काव्य सिद्धांत
काव्य के विषय में बहुत-सी बातें कहीं हैं, परंतु
उनके प्रमुख काव्य - सिद्धांत दो हैं: अनुकरण सिद्धांत तथा 2. विरेचन सिद्धांत। इस
भाग में हम उन्हीं सिद्धांतों के बारे में पढ़ेंगे।
अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत
अरस्तू के गुरु तथा
पूर्ववर्ती आचार्य प्लेटो कला और अनुकरण का घनिष्ठ संबंध मानते हैं, किंतु
अनुकरण में निहित खतरों-अज्ञान, भ्रांति, असावधानी
तथा उससे प्राप्त उत्तेजना के कारण उसे त्याज्य मानते हैं। वे ऐसा इसलिए भी मानते
हैं कि उन्होंने कला को विशुद्ध दार्शनिक, राजनीतिक
तथा नैतिकता की दृष्टि से देखा। इसके विपरीत अरस्तू ने काव्य को दार्शनिक, राजनीतिक, बौद्धिक
शास्त्रों आदि से मुक्त करके प्रत्येक कलाकृति को सौंदर्य की वस्तु माना। उन्होंने
प्लेटो द्वारा प्रयुक्त मिसैसिस (अनुकरण) शब्द को स्वीकार तो किया, लेकिन
उसे नया अर्थ दिया। अरस्तू कला को प्रकृति की अनुकृति मानते हुए कहता है कि कविता
सामान्यतः मानवीय प्रकृति की दो सहज प्रवृत्तियों से उद्भूत हुई जान पड़ती है।
इनमें से एक है- अनुकरण की प्रवृति और दूसरी सामंजस्य (हारमनी) तथा लय (रिद्म) की
प्रवृत्ति।
पशुओं की तुलना में मनुष्य में अनुकरण की
क्षमता अधिक होती है। इसी से वह प्रारंभिक ज्ञान अर्जित करता है; जैसे
भाषा सीखना। काव्य की उत्पत्ति इन्हीं दो कारणों से होती है। कला प्रकृति का
अनुकरण करती है। उन्होंने अपने ग्रंथ 'पोइटिक्स' में
लिखा है: “प्रत्येक
वस्तु पूर्ण विकसित होने पर जो होती है उसे ही हम उसकी प्रकृति कहते हैं। प्रकृति
इसी आदर्श रूप की उपलब्धि की ओर निरंतर कार्य करती रहती है, परंतु
कतिपय कारणों से वह अपने इस लक्ष्य प्राप्ति में सफल नहीं हो पाती। कवि या कलाकार
उन अवरोधक कारणों को हटाकर प्रकृति की सर्जन क्रिया का अनुकरण करता हुआ प्रकृति के
अधूरे कार्य को पूरा करता है। वह वस्तु को ऐसा रूप प्रदान करता है कि उससे उस
वस्तु के विश्वव्यापक तथा आदर्श रूप का बोध हो जाए। इस संबंध में एवर क्रोम्बे ने
लिखा है कि- “अरस्तू का तर्क था कि यदि
कविता प्रकृति का केवल दर्पण होती तो वह हमें उससे कुछ अधिक नहीं दे सकती थी, जो
प्रकृति देती है। परंतु तथ्य यह है कि हम कविता का आस्वादन इसलिए करते हैं कि वह
हमें वह प्रदान करती है जो प्रकृति नहीं दे सकती।”
'वस्तुतः कवि की कल्पना में वस्तु जगत का जो वस्तु रूप प्रस्तुत होता है, कवि उसी को भाषा में प्रस्तुत करता है। यह पुनः प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है। इसलिए अनुकरण का अर्थ हूबहू नकल नहीं; बल्कि संवेदना, अनुभूति, कल्पना, आदर्श आदि के प्रयोग द्वारा अपूर्ण को पूर्ण बनाना है । कवि सर्जन प्रक्रिया में निरत होकर यही करता है।
अनुकरण की वस्तुएं अरस्तू के अनुसार कवि तीन प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक का अनुकरण कर सकता है, - 1. जैसी वे थीं या हैं, 2. जैसी वे कही या समझी जाती हैं तथा 3. जैसी वे होनी चाहिए। अर्थात् वे प्रकृति के प्रतीयमान, सम्भाव्य एवं आदर्श रूप को मानते हैं। कवि प्रकृति को या तो वैसी चित्रित करता है जैसी वह उसकी इन्द्रियों को प्रतीत होती है या जैसी वह भविष्य में प्रतीत हो सकती है अथवा जैसी वह होनी चाहिए। ऐसे चित्रण में कवि की भावना और कल्पना का योगदान तो होगा ही, इसीलिए वह नकल मात्र नहीं होगा। इस प्रकार अरस्तू के अनुकरण का तात्पर्य भावनामय तथा कल्याणमय अनुकरण है, विशुद्ध प्रतिकृति नहीं। इसी कारण वह अपने गुरु प्लेटो से भिन्न भी है और आगे भी। अरस्तू के मतानुसार कविता इतिहास की अपेक्षा अधिक दार्शनिक एवं उच्चत्तर है, क्योंकि इतिहासकार उसका वर्णन करता है; जो घटित हो चुका है और कवि उसका वर्णन करता है; जो घटित हो सकता है। काव्य और इतिहास संबंधी अरस्तू के विवेचन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि अनुकरण से अरस्तू का अभिप्राय भावपरक अनुकरण से था; न कि यथार्थ वस्तुपरक प्रत्यंकन से।
कार्य से अभिप्राय कार्य शब्द का प्रयोग
अरस्तू ने मानव जीवन के चित्र के अर्थ में किया है। इस शब्द के अंतर्गत वह सब कुछ
आएगा; मानव
जीवन के आंतरिक पक्ष को व्यक्त कर सके एवं बुद्धिसम्मत व्यक्तित्व का उद्घाटन करे।
कार्य का अर्थ केवल मनुष्य के कर्म ही नहीं; उसके
विचार, भाव
तथा चारित्रिक गुण भी हैं; जो
उसके कर्म के लिए उत्तरदायी हैं। 'कार्य' शब्द
के इस व्यापक अर्थ से भी यही व्यक्त होता है कि अनुकरण शब्द का अर्थ नकल नहीं; बल्कि
पुनः प्रस्तुत करना है। अरस्तू काव्य में प्रकृति के अंधानुकरण के विरूद्ध थे, क्योंकि
उसमें मनुष्य या प्रकृति का चित्रण में सामान्य से अच्छा भी हो सकता है, और
सामान्य से बुरा भी। ऐसे चित्रण के लिए कल्पना तत्व आवश्यक है। अतः कलात्मक अनुकरण
का अभिप्राय कलात्मक पुनः सृजन है, जिसमें
कुछ चीजें घटाई जाती हैं, तो
कुछ बढ़ाई भी जा सकती हैं। इसी प्रक्रिया के कारण काव्य आनंद भी देता है।
आनंद संबंधी मत - अरस्तू ने लिखा है कि कई
बार जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष दर्शन हमें दुःख देता है, उसके
अनुकरण द्वारा प्रस्तुत रूप हमें आनंद प्रदान करता है। डरावने जानवर को देखकर हमें
भय एवं दुःख होता है, किंतु
उनका अनुकृत रूप हमें आनंद देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो चीजें वास्तविक जीवन
में हमें भय या दुःख देती हैं, काव्य
में उन्हीं चीजों का अनुकरण इस प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है कि उनसे हमें आनंद
मिलने लगता है और भय तथा दुःख का निराकरण हो जाता है। अतः ऐसे अनुकरण को यथार्थ
वस्तुपरक अनुकरण नहीं कहा जा सकता, वह
भावात्मक
एवं कल्पनात्मक अनुकरण है। अरस्तु के इस मत में तथा भारतीय काव्यशास्त्र के रस सिद्धांत में समानता दिखाई देती है। अरस्तू कहता है कि अनुकरण में आत्म तत्व का प्रकाशन अनिवार्य है, वह मात्र वस्तु का यथार्थ अंकन ही नहीं है। यथार्थ अंकन से वास्तविक आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती।
अनुकरण के संबंध में अरस्तू के विविध कथनों
को पढ़कर आप समझ गए होंगे कि काव्य में भावनापूर्ण अनुकरण होता है, यथार्थ
प्रत्यंकन नहीं। यह अनुकरण सुंदर होता है, आनंद
प्रदान करने वाला होता है, आदर्श
होता है तथा सहृदय के मन को उसकी वास्तविकता के प्रति आश्वस्त भी करता है। व्यष्टि
से संबद्ध होते हुए भी वह समष्टिगत सत्य का प्रतिपादन करता है यही मान्यताएं
अरस्तू को प्लेटो से भिन्न तथा महत्वपूर्ण बना देती हैं। उनके इस मत का समर्थन
प्रो0 बूचर, गिलबर्ट, मरे
तथा आधुनिक टीकाकार पास ने भी किया है। आप सोच रहे होंगे कि अरस्तू का यह सिद्धांत
पूर्णतः निर्दोष है, किंतु
ऐसा भी नहीं है।
अनुकरण सिद्धांत की विशेषताएं तथा सीमाएं
अरस्तू ने अनुकरण को नया अर्थ देकर कला का
स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित किया। सुंदर को शिव से अधिक विस्तृत माना और कला पर
प्लेटो द्वारा लगाए गए आरोपों को अनुचित बताया, फिर
भी उनका अनुकरण सिद्धांत पूर्णतः रूप से निर्दोष भी नहीं है। विद्वानों द्वारा उन
पर उठाई गई आपत्तियाँ इस प्रकार हैं,-
1. वह आत्म तत्त्व तथा कल्पना तत्त्व को स्वीकार करते हुए भी व्यक्ति परक भाव तत्व से अधि महत्व वस्तु तत्व को देता है; जो अनुचित है, क्योंकि भाव तत्व के बिना कविता कविता न रहकर नीतिपरक अथवा उपदेशपरक प्रलाप बनकर रह जाती है।
2. उसकी परिधि संकुचित है। उसमें कवि की अन्तश्चेतना को यथोचित महत्व नहीं दिया गया है।
3. गीति काव्य; जिसकी
मात्रा आज विश्व में सबसे अधिक है; उसे
अरस्तू ने महत्व नहीं दिया।
इस पर भी अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत का महत्व
आज तक बना हुआ है। प्लेटो अनुकरण को आदर्श का अनुकरण मानता था, तो
अरस्तू ने उसे कल्पनात्मक पुनर्निमाण के रूप में व्याख्यायित किया।
अरस्तू का विरेचन सिद्धांत
आपको बता दें कि अरस्तू ने विरेचन की अलग से
कोई व्याख्या अथवा परिभाषा किसी ग्रंथ में नहीं दी है। सिर्फ ‘पोइटिक्स' में
ट्रेजेडी ( त्रासदी) की परिभाषा देते हुए उन्होंने इसका उल्लेख इस प्रकार किया है: “त्रासदी
किसी गंभीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका
माध्यम नाटक में भिन्न-भिन्न रूप से प्रयुक्त सभी प्रकार के अलंकारों से भूष भाषा
होती है, जो
समाख्यान रूप न होकर कार्य व्यापार रूप में होती है और जिससे करूणा तथा त्रास के
उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।”
स्पष्ट है कि त्रासदी के मूल भाव त्रास और करूणा होते हैं। उन भावों को उद्बुद्ध करके विरेचन पद्धति से मानव-मन का परिष्कार करना त्रासदी का मुख्य उद्देश्य होता है। विरेचन शब्द का दूसरा प्रयोग उनके 'राजनीति' नामक ग्रंथ में मिलता है। वे लिखते हैं: “संगीत का अध्ययन एक नहीं; वरन् अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए जैसे-
1. शिक्षा के लिए, 2.
विरेचन शुद्धि के लिए।
विरेचन राग मानव समाज को निर्दोष आनंद प्रदान
करते हैं। विरेचन से अरस्तू का अभिप्राय शुद्धि, परिष्कार
और मानसिक स्वास्थ्य से है।
विरेचन का अर्थ - अरस्तू ने विरेचन के लिए 'कैथार्सिस' शब्द
का प्रयोग किया है। इसका अनुवाद ‘रेचन’,
‘विरेचन' तथा 'परिष्करण' होते
हुए भी 'विरेचन' शब्द
ही अधिक प्रचलित है। ‘कैथार्सिस' शब्द
यूनानी चिकित्सा-पद्धति से आया है तथा 'विरेचन' शब्द
भारतीय आयुर्वेदिक शास्त्र का है। दोनों का एक ही अर्थ है: रेचक औषधियों द्वारा
शरीर के मल अथवा अनावश्यक अस्वास्थ्यकर पदार्थों (फौरिन मैटर) को शरीर से बाहर
निकालना। अरस्तू ने वैद्यक शास्त्र के इस शब्द को ग्रहण करके काव्यशास्त्र में
उसका लाक्षणिक प्रयोग किया। उसका मत है कि त्रासदी करूणा तथा त्रास के कृत्रिम
उद्वेग द्वारा मानव के वास्तविक जीवन की करूणा और त्रास भावनाओं का निस्काषण करती
है। यह निस्काषण ही 'विरेचन' या
उसका कार्य है। परवर्ती व्याख्याकारों ने लक्षणों के आधार पर विरेचन के तीन अर्थ
किए : (1) धर्म परक, ( 2
) नीति परक तथा (3) कला परक।
(1) धार्मिक आधार पर इसके लाक्षणिक प्रयोग का
अर्थ था: “बाह्य
उत्तेजना और अंत में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि तथा शांति। धार्मिक साहित्य एक
प्रकार से यही कार्य करता है।
(2) विरेचन सिद्धांत के ‘नीतिपरक' अर्थ
की व्याख्या करते हुए जर्मन विद्वान वारनेज ने लिखा है: “मानव
मन में अनेक मनोविकार वासना रूप में स्थित रहते हैं। इनमें करूणा और त्रास नामक
मनोवेग मूलतः दुःखद होते हैं। त्रासदी रंगमंच पर त्रास और करूणा से भरे ऐसे दृश्य
प्रस्तुत करती है जिनमें ये मनोवेग अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं।
प्रेक्षक उन दृश्यों को देखते मानसिक रूप से उन परिस्थितियों के बीच से गुजरता है
तो उसके मन में भी त्रास और करूणा के भाव उद्वेलित होते हैं तथा उसके बाद उपशमित
भी हो जाते हैं। अतः विरेचन का नीतिपरक अर्थ हुआ- मनोविकारों के उत्तेजन के बाद
उद्वेग का शमन और उससे उत्पन्न शक्ति, शांति
और विशदता । साहित्य तथा अन्य ललित कलाएं यही प्रतिपादित करती हैं।
(3) अरस्तू के विरेचन सिद्धांत के 'कलापरक' अर्थ
की व्याख्या गेटे तथा अंग्रेजी के स्वच्छंदतावादी कवि आलोचकों ने भी की थी।
सर्वाधिक आग्रह पूर्वक प्रतिपादन करने वाले प्रोफेसर वूचर हैं। वे कहते हैं कि
अरस्तू का विरेचन केवल मनोविज्ञान अथवा नियमशास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाच न
होकर कला सिद्धांत का अभिव्यंजक है। त्रासदी का कर्तव्य कर्म केवल करूणा या त्रास
के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है, अपितु
उन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है। वूचर चिकित्सा शास्त्रीय अर्थ
को ही अरस्तू का एकमात्र आशय नहीं मानते। उनके अनुसार विरेचन का कलापरक अर्थ है-
पहले मानसिक संतुलन और बाद में कलात्मक परिष्कार। कला के संबंध में भारतीय रस
वादियों की धारणा भी लगभग ऐसी ही है।
समीक्षा -
विरेचन के संबंध में अरस्तू की
व्याख्याएं अपर्याप्त हैं, इसलिए
बाद में अन्य व्याख्याकारों द्वारा दी गई व्याख्याएं उन्हें अभिप्रेत थीं अथवा
नहीं; इस
संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। अरस्तू ने ‘राजनीति' नामक
ग्रंथ में विरेचन द्वारा मानसिक शुद्धि की बात कही है; जो
धार्मिक तथा नैतिक शुद्धि की ओर भी संकेत करती है। अरस्तू का विरेचन सिद्धांत अपने
ढंग से त्रासदी के आस्वाद की समस्या का समाधान करता है। वूचर की व्याख्या के
अनुसार त्रास तथा करुणा दोनों ही कटु भाव हैं। ट्रेजेडी में मानसिक विरेचन की
प्रक्रिया द्वारा यह कटुता नष्ट हो जाती है और प्रेक्षक मनःशक्ति उपयोग करता है। मन
की यह स्थिति सुखद होती है।
इस प्रकार अरस्तू ने दो प्रमुख काव्य
सिद्धांत दिए; पहला अनुकरण सिद्धांत और दूसरा विरेचन
सिद्धांत। इनके साथ ही उसने काव्य की उत्पत्ति ट्रेजेडी और महाकाव्य इत्यादि के
विषय में भी कहीं-कहीं अपना मत व्यक्त किया है। उन पर भी दृष्टिपात कर लें तो
अच्छा है।
काव्य की उत्पत्ति -
अरस्तू के अनुसार मनुष्य
में अनुकरण की सहज प्रवृत्ति बचपन से ही होती है। उसी की सहायता से वह प्रारंभिक
ज्ञान अर्जित करता है। भाषा भी अनुकरण द्वारा ही सीखी जाती है। पशुओं की तुलना में
मनुष्य की अनुकरण क्षमता अधिक प्रबल है।
अनुकरण की भाँति ही सामंजस्य और लय (हारमनी
तथा रिद्म) भी मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। मानव सभ्यता के आरंभिक काल से ही
मनुष्य सामंजस्य और लयात्मक प्रतिभा को विकसित करता रहा। प्रारंभिक काल की अनगढ़
रचनाओं से ही आगे जाकर काव्य की उत्पत्ति हुई। बाद के युगों में कवियों के
व्यक्तिगत स्वभाव के अनुसार साहित्य दो दिशाओं में विभक्त हो गया। गंभीर प्रकृति
के लेखकों ने मनुष्य के उदात्त कार्य कलापों का अनुकरण कर देव स्तुतियाँ एवं
प्रसिद्ध जनों की प्रशस्तियाँ लिखीं तथा हल्की प्रकृति के लेखकों ने निम्न
व्यक्तियों के कार्य कलापों का अनुसरण करके व्यंग्य काव्य लिखे।
ट्रेजेडी ( त्रासदी) के तत्व -
अरस्तू ने
ट्रेजेडी के छः तत्व माने हैं: कथावस्तु, चारित्र्य, पदरचना, विचार
तत्व, दृश्य
विधान और गीत अरस्तू की दृष्टि वस्तुपरक थी । कथावस्तु को उसने सबसे महत्वपूर्ण
तत्व माना है, क्योंकि अन्य सभी तत्व कथावस्तु पर ही आधारित
होते हैं। चरित्र के अंतर्गत वे पात्रों के गुणों, उनकी
रुचि अरुचि तथा नैतिक प्रयोजन को अनिवार्य मानते हैं। विचार- तत्त्व के अंतर्गत
काव्य-द्वारा उत्पन्न प्रत्येक प्रभाव आता है।
शैली- पदरचना, दृश्य
विधान और गीत शैली के अंतर्गत आते हैं। शैली की पूर्णतः इसमें है कि वह निम्न हुए
बिना स्पष्ट हो । स्पष्टता प्रचलित या उपयुक्त शब्दों के प्रयोग से आती है और
गरिमा असामान्य शब्दों के प्रयोग से। गरिमा का प्रमाण लक्षणा है।
महाकाव्य- अरस्तू ने महाकाव्य के लक्षण नहीं बताए हैं तथा इसका विस्तृत विरेचन भी नहीं किया है। केवल स्थूल विशेषताओं का उल्लेख किया है। इसका कारण यह है कि अरस्तू ट्रेजेडी (दुःखान्तक नाटक) की तुलना में अन्य सभी काव्य-स्वरूपों; यहाँ तक कि महाकाव्य को भी निम्न समझते हैं। उनके द्वारा निर्धारित किए गए महाकाव्य के तत्व इस प्रकार हैं:
1. महाकाव्य आख्यानात्मक होता है।
2. उसके कथानक का निर्माण नाट्य सिद्धांतों के आधार पर ही होता है।
3. अधिकतर पात्र उच्च होते हैं।
4. उसमें एक ही छंद प्रयुक्त होता है।
5. विस्तार निर्बन्ध होता है।
6. अंगों की परस्पर अन्विति सभी प्रकार से
समान होती है।
काव्य दोष -
अरस्तू ने काव्य-दोषों के पाँच
आधार माने हैं;- 1. अकर्मक वर्णन, 2.
अभुक्त वर्णन, 3. अनैतिक वर्णन, 4.
विरूद्ध वर्णन, 5. शिल्प विधात्मक वर्णन ।
अरस्तू के काव्यशास्त्र में प्रयुक्त महत्वपूर्ण लाक्षणिक शब्द - अरस्तू ने कुछ शब्दों का लाक्षणिक एवं व्यंजनात्मक प्रयोग भी किया है; जैसे 'अनुकरण', 'विरेचन' तथा 'प्रकृति' ये शब्द अरस्तू की काव्य मीमांसा समझने के लिए कुंजी का काम करते हैं। 'अनुकरण' तथा 'विरेचन' की चर्चा पिछले पृष्ठों में हो चुकी है। 'प्रकृति' शब्द का प्रयोग अरस्तू ने अनेक अर्थों में किया है। उनके प्रयोगों में प्रकृति का अर्थ केवल वन, वृक्ष, नदी, पर्वत, पहाड़ आदि ही नहीं है; वरन् भौतिकी के आधार पर प्रकृति के अनेक अर्थ किए जा सकते हैं।