बेनेदेतो क्रोचे जीवन परिचय और महत्वपूर्ण कृतियाँ सिद्धान्त की अन्तर्वस्तु
बेनेदेतो क्रोचे : परिचय एवं सिद्धांत प्रस्तावना
इस आर्टिकल के अध्ययन के पूर्व आपने पाश्चात्य
काव्य शास्त्र के उद्भव एवं विकास का क्रमबद्ध ऐतिहासिक अध्ययन किया। प्रस्तुत
इकाई में आप 'कला कला के लिए (art for art sake) सिद्धान्त के
जन्मदाता कहे जाने वाले तो क्रोचे के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व के साथ-साथ उनके
प्रमुख साहित्य सिद्धान्तों का विश्लेषण परक अध्ययन करेंगे।
इस इकाई के
अध्ययन से आप ऐतिहासिक रूप से क्रोचे एवं उनके सिद्धान्तों का महत्व जान सकेंगे
तथा आधुनिक एवं समकालीन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में उसकी प्रासंगिकता को समझ
सकेंगे।
बेनेदेतो क्रोचे तत्कालीन परिस्थितियाँ और साहित्यिक परिवेश
अभिव्यंजनावाद
सिद्धान्त के प्रतिपादक बेनेदेतो क्रोचे साहित्य शास्त्री न होकर मूलतः दार्शनिक
तथा सौन्दर्य शास्त्री थे। आधुनिक युग में औद्योगिक क्रांति तथा तकनीकी एवं
वैज्ञानिक विकास के फलस्वरूप कला और साहित्य के सम्बन्ध में क्रांतिकारी एवं मौलिक
विचार सामने आये। अनेक क्षेत्रों के विचारों ने कला और साहित्य को भी अतिशय
प्रभावित किया। मनोविज्ञान के क्षेत्र में फ्रायड़, एडलर और जुंग ने
काव्य और कला को प्रभावित किया। सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में मार्क्सवाद की
विचारधारा का गहराई के साथ प्रभाव पड़ा तथा डेनमार्क के सोरेन कीर्केगार्द और
फ्रान्स के ज्याँ पॉल सार्त्र की अस्तित्ववादी विचार धारा ने भी विश्व-साहित्य को
प्रक्षेपित किया। इन सभी परिस्थितियों और प्रभावों ने साहित्य-चिन्तन को विविध
दिशाओं की और मोड़ दिया।
आधुनिक युग के
दर्शन, साहित्य तथा कला और साहित्य चिंतन ने विश्व को अनेक भागों
में बाँट दिया। एक तो मार्क्सवादी साहित्य-चिंतन का साम्राज्यवादी विश्व बन गया, दूसरा यूरोपीय
परम्परा का कलावादी संसार जिसमें इटली, फ्रांस और
इंग्लैण्ड विशेष रूप से सम्मिलित थे और जिसका प्रभाव एशिया के देशों और भारत पर
पड़ा।
उन्नीसवी सदी के अंतिम दौर से लेकर अब तक साहित्य तथा समालोचना संबन्धी कई सिद्धांन्त तथा आंदोलन सामने आये। जिनमें कुछ जल्दी ही समाप्त हो गये किंतु कुछ का असर काफी समय तक बना रहा, जैसे- अरस्तू का अनुकरण- सिद्धान्त, कॉलरिज का जैववादी सिद्धान्त, आर्नल्ड का आलोचना-सिद्धांत आदि। इस धारा में अभिव्यजंनावाद के जनक बेनेदेतो क्रोचे भी आते है। इनके अतिरिक्त रस्किन, ज्याँपाल सात्र, कीर्केगार्द, अलबर्ट कामू, हर्बर्ट, जेम्स ज्वायस, हेनरी जेम्स, एजरा पाउंड, केनैन्सम आदि पाश्चात्य जगत के ऐसे साहित्यकार विचारक और समीक्षक हैं जिन्होंने समीक्षा को नई-नई दिशाएँ प्रदान की हैं। इन लोगों ने अपने साहित्य और समीक्षा द्वारा यूरोपीय साहित्य समृद्ध किया। इसका आरंम्भिक रूप आदर्शवादी और वस्तुपरक था। पन्द्रहवी शताब्दी में नव- जागरण की नई लहर के साथ ही यूरोपीय साहित्य और समीक्षा द्रुतगति से विकास करती हुई बहुमुखी रूप धारण करके मानव के चिन्तन को अत्यधिक सशक्त और व्यापक बनाती चली गई। अभिव्यंजनावाद भी इसी विचारधारा में से निकली एक विचारधारा है जिसका मूल स्रोत वस्तुतः स्वच्छंदतावाद की उस प्रवृत्ति से है जो परम्परा, रूढ़ि, नियम आदि का विरोध करती है। आरम्भ में यह एक अत्यन्त शक्तिशाली और स्वस्थ आन्दोलन था, जिसने परम्परावादिता का विरोध कर व्यक्तिवाद पर बल दिया।
बेनेदेतो क्रोचे:जीवन परिचय और महत्वपूर्ण कृतियाँ
‘अभिव्यंजनावाद सिद्धान्त' के प्रतिपादक बेनेदेतो क्रोचे का जन्म सन् 1866 में इटली के नेपल्स शहर में तथा मृत्यु इसी शहर में सन् 1952 में हुई। बाल्यवस्था से ही इनकी धर्म से आस्था चली गयी परन्तु बाद में रोम विश्वविद्यालय में नीति शास्त्र तथा दर्शन के अध्ययन के दौरान आदर्शमूलक दृष्टिकोण के विवेचन के क्रम मे जीवन में आस्था पुनः लौटी। संभवतः इसी कारण बेनेदेतो क्रोचे बाह्य सांसारिक यथार्थ की अपेक्षा चेतना के आंतरिक सत्य पर अधिक विश्वास करने लगे थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। शायद यही वजह रही कि जो समय लोगों का जीवकोपार्जन में जाता है, वह बेनेदेतो क्रोचे का साहित्यिक और शोध के प्रति समर्पित रहा। मार्क्सवाद के कट्टर आलोचक बेनेदेतो क्रोचे राजनीतिक अर्थशास्त्र के गहन अध्ययन के साथ दर्शन, तर्कशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र, इतिहास तथा सात्यिालोचन संबंधी विषयों पर बराबर लिखते रहें।
एक उच्चकोटि के
दार्शनिक और कला मीमांसक बेनेदेतो क्रोचे ने सन् 1900 में 'फन्डामेन्टल
थीसिस ऑफ एन ऐस्थेटिक एज़ साइंस ऑफ एक्सप्रेशन एण्ड जनरल लिग्विस्टिक्स' शीर्षक से पढ़े
गये एक लेख में अपनी अभिव्यंजनावादी विचारधारा के सूत्र रखे। काव्य और कला की
मीमांसा करते हुए तो क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद की विस्तृत व्याख्या की। इनका कला
सम्बन्धी मूल ग्रंथ 'इस्टिटिका' सन् 1901 में
प्रकाशित हुआ जिसका अनुवाद (सौन्दर्य सिद्धान्त या सौन्दर्य शास्त्र) एक विश्व
प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह सन् 1912 में प्रकाश में आया। इस ग्रंथ में बेनेदेतो क्रोचे
ने कला की आन्तरिक प्रक्रिया का सामान्य विवेचन करते हुए कला को विशिष्ट
अभिव्यंजना माना। उनके विचार से कला आन्तरिक अभिव्यंजना है, जो सहजानुभूति के
रूप में पूर्ण होती है।
सन् 1902 में ‘ला क्रितीका' पत्रिका निकालने
वाले बेनेदेतो क्रोचे इटली तथा यूरोप के इतिहास के अलावा अन्य कई देशों के इतिहास
तथा साहित्य पर भी लेखन करते रहे। सन् 1933 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कविता
पर दिये गये प्रसिद्ध भाषण 'डिफेंस ऑफ पोएट्री' में कविता तथा
साहित्य सम्बन्धी इनकी परवर्ती मान्यताएँ व्यक्त हुई हैं। अभिव्यंजनावाद सिद्धान्त
मूलतः सौन्दर्य शास्त्र से सम्बद्ध है। सन् 1912 में बेनेदेतो क्रोचे ने
सौंन्दर्यशास्त्र संबन्धी चार आलेख राइस इंस्टीट्यूट में पढ़े और 'एन्साइक्लोपीडिया
ब्रिटैनिका के लिए इसी विषय पर एक लेख लिखा। न्यू एसेज़ ऑन एस्थेटिक' सन् 1920 में
प्रकाशित इनके सौन्दर्यशास्त्रीय निबंधों का संग्रह है। इपनी आत्मकथा में क्रोचे
ने बताया कि किस तरह शास्त्रीय विद्याओं के अध्ययन के क्रम में वे अपनी विचारधारा
में क्रमशः अमूर्तता की और बढ़ते गये और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्पिरिट
या चेतना या मानस ही 'चरम सत्य' है। चेतना के
स्तर पर ही समस्त क्रियाएँ होती है तथा वाह्य संसार की घटनाएँ गौण तथा महत्वहीन
है। निरन्तर अध्ययनरत रहे क्रोचे के विचारों में स्वाभाविक रूप से ही कुछ परिवर्तन
आते रहे, जिसके फलस्वरूप उनकी अवधारणाओं का स्वरूप बदला और कुछ
विशष्ट मुद्दों पर विचार धारा बदली। परन्तु उनकी मूल प्रत्यवादी दृष्ट यथावत् बनी
रही है। इटली के शिक्षामंत्री रहे क्रोचे की गणना मृत्यु के बाद आज भी प्लेटो, भरत, अरस्तू, दण्डी, कुन्तक, डीडेरोट, जानसन, वाल्टेयर, कांट, शिलर, हीगेल, मार्क्स तथा फ्रायड
के साथ की जाती है।
बेनेदेतो क्रोचे के सिद्धान्त की अन्तर्वस्तु
बेनेदेतो क्रोचे
मूलतः आत्मवादी दार्शनिक था। उन्होंने मानसिक क्रियाओं को ही मान्यता प्रदान की और
बाह्य उपकरणों को केवल गौण साधन माना। श्री सत्यदेव मिश्र ने बेनेदेतो क्रोचे
द्वारा बताये गये चार स्तरों को आत्मसंवेदन, अभिव्यंजना, आनन्द व
अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। बेनेदेतो क्रोचे के अनुसार आनन्द अनुभूति
में तो है ही, पूर्ण आनन्द अभिव्यंजना में भी है। जब तक आत्मसंवेदन, सहजानुभूमि या
अन्तः संस्कारों का उद्बोधन अभिव्यक्ति के रूप में नहीं होगा वह पूर्ण अभिव्यंजना
न होकर अभिव्यंजना से पूर्व की स्थिति होगी।
बेनेदेतो क्रोचे
के सिद्धान्त का मूल विचार सभी प्रकार की कलाओं, सौन्दर्य और
आत्मानन्द आधारित है। उनका मानना है कि कलारूपी सहजानुभूति ( आन्तरिक अभिव्यंजना)
का बिम्बात्मक होना ही सफल है, जो कलाकार को भीतर ही भीतर मिलने वाले आनन्द के
साथ जोड़ता है। बेनेदेतो क्रोचे कलावादी हैं, इसीलिए कला को
अपने मूल उद्देश्य में नैतिकता या उपयोगिता से मुक्त रखते हैं। उन्होंने किसी भी
प्रकार की कलात्मक अभिव्यक्ति को स्वान्तः सुखाय मानते अभिव्यंजना का उद्देश्य
माना है। हुए आन्तरिक
बेनेदेतो क्रोचे, हीगेल से अत्यन्त
प्रभावित थे, परन्तु उन्होंने हीगेल को पूर्ण रूप से नहीं स्वीकारा। गेल
जहाँ कला को पक्ष, धर्म को विपक्ष और दर्शन को दोनों का समन्वित
पख मातने हैं वहीं बेनेदेतों क्रोचे, हीगेल के कला
सम्बन्धी विचारों को त्रुटिपूर्ण मानते हैं। हीगेल ने आत्मा की तीन प्रवृत्तियाँ
(ज्ञानात्मक प्रवृत्ति (पक्ष), व्यवहारिक प्रवृत्ति ( विपक्ष ), आध्यात्मिक
प्रवृत्ति ( समन्वय) मानी थी जबकि बेनेदेतो क्रोचे ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'ऐस्थेटिक' में मानव की
आत्मा को ही चरम यथार्थ मानते हुए आत्मा की केवल दो मूल क्रियायें मानीं ' 1. सैद्धान्तिक
2. व्यावहारिक क्रिया । सैद्धान्तिक क्रिया के भी दो भेद सहानुभूति और विचार
क्रिया और व्यावहारिक क्रिया के भी दो भेद आर्थिक या निजी योग-क्षेम से सम्बन्धित
और नैतिक माने। सहजानुभूति को बेनेदेतो क्रोचे ने स्वयं प्रकाशमान ज्ञान माना और
उनके अनुसार यह अभिव्यंजना है। सहजानुभूति मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्र क्रिया है।
जिसे स्वयं प्रकाश्य या प्रातिभ क्रिया भी कह सकते है। वैचारिक यथार्थ को उन्होंने
प्रत्ययात्मक यथार्थ कहा है। यह प्रत्ययात्मक यथार्थ या व्यवहारिक क्रियाएँ
सैद्धान्तिक क्रियाओं पर आधारित रहती है क्योंकि इन व्यवहारिक क्रियाओं के मूल में
मानवीय इच्छा कार्य करती है और इच्छा के लिए वस्तुओं का सहज ज्ञान आवश्यक है।
तृतीय क्रिया सामान्य रूप में संकट या इच्छा शक्ति पर आधारित है। जीवन के लिए
उपयोगी ये क्रियाएँ आर्थिक सिद्धान्तों पर आधारित है। बेनेदेतो क्रोचे की अन्तिम
प्रक्रिया संकल्प या इच्छा शक्ति पर आधारित है जिसका उद्देश्य नैतिक है । बेनेदेतो
क्रोचे सौन्दर्यशास्त्र, तर्कशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा
नीतिशास्त्र को इन चार यथार्थ से जोड़ा है।
बेनेदेतो क्रोचे का अभिव्यंजनावाद
बेनेदेतो क्रोचे का
अभिव्यंजनावाद- बेनेदेतो क्रोचे के सिद्धान्त को अभिव्यंजनावाद के नाम से जाना
जाता है जिसके महत्वपूर्ण बिन्दु निम्नवत् हैं-
1 सहानुभूति
बेनेदेतो क्रोचे
सौन्दर्य को सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार काव्यात्मक
अभिव्यक्ति संवेगों की सीधी अभिव्यक्ति न होकर सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति है।
सहजज्ञान से तो क्रोचे का तात्पर्य किसी वस्तु का पूर्ण रूप से गढ़ा हुआ एक मानसिक
चित्र है। सहजज्ञान अपने आप में प्रतिबिम्ब या प्रतिच्छवि है जो बाह्य वस्तुओं को
देखने से दर्शक के मन में उत्पन्न होती है। इन्हीं मानसिक चित्रों या बिम्बों
द्वारा संवेगों की अभिव्यंजना होती है। संवेगों का अस्तित्व तब तक संभव नहीं जब तक
अभिव्यक्ति न हो और बिम्ब का अस्तित्व संवेग की अभिव्यंजना में ही संभव है। सहज
ज्ञान द्वारा वस्तुओं के बिम्बों या भावों का निर्माण होता है और बौद्धिक ज्ञान
द्वारा सामान्य विचारों का बोध होता है इस कारण सहज ज्ञान का सम्बन्ध कला के साथ
है और बौद्धिक ज्ञन का सम्बन्ध विज्ञान तथा दर्शन से है। सामान्य व्यक्ति और
कलाकार की सहानुभूति अर्थात् आन्तरिक अभिव्यंजना में अन्तर होता है। सामान्य
व्यक्ति की अपेक्षा कालाकार की सहानुभू व्यापक होती है। कलाकार की अभिव्यक्ति में
उसके स्वयं प्रकाश ज्ञान और कल्पना का सुन्दर संयोग होता है।
सहज ज्ञान
यांत्रिक और निष्क्रिय न होकर एक ऐसा ज्ञान है जो हृदय में सीधा उतर आता है। यह
प्रभाव की सक्रिय अभिव्यंजना है। किसी भी कलाकार या चित्रकार द्वारा किसी वस्तु का
झलक भर देख लेना सहज ज्ञान नहीं है। यह तब ही सहज ज्ञान होगा जब उसका बिम्बों के
माध्यम से पूर्ण मानसी प्रत्यक्षीकरण होकर अन्तर्मन में अभिव्यंजित हो जाएगा।
सहानुभूति और
बौद्धिक ज्ञान में बेनेदेतो क्रोचे के अनुसार र्ष्याप्त अन्तर है। सहानुभूति स्वयं
प्रकाशित है और बौद्धिक ज्ञान आहरित है। सहजानुभूति और प्रत्यक्षबोध में भी
बेनेदेतो क्रोचे के अनुसार काफी अन्तर है क्योंकि सहजानुभूति में यथार्थ और
अयथार्थ में कोई अन्तर नहीं होता जबकि प्रत्यक्ष-बोध में होता है। उनके अनुसार तो
सहजानुभूति ऐन्द्रिय संवेदनाओं, स्मृतियों और संस्कारों से भिन्न है। उन्होंने
अन्ततः माना कि अभिव्यंजना सहजानुभूति का एक अंग है। सहजानुभूति की क्रिया उसी अंश
तक सहजानुभूति है जहाँ तक वह उसे अभिव्यक्त करती है। सहजानुभूति अभिव्यंजना का कोई
न कोई रूप ढँढ लेती है। वह चित्र, शब्द, संगीत या अन्य
किसी भी रूप में हो सकता है।
मनुष्य को
इन्द्रियजनित अर्थात् संवेदन होता है जो मस्तिष्क में अरूप रहता है। प्रत्यक्ष
अनुभूति से हमारी निष्क्रिय आत्मा पर बाह्य वस्तुओं का प्रभाव पड़ता है। बेनेदेतो
क्रोचे ने प्रत्यक्ष अनुभूति और संवेदना को वस्तु कहा है, जिसे मानव की
आत्मा महसूस तो करती है परंतु उत्पन्न नहीं करती। जो प्रत्यक्ष अनुभूति या संवेदना
या वस्तु मानस में अरूप की स्थिति में रहती है वह आत्मा की क्रिया- अर्थात् कल्पना
के साथ एकाकार होकर रूप या अभिव्यंजना के लिए आवश्यक आधार के रूप में संवेदना रूपी
वस्तु को तथा आत्मिक क्रिया रूपी कल्पना को जन्म देती है। बेनेदेतो क्रोचे की
दृष्टि में यही कल्पना युक्त स्वयं प्रकाश्य ज्ञान एक अलौकिक शक्ति है जो क्षण भर
में किसी दृश्य या भाव को अपनाकर उसे साकार और मूर्त रूप प्रदान करती है।
2 सहजानुभूति और कला
दार्शनिक बेनेदेतो क्रोचे ने अपनी पुस्तक सौन्दर्य सिद्धान्त' में सहजानुभूति को कला के रूप में स्वीकार किया है। सहानुभूति एक ऐसी सुन्दर आंतरिक अभिव्यंजना है जो कलाकार को आनन्द मग्न कर देने में सफल होती है। अभिव्यंजना की सफलता उसके सुन्दर रूप में अभिव्यक्त होने पर ही है।
प्राकृतिक
सौन्दर्य को बेनेदेतो क्रोचे ने सौन्दर्य का पुनर्निमाण करने वाली प्रेरणा मात्र
माना है। क्रोचे ने कला-कर्म को सदैव आन्तरिक माना है। जो कुछ बाह्य है वह काव्य
नहीं है। संवेदनाओं को अभिव्यंजना का रूप देते ही कला-कार्य समाप्त हो जाता है।
कवि या कलाकार मानस से शब्द प्राप्त कर किसी रूप या प्रकृति को निश्चित कर लेते
हैं।
3 सहजानुभूति और कल्पना
बेनेदेतो क्रोचे
ने कलाकार की कल्पना को उसकी आत्मा की सुन्दर दृष्टि माना है। आत्मा की दृष्टि जिस
प्रकार की होगी उसी प्रकार का रूप वह बाह्य वस्तु को प्रदान करेगी। यही कारण है कि
प्रत्येक व्यक्ति या प्रत्येक कलाकार की निजी विशेषता होती है। बेनेदेतो क्रोचे ने
आन्तरिक अभिव्यंजना को महत्व देते हुए बाह्य अभिव्यंजना को इतना महत्व नहीं दिया
हैं। उनके अनुसार सहानुभूति व्यक्तिनिष्ठ होती है जो व्यक्ति में निहित कल्पना के
कारण कला की उत्पादक बन जाती है। उन्होंने कल्पना को रूपात्मक निर्माणात्मक, वैशिष्ट्यपूर्ण
माना है। आत्मा कल्पना के कारण ही सहज ज्ञान को निर्माण, रूप विधान और
अभिव्यंजना के माध्यम से ग्रहण करती है।
4 कला की अखण्डता
बेनेदेतो क्रोचे
ने कला को स्वयं में पूर्ण और उसके सौन्दर्य को अखण्ड माना है। उनके अनुसार
सौन्दर्य की मात्रा और कला का वर्गीकरण नहीं हो सकता। उनका मानना है कि कलाकृति को
हम खण्डों में; कविता को दृश्यों, उपाख्यान, उपमाओं और
वाक्यों में; एक चित्र को अलग-अलग आकृतियों और वस्तुओं, पृष्ठभूमि, पर भूमि आदि में
विभक्त करते है- यह क्रिया एकता का विरोध करती हुई प्रतीत होती है। इस प्रकार का
वर्गीकरण कृति को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं, जिस प्रकार जीव
को हृदय, मस्तिष्क, धमनियों मांसपेशियों में बाँट देना जीवित
प्राणी को शव में बदल देते है। उनका मानना है कि कला विभिन्न श्रेणियों और कोटियों
में निर्धारित नहीं की जा सकती। जैसे सौन्दर्य का एक अखण्ड प्रभाव है ठीक उसी
प्रकार कला सौन्दर्य भी उसकी अखण्डता में रहता है।
5 विषय और शैली में अभिन्नता
तो अनुभूति और
अभिव्यक्ति को एक ही मानते हैं। इसीलिए कला को विषय-वस्तु और उसकी शैली से अभिन्न
घोषित करते हैं। उनके अनुसार कलाकार अपनी सहजानुभूति को अभिव्यंजना का रूप देता है
तो उसमें कुछ नया नहीं जोड़ता । शैली के द्वारा वह विषय-वस्तु को प्रस्तुत नहीं
करता अपितु विषय ही शैली के रूप में प्रकट होता है।
6 कलाकार के गुण
कला सृजन की
प्रक्रिया को विश्लेषित करते हुए कलाकार में चार गुणों का होना आवश्यक माना है। वे
हैं- सजग इच्छाशक्ति, कला सृजन के विभिन्न साधनों के उपयोग का ज्ञान
व अभ्यास, चिंतन और कल्पना शक्ति। सहज सजग इच्छा शक्ति ही कलाकार को
सृजन के लिए प्रेरित करती रहती है। यदि कलाकार को कला के माध्यम का ज्ञान नही है
अथवा उसमें अभ्यास की कमी है तब भी कला की सृष्टि बाधित होगी। कलाकार में चिंतन की
क्षमता आपेक्षित है। निरंतर चिंतन अभिव्यक्ति के अविरल प्रवाह को जन्म देता है, जिससे कलाकार आनन्द
की अनुभूति करता है। अन्तिम क्षमता कल्पना शक्ति है, जिसके माध्यम से
कलाकार कलात्मक बिम्बों का निर्माण कर सकता है।
7 सामाजिक के संबंध में विचार
अभिव्यंजना को
हृदयंगम करने हेतु सामाजिक का सचेत होना भी आवश्यक है। बेनेदेतो क्रोचे के अनुसार
सामाजिक के लिए भी कुछ क्षमताएँ अपेक्षित है। सामाजिक में तादात्म्यीकरण की
क्षमताहोनी चाहिए जिससे वह कलाकार द्वारा अनुभूति बिम्बों को पुनः अनुभूत कर सके।
इसके लिए उसका तटस्थ होना अनिवार्य है। शीघ्रता, आलस्य, उत्तेजना, और बौद्धिक
दुराग्रह या व्यक्तिगत अवधारणाओं के रहते वह कला का सच्चा अनुभव नहीं कर सकता।
इसके लिए उसे इन सबसे मुक्त होकर कला का रसास्वादन करना चाहिए। सामाजिक में
कला-संबंधी रुचि का होना भी अनिवार्य है। तो क्रोचे ने कला-सृजन और कला-आस्वादन के
कोई स्पष्ट अन्तर नहीं माना। जिस आनन्द की स्थिति में कलाकार कला - सृजन के द्वारा
पहुँचता है उसी स्थिति में सामाजिक कला अस्वादन द्वारा पहुँचता है। इतना अवश्य है
कि कलाकार की क्षमताएँ अधिक होती हैं जिससे कि वह नेतृत्व करता है और जबकि सामाजिक
कलाकार का अनुकरण करता है। क्रोचे ने कलाकार की क्षमता और आलोचक की क्षमता को
अभिन्न माना है। उनका स्पष्ट मानना है कि आलोचक को कलाकार के स्तर तक उठना चाहिए।
8 सामान्य अनुभूति और कलाजन्य अनुभूति
तो क्रोचे ने
सामान्य अनुभूति और कलाजन्य अनुभूति में बहुत बड़ा अन्तर माना है। सामान्य अनुभूति
सुख और दुख से जुड़ी है जिसका आधार आर्थिक और व्यावहारिक है। जबकि कला सहानुभूति
से संबद्ध है। सामान्य अनुभूति का क्षेत्र कलाजन्य अनुभूति से पृथक् होता है लेकिन
बेनेदेतो क्रोचे ने सामान्य आनन्द और कलाजन्य आनन्द में केवल मात्रा का अन्तर माना
है गुण का नहीं। उन्होंने स्पष्ट किया कि नाटक देखते समय जो हम हँसते या रोते हैं
या आनन्दानुभव करते हैं वह हमारे सामान्य सुख-दुःख से हलका होता है जबकि सामान्य
जीवन का सुख-दुःख वास्तविक और गम्भीर होता है। क्रोचे की विचार धारा को हम संक्षेप
में इस प्रकार रख सकते हैं-
1. सौन्दर्य सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति है।
2. अभिव्यंजना सहजानुभूति का एक अभिन्न अंग है।
3. कला आन्तरिक अभिव्यंजना है, जो सहजानुभूति के रूप में
4. सहानुभूति, अभिव्यंजना और कला तीनों पर्यायावाची हैं।
5.
6. कला-सृजन की प्रक्रिया और कला आस्वादन की प्रक्रिया एक ही है।
7. कला अखण्ड है। इसका तात्विक या आंगिक विश्लेषण करना कला की हत्या करना है।
8. सामान्य अनुभूति और कला जन्य अनुभूति में मात्रा का अन्तर है।
9. सहज ज्ञान का सम्बन्ध कला के साथ है और बौद्धिक ज्ञान का संबंध विज्ञान तथा दर्शन से हैं।
अभिव्यंजनावादन की विशेषताएँ
श्री सत्यदेव
मिश्र ने अभिव्यंजनावाद की विशेषताओं को निम्नवत् अभिव्यक्ति दी है-
1. अभिव्यंजनावाद
कला, कला के लिए सिद्धान्त का परिपोषक है। कलाकार कला की
अभिव्यक्ति के लिए विवश है क्योंकि यह अभिव्यंजना सहजानुभूति का स्वाभाविक उन्मेष
है।
2. बेनेदेतो क्रोचे ने सहजानुभूति को ही अभिव्यंजना माना है। उन्होंने अनुभूति और अभिव्यक्ति में उन्होंने कोई भेद नही माना है।
3. उन्होंने विषय-वस्तु और शैली में कोई भेद नहीं मानते हुए स्पष्ट स्वीकार किया कि अभिव्यक्त किया हुआ विषय अनुभूत किये गये विषय का ही व्यक्त रूप है।
4. बेनेदेतो क्रोचे की स्पष्ट मान्यता है कि सौन्दर्य अखण्ड है अतः उसे श्रेणी में विभक्त नहीं किया जा सकता।
5. बेनेदेतो क्रोचे समग्रवादी हैं। वे विषय-वस्तु, शैली, पद या भाव- विचार, अलंकार आदि के आधार पर टुकड़ो-टुकड़ो में की जाने वाली कलाकृति की मीमांसा को कलाकृति की हत्या ही मानते हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि किसी भी कलाकृति का मूल्यांकन उसके समग्र प्रभाव के रूप में ही किया जाना चाहिए।
6. बेनेदेतो
क्रोचे स्पष्ट मानते हैं कि बाह्य अभिव्यंजना के समय कलाकार जीवन तथा जगत के नैतिक
बन्धनों से बँध जाता है। उसे अपनी संवेदनाओं का चयन करने के लिए बाधित होना पड़ता
है। बाह्य कलाकृति उनकी दृष्टि में विशुद्ध कला-प्रक्रिया नहीं है क्योंकि उसे
यहाँ नीति तथा सदाचार के नियमों का पालन करना पड़ता है। पूर्ण व्यक्तित्व के
संदर्भ में कवि को सामाजिकता की उपेक्षा नहीं करनी होती ।
अभिव्यंजनावाद की सीमाएँ
कतिपय विद्वान, बेनेदेतो क्रोचे
के सहज ज्ञान को त्रुटिपूर्ण मानते हैं-
1. बेनेदेतो
क्रोचे ने सहजानुभूति को धारणाओं और विचारों से मुक्त माना है। यहीं नहीं उन्होंने
सहज ज्ञान को सभी बौद्धिक ज्ञान से मुक्त माना है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार ऐसी
सहानुभूति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
2. क्रोचे के
अनुसार सहजानुभूति नितान्त आन्तरिक है जो स्थान, काल तथा धारणा से
परे हैं जबकि मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बिना किसी धारणा के रूप की कल्पना
मानव मन के लिए असंभव है।
3. क्रोचे बाह्य
अभिव्यंजना को आवश्यक मानकर कलाकार को एक ऐसी स्वच्छन्दता दे देते हैं जो अराजकता
और अव्यवस्था में परिणत हो सकती है।
4. क्रोचे ने
माना कि कला सहजानुभूति है और सहजानुभूति वैयक्तिक और अभूतपूर्व होती है। वैयक्तिक
अनुभूति का पुनर्भाव नहीं होता लेकिन आपत्ति यह है कि यदि अनुभूति का पुनर्भाव
नहीं होता तो सहृदय उसका आस्वादन कैसे करेगा?
5. क्रोचे कहते
हैं कि कला का अस्तित्व तभी तक रहता है जब तक कि कलाकार कलम या कूँची नहीं पकड़ता
अर्थात् कला तब तक कला है जब तक कि वह मानस प्रक्रिया में रत है। मानस क्षेत्र से
निकलकर बाह्य अभिव्यंजना में प्रवृत्त होते ही कला पीछे छूट जाएगी। सामान्य जन
उनकी इस कला सम्बन्धी धारणा को हृदयंगम नहीं कर पाते।
6. क्रोचे विषय
वस्तु के चुनाव को भी आवश्यक नहीं मानते। उनकी दृष्टि में कोई भी विषय कला का विषय
बनता है पर शर्त है कि उसकी अभिव्यंजना सफल व स्पष्ट हो। इस दृष्टि से तो कलाकार
की कोई भी सनक, विकृति, कुरूपता कला के विषय बन जाएंगे।
7. क्रोचे ने
कलाकार के मन में अरूप, अस्पष्ट, अर्थहीन प्रभावों
की आन्तरिक अभिव्यक्ति को कला कहा है। वस्तुतः कला जीवन से सम्बद्ध है। कलाकार के
लिए आवश्यक है कि उसे अभिव्यंजना समाजोपयोगी बनानी पडेगी । यह आवश्यक है कि कलाकार
के जीवानुभव समग्र मानव जाति के अनुभव हों क्योंकि कला वस्तुतः जीवन की अभिव्यंजना
है, कलाकार की व्यैक्तिक अभिव्यंजना नहीं।
8. पाश्चात्य
समालोचक जेम्स के अनुसार क्रोचे का सिद्धान्त केवल उसकी ही दिमाग की उपज है, जिसका कहीं
अस्तित्व संभव नहीं।
अभिव्यंजनावाद और वक्रोक्तिवाद में साम्य और वैषम्य
बेनेदेतो क्रोचे
ने सहज ज्ञान को संवेदना तथा प्रभाव से भिन्न माना है। उनके अनुसार संवेदना
नितान्त यांत्रिक और निरपेक्ष है जिसमें अन्तर्मन का कोई प्रयोग नहीं रहता। उसके
विपरीत सहज ज्ञान अन्तर्मन सक्रिय होकर संवेदनाओं से एकाकार हो जाता है। उन्होंने
स्पष्ट करते हुए लिखा कि यदि कोई चित्रकार किसी वस्तु की केवल एक झलक मात्र पाता
है तो वह सहज ज्ञान नहीं है लेकिन जब वह उसका अन्तर्मन में बिम्ब के माध्यम से
प्रत्यक्षीकरण करेगा, उसकी अनुभूति करेगा तो वह सहज ज्ञान है। इस
आन्तरिक अभिवयंजना को ही उन्होंने सहजानुभूति और कला माना है। यह मन के भीतर ही
घटित होती है। उन्होंने माना कि मानस काव्य ही काव्य है। कागज पर लिखा काव्य तो
अतिरिक्त क्रिया है। आत्माभिव्यंजना के क्षणों में ही कलाकार की कलाकार के रूप में
स्थिति है। बाह्य अभिव्यक्ति तो स्मृति की सहायता से दूसरों तक अपनी अनुभूति को पहुँचाने
का साधन मात्र है। क्रोचे ने स्पष्ट कहा है कि बाह्य अभिव्यक्ति या शब्दों की
उपयोगिता केवल व्यावहारिक है।
क्रोचे और कुंतक दोनों ही आचार्यों के दृष्टिकोण और सिद्धान्त में अन्तर है, यदि कुछ समानता मिलती भी है तो केवल इसी कारण काव्य-रचना के कुछ सिद्धान्त शाश्वत व सार्वभौमिक होते हैं। कतिपय समानता निम्नवत् हैं-
1. दोनों ने ही
काव्य के लिए कल्पना को एक अनिवार्य तत्व के रूप में देखा है। क्रोचे ने
सहजानुभूति को कल्पनाजन्य क्रिया माना है। क्योंकि कल्पना ही सहजानुभूति को
बिम्बों के माध्यम से मूर्त नहीं करता लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उसे शक्ति की ओर
संकेत करता है जिससे उक्ति- वैचित्र्य और अर्थ में चमत्कार उत्पन्न होता है।
2. दोनों ने ही
अभिव्यंजना के सौन्दर्य को अखण्ड रूप में देखा है क्योंकि उनके अनुसार सफल
अभिव्यंजना का नाम सौन्दर्य है। इसलिए कुन्तक ने रीतियों के उत्तम, मध्यम या अधम भेद
नहीं माने - "न च रीतीनाम् उत्तमाधम- मध्यम भेदेन त्रैविध्यम्
व्यवस्थापयितुम् नाट्यम । ” इसी प्रकार क्रोचे ने भी अभिव्यक्ति में
सौन्दर्य की न्यूनाधिकता को स्वीकार करना अभिव्यक्ति को ही असफल बनाना माना है।
3. दोनों ने ही अभिव्यंजना को काव्य का प्राण तत्व माना है। दोनों के ही अनुसार वस्तु का इतना महत्व है जितना अभिव्यंजना का है, क्योंकि दोनों ने ही सौन्दर्य का निवास वस्तु या भाव में न मानकर उक्ति में माना है।
4. दोनों ही कलावादी आचार्य हैं।
दोनों के ही सिद्धान्त में असमानताएँ निम्नवत् हैं-
1. अभिव्यंजना को
ही काव्य स्वीकार करने वाले दोनों आचार्यों के अर्थ में भिन्नता है। क्रोचे द्वारा
प्रयुक्त अभिव्यंजना का वह अर्थ नही जो कुन्तक का है। कुन्तक ने आलंकारिक उक्ति, वैधग्यपूर्ण शैली
व कलात्मक अभिव्यक्ति पर बल देते हुए चमत्कार पूर्ण उक्ति को काव्य माना। इसके
विपरीत दार्शनिक बेनेदेतो क्रोचे ने सहजानुभूति को अभिव्यंजना माना। उनके लिए
अनुभूत वस्तु से अलग शैली का कोई अस्तित्व नहीं है। मानस-काव्य को ही काव्य मानते
हुए शब्द - बद्ध काव्य को उन्होंने महत्व नहीं दिया। इस दृष्टि से जहाँ कुन्तक
अभिव्यंजना को एक बाह्य क्रिया मानते हैं, वहीं बेनेदेतो
क्रोचे अभिव्यंजना को आन्तरिक क्रिया स्वीकार करते हैं।
2. कुन्तक के
सिद्धान्त में अलंकारों के लिए अवकाश है लेकिन अभिव्यंजनावाद में अलंकार की सत्ता
ही अमान्य है। सहज अभिव्यक्ति के रूप में अलंकार आ जाये तो अलग बात है।
3. वक्रोक्ति का
आधार कवि कौशल है। अतः उसका रस से घनिष्ठ और अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है, लेकिन अभिव्यंजना
सहजानुभूति पर आश्रित होने के कारण रसान्वित होती है।
4. वक्रोक्ति का
सम्बंध बुद्धि से है । 'वैदग्ध्यभंगी भणिति' में 'भंगी' शब्द चमत्कार का
अर्थ 'देता है और 'चमत्कार' बुद्धि से ही
उत्पन्न किया जा सकता है जबकि अभिव्यंजना कल्पना प्रेरित है।
5. वक्रोक्तिवाद
कला के मूर्त रूपों पर आधारित है जबकि अभिव्यंजनावाद में सूक्ष्म आध्यात्मिक
क्रिया ही सब कुछ है।
6. वक्रोक्ति का
सम्बंध केवल काव्य से है, अन्य ललित कलाओं से नहीं, जबकि अभिव्यंजना
सभी कलाओं में अपेक्षित है। इस दृष्टि से वक्रोक्ति का क्षेत्र अभिव्यंजना से
संकुचित है।
7. कुन्तक काव्य
में क्रोचे की अपेक्षा वस्तु तत्व को अधिक स्वीकृति देते हैं। जबकि क्रोचे वस्तु
को अरूप संवेदन जाल मानते हैं, जिसका अभिव्यंजना के बिना कोई अस्तित्व नहीं
है।
8. क्रोचे ने विषय और शैली का भेद नहीं माना है, जैसे फिल्टर में पानी छानने पर जल थोड़े से परिवर्तन के साथ पुनः प्रकट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार अभिव्यक्त विषय ( विषय शैली) अनुभूत विषय का व्यक्त रूप है। इसके विपरीत कुन्तक की दृष्टि में विषय और शैली में अन्तर हो सकता है। उन्होंने शैली के भेदों में वर्ण विन्यास वक्रता, पद-परार्ध, वक्रता, प्रबन्ध वक्रता आदि अनेक भेद माने हैं। कुन्तक ने उक्ति और अभिव्यंजना को अखण्ड माना जबकिं कुन्तक की बहिर्मुखी दृष्टि उक्त को खण्ड-खण्ड रूप में देखती है।
9. क्रोचे ने
काव्य का लक्ष्य स्वान्तः सुखाय माना है जबकि कुन्तक सहृदय के मन को प्रसन्नता देने का भी
लक्ष्य मानते हुए इसे 'परजन हिताय' भी बना देते है ।
10. क्रोचे ने
सहानुभूति को काव्य की आत्मा माना जबकि कुन्तक ने कवि-व्यापार को । यहाँ क्रोचे
सहजानुभूति के रूप में केवल भावन-व्यापार में ही काव्य की आत्मा को देख रहे हैं, रचना-प्रक्रिया
को नहीं। वहीं कुन्तक वक्रता को कवि की अन्तः प्रेरणा मानते हुए भी रचना- कौशल के
महत्व को भी स्वीकार करते हैं।
11. कुन्तक की
दृष्टि में चमत्कार पूर्ण, चमत्कार हीन उक्ति, वार्ता और
वक्रोक्ति में भेद है। वही क्रोचे की दृष्टि में चमत्कार पूर्ण, चमत्कार हीन, वक्र और ऋजु
उक्ति में कोई भेद नहीं है।
12. क्रोचे उस
आत्मिक सौन्दर्य को महत्व देते हैं जो उसे सहजानुभूति के क्षण में प्राप्त था न कि
उस बाह्य प्रयास को जिसे कुन्तक महत्व देते हैं और जिसे वे अभ्यास द्वारा प्राप्त
करने की चेष्टा करते हैं।
अन्ततः हम कह
सकते हैं कि कुन्तक और क्रोचे की मान्यताओं में पर्याप्त अन्तर है। कुंतक रचना -
कौशल पर बल देते हैं जबकि क्रोचे इसके प्रति उदासीन हैं। क्रोचे का तो स्पष्ट
मानना है कि आन्तरिक अभिव्यंजना बाह्य अभिव्यंजना को स्वतः ही सुन्दर बना देती है।
इसके लिए शाब्दिक अलंकरणों की कोई खास आवश्यकता नही है।
क्रोचे की
विचारधारा पर भले ही कितने आक्षेप लगे हो, अभिव्यंजनावाद
साहित्य के क्षेत्र में एक सशक्त और महत्वपूर्ण वाद है। अभिव्यंजना शब्द के अन्दर
केवल अभिव्यक्ति ही नहीं अनुभूति पक्ष भी समाहित है। भारतीय समालोचकों में बाबू
गुलाबराय, डा0 सुधांशु और डा० नगेन्द्र अभिव्यंजनावाद से सर्वाधिक
प्रभावित हैं। क्रोचे मूलतः दार्शनिक थे, अतः उनका
अभिव्यंजनावाद दर्शन के क्षेत्र में एक अनूठी कृति है।
बेनेदेतो क्रोचे का महत्व और प्रासंगिकता
तो क्रोचे यूरोप
के आधुनिक युग के एक ऐसे मूर्धन्य कोटि के विचारक थे जिनके सिद्धान्तों ने यूरोपीय
साहित्य-जगत में एक अद्भुत वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न कर दी थी। उन्हें
अभिव्यंजनावाद का प्रवर्तक माना जाता है। इटली के जन मानस को उन्होंने अपने
विचारों से इतने गहरे रूप से प्रभावित किया कि 1900 ई0 से 1950 तक की इटली को
क्रोचे की इटली कहना ही सही प्रतीत होता है।
क्रोचे मूल रूप
से काव्यशास्त्रीय विचारक न होकर आत्मवादी दार्शनिक थे। आरम्भ में भक्तिवाद से
प्रभावित क्रोचे आगे चलकर मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी बन गये थे । आधुनिक युग के
भौतिकवाद के विरुद्ध क्रोचे ने अपने ही ढंग से आत्मा की अन्तः सत्ता की प्रतिष्ठा
की थी। काव्यशास्त्र विषय न होने पर भी उन्होंने आत्मा की एक विशिष्ट क्रिया के
रूप में सौन्दर्य सिद्धान्त की विवेचना की थी । उनके 'सौन्दर्य
सिद्धान्त के प्रभाव ने कला और साहित्य के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों
क्षेत्रों में इतना व्यापक रूप धारण कर लिया कि उनके दर्शन की अपेक्षा सौन्दर्य
शास्त्र का ही प्रचार और प्रसार अधिक हुआ। । उनके इस सौन्दर्य सिद्धान्त ने ही
यूरोप में अभिव्यंजनावाद नामक एक सर्वथा नवीन साहित्यिक सम्प्रदाय को जन्म दिया था, जो मध्ययुगीन
कलावाद का ही एक अभिनव रूप था। अभिव्यंजना को ही सर्वेसर्वा मानने वाले क्रोचे
मानते हैं कि अभिव्यंजना ही सौन्दर्य है।
क्रोचे के पूर्व
भी दार्शनिक सौन्दर्यानुभूति के संदर्भ में वस्तु तथा चेतना के सापेक्ष महत्व पर
विचार करते रहे। क्रोचे ने कला के संदर्भ में बाह्य जगत की सत्ता तथा उपयोगिता, दोनों को ठुकराया
क्रोचे के काव्य दर्शन में सूक्ष्म उद्भावनाएँ है। विषय निरूपण गंभीर होते. भी
विशद है। अतिवादिता से संतुलन अनेक स्थानों पर बाधित होने पर भी बीसवीं शताब्दी के
कला विवेचकों और सौन्दर्य शास्त्रियों में वे निःसन्देह स्थायी महत्व के अधिकारी
हैं। मूलतः अभिव्यंजनावाद कला की रचना प्रक्रिया का सिद्धान्त है।
क्रोचे प्रासंगिक इसलिए भी हैं उनके प्रभाव के कारण कला और साहित्य को दार्शनिक, बौद्धिकता, नैतिकता, एवं उपयोगिता के नियंत्रण से मुक्ति मिली तथा साथ ही शैली के बाह्य एवं आरोपित हुआ।
चमत्कारिक तत्वों
की अपेक्षा अनुकृति की सहज अभिव्यक्ति को बल मिला। अतः कला का लक्ष्य केवल कला या
सौन्दर्य मानने वालों की दृष्टि से क्रोचे का महत्व अत्यधिक है।