मैथ्यू आर्नल्डःइतिहास जीवन परिचय कृतियाँ महत्व और प्रासंगिकता
मैथ्यू आर्नल्ड: परिचय एवं सिद्धान्त प्रस्तावना
प्रस्तुत इकाई में आप सुप्रिसिद्ध काव्यालोचक
मैथ्यू आर्नल्ड के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अध्ययन करेंगे पाश्चात्य
काव्यशास्त्र में मैथ्यू आर्नल्ड को महान् आधुनिक आलोचक कहा गया है। आधुनिक
अंग्रेजी आलोचना का प्रारम्भ मैथ्यू आर्नल्ड से ही माना जाता है। आप पर यूनानी
साहित्य-चिन्तन, गेटे के साथ-साथ मिल्टन और फ्रेंच लेखक सेण्ट ब्यूव का
प्रभाव भी दिखाई पड़ता है। यूनानी साहित्य में जहाँ संस्कृति, धर्म और दर्शन, शौर्य और वीरता
के साथ-साथ उच्च चरित्रों तथा जीवन के उदात्त स्वरूप को महत्ता मिली है वहीं सेण्ट
ब्यूव का मानना था कि किसी भी कलाकृति के बिना उस कलाकार के सम्बन्ध में पूरी
जानकारी का विवेचन संभव नहीं। गेटे कलात्मक रचना का मूल उस अनुभूति को मानते हैं।
इस प्रकार विभिन्न परम्पराओं और समकालीन विचारधाराओं के प्रभाव स्वरूप धार्मिक एवं
सांस्कृतिक मान्यताओं, सौन्दर्य-सम्बन्धी धारणाओं और नैतिक दृष्टिकोण
की समग्रता ही आर्नल्ड के समीक्षा-सम्बन्धी धारणा के निर्माण में सहयोगी रही।
मैथ्यू आर्नल्ड को समझने से पहले -पृष्ठभूमि
साहित्य और समाज दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक सभ्य समाज की महत्ता समझने के लिए तद्युगीन साहित्य को समझना अत्यंत आवश्यक है। इसी के साथ-साथ मानव मूल्यों और अपेक्षाओं का व तद्जनित सिद्धान्त का सुव्यवस्थित विवेचन भी आवश्यक है। मैथ्यू आर्नल्ड को समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि उनसे पूर्व कौन-कौन से विचारक और विचारधाराएँ आयीं तथा वे किन-किन से प्रभावित हुए। पाश्चात्य साहित्य-सिद्धान्त-चर्चा के क्रम में मूलतः आत्मवादी(सब्जेक्टिव) या प्रत्ययवादी (आइडियलिस्ट) नजरिये और वस्तुवादी (ऑब्जेक्टिव) या अनुभववादी (एम्पिरिकल) नज़रिये के रूप में हमें दो विरोधी प्रतीत होने वाली दृष्टियाँ मिलती हैं। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के विकास का अध्ययन करते हुए एक रोचक तथ्य सामने आता है। वह है, काल के क्रम में एक के बाद एक क्रमशः आत्मवादी विचारधारा और वस्तुवादी विचारधारा प्राधान्य। यह सही है कि ये प्रवृत्तियाँ सदा स्पष्ट तथा सुनिश्चित नहीं रही हैं किन्तु इनका प्रभाव किसी न किसी रूप में हमेशा दिखाई देता रहा है और आमतौर पर इनका स्परूप काफी स्पष्ट रहा है।
प्लेटो की दृष्टि
जहाँ प्रत्यवादी है और वे विश्व की सकल वस्तु को विश्व की विराट चेतना के रूप में
देखते हैं अर्थात् उनका मानना है कि संसार में हमें जो कुछ भी दृष्टिगत होता है, वह उस अदृश्य
प्रत्यय का मूर्त अनुकरण मात्र है जबकि अरस्तू (प्लेटो के शिष्य) का मत प्लेटो से
अधिक वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप लिये हुए है। मूल रूप से जीवन दृष्टि का अन्तर
लिये अरस्तू का दर्शन अनुभववादी तथा मूर्त है। वे प्लेटो के विपरीत कविता को बाह्य
अनुकरण न मानकर मानवी आन्तरिक क्रियाओं, भावनाओं तथा
चरित्र का अनुकरण मानते हैं।
अरस्तू के बाद
होरेस (सबसे पहले रोमन कवि ) की कृति आर्क पोएटिका आई, जिसमें साहित्य
के मानकों का उल्लेख मिलता है। होरेस कवि में नैसर्गिक प्रतिभा, दैवीय प्रेरणा की
आवश्यकता, काव्य में शास्त्र तथा शिल्प के महत्व पर बल देने के साथ
उसकी वस्तु परकता पर भी बल देते थे। होरेस ने काव्यालोचन के क्षेत्र में भाषा
सम्बन्धी सिद्धान्त दिया जो साहित्य को उनकी महत्वपूर्ण देन है। इस प्रकार अरस्तू
तथा होरेस के सिद्धान्त की चर्चा निरन्तर होती रही, जिसे फ्रांस में
कॉनील, रासीन, बुलो आदि ने अपनाया। आपने मुख्य रूप से नाट्य
लेखन के नियमों का प्रतिपादन किया।
इसके पश्चात्
लौंजाइनस ने उदात्त तत्व का सिद्धान्त दिया। यूनानी कवि अरस्तू की प्रसिद्ध रचना 'पेरि पोइएतिकेस’ के बाद ‘पेरिइप्सुस' का दूसरा स्थान
है। जहाँ लौंजाइनस से पूर्व कवि का मुख्य कर्म पाठक और श्रोता को आनन्द प्रदान
करना, शिक्षा देना और बात मनवाना था, वहीं लौंजाइनस इस
बात से असंतुष्ट थे। वे ये महसूस करते थे कि काव्य में इससे भी अधिक कुछ होता है।
उनका मानना था कि काव्य के लिए भावोत्कर्ष ही मूल तत्व है तथा काव्य साहित्य का
मूल उद्देश्य चरमोल्लास प्रदान करना है, तर्क द्वारा
बाध्य करना नहीं। लौजाइनस ने स्वच्छन्दतावाद और अभिव्यंजनावाद दोनों के तत्व
विद्यमान थे।
लौंजाइनस के
स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन को वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज ने गति दी। कॉलरिज अंग्रेजी
कविता की स्वच्छन्दतावादी धारा के प्रमुख कवि थे। कविता में रहस्यात्मक विषय-वस्तु, अतीन्द्रिय
वातावरण और छन्दोबद्ध लय के करण अंग्रेजी साहित्य में उनका विशेष योगदान है। इसके
इतर अंग्रेजी साहित्य में शास्त्रीय जड़बद्धता के विरूद्ध सुगबुगाहट विलियम
वर्ड्सवर्थ के स्वर में भी सुनाई पड़ती है। दोनों कविता की विषय-वस्तु, शैली तथा
विचारधारा में स्पष्ट अंतर था परन्तु दोनों कवियों ने ही जड़, गंभीर रीतिबद्ध
शास्त्रीयता से पृथक होकर एक नये पहलू का संधान किया, जिसमें लौकिक, आदर्श और शास्त्र
की अपेक्षा कवि ने अपने विचार और अनूभूति को सर्वोच्च माना है। आपने 'कविता को भावनाओं
का सहज उच्छलन' कहा है। आपकी कविता का उद्देश्य कृत्रिम भाषा-शैली का
बहिष्कार करना था तो वहीं कॉलरिज मैलिकता और गाम्भीर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण
हैं।
आर्नल्ड पर
यूनानी साहित्य चिन्तन और गेटे का प्रभाव देखा जाता है। इतना ही नहीं वें मिल्टन
और फ्रेंच लेखक सेण्ट ब्यूव से भी प्रभावित हुए। आपने साहित्य को 'जीवन की आलोचना' कहा है। आर्नल्ड
लोक-कल्याण को अत्यधिक महत्व देते थे और साहित्य का आदर्श और तथा कसौटी भी लोकमंगल
और संस्कृति के विकास को मानते थे। उनका मानना था कि काव्य का उद्देश्य आनन्द न
होकर मानव जीवन की पूर्णता का ज्ञान कराना, मानव का
आत्मविश्वास और समाज का उत्थान होना चाहिए। आर्नल्ड जहाँ आधुनिक अंग्रेजी समालोचक
के रूप में जाने जाते हैं वहीं आप तद्युगीन औद्योगिक विकास और सांस्कृतिक पतन की
स्थिति पर अपनी गहन चिन्ता व्यक्त करते दिखाई देते हैं। आपने अपने वर्तमान से
असंतुष्ट होकर काव्य को आधुनिकता के नाम पर पुनजीर्वित करने का प्रयास किया, जिसका माध्यम
आपने संस्कृति को बनाया तथा कविता और जीवन एवं कविता और समाज के माध्यम से काव्य
जगत को जो सिद्धान्त दिया उसे जीवन की आलोचना के नाम से जाना जाता है।
मैथ्यू आर्नल्ड की युगीन परिस्थितियाँ-
माना जाता है कि कवि हो या कलाकार वह अपने देशकाल और परिस्थितियों से प्रभावित ही नहीं होता अपितु उससे नियंत्रित और निर्देशित भी होता है। महान् आधुनिक आलोचक के रूप में विख्यात आर्नल्ड भी इससे अछूते नहीं रहे। औद्योगिक क्रांति की जो लहर इंग्लैण्ड में उठी उसने एक ओर विज्ञान को अकल्पनीय महत्व प्रदान किया; दूसरी ओर धर्म तथा काव्य पर आघात किया। धर्म को लोग अंधविश्वास समझने लगे और विज्ञान से जीवन-पद्धति में ऐसा परिवर्तन आने लगा जिससे भावुकता कुंठित होने लगी। परिणामतः काव्य के प्रति आकर्षण कम होने लगा। चारों ओर कोलाहल जैसा सुनाई पड़ने लगा कि काव्य का युग समाप्त हो गया; अब तो विज्ञान का युग है। टॉमस ने काव्य की निष्प्रयोजनता प्रमाणित करने के लिए एक पुस्तक ही लिख डाली जिसमें उन्होंने कहा कि ज्ञान और तर्क के युग में 'काव्य केवल बर्बरता का अवशेष है। इसके उत्तर में प्रसिद्ध रोमांटिक कवि शैली को 'दि डिफेंस ऑफ पोइट्री' नामक प्रसिद्ध निबंध लिखना पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही इंग्लैण्ड में काव्य और विज्ञान के आपेक्षिक महत्व का विवाद चल पड़ा था और दोनों ने अपने- अपने पक्ष की स्थापना के लिए युक्तियाँ प्रस्तुत करनी प्रारंभ कर दी थीं। विज्ञान का आक्रमण केवल काव्य पर ही नहीं हुआ, धर्म पर भी हुआ और संस्कृति के मूलोच्छेद का उपक्रम किया गया। जो लोग काव्य, धर्म एवं संस्कृति के स्थापित मूल्यों के पक्षधर थे उन्होंने विज्ञान के प्रत्याख्यान का बड़ा उठाया। आर्नल्ड इस श्रेणी के विचारकों में अन्यतम हैं। आर्नल्ड ने धर्म के स्थानापन्न के रूप में संस्कृति को प्रस्तावित करते हुए उसमें कविता की महत्ता को स्थापित किया। आपकी दृष्टि में काव्य संस्कृति का अन्यतम साधन है।
इस प्रकार
उन्नीसवीं सदी के अन्त में विलुप्त हुई आभिजाव्यवादी धारा का फिर से उत्थान हुआ
जिसके संवाहक का काम मैथ्यू आर्नल्ड ने किया। आपने समकालीन परिवेश के लिए नैतिक
दृष्टि से पतनोन्मुख और अराजक समाज के सुधार के लिए संस्कृति और विशेषकर कविता को
आवश्यक माना। आपको महसूस हुआ कि अगर समाज से नैतिक-सामाजिक अराजकता को दूर करना है
तो आदर्शवादी नियमों एवं जीवन तथा साहित्य दोनों के मूल्यों को व्यवस्थित करना
होगा क्योंकि मूल्यों से अनुप्राणित कविता ही सत्य और सौंदर्य के लिए प्रतिबद्ध
होती है। इसीलिए आर्नल्ड ने ‘कविता जीवन की आलोचना है' माना तथा आलोचक
कर्म को गंभीरता से अपनाते हुए एक सच्चे समालोचक का दायित्व संभाला। एक साहित्यकार
और समालोचक को युग चेतना से जोड़कर अभिजात्यवाद को भी नये सिरे से आपने प्रस्तुत
किया।
मैथ्यू आर्नल्डःजीवन परिचय कृतियाँ
महान् आधुनिक आलोचक के रूप में प्रख्यात कवि, निबंधकार मैथ्यू आर्नल्ड का जन्म इग्लैण्ड के शहर “लैलेहम” में 24 दिसम्बर सन् 1822 में तथा मृत्यु सन् 1888 लिवरपूल में हुई। मैथ्यू आर्नल्ड रग्बी स्कूल के हैडमास्टर तथा विख्यात इतिहासविद् डॉ. टॉमस आर्नल्ड के ज्येष्ठ इनकी शिक्षा-दीक्षा लैलेहम, एबी तथा वैलियम कॉलेज (ऑक्सफोर्ड) में सम्पन्न हुई।
सन् 1844 में
स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद आपने कुछ समय रग्बी में पढ़ाया तथा इसके बाद
लैंसडाउन के मार्क्टिस के निजी सचिव भी रहे। विशेष पुरस्कार से सम्मानित आप सन्
1845 में ‘फेलो' भी चुने गए। इतना ही नहीं निरन्तर कार्यरत रहते
हुए आपने कुछ समय तक लॉर्ड लैन्सडाउन के प्राइवेट सेक्रेटरी का कार्य भार भी
संभाला। सन् 1857 में आपकी नियुक्ति ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 'प्रोफेसर ऑफ
पोएट्री' के सम्मानित पद के लिए हुई, जहाँ आप न केवल
दस वर्ष तक कार्यरत रहे वरन् 1883 तक आप 'इंस्पेक्टर' ऑफ स्कूल' भी रहे। मैथ्यू
आर्नल्ड के साहित्यिक जीवन का आरंभ काव्य-रचना से हुआ। सन् 1849 में आपका पहला
काव्य-संग्रह प्रकाश में आया। इससे पूर्व सन् 1840 और सन् 1843 में अपनी
काव्य-कृतियों के लिए आपको पुरस्कार भी मिले। सन् 1853 में प्रकाशित कविता-संग्रह 'पोयम्स बाई
मैथ्यू आर्नल्ड' में संकलित 'द डोबर बीच', 'द स्कॉलर जिप्सी' और 'सोहराब एंड
रूस्तम' जैसी प्रसिद्ध कविताएँ एक सीमा तक आर्नल्ड के अपने
काव्य-सिद्धान्तों का मानक रूप प्रस्तुत करती हैं। कविताओं के अतिरिक्त मैथ्यू
आर्नल्ड ने गद्य- लेखन भी किया। सन् 1865 में आपके आलोचनात्मक निबन्धों का संग्रह 'एसेज़ इन
क्रिटिसिज्म' प्रकाश में आया। इसी के साथ इनकी कुछ महत्वपूर्ण आलोचनात्मक
रचनाएँ और भी हैं जैसे- ‘कल्चर एंड अनार्की’ (1869), 'लिट्रेचर एंड
ड्रामा' (1873), एसेज ऑन चर्च एंड स्टेट' (1877), एसेज इन
क्रिटिसिज्म' सीरीज प् एंड सीरीज (1888, मरणोपरांत
प्रकाशित) आदि। मैथ्यू आर्नल्ड सन् 1883 में सेवा निवृत्त हुए और अप्रैल सन् 1888
में अंग्रेजी आलोचना की शुरूआत करने वाले इस महान् आलोचक का निधन हो गया।
पाश्चात्य साहित्य में आलोचना को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करने वाले शिष्ट, सुसंस्कृत, व्यवहारिक, मृदुभाषी विद्वान
मैथ्यू आर्नल्ड साहित्य के आलोचना में महत्वपूर्ण रहेंगे तथा आलोचक वर्ग के लिए
सदैव प्रेरणा-स्रोत रहेंगे।
मैथ्यू आर्नल्ड के सिद्धान्त की अन्तर्वस्तु -
मैथ्यू आर्नल्ड
19 वीं शताब्दी के एक महान् आलाचेक माने जाते है। इतना ही नहीं आधुनिक अंग्रेजी
आलोचना का शुभारम्भ करने का श्रेय भी मैथ्यू आर्नल्ड को ही जाता है। आप कविता को ‘जीवन की आलोचना' कहकर एक विशिष्ट
युग बोध को प्रस्तुत करते हैं। मैथ्यू आर्नल्ड की काव्य दृष्टि जितनी समसामायिक
परिस्थितियों से प्रभावित है उतनी ही उस युग के कवियों तथा पूर्व के कवियों की
अंतर्दृष्टि से भी प्रेरित है। मैथ्यू आर्नल्ड की धारणा थी कि महान् काव्य के लिए
उसकी विषय-वस्तु उदात्त और शैली भव्य होना चाहिए। यूँ तो आप अरस्तू की भाँति ही
कला और काव्य की कसौटी प्रकृति के अनुकरण या चित्रण से प्राप्त आनन्द को ही मानते
हैं लेकिन इन अवधारणाओं को उन्होंने अपने विचारों एवं सिद्धान्तों के आधार पर
व्याख्यायित किया। कला जन्य ज्ञान को ही आनन्द का मूल आधार मानते हुए आपने उक्त
विचारों को और अधिक विकसित रूप में प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं- 'हम किसी भी
यथार्थ चित्रण के रोचक होने की आशा कर सकते हैं परन्तु यदि वह काव्यात्मक हो तो
इससे भी अधिक की माँग की जा सकती है; परन्तु वह
मनोरंजन हो इतना ही पर्याप्त नहीं, उससे यह भी
अपेक्षा की जाएगी की वह पाठक को स्फूर्ति और आनन्द दे. . उसमें मोहकता हो और वह मन
को आह्लाद से भर दे।' इस प्रकार मैथ्यू आर्नल्ड के 'जीवन की आलोचना' सिद्धान्त को
मुख्य दो बिन्दुओं के अन्तर्गत देखा जा सकता है।
1. कविता और जीवन
2. कविता और समाज
1 कविता और जीवन
मैथ्यू आर्नल्ड
ने कविता का लक्ष्य जीवन की आलोचना माना। वह काव्यगत आलोचना को समान्य आलोचना से
भिन्न रूप में देखते थे तथा मानते थे कि उनकी रचना काव्य सत्य और काव्य- सौन्दर्य
के नियमों से प्रेरित है। सत्य और सौन्दर्य के नियमों के प्रति यही प्रतिबद्धता
कविता को वाचिक अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से (गद्य से भी) भिन्न करती है, वरना हमारे समग्र
साहित्य का- वह गद्य में हो या पद्य में चरम लक्ष्य जीवन की आलोचना है। काव्य-सत्य
से मैथ्यू आर्नल्ड का तात्पर्य विषय-वस्तु की मूल्यवत्ता से है, और सौन्दर्य से
उनका अभिप्रायः अभिव्यंजनागत चारु और लालित्य से है। मैथ्यू आर्नल्ड ने माना कि
साहित्यिक प्रतिभा का भव्य कार्य संश्लेषण और अभिव्यक्ति का है विश्लेषण और
अन्वेषण का नहीं। उसका प्रदेय बौद्धिक और आध्यात्मिक वातावरण या विचार-क्रम से (जो
उसमें प्राप्त होता हो ) स्फूर्ति और प्रेरणा ग्रहण करने में देखा जा सकता है, जिसकी परिणति
उनसे दिव्य और सुन्दर रूप में होती है। आलोचक मैथ्यू आर्नल्ड कविता से आलोचना का
काम लेकर वस्तुतः उसमें विचार पक्ष और उपदेशात्मक वृत्ति पर बल देना चाहते थे।
मैथ्यू आर्नल्ड के विचार तंत्र में जीवन नैतिक विचारों का पर्याय है। नैतिक
विचारों के विरुद्ध विद्रोह करने वाली कविता वस्तुतः जीवन-द्रोही होती है और नैतिक
विचारों के प्रति उदासीन कविता जीवन के प्रति उदासीन होती है। वैचारिक नैतिकता के
प्रति इस गहन सरोकार के कारण ही मैथ्यू आर्नल्ड को उपदेशक कहा गया। उनकी आलोचना का
आधार बौद्धिकता और विवेक रहा।
मैथ्यू आर्नल्ड
जिस युग में रहे वह कहीं न कहीं औद्योगिक क्रांति से प्रभावित रहा। ऐसे में भला
युग का साहित्यकार वर्ग कैसे शान्त बैठ सकता है? कैसे वह नैतिकता
से दूर रहकर लोकमंगल में सहायक हो सकता है? उनका मानना था कि
हम जिस युग में जीवनयापन कर रहे हैं वह किस प्रकार औद्योगिक विकास होने पर भी
नैतिक समृद्धि से विमुख होता जा रहा है। अतः वह लोकमंगल के प्रति नैतिक और सामाजिक
उत्साह को एक आलोचक के लिए अनिवार्य आवश्यकता मानते थे अर्थात् मैथ्यू आर्नल्ड का
मानना था कि उत्तम कविता वह है जैसा हम उसे चाहते हैं। उसमें केवल साधारण मनोरंजन
नहीं, वरन् रुप सर्जना, स्थायित्व और
हमें आनन्द प्रदान करने की शक्ति भी होनी चाहिए।
2 कविता और समाज
मैथ्यू आर्नल्ड ‘कविता क्या है?" की अपेक्षा 'कविता क्या करती
है?" पर अधिक चिंतन करते थे। शायद इसीलिए कुछ लोगों ने उन्हें 'पैंफ्लेटियर' तथा आलोचक की
अपेक्षा 'आलोचना का प्रचारक' (इलियट ने) तक कह
डाला। व्यापक अर्थ में देखा जाए तो आपकी कविता का मूल उद्देश्य ‘संस्कृति का
उन्नयन’ था। संस्कृति का अर्थ है- मनोगत वस्तुओं की उद्देश्यमुक्त
जिज्ञासा अर्थात् ऐसी जिज्ञासा जो स्वयं साध्य हो, किसी अन्य
प्रयोजन का साधन नहीं। आलोचना और संस्कृति को अभिन्न अंग मानने वाले मैथ्यू
आर्नल्ड आलोचना को निष्पक्षता या निस्संगता का पर्याय मानते है। संस्कृति और
आलोचना दोनों का लक्ष्य पूर्णता साध्य जिज्ञासा या धर्म निस्संगता है। फलतः मैथ्यू
आर्नल्ड साहित्य के आलोचक का कार्य संस्कृति के उस भाग का उन्नयन करना मानता है जो
साहित्य पर आश्रित रहते हुए समाज को उन्नत करता है, व दृष्टि प्रदान
करता है। मैथ्यू आर्नल्ड की आलोचना का प्रमुख उद्देश्य मध्यवर्ग का रूचि परिष्कार
करना है। उन्होंने तद्युगीन समाज के अभिजात वर्ग की बर्बरता और निष्प्रभाव को तो
देखा है, साथ ही निम्न वर्ग की स्थिति को भी देखा, परखा है। ऐसी
स्थिति में आशा की किरण उन्हें मध्यवर्ग में ही परिलक्षित हुई है लेकिन वह भी जब
तद्युगीन औद्योगिक क्रांति से लब्ध आर्थिक सम्पन्नता में विषय सशक्त और भोगलीन हो
गया तो उन्होंने सोचा कि यदि काव्य और उसके साथ संस्कृति को बचाना है तो मध्यवर्ग
को सुधारना होगा, उसकी रुचि को परिमार्जित और परिष्कृत करना
होगा। देखा जाए तो मैथ्यू आर्नल्ड ने आलोचना पर जनता (समाज) को इस प्रकार
व्याख्यायित किया कि आलोचक प्रचारक के रूप में सामने आया तथा उसका कर्त्तव्य ऐसे
वातावरण का निर्माण करना हो गया जो कलाकार या कवि को उत्तेजित कर सके, जनता को
सर्वोत्तम लेखन के लिए प्रेरित सके। मैथ्यू की यह आलोचना समाज-सुधार के लिए एक आशा
की किरण बन गई।
मैथ्यू आर्नल्ड का महत्व और प्रासंगिकता
मैथ्यू आर्नल्ड
19वीं शताब्दी के महान् समीक्षक के रूप विख्यात थे। हम मैथ्यू आर्नल्ड का अंग्रेजी
साहित्य में वही स्थान मानते हैं जो हिन्दी साहित्य मे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का
है। आप दोनों ने ही मानव जीवन की गहराइयों में उतरकर साहित्य-समीक्षा और समाज को
परस्पर प्रगाढ़ रूप में आबद्ध करने वाले सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया। शिक्षा और
साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में असाधारण माने जाने वाले मैथ्यू आर्नल्ड ने साहित्य
और उनकी समस्याओं को समाज से आबद्ध किया और 'साहित्य को जीवन
की आलोचना कहा। आपकी विचार धारा लोककल्याण की आदर्श भावना की इतनी प्रबल समर्थक थी
कि आपने साहित्य का प्रयोजन आनन्द प्रदान करना नहीं वरन् मानव का आत्म विकास और
सामाजिक उत्थान माना। मैथ्यू आर्नल्ड ने साहित्यालोचन में साम्प्रदायिकता और
संकीर्णता को जहाँ काव्य और समाज के लिए दुर्गुण माना वहीं ऐतिहासिक तथा साहित्यिक
गुणों की स्थापना को आवश्यक माना। आप भौतिकता और यंत्र पूजा के कट्टर विरोधी थे
तथा व्यवहारगत क्रूरता तथा कुरूपता के निवारण के लिये साहित्य और संस्कृति में
मानवमूल्यों की पुनः स्थापना चाहते थे। इतना ही नहीं आप साहित्य को समाज के धरातल
पर धर्म के समकक्ष देखना चाहते थे। जीवन को एक पहेली के रूप में देखने वाले मैथ्यू
आर्नल्ड में शुक्ल जी की भाँति महान् प्रतिभा और व्यक्तित्व की विराटता परिलक्षित
होती है। आपके साहित्यिक और सामाजिक महत्व को देखा जाये तो आपने जीवन से जुड़े हर
पहलू (सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक) पर दृष्टिपात करते हुए साहित्य पर
विचार किया । समग्र जीवन पर दृष्टिपात करते हुए जीवन के वास्तिवक लक्ष्य को समझकर
उसे साहित्य से जोड़ने का प्रयास किया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनकी प्रासंगिकता
पर विचार करने पर यह तथ्य उभरकर आता है कि मैथ्यू आर्नल्ड की आलोचना केवल काव्य तक
ही सीमि नहीं है, उसकी सीमा का विस्तार संस्कृति, धर्म, शिक्षा आदि तक
है। शायद इसीलिए उनके सिद्धान्त को जीवन की आलोचना माना जाता है, जिसका सीधा सा
अभिप्राय है जीवन के किसी भी पक्ष की उपेक्षा न करना। वैसे तो मैथ्यू आर्नल्ड
द्वारा आलोचना का सिद्धान्त परक कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया और न ही उन्होने कॉलरिज
एवं अरस्तू के समान कोई मौलिक उद्भावना दी लेकिन आलोचना की स्वायत्तता स्थापित
करने और उसे व्यवस्थित करने का श्रेय उन्हें ही जाएगा। मैथ्यू आर्नल्ड ने न केवल
व्याख्यात्मक और सैद्धान्तिक आलोचना पद्धति की विकास किया वरन् आलोचक के कर्त्तव्य
और आलोचक के प्रतिमानों को भी निर्धारित किया। अरस्तू ने जहाँ आलोचक को कला के
परिप्रेक्ष्य में निरूपित किया वहीं आर्नल्ड ने आलोचक को जनता के सामाजिक
परिप्रेक्ष्य में किया। उनकी प्रासंगिकता इस बात से और स्पष्ट हो जाती है कि
आर्नल्ड का महत्व एक कवि और समीक्षक के रूप में ही नहीं अपितु एक ऐसे समाजशास्त्री
एवं संस्कृतिक चिन्तक के रूप में भी है जिन्होंने कविता, समाज और संस्कृति
को एक दूसरे से विच्छिन्न होने से बचाया और तीनों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित
करके अपने युग को एक नई दृष्टि और दिशा प्रदान की इसीलिए वे वर्तमान तो क्या
भविष्य में भी प्रासंगिक बने रहेंगे।