प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत | प्लेटो के सिद्धांतों की आलोचना| Plato ka Anukaran Sidhant

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प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत

प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत | प्लेटो के सिद्धांतों की आलोचना| Plato ka Anukaran Sidhant


 

प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत 

प्लेटो काव्य तथा कलाओं को अनुकरण का अनुकरण कहता था। अनुकरण क्या है और कलाएं अनुकरण की अनुकरण कैसे हुईइसका विश्लेषण हम प्रस्तुत भाग में पढ़ेंगे।

 

1 प्रत्यय और विशेष 

प्लेटो कवियों की निंदा करता थाउसका एक प्रमुख कारण उसकी यह मान्यता है कि काव्य अनुकरण का अनुकरण हैऔर भ्रामक रचना आदर्श राज्य तथा व्यक्ति के निर्माण में बाधक है। इसलिए वह सत्य नहीं है। काव्य अनुकरण का अनुकरण कैसे हैआइए जानते हैं।

 

प्लेटो मूलतः प्रत्ययवादी (आइडियलिस्ट) दार्शनिक था। प्रत्ययवाद के अनुसार प्रत्यय अर्थात् विचार (आइडिया) ही परम सत्य है। ईश्वर उसका स्रष्टा है। दृश्यमान जगत् उसका अनुकरण है। दर्शन-मीमांसा का मूल उद्देश्य सत्य का अन्वेषण होता है। प्लेटो की तत्व-मीमांसा में दो शब्दों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है: 'प्रत्ययऔर 'विशेष। 'प्रत्ययएक वर्ग का प्रतिनिधि हैफिर भी वह दिखाई नहीं देता। वह अदृश्यअरूपअपरिवर्तनीय परम सत्य है। वह इन्द्रियातीत है। उसका ज्ञान सिर्फ प्रज्ञा द्वारा ही संभव है। 'प्रत्ययका ही वैज्ञानिक ज्ञान संभव है। 'विशेषवे वस्तुएं हैंजिनका ज्ञान हम अपनी पाँचों इन्द्रियों से देखसुनसूँघचख या स्पर्श करके ग्रहण करते हैंजैसे मनुष्यघोड़ेफूल इत्यादि । 'विशेषोंका वैज्ञानिक ज्ञान संभव नहीं हैक्योंकि ये (अ) परिवर्तनशील हैं, (आ) इनकी अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है, (इ) इनका बोध इन्द्रियों से होता है और ऐन्द्रिय ज्ञान प्रामाणिक नहीं होता, (ई) इसलिए ये सत्य नहीं हैं।

 

तो ये 'विशेषक्या हैं? 

ये 'विशेष' ' प्रत्ययके प्रतिबिंब हैंउनकी छाया हैं। 

कैसे? 

जैसे कि हम बहुत से घोड़े देखते हैंकालेसफेदभूरे रंगों के या आकार में छोटे-बड़े अथवा चाल में मंद या तेज। इन समस्त भिन्नताओं के बाद भी हम उन्हें 'घोड़ाही कहते हैं । इसीलिए घोड़ा' ‘प्रत्ययहै और 'घोड़े' 'विशेषहै। 'घोड़ेनश्वर हैं, 'घोड़ाअनश्वर । एक दिखाई देता हैदूसरा नहीं। यह न दिखाई देने वाला अदृश्यअरूप घोड़ा ही 'प्रत्ययअर्थात् परम सत्य है। इसी तरह प्रत्येक वर्ग और जाति का एक-एक परम सत्य अर्थात् 'प्रत्ययहोता है। मनुष्य जाति का प्रत्यय मनुष्यफूलों का फूल और गायों का गाय। इस तरह ज्ञान प्राप्ति के भी दो रास्ते हैंइन्द्रियाँ और प्रज्ञा । इन्द्रियाँ वस्तु जगत का ज्ञान कराती हैंलेकिन उनका ज्ञान भ्रामक होता हैक्योंकि ये 'प्रत्ययों का ज्ञान नहीं करा पातीं। प्रज्ञा 'प्रत्ययोंका ज्ञान कराती है। उसका ज्ञान सच्चा ज्ञान होता हैक्योंकि वह वस्तुओं के मूल तत्व अर्थात् परम सत्य का ज्ञान प्राप्त करती है। भारत के प्राचीन दर्शनों में भी यही बात कही गई है कि यह विविध रूपात्मक स्थूल संसार क्षणिक और परिवर्तशील है तथा किसी शाश्वत् अमूर्त सत्ता का बाह्यावरण मात्र है। गोचर जगत क्षणभंगुर है और शाश्वत तत्व अगोचर है। प्लेटो का यह दर्शन भारत के 'ब्रह्म और मायाअथवा पुरुष रूपी परमात्मा की छाया रूपी प्रकृति के दर्शन के निकट प्रतीत होता है।

 

2 कला के तीन स्तर

 

प्राणियों या वस्तुओं की हर जाति का अपना एक 'प्रत्ययहोता हैजैसे अनेक चारपाइयाँ और मेजें होती हैं। उनमें चारपाइयों को हम इसलिए पहचानते हैंकि वे चारपाई से मिलती-जुलती हैंजो चारपाई सभी चारपाइयों में अनुस्यूत है। वह उन सब चारपाइयों का मूल तत्व या 'प्रत्ययहै। बढ़ई चारपाई बनाते समय इसी 'प्रत्ययको ध्यान में रखकर उसका अनुकरण करते हुए लकड़ी की चारपाई वह स्वयं प्रत्ययकी रचना नहीं करताइसलिए उसकी कला अनुकरण है। उसके बाद कलाकार उस चारपाई का चित्र बनाता हैइसलिए वह अनुकरण की अनुकृति बनाता है। अर्थात् छाया की छाया बनाता है। इसलिए उसे सत्य नहीं कहा जा सकता। वह सत्य से तिगुनी दूर है।

 

इस प्रकार प्लेटो की दृष्टि से कलाकार तीन प्रकार के होते हैंपहला वहजो धरतीआकाश तथा देवता-सभी की रचना करता है। उसे ईश्वर कहते हैं। दूसरा कलाकार बढ़ई हैजो चारपाई बनाता हैकिंतु उसके द्वारा निर्मित चारपाई वास्तविक चारपाई नहीं। वह वास्तविक चारपाई की छाया मात्र है।

 

तीसरा कलाकार चित्रकार है । वह बढ़ई द्वारा निर्मित चारपाई की अनुकृति बनाता है। बढ़ई ईश्वर कृत मूल प्रत्ययकी छाया निर्मित करता है और चित्रकार उस छाया की अनुकृति तैयार करता है। छाया की छाया सत्य कैसे हो सकती हैउसे तो ईश्वर-रचित चारपाई का ज्ञान भी नहीं। उसके ज्ञान को सच कैसे माना जा सकता हैबढ़ई कृत चारपाई को हम चारों दिशाओं से देख सकते हैं। अनुदृश्य बदल देने पर उसके रूप में भी परिवर्तन हो सकता है। वह कभी चौकोर तो कभी तिकोनी दिख सकती हैपरंतु चित्रकार - रचित चारपाई एक ही ओर से देखी जा सकती है। वह बच्चों को बहलाने के लिए काफी हो सकती हैकितु बुद्धिमान या ज्ञानी के लिए वह सिर्फ भ्रम है।

 

3 अनुकृति का अनुकरण 

इस तरह कलाकार मात्र अनुकर्ता है। उसकी कला भ्रामक है और सत्य से तीन गुना दूर है। वह सत्य की तीसरी छाया को सत्य मान लेता है। अतः वह छाया चित्रकार है। वह बढ़ई या मोची को चारपाई बनाते या जूता सीते हुए चित्रित कर सकता हैकिंतु उनके पेशे से अनभिज्ञ ही रह सकता है। चारपाई कैसे बनाई जाती हैइसके बारे में उसे कोई ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार कवि जिस वस्तु का अनुकरण करता हैउसकी वास्तविक प्रकृति से परिचित नहीं होता। वह न अपने अनुकार्य की प्रकृति से परिचित होता है और न उसका सच्चा रूप अंकित कर पाता है। इसका आशय यह हुआ कि कला में जिन पदार्थों का चित्रण होता है वे केवल चर्म चक्षुओं से दिखाई पड़ने वाले विविध- रूपात्मक तथा क्षण-क्षण परिवर्तनशील पदार्थ होते हैंजबकि सत्य अपरिवर्तनशीलअमूर्त और एक है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि काव्य में अनुकरण की प्रक्रिया वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में नहींबल्कि आदर्श रूप में प्रस्तुत करती है।

 

जो कार्य चित्रकार तूलिका और रंगों से करता है वही कार्य कवि शब्दों द्वारा करता है। कवि भले ही अपनी प्रतिभा के बल पर श्रेष्ठ काव्य का सृजन करता होकिंतु वह जो कुछ भी चित्रित करता है वह प्रकृति के खुले हुए रंगमंच को देखकर उससे प्रेरणा लेकर करता है। अर्थात् कवि की रचना प्रकृति की चित्रशाला की अनुकृति होती है। प्रकृति स्वयं अरूप तत्व की रूपात्मक छवि है। अतः कवि का सत्य यथार्थ से पर्याप्त दूर है। काव्य तथा अन्य कलाओं द्वारा सत्य का निरूपण नहीं हो सकतायह मानकर ही प्लेटो ने काव्य को देव-स्तुतियों एवं महापुरुषों की प्रशस्तियों तक ही सीमित रखा।

 

प्लेटो के सिद्धांतों की आलोचना 

प्लेटो के सिद्धांतों की पाश्चात्य विद्वानों द्वारा पर्याप्त आलोचना की गई। उसके विचारों में अनेक दोष निकाले गए। उनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं-

 

1 प्लेटो के विचारों की समालोचना 

  • प्लेटो का सबसे बड़ा दोष यह है कि उसने अत्यधिक नैतिकता और दर्शन- ज्ञान की वेदी पर कला और सौदर्य का हनन किया। 
  • कला के क्षेत्र में भावुकता को कुछ मान्यता देते हुए भी उसने श्रव्य कला की भावुकता तीव्रता का उल्लेख नहीं किया। दृश्यकला में भावुकता की उतनी तीव्रता नहीं होती।
  • सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से यह आवश्यक नहीं कि सुंदर वस्तु हमेशा नैतिक ही हो अथवा नैतिक वस्तु हमेशा सुंदर ही हो। अतः कला के सौंदर्य का मानदंड नैतिकता नहीं हो सकती। 
  • काव्य या चित्र को नकल की नकल कहना अनुचित है। 
  • जिस आदर्श जगत की बात प्लेटो करते हैंउस तक सामान्य आदमी की बुद्धि की पहुँच नहीं है।

 

प्लेटो के काव्य विषयक विचारों को संक्षेप में इन बिंदुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है:

 

1. कवि दैवी प्रेरणा से आवेश में रचना करता हैपरंतु उसके वर्णन वास्तविक तथा तर्क आधारित नहीं रहते। वह प्रायः मानव वासनाओं को उभार कर लोगों को असंयतअनैतिकसंघर्षशील बनाता है। 

2. कवि का वर्णन सत्य न होकर भावुककाल्पनिकअतिरंजनापूर्ण होने से समाज को गलत दिशा में ले जाता है।

 3. प्लेटो ज्ञान और सत्य की प्रतिष्ठा करने वाले काव्य का स्वागत करता है। 

4. वस्तु के तीन रूप होते हैंआदर्शवास्तविक और अनुकृत । प्रकृति ईश्वर के आदर्श के आधार पर रची गई सृष्टि है और काव्य तथा कला उसकी अनुकृति हैंइसलिए सत्य से तीन गुना दूर हैं।

 

5. अनुकरण के दो रूप हैंएक वह तत्त्वजिसका अनुकरण किया जाता हैदूसरा अनुकरण का स्वरूप। यदि तत्त्व मंगलकारी है और अनुकृति उत्तम है तो वह स्वागत् योग्य है। लेकिन प्रायः अनुकृत्य अमंगलकारी तथा अनुकरण अधूरा होता हैइसलिए ऐसी कला हानिकारक होती है।

 

6. काव्य कला में वस्तु के साथ रूप (फॉर्म) का भी महत्व है। भाषालय तथा कला का संगठन तर्कसंगत समीचीन होना चाहिए।

 

प्लेटो के विचारों में अनेक दोष होते हुए भी दर्शन और काव्यशास्त्र में उसका महत्व कम नहीं होता। पाश्चात्य काव्यशास्त्र की नींव तैयार करने में उसका अमूल्य योगदान है। काव्य तथा कलाओं के संबंध में प्रश्न उठाकर उन्होंने साहित्यालोचन के चिंतनअध्ययन एवं विवेचन की पृष्ठभूमि तैयार की। अपनी तलस्पर्शी गहन प्रतिभा के बल पर आचार्य प्लेटो पर्ववर्ती आचार्यों के लिए प्रकाश स्तंभ बने। उनकी बहुत-सी बातों से असहमत हुआ जा सकता हैलेकिन उनकी मौलिक उद्भावनाओं को विस्मृत नहीं किया जा सकता। प्लेटो पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के प्रथम आलोचक हैजिसने तर्क और कल्पनासंयम और आवेशज्ञान और विज्ञान का सामंजस्य स्थापित करते हुए साहित्य के मूल तत्वों को समझने के लिए मनोविज्ञान का सहारा लिया। सर्वप्रथम उन्हीं के प्रयासों से काव्य में आध्यात्मिक तत्वों का समावेश हुआ। उन्होंने कलाकारों के लिए मानव जीवन के संपूर्ण ज्ञान को आवश्यक बताया तथा तत्कालीन साहित्यकारों का खोखलापन उद्घाटित किया। प्लेटो के बाद उनके शिष्य अरस्तू ने अनुकरण सिद्धांत की पुनर्व्याख्या करते हुए काव्य के नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।

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