प्लेटो और अरस्तू की तुलनात्मक समीक्षा
प्लेटो और अरस्तू की तुलनात्मक समीक्षा
हमने देखा कि प्लेटो और अरस्तू दोनों ने काव्य और कलाओं पर गहन चिंतन करके उसके विषय में कुछ सिद्धांत बनाए । दोनों आपस में गुरु-शिष्य तथा एक ही परंपरा के होते हुए भी दोनों की बातों में कई जगह अंतर भी दिखाई देता है। वे समान तथा असमान बिंदु क्या और क्यों हैं; आइए देखते हैं:
प्लेटो और अरस्तू की तुलना
1. मूलत: प्लेटो दार्शनिक थे और अरस्तू वैज्ञानिक, इसलिए दोनों के दृष्टिकोण में अंतर था। प्लेटो ‘प्रत्यय’ ज्ञान को ही सत्य मानता था; जबकि अरस्तू वस्तु जगत को भी इतना ही सत्य तथा मीमां समझता था।
2. प्लेटो की दृष्टि आदर्शपरक थी, अरस्तू की यथार्थपरक । अरस्तू ने विज्ञान की भाँति ही कला के उपादानों का भी विश्लेषण किया।
3. प्लेटो मानता था कि सुंदरतम कार्य प्रकृति द्वारा निष्पादित होते हैं, और कला द्वारा निष्पादित कार्य लघुतर होते हैं। अरस्तू ने सिद्ध किया कि जो कार्य प्रकृति द्वारा अनिष्पादित रह जाते हैं, कला उन्हें पूर्ण करती है।
4. प्लेटो राजनीतिक एवं नीतिपरक मूल्यों से प्रभावित होकर कला के विषय में विचार करते हैं; जबकि अरस्तू काव्यशास्त्र की सीमा में ही उस पर विचार करते हैं।
5. प्लेटो ने अनुकरण का संबंध वस्तु से जोड़ा था; अरस्तू ने कार्य व्यापार से जोड़ा।
6. प्लेटो ने कवि को अनुकर्त्ता बताया था, अरस्तू ने कवि को ‘कर्त्ता’ सिद्ध किया।
7. प्लेटो में मताग्रह तथा येनकेन प्रकारेण अपनी बात को प्रमाणित करने की चातुरी थी, अरस्तू में हठधर्मिता नहीं थी। वे निरपेक्ष भाव से अपनी बात रख देते थे।
प्लेटो और अरस्तू महत्त्व एवं प्रासंगिकता
1. अरस्तू की 'पोइटिक्स' रचना पर जितना विचार विमर्श हुआ, उतना पिछले 2300 वर्षों में संसार की किसी साहित्यिक कृति पर नहीं हुआ। यह अपूर्णप्राय अति लघु रचना इतने वर्षों के बाद आज तक जीवित ही नहीं; प्रासंगिक भी बनी हुई है।
2. अरस्तू का 'काव्यशास्त्र' प्राचीन ग्रीक काव्य पर आधारित होते हुए भी सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक सौंदर्यशास्त्रीय प्रश्नों को उठाने तथा कुछ सीमा तक उनका समाधान करने में भी सफल हुआ है।
3. दार्शनिक की तत्वदर्शिता और वैज्ञानिक की विश्लेषण प्रक्रिया के योग ने अरस्तू की दृष्टि निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ रखा है। उनका विषय निरूपण तथ्यानुसंधान की भावना से प्रेरित है।
4. अरस्तू की सबसे बड़ी देन काव्य की स्वायत्तता स्थापित करना है। चौथी - पाँचवी सदी ई०पू० यूनान की शास्त्रीय गतिविधियों में दर्शन की महत्ता सबसे अधिक थी। उसके बाद क्रमशः इतिहास, राजनीतिशास्त्र तथा आधारशास्त्र आदि थे। काव्य को इनमें कोई महत्व प्राप्त नहीं था। प्लेटो जैसे प्रभावशाली आचार्य की स्थापनाओं के विपरीत काव्य को इतिहास से अधिक दार्शनिक घोषित करना बहुत बड़े साहस का काम था। अरस्तू ने तर्कयुक्त प्रभाव से यह संभव कर दिखाया।
5. प्लेटो ने कवि को अनुकर्ता कहकर उसको महत्वहीन दिखाने की कोशिश की । सत्यान्वेषण प्रक्रिया में वह बढ़ई को कवि से ऊपर मानता है, लेकिन अरस्तू ने कहा कवि अनुकर्ता नहीं; वरन् कर्त्ता है। ईश्वर की तरह कवि भी काव्य जगत का निर्माणकर्त्ता है। यह दृष्टि भारतीय शास्त्रों की इस दृष्टि के समान है: “अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः।”
6. प्लेटो का अनुकरण नकल का पर्याय था; अरस्तू ने अनुकरण को 'आदर्शीकृत प्रतिरूप (आइडियलाइज्ड रिप्रेजेंटेशन) माना और कहा कि कवि जीवन का हूबहू चित्रण करता; बल्कि यथार्थ को रमणीयतर बनाकर प्रस्तुत करता है।
7. आनंद को काव्य और कला का प्रयोजन सिद्ध करके अरस्तू ने उसे नैतिक तथा शैक्षिक घेरे से बाहर निकाला। प्लेटो काव्य को समाज सुधार का साधन मानता था; वहीं अरस्तू आनंद प्राप्तिका माध्यम ।
8. आज की रूपवादी (फॉर्मेलिस्टिक) आलोचना के यूरोपीय उद्भावक अरस्तू ही हैं। उन्होंने काव्य के विषय के साथ उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम तथा पद्धति पर भी विचार किया और कथानक की संरचना से लेकर काव्य के भाषिक पक्ष तक को अपने विवेचन में समाहित किया।
9. अरस्तू के सूत्रों को पकड़कर बीसवीं शताब्दी ई0 में अमेरिका में दो आलोचना संप्रदाय विकसित हुए, जान क्रो रेन्सम आदि की अमेरिकी नव्य आलोचना (न्यू क्रिटिसिज़्म) तथा दूसरी के0जे0एस0क्रेन के नेतृत्व वाली शिकागो स्कूल की आलोचना।
10. अरस्तू की अभिव्यंजना सामान्यतः स्पष्ट, प्रांजल और अर्थ गर्भित है।
11. अरस्तू ने अपनी समीक्षा के आरंभ में सर्वांगीण विवेचन की बात की है, लेकिन उन्होंने केवल दुःखान्तक (ट्रेजेडी) की चर्चा की है। प्रगीत की चर्चा बिल्कुल भी नहीं की। महाकाव्य की चर्चा भी सिर्फ दुःखान्तक की श्रेष्ठता सिद्ध करने प्रसंग में ही की है।
12. अरस्तू के काव्यशास्त्र में काव्य भाषा पर विचार नहीं के बराबर हुआ है। जितना हुआ उसके आधार पर काव्यालोचन पूर्ण नहीं हो सकता।