अरस्तू और उनका काव्यशास्त्र |अरस्तू की काव्य विषयक मान्यताएं |Arastu Kavya Shashtra

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 अरस्तू और उनका काव्यशास्त्र 

अरस्तू और उनका काव्यशास्त्र |अरस्तू की काव्य विषयक मान्यताएं |Arastu Kavya Shashtra





 अरस्तू और उनका काव्यशास्त्र

प्रस्तुत इकाई में आप अरस्तू के साहित्य शास्त्र संबंधी विचारों और स्थापनाओं के विषय में ज्ञान प्राप्त करेंगे। प्लेटो के विद्वान शिष्य अरस्तू (ऐरिस्टोटल) ने प्लेटो के बाद उनके काव्य-विरोधी आरोपों का उत्तर देते हुए उन्हीं सिद्धांतों को नए रूप में प्रस्तुत किया। विशेष करके उनके अनुकरण सिद्धांत को । अनुकरण के साथ-साथ अरस्तू ने विरेचन सिद्धांत एवं काव्य विषयक कुछ अन्य बातें भी प्रतिपादित कीं। 

प्रस्तुत इकाई को पढ़ने के बाद आप महान विचारक अरस्तू के काव्य संबंधी विचारों की प्रासंगिकता एवं उनके महत्त्व को समझ सकेंगे

 

इस भाग में हम अरस्तू के जीवन तथा कार्यों के विषय में संक्षिप्त परिचय प्राप्त करेंगे।

 

अरस्तू का जीवन परिचय (384 ई0पू0 से 323 ई0पू0) 

अरस्तू का जन्म ईसा पूर्व 384 में उत्तरी यूनान के मैसीडोनिया प्रायद्वीप में हुआ था। वे पाश्चात्य दर्शन के व्यवस्थित चिंतन के प्रथम प्रवर्तक, यथार्थवादी, दार्शनिक तथा व्यापक ज्ञान के विश्वकोश माने जाते हैं। इनके पिता 'निकौमैकस' मैसीडोनिया के राजा सिकंदर महान के पितामह के राज चिकित्सक थे। चिकित्सक पिता के पुत्र होने के कारण अरस्तू 200 वर्ष पूर्व से प्रचलि चिकित्सा विज्ञान के जन्मजात उत्तराधिकारी बने ।

 

पिता की मृत्यु के पश्चात् 17 वर्ष की उम्र में अरस्तू को एथेंस स्थित प्लेटो की अकादमी में भेजा गया; जहाँ उन्होंने 20 वर्ष तक प्लेटो के संपर्क में रहकर विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। आगे चलकर सुकरात, प्लेटो और अरस्तू पाश्चात्य चिंतनधारा की तीन पीढ़ियों के महान विचारकों के रूप में विख्यात हुए। अरस्तू का लालन-पालन, संपन्न, सुसंस्कृत तथा अभिजात वातावरण में हुआ था। उनकी मेधा विस्मयजनक थी। गुरु (प्लेटो) तथा शिष्य (अरस्तू) अलौकिक बौद्धिक प्रतिभा के धनी थे। उनमें किसी भी विषय पर खूब वाद-विवाद होता था। 347 ई0पू0 में प्लेटो की मृत्यु के समय अरस्तू की उम्र 37 वर्ष थी। प्लेटो के सबसे प्रिय शिष्य तथा सबसे योग्य विद्वान होने के कारण उन्हें विद्यापीठ का आचार्य पद प्राप्त होने की आशा थी, परंतु अलग राज्य के होने के कारण ऐसा न हो सका। इससे अरस्तू को ठेस लगी। कुछ वर्ष एशिया माइनर में रहने के बाद वे अपने राज्य मकदूनिया चले गए। दोनों राज्यों के राजाओं से उन्हें प्रचुर धन प्राप्त हुआ; जिसे उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधानों में लगाया। उनके एक हजार सहायक विभिन्न स्थानों पर जाकर उनके अनुसंधानों के लिए सामग्री संकलन करते थे। मकदूनिया के राजा 'फिलिप' ने अपने पुत्र सिकंदर (महान) की शिक्षा का भार अरस्तू को सौंपा अरस्तू में अनुसंधान के साथ-साथ अध्यापन की पिपासा भी थी, इसलि सिकंदर के सिंहासनारूढ़ होने और विश्व - विजय अभियानों में लगने के बाद वे पुनः एथेंस चले गए। एथेंस उस समय का सर्वश्रेष्ठ बौद्धिक शैक्षिक केंद्र माना जाता था। वहाँ एक स्वतंत्र विद्यापीठ की स्थापना करके वे अपने छात्रों को विभिन्न विषयों की शिक्षा देने लगे । पूर्वाह्न में अध्यापन करते तथा अपराह्न में आम नागरिकों के बीच लोकप्रिय भाषण देते थे। 322 ई0पू0 में अरस्तू की मृत्यु हुई।

 

अरस्तू का काव्य शास्त्र 

अरस्तू के ज्ञान के विषय में प्रसिद्ध है कि उनका जितना अधिकार दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, काव्यशास्त्र, भाषणशास्त्र आदि पर था, उतना ही भौतिक विज्ञान, जीव-विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, मौसम-विज्ञान तथा मनोविज्ञान आदि पर भी था। उनके ग्रंथों की कुल संख्या चार सौ बताई जाती है, किंतु वे सभी उपलब्ध नहीं होते। उनके काव्यशास्त्र का यूनानी नाम 'पेरिपोइतिकेस' है; जो अंग्रेजी में अब 'पोइटिक्स' के नाम से प्रसिद्ध है। एथेंस के राजनैतिक पतन के बाद वहाँ के विद्यापीठों का महत्व भी क्षीण हो गया और ज्ञान, विज्ञान, कला आदि की कृतियाँ उपेक्षा के कारण या तो विनष्ट हो गईं अथवा विस्मृत हो गई। कई शताब्दियों बाद कुछ कृतियों का उद्धार हुआ। संयोग से 1000 वर्षों के बाद 'पेरिपोइएतिकेस' (पोइटिक्स) भी विद्वानों को उपलब्ध हो पाया। अब अंग्रेजी में इसके अनके अनुवाद और व्याख्याएं उपलब्ध हैं, जिनमें एस0एच0 बूचर (1894 ई0) तथा इन ग्रैम वाइकर (1898 ई0) के अनुवाद अधिक प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध हैं।

 

पैरिपोइएतिकेस’ (पोइटिक्स) लगभग पचास पृष्ठों की छोटी-सी पुस्तक है; जिसमें छब्बीस अध्याय हैं। पुस्तक की आकृति तथा विषयों की संक्षिप्त विवेचन पद्धति से ऐसा प्रतीत होता है कि यह अरस्तू द्वारा अध्यापन हेतु तैयार किए गए अथवा उनके छात्रों द्वारा लिखे गए 'नोट' हैं। इस संक्षिप्त, अपूर्ण और खंडित कृति में भी कुछ ऐसी विशेषता है कि यह आज तक उपजीव्य बना हुआ अरस्तू मूलतः वैज्ञानिक, तार्किक तथा दार्शनिक थे, इसलिए वे हमेशा विश्लेषण और युक्तियों के साथ विषय निरूपण करते थे। वे पहले विषय-वस्तु का तटस्थ दृष्टि से सम्यक् निरीक्षण- परीक्षण करते हैं, उसके बाद विवेचन और निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। उनकी मान्यता है कि किसी वस्तु को ठीक से समझने के लिए उसके प्रयोजन, उपादान कारण, निमित्त कारण तथा तत्व; इन चार बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। बिना प्रयोजन के किसी भी वस्तु का निर्माण नहीं होता। प्रयोजन पूरा करने के लिए उसके उपादान कारण अर्थात् साधन की आवश्यकता पड़ती है। उपादान से प्रयोजन सिद्धि हेतु उसके निष्पादक अर्थात् निमित्त कारण की आवश्यकता होती है और निष्पादक को उस वस्तु के तत्व का ज्ञान होना आवश्यक है। तत्व में उस वस्तु के समस्त लक्षण समाहित हैं। इसे वे घड़े के उदाहरण से समझाते हैं। जल रखने के प्रयोजन हेतु घड़े की आवश्यकता होती है। घड़े के प्रयोजन के ज्ञान के साथ ही मिट्टी रूपी उपादान की आवश्यकता पड़ती है। उसके बाद घड़ा बनाने वाले चाक तथा कुम्हार आदि निष्पादक अथवा निमित्त कारण भी जरूरी होते हैं। इसके साथ ही घड़े के तत्त्व का ज्ञान भी आवश्यक है। तत्त्व में वे सब बातें आ जाती हैं; जिसके कारण घड़ा 'घड़ा' बनता है। इस तत्त्व का ज्ञान कुम्हार से लेकर घड़ा खरीदने तथा उपयोग में लेने वाले तक सबके लिए आवश्यक है। इन चारों तत्वों के सम्यक् ज्ञान के बिना घड़े का सम्यक विवेचन संभव नहीं है। यही मानदंड अरस्तू काव्यशास्त्र पर भी लागू करते हैं। उन्होंने काव्य को प्रयोजन, उपादान, निमित्त और तत्व- निरूपण के रूप में व्याख्यायित किया है।

 

काव्यशास्त्र की रचना के मूल में अरस्तू के दो उद्देश्य रहे हैं: पहला अपनी दृष्टि से यूनानी काव्य का वस्तुगत विवेचन-विश्लेषण तथा दूसरा अपने गुरु प्लेटो द्वारा काव्य पर लगाए गए आक्षेपों का समाधान। लेकिन इस प्रसंग मंे अरस्तू ने न तो कहीं प्लेटो का नाम लिया है और न खण्डनात्मक तेवर अपनाया है तथा न ही गुरु के विचारों से अपने विचारों की तुलना करते हुए अपने विचारों को श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश की है। इसमें उनकी शालीनता प्रदर्शित होती है।

 

अरस्तू की काव्य विषयक मान्यताएं 

काव्यशास्त्र का आरंभ करते हुए अरस्तू कहते हैं: काव्य के सामान्य शीर्षक के अंतर्गत केवल काव्य पर ही नहीं; बल्कि काव्य के विविध भेदों, उनके विशिष्ट प्रयोजनों, कथानक की संरचना, उनके घटक खण्डों की संख्या, प्रकृति या इनसे संबंधित अन्य विषयों पर भी मैं विचार करना चाहता हूँ।अरस्तू ने कलाओं के तीन भेदक तत्व माने हैं: माध्यम, विषय और पद्धति। माध्यम के रूप में अरस्तू काव्य के लिए छंदों को अनिवार्य नहीं मानते। कोई रचना गद्य में है या में, यह प्रश्न काव्यत्व के विचार के प्रसंग में महत्वहीन है। देखना यह है कि काव्य का प्रयोजन क्या है। यदि प्रयोजन आनंद है तो वह काव्य है और यदि प्रयोजन सूचना या ज्ञान मात्र है तो वह अकाव्य है। इसे हम भारत के संस्कृत ग्रंथों के उदाहरण से समझ सकते हैं। संस्कृत में आयुर्वेद, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि ग्रंथों की रचना पद्य में हुई है, लेकिन वे काव्य नहीं माने जाते और बाणभट्ट, दण्डी आदि की गद्य रचनाएं भी काव्य मानी जाती हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य आनंद है, सूचना या ज्ञान नहीं।

 

अनुकरण का विषय मनुष्य है। अरस्तू की दृष्टि में अनुकरण का विषय कर्मरत मनुष्य (मैन इन है। मनुष्य तीन प्रकार के हो सकते हैं; उच्चतर, निम्नतर या बीच के। इसलिए मनुष्य का एक्शन) चित्रण भी तीन प्रकार का हो सकता है: श्रेष्ठतर, निम्नतर अथवा यथावत। श्रेष्ठतर मनुष्यों का चित्रण टे"जेडी (दुःखात्मक) रचनाओं में होता है और निम्नतर का कॉमेडी (प्रहसन) में। इस प्रकार ट्रेजेडी और कॉमेडी का भेद उनमें चित्रित मनुष्यों के आधार पर होता है।

 

काव्य का तीसरा भेद अनुकरण की पद्धति का है। पद्धति या तो आख्यानात्मक (नैरेटिव) हो सकती है; जिसमें कवि स्वयं कथानक का वर्णन करता है, या नाटकीय (ड्रामैटिक); जिसमें पात्रों को कार्य निरत दिखाया जाता है। तीसरी इन दोनों की मिश्रित पद्धति होती है। होमर के महाकाव्यों में इसी पद्धति का प्रयोग हुआ है।

 

इस प्रकार माध्यम, विषय और पद्धति ये तीन कलाओं के भेदक तत्व हैं।

 

अरस्तू कृत 'पोइटिक्स' में काव्य के स्वरूप, भेद और अंगों के बारे में व्यवस्थित विचार किया गया है। बाद के युगों में इसी की अवधारणाओं के आधार पर पश्चिमी देशों में काव्य तथा नाटक विषयक चिंतन का विकास हुआ। काव्यशास्त्र पर व्यवस्थित रूप से विचार करने वाली यह विश्व की प्रथम पुस्तक है।

 

'पोइटिक्स' के दो भाग हैं। पहले भाग में नाटक (ट्रैजेडी) तथा महाकाव्य (एपिक) पर विचार हुआ है और दूसरे में सुखांत (कॉमेडी) एवं काव्य के अन्य भेदों पर विचार हुआ है। दूसरा भाग अब उपलब्ध नहीं है। अरस्तू की दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्ध पुस्तक 'रैटोरिक' है। यह अलंकार और वक्तृत्व कला पर अरस्तू द्वारा दिए गए भाषणों का संकलन है। इसमें काव्य-कला का विवेचन नहीं है।

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