टी०एस० इलियट : जीवन परिचय कृतियाँ एवं काव्य सिद्धांत
टी०एस० इलियट : परिचय एवं सिद्धांत प्रस्तावना
प्रस्तुत लेख के अध्ययन के पश्चात आप आधुनिक पश्चिम के सामाजिक, सांस्कृतिक
एवं साहित्यिक परिवेश के अध्ययन के साथ-साथ महान विचारक इलियट के साहित्यिक अवदान
एवं प्रासांगिकता को समझ सकेंगे।
टी०एस० इलियट :तत्कालीन परिस्थितियाँ और साहित्यिक परिवेश
इलियट की गणना
बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली और समर्थ समीक्षकों में की जाती है। सन् 1915
से आपने लेखन प्रारम्भ करने वाले इलियट के समय का अंग्रेजी काव्य हासोन्मुख और
आलोचना दिशाहीन थी। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में रोमान्टिक कवियों (वर्ड्सवर्थ
कॉलरिज तथा शैली आदि) ने जिस आलोचना का सूत्रपात किया था उसमें कवि की वैयक्तिकता, भावना और कल्पना का प्राधान्य था। इसके बाद वैयक्तिकता के इस अतिरेक को
अवैयक्तिकता से संतुलित करने का प्रयास मैथ्यू आर्नल्ड ने किया लेकिन साहित्य की
अपेक्षा संस्कृति और काव्य की अपेक्षा धर्म की ओर उन्मुख होने के कारण आपेक्षित
सफलता उन्हें नहीं मिली। इसी दौरान 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में वाल्टर पेटर
(1809-93) और आस्कर वाइल्ड (1856-1900) द्वारा प्रवर्तित कलावाद (कला, कला के लिए) अपनी अतिवादी भंगिमा के साथ साहित्य में अवतरित हुआ। इन्हीं में
से सेन्ट्सबरी की आलोचना ऐतिहासिक और जीवनी मूलक थी अर्थात् आलोचना की पद्धतियों
में कवि की प्रधानता और कृति की गौणता थी।
इन सभी की
प्रतिक्रिया स्वरूप इलियट ने कहा कि सच्ची आलोचना तथा प्रशंसा का लक्ष्य कवि नहीं
बल्कि काव्य है। इसी एक कथ्य के माध्यम से इन्होंने पूरी एक शताब्दी की
व्यक्तिवादी आलोचना को चुनौती ही नहीं दी वरन् उसे एक नया मोड़ भी दिया। अपने लेख 'ट्रेडिशन एण्ड दि इन्डीविजुअल टेलैन्ट' के द्वारा
इन्होंने रोमान्टिक सम्प्रदाय की व्यक्तिवादिता के बदले परम्परा का महत्व स्थापित
किया और परम्परा के अन्तर्गत ही वैयक्तिक प्रज्ञा की सार्थकता प्रदर्शित की।
इससे इतर
साहित्यिक परिवेश की बात की जाए तो इलियट की सृजनशीलता, आलोचना, कर्त्तव्य की दृष्टि से ही नहीं अपितु कीर्ति
की दृष्टि से भी परस्पर सहायक और पूरक है। सन् 1915 में उनके लंदन पहुँचने पर
इन्हें दो समर्थ साहित्यिकारों के निकट संपर्क में आने का मौका मिला। टी०ई० ह्यूम
और जरा पाउन्ड, दोनों बिम्बवादी आन्दोलन के प्रतिभाशाली तथा
प्रभावशाली नेता थे। इन दोनों सम्पर्क में आते ही न केवल इलियट के चिंतन को एक नई
दिशा मिली अपितु उन्हें अपार यश भी प्राप्त हुआ।
‘दि वेस्टलैण्ड’ के प्रकाशित
होने से पूर्व इलियट की कुछ कविताएँ और समीक्षाएँ भी आयीं लेकिन पाठकों को अपनी और
आकृष्ट न कर सकीं। 1920 ई0 में इलियट की प्रथम आलोचनात्मक कृति ‘दि सैक्रेड वुड' में संग्रहीत
लेख 'ट्रेडिशन एण्ड दि इन्डिविजुअल टेलेन्ट' का प्रकाशन न
केवल इलियट के लिए अपितु अंग्रेजी साहित्य के लिए भी महत्वपूर्ण घटना साबित हुआ।
साहित्य जगत में इस कृति के माध्यम से इलियट ने अभूतपूर्व प्रतिष्ठा पाई।
टी०एस०इलियट : जीवन परिचय और महत्वपूर्ण कृतियाँ
पाश्चात्य
साहित्य जगत में युगान्तकारी और नवीनधारा का आगाज करने वाले विख्यात कवि, नाटककार तथा आंग्ल-अमरीकी नयी आलोचना के जनक टी०एस० इलियट का जन्म 26 सितंबर, 1888 में सेंटलुई(अमरीका) के प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इनके पितामाह
रेवरेण्ड ग्रीनलीफ इलियट वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के संस्थापक तथा 1872 ई0 में उसके
चांसलर थे। इनके पिता हेनरी वेयर इलियट एक व्यापारी तथा माँ कवयित्री थीं।
उनकी
प्रारम्भिक शिक्षा सेण्टलुई में और उच्च शिक्षा हारवर्ड में हुई। सन् 1909 में
बी0ए0 किया तथा एक दो वर्ष फ्रान्स में रहने के बाद सन् 1911 में हारवर्ड वापस
लौटकर भारतीय दर्शन का अध्ययन करने लगे। ये हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्रो0
इर्विंग बेबिट के शिष्य थे। इनके शिक्षकों में आयरविंग वैकिवट जैसे मानवतावादी
आलोचक तथा जार्ज सांतायना जैसे सौन्दर्यशास्त्री भी थे। इलियट पर इन दोनों
शिक्षकों का प्रभाव पड़ा। उनके अध्ययन के विषय पूर्व का दर्शन और संस्कृत थे। इनके
संस्कृत शिक्षक हारवर्ड के सुप्रसिद्ध विद्वान 'चार्ल्स
लैनमैन' थे।
इलियट समकालीन
अंग्रेजी कवियों में सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति रहे । हावर्ड के अतिरिक्त इनकी
शिक्षा सॉबोन ( फ्रांस), फिलिप्स
(जर्मनी) तथा ऑक्सफोर्ड (इंग्लैण्ड) विश्वविद्यालयों में भी कुछ समय सम्पन्न हुई।
अपना
कार्य-जीवन लड़कों के स्कूल में अध्यापन से शुरू करने वाले इलियट ने 'लायड्स बैंक' में कई वर्ष
क्लर्की की और अन्ततः सन् 1917 से पूर्णरूप से लेखन संपादन और प्रकाशन पर निर्भर
रहना शुरू कर दिया। सन् 1913 में इंग्लैण्ड में बसने के बाद इन्होंने ब्रिटिश
साहित्यिक पत्रिका ‘ईगोइस्ट’ के सहकारी संपादन का भार संभालते हुए सन् 1922 में त्रैमासिक समीक्षा- 'क्राइटेरियन' की स्थापना की
तथा 1925 में वे 'फेवर एंड फेवर' नामक प्रकाशन संस्थान से जुड़े और अन्ततः उसके निदेशक नियुक्त हुए।
ब्रिटिश
नागरिकता (सन् 1927 में) ग्रहण करने के बाद सन् 1948 में इनको साहित्य का नोबेल
पुरस्कार और ब्रिटिश 'ऑर्डर ऑफ
मेरिट' (ओ0एम0) की उपाधि भी मिली । इलियट दो बार अमरीकी विश्वविद्यालयों में विज़िटिंग
प्रोफेसर के रूप में भी आमंत्रित किये गये। आपने सन् 1928 में एंग्लिकन चर्च में
दीक्षा ली जिसका इलियट जीवन और चिंतन में विशेष महत्व समझा जाता है।
21वीं सदी के
कविता-आन्दोलन को गति और प्रौढ़ता प्रदान करने वाले कवि और आलोचक रहे इलियट की
प्रमुख रचनाएँ- 'द लव सॉंग ऑफ
एल्फर्ड प्रूफ्रॉक (1915), 'द वेस्ट
लैंड(1922) और 'फोर क्वार्ट्रेट्स' (1943) और
नाटकों में 'मर्डर' इन द कैथिड्रल' (1935), 'द फेमिली रीयूनियन' (1939) और 'द कॉकटेल पार्टी', (1950) विशेष
लोकप्रिय हुई। उनकी समालोचना में 'द सेक्रेड वुड' (1920), होमेज टु जॉन ड्राइडन 'एलिजाबेथेन एसेज' (1932), 'द यूज़ ऑफ पोएट्री एंड द यूज ऑफ क्रिटिसिज्म' (1933), 'सेलेक्टेड एसेज़' (1934) और 'एसेज एन्शेट एंड मार्डन' (1936) विशेष
प्रसिद्ध हुई।
काव्य, नाटक, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र
पर अपनी लेखनी चलाने वाले इलियट अपने बहुमुखी साहित्य-सृजन तथा मौलिक विचारों के
कारण अंग्रेजी साहित्य के बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के एक महान साहित्यकार
माने जाते हैं।
टी०एस० इलियट के काव्य - सिद्धान्त की अन्तर्वस्तु
साहित्य और
दर्शन के गहन अध्येता, कवि और
सुप्रसिद्ध समीक्षक टी०एस० इलियट बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली और समर्थ
समीक्षकों में गिने जाते हैं। इलियट अपना आदर्श साहित्य-चिन्तक अरस्तू को मानते
थे। इन्होंने साहित्य की प्राचीन मान्यताओं की पुनः स्थापना की। इन पर बिम्बवाद, प्रतीकवाद, कलावाद और अभिव्यंजनावाद का प्रभाव होने के
बाद भी साहित्य में इनके विचार बड़े सन्तुलित थे। बिम्बवादी आन्दोलन में तो एजरा
पाउण्ड और टी0एस0 इलियट का
महत्वपूर्ण
योगदान रहा। इन्होंने व्यक्तिगत दृष्टिकोण के स्थान पर वस्तुवादी दृष्टिकोण को
महत्व प्रदान किया। इनके काव्य-सिद्धान्त को कुछ इस प्रकार से समझा जा सकता है-
1 क्लासिकवाद
अर्थ एवं
अभिप्राय स्वयं को क्लासिकवादी कहने वाले इलियट क्लासिक का अर्थ परिपक्वता या
प्रौढ़ता मानते हैं। उनका निश्चित मानना था कि क्लासिक साहित्य की सृष्टि तभी हो
सकती है जब सभ्यता, भाषा और
साहित्य प्रौढ़ हो और स्वयं कृतिकार का मस्तिष्क भी प्रौढ़ हो । मस्तिष्क की
प्रौढ़ता के लिए इलियट ऐतिहासिक ज्ञान और इतिहास-बोध को जरूरी मानते थे। उनका
मानना था कि कवि और साहित्यकार को अपने देश और जाति के इतिहास के साथ-साथ अन्य
सभ्य जातियों का भी ज्ञान होना चाहिए । इलियट चरित्र की प्रौढ़ता को भी आवश्यक
मानते हैं, क्योंकि उसके बिना आदर्श चरित्र का निर्माण
नहीं हो सकता।
इसके साथ-साथ
इलियट उत्कृष्ट रचना के लिए भाषा की प्रौढ़ता को भी आवश्यक मानते हैं। भाषा प्रौढ़
हो इसके लिए वे पूर्ववर्ती महान् कवियों और साहित्यकारों की भाषा के अध्ययन को
अपेक्ष एवं महत्वपूर्ण मानते हैं। इलियट कहते है कि महान् कवि क्लासिक हो, यह आवश्यक नहीं। जहाँ महान् कवि केवल एक विधा में चरम उत्कर्ष तक पहुँचता है
और सदा के लिए उसकी सम्भावना को समाप्त कर देता है वहीं क्लासिक कवि वह है जो विधा
को ही नहीं, भाषा को भी पराकाष्ठा तक पहुँचाकर उसके आगे
के विकास की सम्भावना को समाप्त कर देता है। अतः क्लासिक कवि के लिए मस्तिष्क की
प्रौढ़ता, शील की प्रौढ़ता, भाषा-शैली की
प्रौढ़ता और दृष्टिकोण की सार्वभौमता अनिवार्य तत्व है। उसमें संकीर्णता और सीमित
धार्मिक चेतना नहीं होनी चाहिए। इलियट का क्लासिकवाद और तटस्थता का मत पूर्व के
स्वच्छन्दतावाद और व्यक्तिवाद के विरोध में था।
दूसरे चरण में
इलियट के परम्परा और इतिहास-बोध की बात की जाए तो वह परम्परा के अन्धानुकरण को
नहीं वरन् उसके बोध को जरूरी मानते हैं। ऐतिहासिक बोध से उनका आशय अतीत को वर्तमान
में देखना है क्योंकि इतिहास, वर्तमान के
परिप्रेक्ष्य में ही साहित्य के लिए प्रासंगिक होता है और जो आधुनिक दृष्टि में
प्रौढ़ता प्रदान करता है । इलियट का परम्परा ज्ञान से आशय रूढ़ि - पालन से नहीं था
क्योंकि उसके ज्ञान से उसके प्रति विद्रोह भी पैदा हो सकता है। लेकिन यह स्वीकार्य
करना चाहिए या उसके प्रति विद्रोह हो- यह तभी निश्चित हो सकता है, जब उसका सही ज्ञान हो। परम्परा का यही सही ज्ञान एक साहित्यकार को यह ज्ञान
देता है कि उसे क्या करना है तथा कृति का परम्परा के बीच मूल्य क्या है? अतः स्पष्ट हो जाता है कि इलियट का मौलिक दृष्टिकोण अतीत को वर्तमान में देखना
है।
2 नियैक्तिकता का सिद्धान्त
इलियट का
प्रसिद्ध लेख 'परंपरा और व्यक्ति प्रज्ञा' इलियट की
समस्त आलोचना का आधार है। इनका यह सिद्धान्त कला या कविता में निर्वैयक्तिकता बहुत
प्रसिद्ध हुआ । एज़रा पाउण्ड से प्रभावित इलियट का मानना था कि कवि को वैज्ञानिक
की भाँति निर्वैयक्तिक होना चाहिए। परम्परा का अनुसरण आवश्यक मानते हुए भी आप
वैयक्तिकता के विरोधी हैं। उनका मानना है कि परम्परा के ज्ञान से आत्मनिष्ठता
नियन्त्रित होती है। व्यक्तित्व के सिद्धान्त को न मानने वाले इलियट का मत है। कि
कवि अपने व्यक्तित्व का अध्ययन नहीं करता है, वह तो किसी
वस्तु की अभिव्यक्ति का विशिष्ट माध्यम मात्र है। ऐसे में उसका कर्त्तव्य बनता है
कि वह ईमानदारी के साथ अपने निजत्व से पलायन करके जिसका निरूपण कर रहा हो, उससे पूर्णरूप से एकनिष्ठ हो। वह कहते हैं कि वास्तव में कवि कविता नहीं लिखता, कविता तो स्वयं कवि के माध्यम से प्रकट होती है। समय के चलते उनके इन विचारों
में परिवर्तन भी हुआ और उन्होंने निर्वैयक्तिकता के दो रूप स्वीकार किये - प्रथम
वह जो कुशल शिल्पी मात्र के लिए सहज या प्राकृतिक होती है तथा दूसरी जो प्रौढ़
कलाकार द्वारा अधिकांश रूप में उपलब्ध की जाती है। अर्थात् उनका आशय है कि कवि के
यद्यपि निजी भाव होते हैं, पर वे इस
प्रकार अभिव्यक्त होते हैं कि सर्वसाधारण के भाव बन जाते हैं। यही कवि का
व्यक्तिगत से पलायन, निर्वैयक्तिकता
है।
3 कविता के तीन स्वर
कविता के तीन स्वर बताने वाले इलियट का कहना है कि प्रथम कविता वह है जिसमें कवि अन्य से नहीं स्वयं से बात करता है, द्वितीय वह जिसमें वह श्रोताओं से बात करता है और तृतीय वह जिसमें कवि स्वयं वक्ता न होकर पात्रों के माध्यम से श्रोताओं से बात करता है। इन्हें हम इस रूप में भी कह सकते है- 1. प्रगीत-काव्य, 2 प्रबन्ध काव्य तथा 3 नाटक इलियट का इस सम्बन्ध में विचार था कि कविता का अनुवाद नहीं किया जा सकता। वह (कविता) भाव-प्रधान होती है। प्रत्येक राष्ट्र और जाति की अनुभूति शक्ति की अपनी निजी विशिष्टता होती है।
अगर उसके
प्रथम प्रकार के स्वर को देखें तो कवि का लक्ष्य सम्प्रेषण अर्थात् दूसरों तक अपने
भाव पहुँचाना नहीं होता। वह तो एक प्रकार से भार से व्यथित रहता है और अपनी बात कह
उससे छुटकारा पाता है। इस प्रकार की कविता आन्तरिक वस्तु अपना रूप स्वयं निर्मित
करने में प्रवृत्त हो है तथा वस्तु और रूप साथ-साथ विकसित होते चलते हैं। इस
प्रकार की कविता के सम्बन्ध में इलियट कहते भी है कि कविता स्वयं अवतरित हो जाती
है, लिखी नहीं जाती। ऐसी स्थिति में कवि केवल माध्यम होता है। हिन्दी साहित्य की
नई कविता' इसी का प्रमाण है।
दूसरे स्वर
में कविता किसी सजग सामाजिक उद्देश्य, मनोरंजन या
उपदेश के लिए के लिए लिख जाती है। ऐसी कविताओं में कुछ अंश तक 'रूप' पूर्वनिर्धारित होता है। महाकाव्य में भी यही स्वर प्रधान होता है। उपर्युक्त
विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि दूसरे और तीसरे स्वरों की कृतियों को इलियट कवि की
अचेतावस्था में उद्भूत नहीं मानते। इसमें वह पूर्ण सजग होकर अपने व्यक्तित्व से
कृति का निर्माण करता है। वह व्यक्तित्व से पलायन नहीं करता वरन् व्यक्तित्व से
निर्माण करता है। इस सम्बन्ध में इलियट ने कहा भी है कि “यदि कवि ने निज से कभी कुछ नहीं कहा, तो उसकी कृति
कविता नहीं होगी, शानदार वक्त्व
भले ही हो किन्तु यदि कवि ने नितान्त अपने लिए कवि लिखी है, तो वह एक व्यक्तिगत और अपरिचित भाषा में होगी; जो कविता केवल
कवि के लिए होगी वह कविता नहीं हो सकती।” अतः स्पष्ट हो
जाता है कि सामान्यतः कविता में उपरोक्त सभी प्रकार के तत्व विद्यमान रहते हैं।
4 वस्तुनिष्ठ समीकरण का सिद्धान्त
जब भी कोई कवि
या साहित्यकार काव्य रचना में प्रवृत्त होता है तो उसके मूल में प्रेरक भाव कोई एक
ही रहता है परन्तु बाद में अनेक भाव, संवेदन तथा
विचार परस्पर मिलने लगते हैं और रचना के समापन तक न जाने कितने भावों, संवेदनों तथा विचारों का मिलन उसमें हो चुका होता है। कहने की आवश्यकता नहीं
कि इन अमूर्त भावों का प्रत्यक्षीकरण नही हो सकता और भावक को अप्रत्यक्ष की
अनुभूति नहीं हो सकती। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इन्हें अनुभूति के योग्य कैसे
बनाया जाए अर्थात् कवि के मन से श्रोता के मन तक संप्रेषण कैसे हो? इसी के समाधान हेतु इलियट ने मूर्त-विधान का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है कि
अमूर्त का संप्रेषण नही हो सकता, यह सिद्ध है।
ऐसे स्थिति में एक ही मार्ग है कि किसी मूर्त वस्तु की सहायता से अमूर्त को
संप्रेषित किया जाए। इलियट का इस सम्बन्ध में कथन है, 'कला में भाव प्रदर्शन का एक ही मार्ग है, और वह यह है
कि उसके लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण को प्रस्तुत किया जाये। दूसरे शब्दों में ऐसी वस्तु
संघटना, स्थिति, घटना- श्रृंखला प्रस्तुत की जाय जो उस नाटकीय
भाव का सूत्र हो; ताकि ये बाह्य
वस्तुएँ जिनका पर्यवसान मूर्त मानस- अनुभव में हो। जब प्रस्तुत की जायें तो तुरन्त
भावोद्रेक हो जाये। चाहें तो हम इलियट के इस वस्तुनिष्ठ समीकरण को विभाव-विधान भी
कह सकते हैं अर्थात् कलात्मक दृष्टि से यह अनिवार्य है कि भाव की अभिव्यक्ति के
लिए जैसा मूर्त-विधान अपेक्षित है वह वैसा ही हो, उसमें कोई कमी
त्रुटि न हो। यदि ऐसा हुआ तो भाव की सम्यक् अभिव्यक्ति नहीं हो पाएगी और अनुपात
रचना सदोष हो जाएगी। अन्ततः वस्तुनिष्ठता का सिद्धान्त पाश्चात्य साहित्य को इलियट
की एक महत्वपूर्ण आलोचनात्मक देन है।
टी०एस० इलियट के काव्य भाषा सम्बन्धी विचार
कोई भी रचना
हो वह अपने आप में किसी न किसी भाव को समाहित किए रहती है। कविता भाव- प्रधान होती
है। किसी भी राष्ट्र और जाति की अनुभूति-शक्ति की अपनी निजी विशिष्टता होती है
जिसकी अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से होती है। अनुवाद में उसका प्रभाव स्पष्ट हो
जाता है। इलियट भी यही कहते हैं कि कविता अनूदित नहीं हो सकती। ह्यूम ने कहा था कि
युग के साथ-साथ कवि की अनुभूति में भी परिवर्तन होता रहता है। अतः परम्पराबद्ध
भाषा कवि के नये दृष्टिकोण और भू को व्यक्त नहीं कर पाती। इसलिए कवि परम्परागत
भाषा को छोड़कर नयी भाषा का निर्माण करता है।
कवि की
अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा ही है। इसी के माध्यम से वह समाज को नवीन संवेदन-शक्ति
और भावानुभूतियाँ प्रदान करता है। इन नवीन संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए वह
परम्परागत भाषा से संघर्ष करता है और उसे अपनी अभिव्यक्ति के अनुकूल बनाता है, उसे शक्ति प्रदान करता है तथा शब्दों को नये अर्थ और मुहावरे देता है । कवि की
भाषा युग की भाषा के इतनी निकट होनी चाहिए कि श्रोता या पाठक उसे सुनकर या पढ़कर
कह उठें कि मैं भी इसी प्रकार से अपनी बात कह सकता। वे मानते थे कि आधुनिक युग की
कविता गाने के लिए नहीं बोलने के लिए लिखी जाती है, अतः उसका
सम्बन्ध बोलचाल की भाषा से होना चाहिए।
इन सभी विषयों
के साथ इलियट ने समीक्षा के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ लिखा है । इलियट के अनुसार
निष्पक्ष समीक्षा दार्शनिक विवेचक या निष्पक्ष समीक्षक ही कर सकता है, कवि नहीं। व तो केवल अपनी कविता के सम्बन्ध में कुछ विचार कर सकता है जिसका
केवल सीमित मूल्य है। आलोचक में सूक्ष्म व प्रचुर संवेदन शक्ति होनी चाहिए। वह
मर्मज्ञ, स्वतन्त्रचेता और पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए। समीक्षा का मूलभूत कार्य है
रचना की व्याख्या कर उसका बोध कराना तथा उसका आनन्द पाठकों को दिलाना। ऐसा करने से
वह लोक की साहित्यिक अभिरूचि बढ़ाता है।
समीक्षा और
समीक्षक के साथ इलियट ने धार्मिक साहित्य के सम्बन्ध में भी अपने विचार प्रस्तुत
किए। उनका मत है कि धार्मिक साहित्य में काव्यत्व हो सकता है; पर उसे काव्य के लिए पढ़ा नहीं जाता। जो कृति धर्म को काव्य के माध्यम से
प्रकट करती है वह उत्कृष्ट नहीं होती, वह प्रचार
काव्य है। परन्तु यदि किसी काव्य में बिना प्रयास धार्मिक प्रबुद्धता परिव्याप्त
हो, तो वह उत्कृष्ट काव्य हो सकता है। यदि किसी काव्य में नैतिक, धार्मिक और सामाजिक प्रबुद्धता स्वतः स्फुरित हो तो वह सर्वोत्तम काव्य है। जो
साहित्य हमें जीने की कला सिखाये, वह महान्
साहित्य है ।
उपर्युक्त
विवेचन से स्पष्ट है कि इलियट बीसवीं शताब्दी के समर्थ समीक्षक थे। उन्होंने
उत्कृष्ट और महान् साहित्य को कसौटी भी प्रदान की तथा उसके सृजन की प्रेरणा भी ।
टी०एस० इलियट का महत्व और प्रासंगिकता
इलियट की गणना
बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली और समर्थ समीक्षकों में की जाती है। वे आधुनिक
युग के न केवल सर्वश्रेष्ठ कवि हैं बल्कि आलोचनात्मक चित्तवृत्ति के समर्थ
व्याख्याता भी हैं। साहित्य के सम्बन्ध में उनके विचार बड़े सन्तुलित हैं।
उन्होंने व्यक्तिवादी दृष्टिकोण के स्थान पर वस्तुवादी दृष्टिकोण को महत्व प्रदान
किया।
अपने समय की
साहित्याभिरुचि पर इलियट का प्रभाव अप्रतिम है। आपने अंग्रेजी कविता के इतिहास में
दरबारी कविता के प्रति रूचि का तिरस्कार किया और परम्परा के महत्वपूर्ण रचनाकारों
और युगों का पुनर्मूल्यांकन किया। रोमांटिसिज्म के विरुद्ध अपनी तीव्र प्रतिक्रिया
के लिए वे हमेशा याद किये जायेंगं। मिल्टन और उनकी परंपरा की आलोचना करते हुए
उन्होंने दांते को, जेकोबियन
नाटककारों को, मेटाफिजिकल कवियों को, ड्राइडन और फ्रांसीसी प्रतीकवादियों को साहित्य की वास्तविक ‘महान परंपरा’ करार देते हुए
ऊँचे उठाया। काव्याभिरुचि में परिवर्तन की दृष्टि से उनक यह योगदान उल्लेखनीय माना
जाता है। इसमें आश्चर्य नहीं है कि उनके आक्षेपों और वाद-विवादों के केंद्र में
रहने के बावजूद बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आलोचक और 'कवि समीक्षा' के जनक के रूप
में इलियट का स्थान पश्चिमी आलोचना में आज भी सुरक्षित है और भविष्य में भी
सुरक्षित रहेगा।