हिन्दी उपन्यास का उद्भव व विकास प्रमुख उपन्यासकार | Hindi ke pramukh upnyashkaar

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हिन्दी उपन्यास का उद्भव व विकास प्रमुख उपन्यासकार

हिन्दी उपन्यास का उद्भव व विकास प्रमुख उपन्यासकार | Hindi ke pramukh upnyashkaar


हिन्दी उपन्यास का उद्भव व विकास प्रस्तावना 

उपन्यास के उद्भव और विकास के विषय में जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक हैं कि उपन्यास क्या है ? इसके कौन-कौन से तत्व हैं ? और उपन्यास कितने प्रकार के होते हैं ? साथ ही आपको यह जानना भी आवश्यक होगा कि हिन्दी उपन्यास का उद्भव और विकास कैसे हुआ ? तथा इसके विकास में किन-किन उपन्यासकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही ?

 

आपने 'हिन्दी गद्य का विकास' पढ़ते हुए देखा होगा कि हिन्दी गद्य का विकास कि तरह हुआ और किस तरह इस गद्य से हिन्दी की नई नई विधाओं का जन्म हुआ। हिन्दी कहानी के समान ही हिन्दी उपन्यास का इतिहास भी प्राचीन नहीं है। इस विधा का आरम्भ बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में हुआ। वैसे तो भारतेन्दु युग को ही हिन्दी उपन्यास को जन्म देने का श्रेय जाता है लेकिन इस युग से पूर्व 1877 में श्रृद्धाराम फुल्लौरी ने भाग्यवती उपन्यास लिखकर हिन्दी उपन्यास विधा का आरम्भ कर दिया था। हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लाला श्री विवास दास के परीक्षा गुरू" (1882) उपन्यास को हिन्दी के मौलिक उपन्यास की मान्यता प्रदान की। उन्होंने यह स्वीकार किया कि यही हिन्दी का प्रथम उपन्यास है। इसके पश्चात् हिन्दी भाषा में अनेक तिलिस्मी जासूसी और ऐयारी उपन्यासों को सृजन हुआ, लेकिन मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यासों से इस विधा को नया आयाम मिला। इस इकाई में हम तिलिस्मी, ऐयारी और जासूसी उपन्यासों से हटकर उन उपन्यासों के विषय में पढ़ेगे जो विशुद्ध रूप से हिन्दी उपन्यास स्वीकार किये जाते हैं।

 

उपन्यास शब्द उप+न्यास दो शब्दों के मेल से बिना है। जिसके 'उप' उपसर्ग का अर्थ होता है सामने निकट या समीप, और 'न्यास' का अर्थ है, धरोहर और रखना, इस आधार पर उपन्यास का अर्थ है एक लेखक अपने जीवन एवं समाज के आस पास जो कुछ भी देखता हो उसे अपने भाव विचार से कल्पना द्वारा सजा सँवार कर जिस विधा के माध्यम से हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है वही 'उपन्यास ' है । दूसरे शब्दों में जो साहित्यिक विधा जिसे पढ़कर यह हो कि इसमें वर्णित घटना हमारे निकट की नहीं अपितु हमारी है 'उपन्यास' कहलाती है।

 

उपन्यास आधुनिक जीवन के सत्य को निकटता से समझने और उसे काल्पनिक रूप प्रदान करने वाली विधा है। यद्यपि उपन्यास की कथा काल्पनिक होती है किन्तु वह जीवन के यथार्थ का स्पर्श करती है। इसके पात्र समाज से जुड़े व्यक्ति होते हैं। इसकी घटनाएँ हमारे ध् की होती है जिनमें एक तर्किक संगति होती है।

 

उपन्यास का जन्म पश्चिमी साहित्य से हुआ। पश्चिम के साहित्यकारों ने इस नयी विधा को जन्म दिया। समय-समय पर इसमें अनके परिवर्तन होते रहे। इसे सोद्देश्य लिखा जाता रहा और यह साहित्य की कहानी विधा का व्यापक रूप बन गया। पश्चिम से ही इसने भारतीय साहित्य में प्रवेश किया और आज यह हिन्दी साहित्य की प्रमुख विधाओं में से एक है। 

उपन्यास साहित्य के आचार्यों ने उपन्यास के निम्नलिखित तत्व निर्धारित किये हैं।

 

1. शीर्षक 

2. कथावस्तु कथानक 

3. कथोपकथन-संवाद योजना 

4. पात्र और चरित्र चित्रण 

5. देशकाल और वातावरण 

6. भाषा और शैली 

7. उद्देश्य

 

इन्हीं तत्वों के आधार पर उपन्यास की समीक्षा की जाती है। इन्हीं तत्वों को केन्द्र में रखकर उपन्यास विधा के आचार्यों ने उपन्यास के अनेक भेद किये हैं जिन्हें आपकी जानकारी के लिए संक्षेप में यहाँ दिया जा रहा है।

 

1. कथावस्तु के आधार पर उपन्यास 

(अ) बिषयवस्तु की दृष्टि से ऐतिहासिक उपन्यास, परिवारिक उपन्यास, सामाजिक उपन्यास और पौराणिक उपन्यास । 

(ब) वर्णन शैली की दृष्टि से घटना प्रधान उपन्यास एवं भाव प्रधान उपन्यास।

 

2. चरित्र चित्रण पर आधारित उपन्यास 

3. देशकाल और वातावरण पर आधारित उपन्यास 

4. भाषा शैली पर आधारित उपन्यास 

5. उद्देश्य पर आधारित उपन्यास ।

 

उपन्यास विधा पर की गई इस शास्त्रीय चर्चा के पश्चात् अब हम आपको हिन्दी उपन्यास के उद्भव से परिचित कराऐंगे।

 


हिन्दी उपन्यास का उद्भव 

अब तक आपने उपन्यास के स्वरूप के विषय में जानकारी प्राप्त की। इन जानकारियों से आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उत्पन्न हो रहे होंगे कि क्या हिन्दी उपन्यास में समयानुकूल अनेक परिवर्तन हुए होंगे? आपके मन में इस प्रश्न का उभरना स्वाभाविक है। लेकिन इसका उत्तर जानने से पूर्व हमें हिन्दी उपन्यास के उद्भव के विषय में जानना भी आवश्यक हो जाता है। जैसा आपको ज्ञात होगा कि हिन्दी कहानियों के अध्ययन करते समय आपको हम पूर्व भी यह जानकारी दे चुके है कि भारत में कथा साहित्य की परम्परा प्राचीन काल से ही रही है। रामायण, महाभारत, उपनिषद् आदि ग्रन्थ अनेक कथा कहानियों से भरे पड़े हैं लेकिन हिन्दी साहित्य में जिस कहानी को हम आज पढ़ते या सुनते हैं उसके बीज पश्चिमी साहित्य से भारतीय साहित्य में आये। इसीलिए वर्तमान के हिन्दी उपन्यास भी कहानी विधा की भाँति ही पश्चिमी साहित्य की देन है। तभी तो हिन्दी उपन्यास का इतिहास भी कहानी साहित्य के इतिहास की भाँति बहुत प्राचीन नहीं है। जैसा हिन्दी साहित्य के इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि हिन्दी साहित्य की इस विधा का जन्म भारतेन्दु युग में हुआ। पहले तो बंगला उपन्यासों के अनुवाद द्वारा हिन्दी उपन्यास साहित्य की नींव रखी गई और इसके पश्चात् भारतेन्दु युग में अनेक उपन्यासकारों ने अपनी लेखनी से हिन्दी उपन्यास की शून्यता को समाप्त किया।

 

हिन्दी उपन्यास का विकास 

पूर्व भी आपको बतला चुके हैं कि भारतेन्दु युग में जिस प्रकार अन्य गद्य विधाओं का जन्म हुआ उसी प्रकार हिन्दी उपन्यास भी अस्तित्व में आया। उस समय के शीर्ष साहित्यकार भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने अनेक साहित्यकारों को इस विधा पर लेखनी चलाने के लिए प्रोत्साहित किया। इसी के परिणाम स्वरूप लाल श्री निवासदास ने 'परीक्षा गुरू' नामक वह उपन्यास लिखा जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास स्वीकार किया जाता है। इनके पश्चात् अनेक लेखकों ने इस विधा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। मुंशी प्रेमचन्द इसी उपन्यास विधा को आगे बढाने में प्राणप्रण से जुट गए इसीलिए हिन्दी उपन्यास के इतिहासकारों ने मुंशी प्रेमचन्द को केन्द्र में रखकर हिन्दी उपन्यास के विकास क्रम पर अपनी लेखकी चलायी। इन्होंने हिन्दी के उपन्यास साहित्य का इतिहास लिखते समय इसे तीन चरणों में विभक्त किया।

 

1. प्रेमचन्द पूर्व युग के हिन्दी उपन्यास

 2. प्रेमचन्द युग के हिन्दी उपन्यास 

 3. प्रेमचन्दोत्तर युग के हिन्दी उपन्यास

 

1 प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास और उपन्यासकार :- 

हिन्दी का प्रथम उपन्यास किसे स्वीकार करे? विद्वानों में इस बात पर पर्याप्त मतभेद है। लेकिन यह सत्य है कि प्रेमचन्द पूर्व युग में उपन्यास लेखन की परम्परा प्रारम्भ हो गई थी। कुछ विद्वान रानी केतकी की कहानी को हिन्दी का प्रथम उपन्यास स्वीकारते हैं। लेकिन इसके लेखक इंशा अल्ला खाँ ने इसके शीर्षक पर 'कहानी' शब्द जोड़कर इसके उपन्यास होने की सम्भावना को समाप्त कर दिया। सन् 1872 में जब श्री श्रृद्धाराम फिल्लौरी ने 'भाग्यवती' नामक कृति की सर्जना की तो कुछ विद्वानों ने इसे हिन्दी का प्रथम उपन्यास स्वीकारा लेकिन इसमें औपन्यासिक ने तत्वों के अभाव ने इसे भी उपन्यासों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने इतिहास में परीक्षा गुरू को हिन्दी का प्रथम उपन्यास स्वीकार किया लेकिन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भारतेन्दु के 'पूर्ण प्रकाश' और 'चन्द्रप्रभा' को हिन्दी का प्रथम उपन्यास मानकर आचार्य शुक्ल के द्वारा 'परीक्षा गुरू' को हिन्दी का प्रथम उपन्यास मानने पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। आचार्य द्विवेदी भले उक्त दोनों उपन्यासों को हिन्दी के प्रथम उपन्यास स्वीकार करें लेकिन विद्वान इन दोनों उपन्यासों पर मराठी और बंगला की छाया मानते हैं।

 

यद्यपि प्रेमचन्द पूर्व युग के विद्वान बहुत समय तक लाला श्रीनिवासदास के उपन्यास 'को हिन्दी के प्रथम उपन्यास के रूप में आदर देते रहे। लेकिन बाबू गुलाब राय जैसे 'गुरू'" “परीक्षा विद्वान इस पर हितोपदेश की छाया देखते हैं। जिसमें हितोपदेश की सी उपदेशात्मकता और बीच-बीच में श्लोंको की उपस्थिति इसे एक मौलिक उपन्यास की मान्यता से वंचित करती है। इस उपन्यास के अतिरिक्त इस युग में बाबू राधाकृष्णदास का निःसहाय हिन्दु' और पंडित बालकृष्ण भट्ट के 'नूतन ब्रह्मचारी तथा सौ अजान एक सुजान' जैसे उपन्यास चर्चित रहे। इसी श्रृंखला में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि पंडित अयोध्यासिंह 'हरिऔध' उपाध्याय का वेनिस का बाँक तथा ठेठ हिन्दी का ठाट' पंडित गोपालदास बरैया का 'सुशीला', लज्जाराम मेहता का धूर्त रसिकलाल, गोपाल राम गहमरी का 'सास पतोहू' तथा किशोरीलाल गोस्वामी का 'लबंग लता' काफी चर्चित उपन्यास रहे। ये उपन्यासकार अपने युग के चर्चित उपन्यासकार रहे हैं। इन उपन्यासकारों का संक्षिप्त परिचय और उनके द्वारा लिखे गए उपन्यासों का उल्लेख हम यहाँ पर इस प्रकार करेंगे।

 प्रेमचन्द पूर्व युग के प्रमुख हिन्दी उपन्यासकार

1. देवकी नन्दन खत्री (सन् 1861-1913) - 

हिन्दी के प्रेमचन्द से पूर्व के उपन्यासकारों में देवकी नन्दन खत्री का नाम काफी चर्चित है। इनके सभी उपन्यासों में घटना - बाहुल्य तिलिस्म और ऐयारी की बातों पर जोर दिया गया है। इनके उपन्यास मौलिक उपन्यास हिन्दी भाषा में लिखे गए इनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए उर्दू जानने वालों ने हिन्दी सीखी। इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं- चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति, भूतनाथ (पहले छः भाग) काजल की कोठरी, कुसुम कुमारी, नरेन्द्र मोहिनी 'गुप्त गोदना' वीरेन्द्रवीर आदि। इन उपन्यासों के कारण हिन्दी भाषा का विस्तार हुआ। और हिन्दी उपन्यास विधा हुई।

 

2. गोपाल दास गहमरी - 

श्री गोपालदास गहमरी ने हिन्दी में अनेक जासूसी उपन्यासों का अनुवाद किया। उन्होने अपने जीवन काल में एक जासूसी पत्रिका भी निकाली जिसका नाम था जासूस’, इस पत्रिका में अनेक जासूसी उपन्यास और कहानियाँ प्रकाशित होती थी।

 

3. किशोरी लाल गोस्वामी - 

(सन् 1865-1932) श्री किशोरी लाल गोस्वामी साधारण जनता की अभिरूचि के उपन्यास लिखते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में 'लवंगलता', कुसुम कुमारी, अंगूठी का नगीना, लखनऊ की कब्र, चपला, तारा, प्राणदायिनी आदि साठ से अधिक उपन्यास लिखे। इनके उपन्यासों में साहित्यिकता अधिक है लकिन सामान्य पाठक की रूचि को उदार बनाने की विशेषता को न उभार सकने के कारण ये इनके उपन्यास मात्र बौद्धिक वर्ग की रूचि का परिष्कार करते हैं।

 

4. बाबू ब्रजनन्दन सहाय 

बाबू ब्रजनन्दन सहाय ने अपने जीवन काल में 'सौन्दर्योपासक' आदर्श मित्र जैसे चार उपन्यास लिखे। इनके उपन्यासों में घटना वैचित्रय और चरित्र चित्रण की अपेक्षा भावावेश की मात्रा अधिक है। 

इन उपन्यासकारों के अतिरिक्त उस युग में अनेक उपन्यासकारों ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखकर हिन्दी उपन्यास विधा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, इनमें श्री गंगा प्रसाद गुप्त का 'पृथ्वीराज चौहान' और श्री श्याम सुन्दर वैद्य का 'पंजाब पतन' जैसे उपन्यास काफी चर्चित रहे। प्रेमचन्द पूर्व युग के उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में आदर्शवाद के साथ भावुकता तथा भारतीय आदर्श को उभारते का प्रयत्न किया है। 


2 प्रेमचन्द युग के हिन्दी उपन्यास :- 

हिन्दी उपन्यास के क्षत्र में 'प्रेमचन्द' के आगमन से एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात हुआ। इस युग के उपन्यासकारों ने जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करने का कार्य किया। इस युग का प्रारम्भ प्रेमचन्द के सेवा सदन' नामक इस उपन्यास से हुआ जिसे सन् 1918 में लिखा गया था। वैसे तो पूर्व में मुंशी प्रेमचन्द ने आदर्शवादी उपन्यास लिखे लेकिन बाद में ये यथार्थवादी उपन्यास लिखने लगे। इन्होंने अपने उपन्यासों में सामाजिक समस्याओं को स्थान दिया। इस युग के प्रतिनिधि उपन्यासकार होने के कारण मुंशी प्रेमचन्द से प्रेरणा पाकर कई उपन्यासकार हिन्दी उपन्यास विधा को आगे बढ़ाने लगे। इनमें कुछ यथार्थवादी उपन्यासकार थे आदर्शवादी । 


प्रेमचन्द युग के प्रमुख उपन्यासकार

1. उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द (सन् 1881-1936) - 

हिन्दी में चरित्र प्रधान उपन्यास लिखने में मुंशी प्रेमचन्द की चर्चा सबसे पहले होती है । हिन्दी उपन्यास का क्रमबद्ध और वास्तविक विकास प्रेमचन्द के उपन्यास साहित्य से ही होता है। इससे पूर्व के उपन्यास या तो मराठी-बंगला और अंग्रजी के अनुदित उपन्यास थे या तिलिस्मी, एय्यारी और जासूसी उपन्यास । लेकिन प्रेमचन्द के उपन्यासों में इन सबसे हटकर जो सामाजिक परिदृश्य उत्पन्न हुए उनसे हिन्दी उपन्यास विधा को एक नई दिशा मिली। मुंशी प्रेमचन्द ने अपने जीवन काल में तीन प्रकार के उपन्यास लिखे। इनकी पहली श्रेणी में आने वाले उपन्यास 'प्रतिज्ञा' और 'वरदान' है जिन्हें इन्होंने प्रारम्भिक काल में लिखा। दूसरी श्रेणी के उपन्यास 'सेवा सदन', निर्मला और गबन, है। इस श्रेणी के उन्यासों में मुंशी प्रेमचन्द द्वारा सामाजिक समस्याओं को उभारा गया है। तीसरी श्रेणी के उपन्यास- प्रेमाश्रय, रंगभूमि, कायाकल्प कर्मभूमि और गोदान है। इस श्रेणी के उपन्यासों में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने जीवन के एक अंश नहीं वरन् सम्पूर्ण जीवन को एक साथ देखा है। इनके ये सभी प्रकार के उपन्यास किसी एक वर्ग- विशेष तक सीमित नहीं वरन समाज के सभी वर्गों तक फैले हैं। प्रेमचन्द के इन उपन्यासों में कहीं तो दहेज प्रथा तथा वृद्धावस्था के विवाह से उत्पन्न शंका और अविश्वास के दुष्परिणाम उभरते हैं तो वहीं आभूषण की लालसा और उसके दुष्परिणामों सामने आ दिखायी देते हैं। 'सेवा सदन' और 'निर्मला इसके उदाहरण हैं। इसी तरह रंगभूमि, कायाकल्प और कर्मभूमि में भारत की तत्कालीन राजनीति की स्पष्ट छाप दिखायी देती हैं। इन उपन्यासों में अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध चल महात्मा गाँधी के सत्याग्रह आन्दोलन और समाज सुधार की झलक स्थान-स्थान पर उभरती है। इन उपन्यासों की भाँति 'प्रेमाश्रय' जैसे उपन्यास तत्कालीन जमीदारी प्रथा और कृषक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है। 'गोदान', प्रेमचन्द जी का सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास हैं, जिसे विद्वानों ने ग्राम्य जीवन के महाकाव्य की संज्ञा दी है। 'गोदान' को अगर हम प्रेमचन्द युगीन भारत की प्रतिनिधि कृति कह दें, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

 

2. जयशंकर प्रसाद (सन् 1881 - 1933 ) - 

प्रेमचन्द युगीन उपन्यासों में जयशंकर प्रसाद का भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने मात्र उपन्यास ही नहीं कहानियाँ भी लिखी, लेकिन इनकी सभी कहानियाँ आदर्शवादी कहानियाँ हैं; जबकि उपन्यास यथार्थ के अत्यन्त निकट है। प्रसाद जी ने अपने जीवन काल में तीन उपन्यास लिखे। इन उपन्यासों में तितली और कंकाल पूरे और 'इरावती' अधूरा उपन्यास है। प्रसाद जी एक सुधारवादी उपन्यासकार थे इसलिए वे लोगों का ध्यान समाज में फैली बुराइयों की ओर आकृष्ट कर उनसे बचे रहने के लिए सजग करते थे। इनका 'कंकाल' नामक उपन्यास गोस्वामी के उपदेशों के माध्यम से हिन्दु संगठन और धार्मिक तथा सामाजिक आदेश को स्थापित करने का प्रयत्न करता है। इसी संदर्भ में इनका तितली उपन्यास ग्रामीण जीवन की झाँकी और ग्रामीण समस्याओं को प्रस्तुत करता है। इरावती इनका ऐतिहासिक उपन्यास जो इनके आसामायिक निधन से अधूरा ही रह गया।

 

3. पंण्डित विश्वम्भर नाथ शर्मा 'कौशिक' (सन् 1891-1945 ) - 

पंडित विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक' उपन्यासकार और कहानीकार दोनों ही थे। 'मिखारिणी', माँ, और संघर्ष, इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं, तो मणिमाला और 'चित्रशाला' इनके प्रसिद्ध कहानी- संग्रह 'माँ' आपका सफलतम उपन्यास है।

 

4. सुदर्शन (सन् 1869-1967) 

श्री 'सुदर्शन' का पूरा नाम पंडित बदरीनाथ भट्ट था। ये - पहले उर्दू में लिखते थे और बाद में हिन्दी कथा साहित्य में अवतीर्ण हुए। इनके अमर अभिलाषा' और 'भागवन्ती' अन्यन्त लोकप्रिय उपन्यास है। इनके उपन्यास और कहानियों में व्यक्तिगत और परिवारिक जीवन समस्याओं का चित्रण मिलता है। ये भी प्रेमचन्द की भाँति आदर्शोन्मुख यथार्थवादी थे।

 

5. वृन्दावन लाल वर्मा (सन् 1891 1969 ) - 

श्री वृन्दावन लाल वर्मा ऐतिहासिक उपन्यास कार है। इन्होंने अपने जीवन काल में, 'गढ़-कुण्डार' विरादा की पद्मिनी, मृग नयनी, माधवजी सिन्धिया, महारानी दुर्गावती, रामगढ़ की रानी, मुसाहिबजू, ललित विक्रम और अहिल्याबाई जैसे ऐतिहासिक उपन्यास लिखे तो कुण्डली चक्र, सोना और संग्राम, कभी न कभी, टूटे काँटे, अमर बेल, कचनार जैसे उपन्यास भी हैं जिनमें प्रेम के साथ साथ अनके सामाजिक समस्याओं पर भी खुलकर लिखा गया है। 'झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई' इनका प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास है जिसे लोकप्रियता में किसी अन्य उपन्यास से कम नहीं आँका जा सकता।

 

6. मुंशी प्रताप नारायाण श्रीवास्तव

 शहरी जीवन पर अपनी लेखनी चलाने वाले मुंशी प्रताप नारायण भी प्रेमचन्द युगीन उपन्याकारों के मध्य सदैव समादृत रहे हैं। इन्होंने अपने जीवन काल में, विदा, विकास, और विलय, नाम तीन उपन्यास लिखे। मुंशी प्रताप नारायण श्रीवास्तव ने इन तीनों उपन्यासों में एक विशेष सीमा में रहकर स्त्री स्वतन्त्रता का पक्ष लिया।

 

7. चण्डी प्रसाद हृदयेश - 

श्री हृदयेश एक सफल कहानी कार और उपन्यास रहे हैं। इनके मंगल प्रभात 'और 'मनोरमा' नामक दो उपन्यास हैं । कवित्व शैली में रची गई इनकी कृतियों में 'नन्दन निकुंज' और " वनमाला नामक दो कहानी संग्रह भी हैं। आपकी कथा शैली की तुलना अधिकांश विद्वान संस्कृत के गद्यकार बाण भट्ट की कथा शैली से करते हैं।

 

8. पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' (सन् 1900-1967) - 

पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' प्रेमचन्द युगीन उपन्यासकारों के मध्य में अपनी एक विशिष्ट शैली के लिए काफी चर्चित रहे । 'चन्द हसीनों के खतूत' दिल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी, शराबी, जीजीजी, घण्टा, फागुन के दिन चार आदि आपके महत्वपूर्ण किन्तु चटपटे उपन्यास हैं। आपने महात्मा ईसा नामक एक नाटक और 'अपनी खबर' नामक आत्म कथा लिखी जो काफी चर्चित रही।

 

9. जैनेन्द्र कुमार (सन् 1905-1988 ) -

जैनेन्द्र कुमार द्वारा उपन्यास के क्षेत्र में नयी शैली का सूत्रपात किया गया। इनके उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक चित्रण की एक विशेष शैली दिखायी पड़ती है। तपोभूमि, परख, सुनीता, सुखदा, त्यागपत्र, कल्याणी, मुक्तिबोध, विवरण, व्यतीत, 'जयवर्धन, अनाम स्वामी, आदि आपके अनेक उपन्यास हैं। उपन्यासों के अतिरिक्त आपके वातायन, एक रात, दो चिड़ियाँ और नीलम देश की राजकन्या जैसे कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए। आने हिन्दी साहित्य को लगभग एक दर्जन उपन्यासों, दस से अधिक कथा- संकलनों, चिन्तनपरक निबन्धों तथा दार्शनिक लेखों से समृद्ध किया। स्त्री पुरूष सम्बन्धों, प्रेम विवाह और काम-प्रसंगों के सम्बन्ध में आपके विचारों को लेकर काफी विवाद भी हुआ। जैनेन्द्र जी को 'भारत का गोर्की' माना जाता हैं। आपकी कई रचनाओं को पुरस्कृत भी किया गया।

 

10. शिवपूजन सहाय (सन् 1893 1963 ) - 

श्री शिवूजन सहाय प्रायः सामाजिक विषयों पर लेख लिखते थे। इन्होंने 'देहाती दुनियाँ' नामक एक आंचलिक उपन्यास लिखा।

 

11. राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह (सन् 1891-1966) - 

राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह ने अपने जीवन काल में 'राम-रहीम' नामक वह प्रसिद्ध उपन्यास लिखा जिसकी कथा शैली ने सहृदय पाठकों को इसकी और आकृष्ट किया। इसके अतिरिक्त आपने चुम्बन और चाँटा, पुरूष और नारी, तथा संस्कार जैसे उपन्यास लिखकर हिन्दी उपन्यास विधा को और समृद्ध किया।

 

प्रेमचन्द के युग मे हिन्दी उपन्यास विविध मुखी होकर निरन्तर विकास उन्नत शिखरों को स्पर्श करने लगा। इस युग में उपरोक्त उपन्यासकारों के अतिरिक्त महाप्राण निराला, राहुल सांकृत्यायन, चतुरसेन शास्त्री, यशपाल, भगवती चरण वर्मा, भागवती प्रसाद वाजपेयी आदि लेखक-कवियों ने उपन्यास लेखन प्रारम्भ किया, लेकिन प्रेमचन्दोत्तर युग में ही इन्हें विशेष प्रसिद्धि मिली।

 

3 प्रेमचन्दोत्तर युग के हिन्दी उपन्यास :- 

जैसा आप जानते होंगे कि मुशी प्रेमचन्द को हिन्दी उपन्यास का प्रवर्तक कहा जाता है। इन्ही प्रेमचन्द के प्रभामण्डल से आकर्षित होकर कालान्तर में अनेक उपन्यासकारों ने अपनी रचनाओं से हिन्दी उपन्यास संसार का भण्डार भरा। इन सभी उपन्यासकारों ने युगीन परिधि से हटकर हिन्दी उपन्यास को नई - नई दिशाओं की ओर अग्रसर किया। पूर्व में इन उपन्यासकारों पर गाँधीवाद का प्रभाव पड़ा। लेकिन बाद में कार्ल मार्क्स, फ्रायड आदि के प्रभाव स्वरूप इन्होंने प्रगतिवादी और मनोविश्लेषणवादी विचार धारा के अनुकूल उपन्यास लिखे। 


प्रेमचन्दोत्तर युग के प्रसिद्ध उपन्यासकार निम्नलिखित हैं-

 

1. भगवती चरण वर्मा (सन् 1903-1981 )- 

भगवती चरण वर्मा प्रेमचन्दोत्तर युग के प्रतिनिधि उपन्यासकार है। सन् 1927 में इनके 'पतन' और सन् 1934 में 'चित्रलेखा' नामक उपन्यास प्रकाशित हुए। इनका 'चित्रलेखा' उपन्यास एक ऐसा उपन्यास है जिस पर दो बार फिल्में बनी। यह पाप-पुण्य की परिभाषा देने वाला उपन्यास बन गया। साहित्य जगत में जिसकी सर्वत्र धूम मच गई। इन उपन्यासों के अतिरिक्त वर्मा जी ने 'तीन वर्ष' 'आखिरी दाँव', टेढ़े-मेढ़े रास्ते, सामर्थ्य और सीमा, वह फिर नहीं आयी, सबहिं नचावत राम गोसाई, भूले बिसरे चित्र, रेखा, युवराज चुण्डा, प्रश्न और मरीचिका, सीधी-सच्ची बातें, चाणक्य आदि उपन्यासों में वर्मा जी ने सामाजिक सम्बन्धों और अन्तर्मन की परतों को खोलने में पूर्णत: सफलता पाई।

 

2. आचार्य चतुरसेन शास्त्री (सन् 1891-1961) - 

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने हृदय की प्यास, हृदय की परख, गोली, सोमनाथ, वैशाली की नगरवधू, धर्मपुत्र, खग्रास, वयं रक्षाम:, आत्मदाह, मन्दिर की नर्तकी, आदि उपन्यास लिखकर प्रेमचन्दोत्तर युग के उपन्यास साहित्य को समृद्ध करने में जो भूमिका निभायी है इसकी जितनी प्रशंसा की जाय वह कम ही है। आचार्य जी ने अपने कथा साहित्य की अधिकतर सामग्री इतिहास से उठायी है। तत्सम् शब्दावली से युक्त इनकी भाषा इस युग के अन्य उपन्यासकारों से भिन्न है। पुराण

 

3. भगवती प्रसाद वाजपेयी (सन् 1899-1973)- 

श्री भगवती प्रसाद वाजपेयी ने अपने जीवन काल में "प्रेमपथ, प्यासा, कर्मपथ, चलते-चलते, निमन्त्रण, दो बहिने, परित्यक्ता, यथार्थ से आगे, गुप्तधन, विश्वास का बल, टूटा टी सेट, आदि उपन्यास लिखकर औपन्यासिक जगत में नई क्रान्ति उत्पन्न की। आपने अपने उपन्यासों में व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों और उसके अन्तर्जगत की व्याख्या और विश्लेषण को औपन्यासिक ताने-बाने में है।

 

4. यशपाल (सन् 1903-1975) 

श्री यशपाल का नाम प्रगतिवादी और यथार्थवादी कथाकारों में सबसे पहले आता है। 'दादा कामरेड, देशद्रोही, मनुष्य के रूप, बारह घण्टे, दिव्या, अमिता जैसे उपन्यास आपने सामाजिक परिप्रेक्ष्य और इतिहास को लेकर लिखे हैं। आपका झूठी सच' उपन्यास भागों में लिखा उपन्यास है।

 

5. अज्ञेय (सन् 1911-1987 ) 

मनोवैज्ञानिक कथाकारों में 'अज्ञेय' का नाम विशेष उल्लेखनीय है। अज्ञेय के शेखर एक जीवनी (दो भाग) 'अपने-अपने अजनबी', नदी के द्वीप आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

 

6. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (सन् 1907-1979) - 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आलोचक और निबन्धकार होने के साथ साथ एक सफल उपन्यासकार भी थे। इन्होंने अपने जीवन काल में 'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'चारूचन्द्रलेख', 'पुनर्नवा', और 'अनामदास का पोथा', जैसे आत्मकथ्य परक और विशिष्ट कथा शैली के उपन्यास लिखे।

 

7. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (सन् 1998-1961 ) - 

उपन्यास रचना में स्वछंदता दिखाने वाले सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने कविता के अतिरिक्त 'अप्सरा' अलका, ‘प्रभावती’, ‘निरूपमा’, ‘चोटी की पकड़', और बिल्लेसुर बकरिहा', जैसे उपन्यास लिखे। इनके उपन्यासों में जहाँ अशिक्षित दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित होती है वहाँ सामाजिक रूढ़ियों एवं शोषकों के प्रति भी आक्रोश दिखायी देता है।

 

8. इलाचन्द्र जोशी (सन् 1902 1987 ) 

मनोविश्लेषणत्मक उपन्यास लेखक श्री - इलाचन्द्र जोशी ने अपने जीवन काल में 'घृणामयी', 'मुक्ति पथ,' जिप्सी, सन्यासी, ऋतुचक्र, सुबह के भूले, जहाज का पंछी, प्रेत और छाया तथा पर्दे की रानी जैसे प्रसिद्ध उपन्यास लिखे। 'जहाज का पंछी', जैसे उपन्यास इनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास है।

 

9. राहुल सांकृत्यायन (सन् 1893 1963 ) - 

यात्रा साहित्य के संपोषक और इतिहास पर सूक्ष्मदृष्टि रखने वाले राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी उपन्यास साहित्य की समृद्धि के लिए सिंह सेनापति’, ‘जयौधेय', मुधर स्वप्न', 'विस्मृत यात्री', 'दिवोदास', जीने के लिए आदि उपन्यास लिखे, इनके ये उपन्यास मार्क्सवाद और बौद्ध सम्प्रदाय से प्रभावित हैं।

 

10. रांगेय - राधव (सन् 1922-1962) 

इनका वास्तविक नाम तिरूमल्लै नम्बाकम वीर राधव था। इन्होंने तीस से अधिक उपन्यास लिखे। धरौंदा, सीधा-साधा रास्ता, विषाद मठ, हुजूर, काका, कब तक पुकारूँ, मुर्दों का टीला, आखिरी आवाज, प्रतिदान अँधेरे जुगुनू, आदि इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

 

11. फणीश्वरनाथ रेणु’(सन् 1921 1977 ) - 

आंचलिक उपन्यास लिखने में सिद्धहस्त फणीश्वरनाथ रेणु ने समाज में व्याप्त शोषण और दमन के विरूद्ध आवाज उठायी। इनका मैला आँचल उपन्यास काफी चर्चित हैं। इसके अतिरिक्त 'रेणु' जी ने 'परती परिकथा, दीर्घतपा, जुलूस और चौराहे जैसे उपन्यासों की रचना की ।

 

12. राधाकृष्ण (1912-1971) 

राँची में जन्मे राधाकृष्ण ने प्रेमचन्द के समय कथा साहित्य लिखकर काफी ख्याति अर्जित की 'फुटपाथ', सनसनाते सपने, रूपान्तर, सपने विकाऊ हैं, इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

 

13. अमृतलाल नागर (सन् 1916-1990 ) - 

प्रेमचन्दोत्तर उपन्यासकारों में अमृतलाल नागर का विशेष स्थान हैं। इन्होंने अपने जीवनकाल में 'शतरंज की मोहरे, सहाग के नुपुर, बूँद और समुद्र, अमृत और बिष, सेठ बाँकेलाल, नाच्यो बहुत गोपाल, मानस का हंस, और खंजन नयन, जैसे चर्चित उपन्यास लिखकर हिन्दी उपन्यास संसार की समृद्धि में बहुत बड़ा योगदान दिया।

 

14. बिष्णु प्रभाकर (सन् 1912 ) -

गाँधीवादी विचारधारा के कथाकार श्री विष्णु प्रभाकर उपन्यासकार ही नहीं कहानीकार भी थे। इन्होंने अपने जीवन काल में 'स्वप्मयी', निशिकान्त', तट के बन्धन, और ढलती रात, जैसे प्रसिद्ध उपन्यास लिखे।

 

15. नागार्जुन (सन् 1911) - 

मार्क्सवाद में आस्था रखने वाले नागार्जुन ने ग्रामीण जीवन के चित्रकार थे। इन्होंने रातिनाथ की चाची, बलचमा, नई पौध, बाबा बटेसरनाथ, दुःखमोचन, वरूण के बेटे, कुम्भीपाक जैसे चर्चित उपन्यास लिखे।

 
16. उप्रेन्द्रनाथ अश्क’ (सन् 1910-1996) - 

मध्यम वर्गीय व्यक्ति की घुटन, बेबसी, और यौनकुंठा जैसे बिषयों पर लेखनी चलाने वाले उपेन्द्रनाथ अश्क, नाटककार ही नहीं उपन्यासकार भी थे। सितारों के खेल, गिरती दीवारें, गर्मराख, बड़ी-बड़ी आँखें " पत्थर-अल- पत्थर, शहर में घूमता हुआ आईना, बाँधों न नाव इस ठाँव, आपकी प्रसिद्ध उपन्यास कृतियाँ हैं

 

17. गुरूदत्त (सन् 1919-1971) - 

राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक गुरूदत्त ने अपने उपन्यासों में संस्कृति तथा वैदिक विचारधारा को श्रेष्ठ दिखाया। पुष्यमित्र, विश्वासघात, उल्टी बही गंगा, इनके प्रसिद्ध उपन्यास है।

 

18. डॉ0 देवराज (सन् 1921 ) - 

मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समाज का जीवन चित्रित करने वाले डॉ) देवराज पथ की खोज, बाहर-भीतर, रोड़े और पत्थर, अजय की डायरी, दूसरा सूत्रजैसे उपन्यास लिखकर हिन्दी की सतत् सेवा की।

 

19. मोहन राकेश (सन् 1925-1972) - 

एक नाटकार के रूप में ख्याति प्राप्त करने वाले मोहन राकेश ने कई उपन्यास भी लिखे । 'अँधेरे बन्द कमरे', 'नीली रोशनी की बाहें, न जाने वाला कल, इनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं।

 

20. भीष्म साहनी (सन् 1915) - साम्यवाद से प्रभावित श्री भीष्म साहनी की मूल धारणा मानवतावादी रही है। इन्होंने अपने जीवनकाल में वसंती, तमस, झरोखे, कडियाँ जैसे उपन्यास लिखकर हिन्दी उपन्यास जगत को और अधिक समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

 

उपरोक्त उपन्याकारों के अतिरिक्त अन्य जिन उपन्यासकारों ने उपन्यास विधा पर लेखनी चलाकर इसे समृद्ध करने का बीड़ा उठाया उनमें प्रमुख उपन्यासकार है- कमलेश्वर-सुबह दोपहर शाम, राजेन्द्र यादव- उखड़े हुए लोग', राजेन्द्र अवस्थी - 'जंगल के फूल', हिमांशु जोशी- अरणय, रामवृक्ष बेनपुरी- पतितों के देश में, शिवप्रसाद सिंह - गली आगे मुड़ती हैं, रघुवीरशरण मित्र- राख और दुल्हन, भैरव प्रसाद गुप्त सती भैया का चौरा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना- सोया हुआ जल, धर्मवीर भारती- गुनाहों का देवता, मोहन लाल महतो - वियोगी, महामंत्री आदि।

 

इन उपन्यासकारों में कुछ उपन्यासकार ऐसे भी हैं जिन्होंने आँचलिक उपन्यासों के सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ये अन्य उपन्यासकार हैं- उदयशंकर भट्ट- सागर, लहरें और मनुष्य, देवेन्द्र सत्यार्थी- रथ के पहिये, ब्रह्मपुत्र, बलभद्र ठाकुर- आदित्यनाथ, देवताओं के देश में, नेपाल की बेटी, हिमांशु श्रीवास्तव नदी फिर बह चली, रामदरश मिश्र - पानी के प्राचीर, - शैलेश मटियानी- हौलदार, राजेन्द्र अवस्थी- जंगल के फूल, सूरज किरण की छाँह, मनहर चौहान - हिरना सावरी, श्याम परमार- मोरझल, राही मासूम रजा - आधा गाँव आदि।

 

स्वातन्त्र्योत्तर भारतीय जीवन के बदलते परिवेश में कुछ नये उपन्यासकार उभरकर आये जिन्होंने समाजिक संघर्ष, व्यक्ति और परिवार के सम्बन्ध, भ्रष्टाचार, आर्थिक शोषण, नैतिक मूल्यों का परिवर्तन, परम्परा और रूढिवाद के प्रति विद्रोह, आधुनिकता का आकर्षण जैसे विविध विषयों को अपने उपन्यासों के माध्यम से उभारा। इन उपन्यासकारों में- यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र- पथहीन, दिया जला दिया बुझा, गुनाहों की देवी, यज्ञदत्त शर्मा - इनसान, निर्माणपथ, महल और मकान, बदलती राहें, मन्नू भंडारी- आपका बंटी, उषा प्रियंवदा, पचपन खम्भे दीवारें, शेष यात्रा, रूकेगी नहीं राधिका, रमेश वक्षी- अठारह सूरज के पौधे, महेन्द्र मल्ला - पत्नी के नोट्स, बदी उज्जमाँ - एक चूहे की मौत आदि उपन्यास बड़े लोकप्रिय और प्रख्यात हैं।

 

हिन्दी के प्रारम्भिक उपन्यास लेखन में भले पुरूष उपन्यासकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही लेकिन बाद में धीरे-धीरे इस विधा को आगे बढाने में महिलाएँ भी जुड़ने लगी। इन महिलाओं में उषा मित्रा के उपन्यास काफी चर्चित रहे। बाद में चन्द्रकिरण, कंचनलता सब्बरवाल, शिवानी जैसी प्रतिभा सम्पन्न लेखिकाओं ने उपन्यास विधा को अनेक विस्मरणीय रचनाएँ दी।

 

इसी श्रृखंला को बाद में मन्नू भण्डारी, चित्रा मुद्गल, मालती परूलकर, दीप्ति खण्डेलवाल, मालती जोशी, मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, उषा प्रियंवदा कृष्णा अग्निहोती, ममता कालिया निरूपमा शास्त्री कृष्णा सोबती, रजनी पन्निकर, संतोष शैलजा, सूर्यवाला, सिम्मी हर्षिता, मैसेयी पुष्पा राजी सेठ कमल कुमार, स्नेह मोहनीश आदि महिलाओं ने आगे बढ और बढ़ा रही है।

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