हिन्दी गद्य साहित्य का इतिहास विभिन्न युग
भारतेन्दु युग (सन् 1868-1900)
19 वीं सदी के
उत्तरार्द्ध तक हिन्दी गद्य का व्यापक प्रसार हुआ और इससे साहित्य रचना के
पर्याप्त अवसर प्राप्त हुए। इसी अवधि में महान साहित्यकार भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने
हिन्दी साहित्य संसार में प्रवेश किया। जिनके प्रयत्नों से हिन्दी गद्य को नयी
दिशा प्राप्त हुई। भारतेन्दु हरिशचन्द्र का जन्म 2 सितम्बर सन् 1850 ई. को बनारस के एक धनी परिवार में हुआ। इनके
साहित्य प्रेमी पिता श्री गोपाल चन्द्र ने नहुष वध नाटक तथा कुछ कविताएं लिखी ।
पिता के इन्ही संस्कारों की छाप भारतेन्दु हरिशचन्द्र पर पड़ी इसलिए इन्होंने
मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में काव्य रचना प्रारम्भ कर दी। विभिन्न भाषाओं के
जानकार भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने युवावस्था में कई नाटक और काव्यों के लेखन के
अतिरक्ति 'कविवचन सुधा; हरिशचन्द्र
मैगजीन' तथा हरिशचन्द्र
चन्द्रिका' नामक पत्रिकाओं
का भी सम्पादन किया । इन्ही पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी के अनेक गद्य लेखक
प्रकाश में आये। भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने उस युग तक प्रयुक्त खड़ी बोली के गद्य को
परिमार्जित किया। साथ ही भारतेन्दु जी ने गद्य के विभिन्न क्षेत्रों नाटक, निबन्ध, समालोचना आदि
विधाओं में नयी परम्परा का सूत्रपात किया। 35 वर्ष की अल्पायु में हिन्दी साहित्य के लिए किये गए इनके
कार्यों को हिन्दी गद्य विकास की दिशा में सर्वाकृष्ट कार्य स्वीकारा जाता है। ये
अपनी भाषा के विकास के प्रबल पक्षधर थे। इनका यह मानना था।
“ निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा
शान के, मिटत न हिय को
शूल"।
भारतेन्दु
हरिशचन्द्र ने "वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति”, प्रेम योगिनी, विषस्य विषऔषधम्, श्री चन्द्रावली नाटिका, भारत दुर्दशा, नील देवी और अंधेर नगरी जैसे मौलिक नाटक लिखे। इनके अनुदित
नाटक हैं- “विद्यासुन्दर, पाखण्ड विडम्बन, मुद्राराक्षस, सत्य हरिशचन्द्र, कर्पूर मंजरी, दुर्लभ बुध आदि।
स्वयं लेखन के अतिरिक्त भारतेन्दु ने अपने समय के अनेक लेखकों को गद्य लेखन के लिए
प्रेरित किया। इससे लेखकों की एक ऐसी मंडली बनी जिसने भारतेन्दु की इस परम्परा को
आगे बढ़ाया। भारतेन्दु की इसी परम्परा को ओग बढ़ाने वाले लेखकों में थे- पंडित
प्रतापनारायण मिश्र, पंडित बालकृष्ण
भट्ट, पंडित बद्री
नारायण चौधरी प्रेमधन, श्री जगन्नाथ दास
'रत्नाकर', श्री बालमुकुन्द
गुप्त, श्रीनिवासदास, श्री राधाकृष्ण
दास आदि। इन सभी लेखकों ने गद्य की निबन्ध, नाटक, उपन्यास, एकांकी आदि विधाओं पर लेखनी चलायी।
पं0 प्रताप नारायण
मिश्र ने कलि कौतुक व रूकमणि परिणय, हठी हमीर और गौ संकट जैसे नाटकों का सृजन किया। इसके
अतिरिक्त पेट, मुच्छ, दान, जुआ आदि विषयों
पर निबन्ध लिखे। इसके अतिरिक्त ब्राहमण' पत्रिका का प्रकाशन कर हिन्दी गद्य विधा को आगे बढ़ाया।
पंडित बालकृष्ण भट्ट इसी श्रृखंला की दूसरी कड़ी थे, जिन्होंने सम्वत् 1934 में 'हिन्दी प्रदीप' मासिक पत्रिका का
प्रकाशन किया। इन्होंने विभिन्न विषयों पर निबन्ध प्रकाशित किये। पंडित भट्ट ने
पदमावती, शिशुपाल वध, चन्द्रसेन', जैसे नाटक सौ
अजान एक सुजान, नूतन ब्रहमचारी, जैसे उपन्यास और
आँख, नाक, कान जैसे विषयों
पर ललित निबन्ध लिखे। पंडित बद्रीनारायण चौधरी ने इसी युग में, 'आनन्द कांदविनी, मासिक और 'नीरद' जैसे साप्ताहिक
पत्र का प्रकाशन किया। भारत सौभाग्य' वीरांगना रहस्य जैसे नाटक लिखकर चौधरी जी ने हिन्दी गद्य
विधा को एक नया रूप प्रदान किया। भारतेन्दु युग के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की
रचनाओं की आज भी प्रशंसा की जाती है वे हैं, श्री बालमुकुंद गुप्त, लाल श्रीनिवास दास, श्री राधाकृष्ण दास, श्री बालकुकुद गुप्त ने हिन्दी गद्य की निबन्ध विधा को
अत्यधिक समृद्धि प्रदान की । इनकी शिवशम्भू के चिट्ठे प्रसिद्ध रचना है। लाल
श्रीनिवास दास ने इसी अवधि में 'प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर प्रेम मोहनी, संयोगिता स्वयंवर जैसे नाटक और 'परीक्षा- गुरू
जैसा उपन्यास लिखा । श्री राधाकृष्णदास इस युग के प्रसिद्ध नाटकार थे। जिन्होंने
दुःखिनी बाला, 'महारानी पदमावती, महाराणा प्रताप' सतीप्रताप जैसे
नाटक तो ‘निस्सहाय हिन्दु' जैस उपन्यास की
रचना की।
भारतेन्दु युग के
इन रचनाकारों के साहित्य के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि इन्होंने हिन्दी गद्य के
विकास के लिए नाटक, निबन्ध, उपन्यास, आदि सभी विधाओं
में साहित्य की सर्जना की। राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण इन लेखकों ने मौलिक
साहित्य के अतिरिक्त अनेक अनुवाद भी किये। भारतेन्दु युग में जहाँ हिन्दी गद्य
साहित्य को एक नयी दिशा मिली। वहाँ भाषाई संस्कार भी मिला।
द्विवेदी युग (सन् 1900-1920)
पूर्व में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि भारतेन्दु हरिचन्द्र जैसे प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति से प्रेरणा प्राप्त कर अनेक लेखकों ने हिन्दी गद्य को समृद्ध किया। इस मंडली ने हिन्दी साहित्य के अनेक अध्येता और हिन्दी गद्य विकास और प्रचार के लिए अनेक मौलिक और अनुदित ग्रन्थ तैयार किये। इतना सब कुछ होने पर भी इस युग के गद्य लेखकों की गद्य भाषा में कई त्रुटियाँ मिलती हैं। इन कमियों को दूर करने के लिए जिस प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार ने अपनी लेखनी उठाई उन्हें साहित्य संसार पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से जानता है। इन्होंने अपनी साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती' के माध्यम से हिन्दी भाषा का परिमार्जन किया। हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका 'सरस्वती' का प्रकाशन इंडियन प्रेस इलाहाबाद द्वारा सन् 1900 से प्रारम्भ किया गया। इस पत्रिका ने सन् 1903 से सन् 1920 तक आचार्य महावीर द्विवेदी के सम्पादकत्व में जितनी प्रतिष्ठा प्राप्त की उतनी अन्य सम्पादकों के सम्पादकत्व में नहीं। 'सरस्वती' पत्रिका ने उस समय राष्ट्रीय वाणी को दिशा देने के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश कर यह सिद्ध किया कि हिन्दी भाषा में भी कठिन से कठिन विषयों को प्रस्तुत करने की क्षमता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित इस पत्रिका ने हिन्दी को गद्य की सभी विधाओं से सम्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। तथा इसमें व्याप्त अनगढ़पन और अराजकता को समाप्त कर इसे एक सुन्दर और सुगढ़ भाषा में प्रस्तुत किया।
आचार्य महावीर
प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1861 तथा मृत्यु 1938 में हुई थी। ये एक कवि होने के साथ-साथ एक निबन्धकार और
समालोचक भी थे। इनका एक और सबसे बड़ा कार्य यह था कि इन्होंने 'सरस्वती' में प्रकाशन के
लिए आने वाली रचनाओं की भाषा को सुधार कर उसे शुद्ध और एक रूप किया। आचार्य
द्विवेदी की इच्छा थी कि खड़ी बोली हिन्दी अपना मानक रूप ग्रहण करें क्योकि इसके
बिना किसी महान साहित्य की रचना करना सम्भव नहीं।
द्विवेदी जी ने
उस युग की राष्ट्रीय चेतना और नव जागरण की भावना को पूर्ण आत्मसात किया। उन्होंने
साहित्य के मध्य युगीन आदर्शों का विरोध तथा रीतिकालीन भाव बोधों और कलारूपों को
अस्वीकार किया। इन्होंने अपने युग के साहित्यकारों से साहित्य को समाज से जोड़ने
के लिए निवेदन किया। इन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि किसी भी देश की उन्नति अगर देखनी
हो तो उस देश के साहित्य को अवलोकन करना चाहिए। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' के माध्यम से
प्रेमचन्द, मैथलीशरण गुप्त, माधव मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, नाथूराम शर्मा, शंकर, आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल, श्री पद्मसिंह
शर्मा और अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध' के साहित्य को समाज तक पहुँचाया।
द्विवेदी ने गद्य
की विभिन्न विधाओं में साहित्य लिखा गया। इस युग में निबन्ध, नाटक , उपन्यास, कहानी, आलोचना जैसी गद्य
विधाओं ने अपना स्वतन्त्र रूप, ग्रहण किया जिनके माध्यम से अनेक साहित्यकार और रचनाएँ
प्रकाश में आयीं। इसी काल में कहानी, उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द, नाटक के क्षेत्र
में जयशंकर प्रसाद, निबन्ध के
क्षेत्र में बालमुकुन्द गुप्त, सरदार पूर्णसिंह, रामचन्द्र शुक्ल तथा आलोचना के क्षेत्र में आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने ऐतिहासिक कार्य किये। इसके साथ ही इस काल में जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण या
यात्रा वृतान्त जैसी कई नयी गद्य विधाओं में भी लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ।
नाटक -
हिन्दी
नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिचन्द्र ने अनेक नाटक लिख कर किया। भारतेन्दु युग
के प्रायः सभी लेखकों ने नाटक लिखे। इसी का प्रभाव द्विवेदी युग पर भी पड़ा और उस
युग में भी कई नाटक लिखे गए। इस युग में अंग्रेजी, बंगला और संस्कृत के नाटक अनुदित होकर हिन्दी
में आये। अनुदित नाटकों में बंगला नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय, रवीन्द्रनाथ
ठाकुर, गिरिश बाबू, विद्या विनोद, अंग्रजी नाटकार, शेक्सपियर, संस्कृत के
नाटककार, कालिदास, भवभूति आदि
नाटककारों के नाटकों के हिन्दी अनुवाद प्रकाश में आये। मौलिक नाट्य लेखन में पंडित
किशोरीलाल गोस्वामी - चौपट चेपट, और मयंक मंजरी, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय 'हरिऔध'- रूक्मणी परिणय और प्रधुम्न विजय बाबू शिवनन्दन सहाय सुदमा
नाटक, जैसे नाटक लिखे
गए, ये सभी सामान्य
नाटक थे जिनपर फारसी थियेटर का प्रभाव पड़ा, लेकिन साहित्यक दृष्टि से ये उच्चकोटि के नाटक नहीं थे।
नाटाकों के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद ने उच्च कोटि का कार्य किया जो कि उच्चकोटि
की साहित्यकता से ओत प्रोत हैं।
उपन्यास -
उपन्यास आधुनिक युग का महाकाव्य कहलाता है। हिन्दी में जैसे ही गद्य का विकास हुआ, उपन्यास विधा भी
अस्तित्व में आयी भारतेन्दु युग से पूर्व श्रद्धाराम फुल्लौरी ने ‘भाग्यवती' उपन्यास लिखकर
हिन्दी में उपन्यास विधा का प्रारम्भ किया। इसके बाद भारतेन्दु युग में लाला श्री
निवासदास ने परीक्षा गुरू'
उपन्यास की रचना
की । भारतेन्दु युग में श्री राधाकृष्ण दास का ‘निःसहाय हिन्दु' पंडित बालकृष्ण भट्ट का 'नूतन ब्रह्मचारी' (सन् 1892 ) श्री लज्जाराम
शर्मा का ‘स्वतन्त्र रमा और
परतन्त्र लक्ष्मी' (सन् 1899) और धूर्त रसिकलाल, (सन् 1907) जैसे उपन्यास
काफी लोकप्रिय हुए। | द्विवेदी युग के
उपन्यास कारों में सबसे समादृत श्री देवकीनन्दन खत्री हैं। जिन्होंने 'चन्द्रकान्ता' और चन्द्रकान्ता
सन्नति' जैसे ऐयारी और
तिलस्मी उपन्यासों के माध्यम से जिस गद्य भाषा का प्रयोग किया, वह उर्दू हिन्दी
मिश्रित भाषा है। द्विवेदी युग में पंडित किशोरी लाल गोस्वामी ने करीब छोटे-छोटे 65 उपन्यास लिखे।
साथ ही इन्होंने ‘उपन्यास' नामक एक मासिक
पत्र भी निकाला। इनके उपन्यासों में 'चपला' 'तारा' तरूण, तपस्विनी, रजिया वेग़म, लीलावती, लवंगलता आदि उपन्यास प्रसिद्ध हैं। इसी युग में 'हरिऔध' जी ने 'ठेठ हिन्दी का
ठाठ', और अधखिला फूल, लज्जाराम मेहता
ने हिन्दु धर्म, आदर्श दम्पत्ता, बिगड़े का सुधार, आदि उपन्यास
लिखे।
कहानी -
वैसे तो
भारत में कहानी 'कथा' के रूप में
आदिकाल से ही चली आ रही थी। किन्तु जिसे वर्तमान की कहानी कहा जाता है। उसका यह
स्वरूप काफी नहीं है। वैसे तो समीक्षक मुंशी इंशा अल्ला खाँ की लिखी 'रानी केतकी की
कहानी” को हिन्दी की
प्रथम कहानी के पद पर विभूषित करते हैं लेकिन इसमें वर्तमान की कहानी के स्वरूप का
अभाव है। इसके पश्चात् राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने 'राजा भोज का सपना' की रचना की, लेकिन ये सभी
कहानी लेखन के छोटे प्रयास थे। हिन्दी कहानी की रचना का प्रारम्भ बीसवीं शदी के
प्रथम दशक में हुआ। जबकि हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द और जयशंकर
प्रसाद ने कहानी लिखना प्रारम्भ किया। सन् 1911 में प्रसाद जी की ग्राम कहानी प्रकाशित हुई तो सन् 1915 में चन्द्रधर
शर्मा गुलेरी की प्रसिद्ध कहानी “उसने कहा था ” का प्रकाशन हुआ। सन 1915-16 से पूर्व मुंशी प्रेमचन्द ने उर्दू में कई
कहानियाँ लिखी। इस तरह द्विवेदी युग में जिन कहानीकारों ने कहानियाँ लिख उनमें
श्री विशम्भर नाथ शर्मा, कौशिक, श्री सुदर्शन, श्री राधिका रमण
प्रसाद सिंह, श्री जी.पी)
श्रीवास्तव, आचार्य चतुरसेन, आदि कहानीकार
मुख्य हैं।
निबन्ध और समालोचना -
निबन्ध और समालोचना हिन्दी गद्य की अभिन्न गद्य विधाएँ हैं। जिनका
विकास भारतेन्दु युग से होने लगा था। भारतेन्दु युग के निबन्धों में जहाँ राष्ट्र
और समाज प्रति चिन्ता व्यक्त की गई, वहाँ इनमें तीखा व्यंग्य और विनोद भी दिखाई दिया । द्विवेदी
युग के निबन्धकारों में श्री बालमुकुन्द गुप्त ने इसी शैली को अपनाकर अपने
निबन्धों को चर्चित किया।
इनकी प्रसिद्ध रचना ‘“शिवशम्भू का चिट्ठा” इसी शैली के निबन्धों से ओत-प्रोत कृति है। इनके अतिरिक्त, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, पंडित माधव मिश्र, सरदार पूर्णसिंह, बाबू श्याम सुन्दरदास, पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, बाबू गुलाब राय, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्विवेदी युग ही निबन्धकार हैं। जिनकी निबन्ध भाषा और परिमार्जित है।
द्विवेदी युग में
ही समालोचना का आरम्भ हुआ। वैसे इसका सूत्रपात भारतेन्दु काल में हो चुका था। इसकी
सूचना इमें 'आनन्द कादंबिनी' से मिलती है।
जिसमें कि लाला श्रीनिवास दास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर' की विशद आलोचना प्रकाशित हुई थी । किन्तु समालोचना का
वास्तविक प्रारम्भ द्विवेदी युग से हुआ। इसी युग में आलोचना के सैद्धान्तिक पक्ष
से सम्बन्धित कई लेख प्रकाशित हुए। वैसे भारत में समीक्षा की काई परम्परा नहीं थी
यहाँ के विद्वान समीक्षा के नाम पर किसी भी कृति के गुण दोषों पर ही प्रकाश डालते
थे लकिन द्विवेदी युग में ही इसका आरम्भ हुआ। इस युग की प्रथम समीक्षा कृति महावीर
प्रसाद द्विवेदी की ‘कालिदास की
निरंकुशता’ थी। जिसमें
उन्होंने लाल सीताराम बी0ए0 के अनुवाद किये
नाटकों के भाषा तथा भाव सम्बन्धी दोष बड़े विस्तार से प्रदर्शित किये। इस युग में
आचार्य द्विवेदी के अतिरिक्त जिन अन्य लेखकों ने समीक्षा साहित्य को गतिप्रदान की
उनमें मिश्र बन्धु, बाबू श्याम
सुन्दर दास, पदम सिंह शर्मा, डॉ0 पीताम्बर दत्त
बडथ्वाल, श्री कृष्ण
विहारी मिश्र, बाबू गुलाब राय
जैसे समीक्षक है। लेकिन समीक्षा के क्षेत्र में जो युगांतकारी कार्य आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने किया उसे द्विवेदी युगीन कोई दूसरा समीक्षक नहीं कर सका।
प्रेमचन्द और उनके पश्चात्
द्विवेदी के
पश्चात् जिन साहित्यकारों ने गद्य साहित्य को नयी दिशा प्रदान की, मुंशी प्रेमचन्द
भी उनमें से एक हैं। मुंशी प्रेमचन्द ने यद्यपि लेखन का कार्य द्विवेदी युग से ही
आरम्भ कर लिया था लेकिन इनकी रचनाओं में एक नवीनता के दर्शन होते हैं। इसीलिए इनकी
उपन्यास और कहानी विधाओं से एक नये युग का प्रारम्भ होता है। प्रेमचन्द ने इस युग
में कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध और
जीवनियाँ लिखी। इनकी इन सभी विधाओं में समाज और दशा की वास्तविक स्थिति के दर्शन
होते हैं। प्रेमचन्द ने अपने जीवन में लगभग 300 कहानियों की रचना की। इनकी ये सभी कहानियाँ मानसरोवर के आठ
भागों में संकालित हैं। इनमें से ईदगाह, कफन,
शंतरंज के
खिलाड़ी, पंचपरमेश्वर, अलग्योझा, बड़े घर की बेटी, पूस की रात', नमक का दरोगा, ठाकुर का कुआँ, श्रेष्ठ कहानियाँ
हैं।
उपन्यास के
क्षेत्र में प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट कहलाते हैं। इस विधा में इन्होंने देश की
सामाजिक, राजनैतिक और
आर्थिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। इनके रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवासदन, गबन जैसे उपन्यास
देश की इन्ही समस्याओं को उजागर करते हैं। प्रेमचन्द के इस युग में उपन्यास
साहित्य को समृद्ध करने में जिन साहित्यकारों का योगदान रहा है उनमें जयशंकर
प्रसाद, आचार्य चतुरसेन, विश्वम्भर नाथ
शर्मा कौशिक, बेचेन पाण्डेय, इलाचन्द्र जोशी, सूर्यकान्त
त्रिपाठी 'निराला', भगवती प्रसाद
वाजपेयी, भगवती चरण वर्मा, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जैनेन्द्र अज्ञेय, यशपाल, नागार्जुन, फणीश्वर नाथ रेणु, आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर
मुख्य हैं। इसी तरह प्रेमचन्द के समकालीन जिन कहानीकारों ने हिन्दी कहानी को एक
नयी दिशा प्रदान की, उनमें उपरोक्त
उपन्यासकारों के साथ-साथ अमृराय, मन्मथनाथ,गुप्त, रांगेय राघव, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मार्कण्डेय, उषा प्रियवंदा, मन्नू भंडारी, कृष्ण सोवत का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।
प्रेमचन्द युग के
नाटकों में जयशंकर प्रसाद के नाटय आदर्शवादी नाटक हैं,। इसलिए जयशंकर
प्रसाद को इस युग का युग प्रवर्तक नाटककार माना जाता है। इनके ऐतिहासिक नाटकों
राष्ट्रीय चेतना और भारतीय संस्कृति की झलक सर्वत्र दिखायी देती है। कामना, जनमेजय का नाग
यज्ञ, राजश्री, विशाखा, अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, चन्द्र गुप्त और
ध्रुवस्वामिनी इनके बड़े और महत्व वाले नाटक हैं। जयशंकर प्रसाद के अतिरिक्त इस
युग के अन्य नाटककारों में प्रमुख हैं श्री जगदीश चन्द्र माथुर- कोणार्क, पहला राजा, शारदीय, मोहन राकेश-
आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, और आधे अधूरे, इनके अतिरिक्त हरिकृष्ण
प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, गोविन्द बल्लभ
पन्त, लक्ष्मी नारायण
मिश्र, सेठ गोविन्द दास, जगन्नाथ दास
मिलिन्द, लक्ष्मी नारायण
लाल, विष्णु प्रभाकर, ब्रजमोहन शाह, रमेश बक्षी, मुद्राराक्षस, इन्द्रजीत भाटिया
भी उच्चकोटि के नाटककार हैं।
प्रेमचन्द युग
में नाटकों के अतिरिक्त एकांकी भी लिखे गए। जिन्हें उपरोक्त नाटकारों के अतिरिक्त
कुछ एकांकीकारों में डॉ0 रामकुमार वर्मा
का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। पृथ्वीराज की आँखें, रेशमी टाई, कौमुदी महोत्सव, राजरानी सीता
इनके प्रसिद्ध एकांकी हैं। प्रेमचन्द के युग में नाटक, उपन्यास, काहनी, एकांकी, के अतिरिक्त
निबन्ध, आलोचना, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण आदि गद्य
विधाओं की भी पर्याप्त प्रगति हुई। इस युग के निबन्धकारों में आचार्य नन्ददुलारे
वाजपेयी, बाबू गुलाब राय, वासुदेव शरण
अग्रवाल सदगुरूशरण अवस्थी,
शांतिप्रिय
द्विवेदी, आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी, डॉ० नगेन्द्र, विद्यानिवास
मिश्र, कुवेरनाथ राय, विष्णुकान्त
शास्त्री, आदि निबन्धकार
मुख्य हैं। प्रेमचन्द जी के युग में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिस समालोचना
साहित्य का श्री गणेश किया उसी को आगे बढाने में आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ० नगेन्द्र, आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी, डॉ0 पीताम्बर दत्त
बड़थ्वाल, डॉ0 देवराज, डॉ0 राम विलास शर्मा, शिवदान सिंह
चौहान, नामवरसिंह, डॉ0 आनन्द प्रकाश
दीक्षित की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
प्रेमचन्द और
उनके बाद के साहित्य पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस युग के
साहित्य पर युगीन परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा। इस काल की रचनाओं में जहाँ लेखकों
ने सामाजिक समस्याओं पर अपनी गहरी दृष्टि डाली वहाँ मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी
साहित्य में स्थान दिया। इस युग के गद्य साहित्य में देश की राष्ट्रीय चेतना का
प्रभाव भी पड़ा। यही नहीं अन्तराष्ट्रीय परिवर्तनों के प्रभाव से भी इस काल का
साहित्य प्रभावित रहा। सन् 1947 में जब भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई और रूस में
समाजवाद का उद्भव व उदय हुआ तो इस काल के गद्य साहित्य में प्रगतिवाद ने प्रवेश
किया। इस काल के साहित्य पर पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति का भी प्रभाव पड़ा। इसी के
फलस्वरूप गद्य की नयी-नयी विधाओं ने जन्म लिया। यात्रावृत्त, जीवनी, डायरी, आत्मकथा, रिपार्ताज जैसी
नवीन गद्य विधाएँ इसी के परिणाम हैं।