हिन्दी गद्य की पृष्ठ भूमि उद्भव व विकास एवं कारण
गद्य साहित्य
इस आर्टिकल के अन्तर्गत हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कि गद्य का उद्भव और विकास कैसे हुआ ? आपने कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, केशवदास आदि की रचनाएँ पढ़ी होंगी, इससे आपको अनुभव हुआ होगा कि कबीर, तुलसीदास, सूरदास और केशवदास की रचनाएँ उपन्यास और कहानी से भिन्न प्रकार की रचनाएँ हैं। साहित्य की भाषा में कबीर, तुलसीदास, आदि की रचनाओं को छन्दोबद्ध रचना या कविता कहा जाता है, जबकि उपन्यास, कहानी, निबन्ध आदि को गद्य । इस अन्तर को और अधिक स्पष्ट रूप में जानने के लिए आप कबीरदास की इन पंक्तियों को पढ़िए
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल,
जो बकरी को खात है, तिनको कौन हवाल ।।
अब नीचे दी गई इन
पंक्तियों की तुलना कबीरदास की उपरोक्त रचना से कीजिए । (निम्नलिखित पंक्तियाँ डॉ0 पीताम्बर दत्त
बड़थ्वाल के निबन्ध कबीर और गाँधी से गई है।) उद्धृत की
"यदि कबीर अपनी ही
कविता के समान सीधी सादी भाषा में उल्लिखित आदर्श हैं तो गाँधी उसकी और भी सुबोध
क्रियात्मक व्याख्या, यदि प्रत्येक
व्यक्ति इस विशद व्याख्या की प्रतिलिपि बन सके तो जगत का कल्याण हो जाय। "
उपरोक्त दोनों
उदाहरणों की तुलना करने पर आप स्पष्ट रूप से जान जायेंगे कि भाषा के इन दो
प्रयोगों में क्या भिन्नता है? छन्दोबद्ध कविता में गेयता तथा लय होती है, जबकि गद्य में
भाषा व्याकरण के अनुरूप होती है। आरम्भ में समस्त संसार के साहित्य में काव्य रचना
का प्रमुख स्थान था। भारत में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काव्य कला के
अनुपम उदाहरण हैं। काव्य के अतिरिक्त नाटकों में काव्य भाषा का प्रयोग अधिक हुआ।
प्रश्न यह कि आधुनिक युग से पहले गद्य की अपेक्षा कविता में ही रचना क्यों होती थी? उत्तर है कि
कविता को गेयता, छन्दबद्धता और लय
कारण याद रखना सरल था। प्राचीन काल में मुद्रण कला का अभाव था, इसलिए
पीढ़ी-दर-पीढ़ी साहित्य को मौखिक परम्परा से आगे बढ़ाने में कविता भाषा सहायक थी।
प्राचीन काल में गद्य में भी साहित्य रचना होती थी लेकिन इन रचनाओं की संख्या
सीमित थी। उस युग में भावों की अभिव्यक्ति के लिए जहाँ काव्य रचना की जाती थी वहाँ
सैद्धान्तिक निरूपण के लिए गद्य का प्रयोग होता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण
संस्कृत साहित्य का लक्षण ग्रन्थ " काव्य प्रकाश” है जिसमें भावों
को प्रकट करने के लिए कविता का प्रयोग हुआ है तो सिद्धान्त निरूपण के लिए संस्कृत
गद्य का ।
अब आपके मन में
रह रहकर यह प्रश्न उत्पन्न हो रहा होगा कि आधुनिक युग में कविता की प्रमुखता होने
पर भी गद्य में लेखन क्यों आरम्भ हुआ। इसके क्या कारण थे? आदि काल में
परस्पर विचार विनिमय के लिए एक भिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग होता था। यह
सामान्य बोल-चाल की भाषा थी, जो कि कविता भाषा से भिन्न थी। भाषा के इसी रूप को गद्य कहा
गया था। भाषा का यह रूप जो उसकी व्याकरणिक संरचना के सबसे अधिक निकट हो, गद्य कहलाता है, जबकि पद्य में
व्याकरणिक नियमों की नहीं छन्द, लय और भावों की प्रधानता होती है। गद्य लेखन पहले भी था
लेकिन मुद्रण प्रणाली के अस्तित्व में आने के पश्चात् ही प्रचलन में आया। आज सभी
पत्र पत्रिकाओं और पुस्तकों के लेखन में इस गद्य भाषा का प्रयोग हो रहा है।
हिन्दी गद्य की पृष्ठ भूमि
हिन्दी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास कैसे हुआ? इस पर चर्चा करने के साथ- साथ ही हम अब यहाँ पर यह भी विचार करेंगे कि हिन्दी गद्य किस भाँति विकसित होकर वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ । उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व हिन्दी भाषा में गद्य रचनाएँ अधिक नहीं थी। उस समय ब्रजभाषा साहित्य की भाषा थी। जिसमें भाव - विचार की अभिव्यक्ति के लिए कविता भाषा का ही प्रयोग होता था लेकिन बोलचाल की भाषा गद्य थी। ब्रजभाषा के बोल- चाल के इस रूप का प्रयोग गद्य रचनाओं में होता था। हिन्दी गद्य विकास की दृष्टि से इन रचनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए इन प्रारम्भिक रचनाओं के इस रूप से परिचय होना भी अनिवार्य है।
1 ब्रजभाषा गद्य :-
जैसा कि आप जानते
हैं कि विद्वानों की भाषा सामान्य जन की भाषा से भिन्न होती है। जिस समय ब्रजभाषा
में कविता का सृजन हो रहा था, उसी समय जन सामान्य पारस्परिक बोल- चाल में ब्रजभाषा के
गद्य रूप का प्रयोग करता था। लेकिन जब किसी संत महात्मा या कवि को अपने पंथ, सम्प्रदाय या मत
के शुभ सन्देश सामान्य जनता तक पहुँचाने होते थे, वे अपनी कविता भाषा को छोड़कर ब्रजभाषा की बोल
चाल की भाषा का ही प्रयोग करते थे। उनकी यही बोल चाल की भाषा धीरे-धीरे साहित्य की
गद्य भाषा भी बनी। इसके साथ ही अनेक काव्य ग्रन्थों को सामान्य जनता तक पहुँचाने
के लिए विद्वानों ने टीकाएं भी लिखीं, ये टीकाएं भी गद्य भाषा में होती थीं। इस युग की गद्य रचना
का एक उदाहरण दृष्टव्य है।
"सो वह पुरूष
सम्पूर्ण तीर्थ स्थान करि चुकौ, अरू सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राहमननि को दे चुको, अरू सहस्रजज्ञ
कटि चुकौ, अरू देवता सब
पूजि चुकौ, पराधीन उपरान्ति
बन्धन नहीं, सुआधीन उपरान्त
मुकति नाहीं, चाहि उपरान्त पाप
नाहीं, अचाहि उपरान्त
पुति नाहीं ", (हिन्दी साहित्य
का सुबोध इतिहास- बाबू गुलाब राय - पृष्ठ 110 )
उपरोक्त रचना अंश
'गोरख सार' का गद्यांश है, जिसे संवत् 1400 की रचना माना
जाता है। इसके अतिरिक्तः महाप्रभु बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाई विट्ठलनाथ जी ने
ब्रज भाषा गद्य में ‘श्रृंगार मण्डन' लिखा, इनके बाद इनके
पौत्र गोकुल नाथ ने ब्रजभाषा में चौरासी बैष्णव की वार्ता' तथा दो सौ बावन
बैष्णवन की वार्ता" लिखी, इनमें बैष्णव भक्तों की महिमा व्यक्त करने वाली कथाएं लिखी
हैं। इन सबकी गद्य भाषा व्यस्थित एवं बोल चाल रूप में हैं। इस भाषा का एक उदाहरण
प्रस्तुत है।
“सो श्री नंदगाम
में रहा हतो, सो खंडन, ब्राहमण शास्त्र
पढयों हतो, सो जितने पृथ्वी
पर मत हैं सबको खण्डन करतो,
ऐसो वाको नेम
हतो। याही से सब लोगन ने वाको नाम खण्डन पाखो हतो, ” (हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल)
इसी भाँति 1660 विक्रम संम्वत्
के आस-पास भक्त नाभादास की ब्रजभाषा गद्य में 'लिखी 'अष्टयाम' नामक रचना प्रकाश में आयी, इसकी भाषा सामान्य बोलचाल की है। उस युग में
ब्रजभाषा में गद्य की रचना कम ही होती थी। लेकिन इसका मुख्य कारण था। ब्रजभाषा में
गद्य की क्षमता का विकास न हो पाना, क्योंकि ब्रजभाषा एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती थी ।
इसलिए वह ब्रज मण्डल के बाहर सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित नहीं हो पायी, जिससे इसमें गद्य
का विकास उस तरह नहीं हो पाया जिस तरह से होना चाहिए था। इसी कारण खड़ी बोली भाषा
को विकसित करने में अधिक सार्थक हुई।
2 खड़ी बोली में गद्य :-
ब्रजभाषा गद्य
भाषा की परम्परा आगे न बढ़ाने के कारण खड़ी बोली में गद्य का विकास होने लगा, इसका सबसे बड़ा
कारण था खड़ी बोली का जन साधारण की भाषा होना, ब्रजभाषा के पश्चात् इस भाषा में साहित्य का सृजन होने लगा, चूँकि खड़ी बोली
का क्षेत्रफल बड़ा था। इसलिए यह धीरे-धीरे पद्य और गद्य भाषा बनने लगी। फिर
तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों ने भी खड़ी बोली के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका
निभायी।
14वीं शताब्दी में
खड़ी बोली दिल्ली के आस पास की भाषा थी। इसलिए मुगलकाल में यह शासन और जनता की
सम्पर्क भाषा बनी। चूँकि मुगलों की मातृ भाषा फारसी थी, इसलिए जब यह खड़ी
बोली के सम्पर्क में आयी तो इसकी शब्दावली खड़ी बोली में प्रवेश करने लगी और इससे
फारसी मिश्रित खड़ी बोली का जन्म हुआ, शिक्षित लोग इस भाषा को फारसी लिपि में लिखने लगे, तब इस नई शैली को
हिन्दवी, रेख्ता और आगे
चलकर उर्दू नाम दिया गया। कवियों ने इस भाषा में शायरी आरम्भ कर दी, चौदवीं शताब्दी
में अमीर खुसरो ने खड़ी बोली में रची गई एक पहेली दृष्टव्य है-
एक थाल मोती से भरा, सबके ऊपर औंधा धरा ।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे ।
अमीर खुसरों के
पश्चात् खड़ी बोली का विकास दक्षिण राज्यों के रचनाकारों ने किया। दक्खिनी हिन्दी
के रूप में वहाँ 14 वीं शताब्दी से 18 वीं शताब्दी तक
अनेक ग्रन्थों की रचनाऐं हुई, जिनमें गद्य रचनाओं का भी मुख्य स्थान है। ख्वाजा बन्दा
नवाज़ गैसू दराज (1322-1433)
शाह मी जी (-1496) बुरहानुद्दीन
जानम (1544-1583) और मुल्ला वजही
जैसे साहित्यकारों ने काव्य रचनाओं के साथ गद्य ग्रन्थ भी लिखे। मुल्ला वजही ने 1635 ई0 में अपने
प्रसिद्ध गद्य- ग्रन्थ "सब रस” की रचना की जिसका आरम्भ इस प्रकार से होता है-
"नकल - एक शहर था।
शहर का नाउं सीस्तान, इस सीस्तान के
बादशाह का नाउं अक्ल, दीन और दुनिया का
सारा काम उस तै चलता, उसके हुक्मवाज
जरी कई नई हिलता.... वह चार लोकों में इज्जत पाए । (दक्खिनी हिन्दी: विकास और
इतिहास- डॉ0 परमानन्द पांचाल
)।
इसी दक्खिनी
हिन्दी का एक रूप खड़ी बोली भी थी। यो तो यह खड़ी बोली प्रारम्भ में कबीर, खुसरो, कवि गंग और
रहीमदास की कविता की भाषा बन चुकी थी, लेकिन गद्य भाषा के रूप में इसका प्रयोग अंग्रेज पादरी और
अफसरों ने किया क्योंकि वे इस गद्य भाषा के माध्यम से जनता तक पहुँचता चाहते थे।
सन् 1570 में मुगल बादशाह
के दरबारी कवि गंग की प्रसिद्ध रचना “चंद छन्द बरनन की महिमा" में हिन्दी खड़ी बोली के जिस
गद्य रूप के दर्शन होते हैं वह शिष्ट और परिष्कृत खड़ी बोली का गद्य है ।
“इतना सुनके
पातसाह जी श्री अकबर साह जी आध सेन सोना नरहा चारक को दिया। इनके डेढ़ सेर सोना हो
गया, रास वचना पूरा
भया, आम खास बारखास
हुआ।" (हिन्दी साहित्य का इतिहास - रामचन्द्र शुक्ल - पृष्ठ 281 )
प्रस्तुत उदाहरण
से ऐसा लगता है यह आज की शुद्ध परिमार्जित गद्य रचना है इसके पश्चात् खड़ी बोली ने
साहित्य में अपना स्थान बना लिया और इससे तेजी से गद्य का विका हुआ।
हिन्दी गद्य का उद्भव व विकास एवं कारण
खड़ी बोली गद्य
का जो रूप वर्तमान में हमारे समक्ष है वह सहजता से विकसित नहीं हुआ, अपितु इसके इस
रूप निर्माण में अनेक परिस्थितियों, संस्थाओं और व्यक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिनकी चर्चा हम
यहाँ करने जा रहे हैं। 1.5.1 हिन्दी गद्य के
उद्भव व विकास के कारण :-
भारत में अंग्रजी
साम्राज्य की स्थापना से यहाँ परिवर्तनों की जो श्रृंखला प्रारम्भ हुई, इसका भारतीय
जनजीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा; इनमें से कई परिवर्तनों का सीधा-सीधा सम्बन्ध हिन्दी गद्य
विकास से भी है। इनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिये जा रहा है। जैसा आप जानते हैं
भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। यहाँ हिन्दु, मुसलमान, ईसाई सभी परस्पर मिलकर इस देश के विकास में अपना योगदान
देते हैं। दक्षिण भारत के केरल और पूर्वी भारत के छोटे-छोटे राज्यों में ईसाई धर्म
को मानने वालों की संख्या काफी है। आज से कई सौ वर्ष पूर्व ईसाई धर्म प्रचारक देश
में आये। जब भारत पर अंग्रेजों का साम्राज्य हुआ तो इन ईसाई धर्म प्रचारकों ने
अपनी गतिविधियाँ तेज कर दी,
इनकी इन्ही
गतिविधियों ने हिन्दी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। चूँकि उस युग
में जन सामान्य की बोल चाल की भाषा हिंदी गद्य थी। इसलिए इन धर्म प्रचारकों ने
जनता में अपने धर्म का प्रचार करने के लिए छोटी-छोटी प्रचार पुस्तकों का निर्माण
हिन्दी गद्य में किया। इसी क्रम में 'बाइबिल' का हिन्दी गद्यानुवाद प्रकाशित हुआ। जिससे हिंदी गद्य का
काफी विकास हुआ।
नवीन आविष्कार-
अंग्रेजों ने अपनी स्थति को और सुदृढ़ करने के लिए मुद्रण, यातायात और
दूरसंचार के नये साधनों का प्रयोग किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सन् 1844 से सन् 1856 इस देश में रेल
और तार के साधन जोड़ दिये थे । यातायात के तेज संसाधनों से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन
हुआ। विकास हुआ। अनेक पुस्तक प्रकाशित हुई जिससे हिन्दी गद्य लेखन का भी तीव्रता
से
शिक्षा का प्रसार
सन् 1835 में लार्ड
मैकाले ने भारत में शिक्षा प्रसार के लिए अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को जन्म दिया।
इससे पूर्व इस देश की शिक्षा फारसी और संस्कृत के माध्यम से दी जाती थी। लार्ड
मैकाले की शिक्षा पद्धति से जहाँ-जहाँ भी शिक्षा दी जाती थी, उन स्कूल कॉलेजों
में हिन्दी, उर्दू पढ़ाने की
विशेष व्यवस्था होती थी। सन् 1800 ई0 में स्थापित
फोर्ट विलियम कॉलेज में सन् 1824 में हिन्दी पढ़ाने का विशेष प्रबन्ध हुआ। इससे पूर्व सन् 1823 में आगरा कॉलेज
भी स्थापना हुई जिसमें हिन्दी शिक्षा का विशेष प्रबन्ध हुआ। इसने कॉलेजों में
हिन्दी शिक्षा समुचित रूप से संचालित हो इसके लिए हिन्दी के अच्छे पाठ्यक्रम
बनाये। इस शिक्षा विस्तार से भी हिन्दी गद्य का अच्छा विकास हुआ।
समाज सुधार आन्दोलन-
19 वीं शताब्दी
समाज सुधार की शताब्दी थी। इस सदी में भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त
करने के लिए अनके आन्दोलन हुए। चूँकि समाज सुधार के आन्दोलनों को जिन नेताओं ने
संचालित किया उन्हें जनता तक अपनी बात पहुँचाने के लिए भाषा की आवश्यकता पड़ी। 'ब्रहम समाज' के संस्थापक राजा
राममोहन राय ओर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने अपने-अपने मतों को समाज
तक पहुँचाने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया वह हिन्दी भाषा थी। इसी से हिन्दी
गद्य को एक नया रूप मिला।
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन-
मुद्रण की सुविधा से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा जिनके माध्यम से अनके गद्य लेखक लिखने लगे। 30 मई सन् 1826 ई0 में कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने 'हिन्दी' के प्रथम पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन प्रारम्भ किया। यह हिन्दी का साप्ताहिक पत्र था। हिन्दी के पाठकों की संख्या कम होने के कारण यह 4 दिसम्बर 1827 को बन्द हो गया। इस पत्र के माध्यम से भी हिन्दी गद्य का विकास हुआ। 9 मई सन् 1829 को कलकत्ता से हिन्दी के दूसरे पत्र 'बंगदूत' का प्रकाशन हुआ। इसी तरह कोलकाता से प्रजामित्र' सन् 1845 में 'बनारस' से 'बनारस अखबार, सन् 1846 में 'मार्तण्ड' जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन हुआ। इन सबकी गद्य भाषा हिन्दी थी। इस तरह 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध में हिन्दी पत्र पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई। इन्ही पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी गद्य को और अधिक विकसित और परिमार्जित किया।