हिन्दी का प्रारम्भिक गद्य लेखन
हिन्दी का प्रारम्भिक गद्य लेखन
सन् 1803 ई0 में फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता के हिन्दी उर्दू प्राध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट ने हिन्दी और उर्दू में पुस्तकें लिखवाने के लिए कई मुंशियों की नियुक्ति की । इन मुंशियों में ‘नियाज’ मुंशी इंशा अल्ला खाँ जैसे हिन्दी-उर्दू के विद्वान थे जिन्होंने हिन्दी गद्य को एकरूपता प्रदान की।
मुंशी सदासुखलाल नियाज
जन्म सं. 1803 मृत्यु सं. 1881 - दिल्ली निवासी मुंशी सदासुखलाल, फारसी के अच्छे कवि और लेखक थे। इन्होंने ‘बिष्णु पुराण’ के उपदेशात्मक प्रसंग को लेकर एक पुस्तक लिखीं इसके पश्चात् मुंशी जी ने श्रीमद्भागवत कथा के आधार पर ‘सुख सागर' की रचना की जिसका गद्य व्यवस्थित और निखरा हुआ है। इनकी इस गद्य भाष का एक उदाहरण निम्नवत् है-
""मैत्रेय जी ने कहा” हे विदुर प्रचेता लोग साधु व बैष्णव की बड़ाई व परमेश्वर के मिलने के उपाय महादेव जी से सुनकर आनन्द पूर्वक बीच पढ़ने वाले स्रोतों को व करने ध्यान नारायण जी को लीन हुए। जब उनको इस हजार वर्ष हरि भजन करते बीत गए तब परमेश्वर ने प्रसन्न होकर दर्शन देके बड़े हर्ष से उन्हें वरदान दिया ” (हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास- बाबू गुलाब राय - पृष्ठ 112)
मुंशी इंशा अल्ला खाँ-
(जन्म सं0 1818 - मृत्यु सं0 1857 ) मुर्शिदाबाद में जन्म लेने वाले मुंशी इंशा अल्ला खाँ उर्दू के बहुत अच्छे शायर थे। इन्होंने सम्वत् 1855 और सम्वत् 1860 के मध्य ‘उदयभान चरित' या रानी केतकी की कहानी लिखी। इनकी गद्य भाषा संस्कृत मिश्रित हिन्दी थी। इनकी गद्य भाषा का एक उदाहरण इस प्रकार है-
"कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों नदियों के थे। पक्के चाँदी के से होकर लोगों को हक्का- बक्का कर रहे थे। नवाड़े, बन्जरे, लचके, मोरपंखी, श्याम सुन्दर, राम सुन्दर और जितनी ब नावे थी। सुनहरी, रूपहरी, सजी-सजाई। कसी- कसाई सौ-सौ लचके खतियाँ फिरतियाँ थी (हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास- बाबू गुलाब राय - पृष्ठ 114 )
श्री लल्लू लाल जी :-
(जन्म सं0 1820- मृत्यु सं0- 1882) आगरा निवासी लल्लू जी 'लाल' गुजराती ब्राहमण थे। फोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्ति के बाद इन्होंने सम्वत् 1860 में भागवत पुराण के दशम स्कंध के आधार पर प्रेम सागर नामक ग्रन्थ का हिन्दी गद्य में सृजन किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने वैताल पच्चीसी" "सिहासन बत्तीसी', 'माधव विलास' तथा 'सभा विलास' नामक ग्रन्थ भी लिखे। इनकी गद्य भाषा का एक उदाहरण निम्नवत् है।
““महाराज इसी नीति से अनेक अनेक प्रकार की बात कहते-कहते और सुनते-सुनते जब सब रात व्यतीत भई और चार घड़ी पिछली रही तब नन्दराय जी से उधौ जी ने कहा कि महाराज अब दधि मथनी की विरियाँ हुई, जो आकी आज्ञा पाऊँ तो युमना स्नान कर आऊँ” (प्रेम सागर)
पंडित सदलामिश्र:-
(जन्म सम्वत् 1825-मृत्यु सं. 1904) बिहार निवासी पंडित सदलमिश्र ने अपनी पुस्तक "नासिकेतोपाख्यान" फोर्ट विलियम कॉलेज में लिखी। इनकी भाषा लल्लू जी लाल; की तरह ही ब्रज भाषा के शब्दों से ओत प्रोत है। जिसको एक उदाहरण प्रस्तुत है-
"इस प्रकार नासिकेत मुनि यम की पुरी सहित नरक वर्णन कर फिर जौन जौन कर्म किये से जो भोग होता ळै सो ऋषियों को सुनाने लगे कि गौ, ब्राहमण माता -पिता, मित्र, बालक, स्त्री, स्वामी, वृद्ध, गुरू, इनका जो बध करते हैं वे झूठी साक्षी भरते, झूठ ही कर्म में दिन रात लगे रहते हैं।" (नासिकेतोपाख्यान)
अंग्रेजों की भाषा नीति :-
अंगेजों के भारत आगमन से पूर्व यहाँ की राज भाषा फारसी थी। लार्ड मैकाले के प्रयत्नों से सन् 1835 में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार हुआ। सन् 1836 तक अदालतों की भाषा फारसी थी लेकिन अंग्रेजों ने अपनी भाषाई नीति के अन्तर्गत सन् 1836 में सयुक्त प्रान्त के सदर बोर्ड अदालतों की भाषा 'हिन्दी' कर दी, लेकिन इसके पश्चात् अंग्रेजों की ओर से हिन्दी के विकास के लिए कुछ और नहीं किया गया। ऐसे समय में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द' और राजा लक्ष्मणसिंह के द्वारा हिन्दी के विकास के लिए जो कार्य किये गए वे उल्लेखनीय है-
राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द-
(जन्म सं. 1823- मृत्यु सं. 1895) राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्दी शिक्षा विभाग में निरीक्षक के पद पर थे। ये हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे इसलिए ये इसे पाठ्यक्रम की भाषा बनाना चाहते थे। चूँकि उस समय साहित्य के पाठ्यक्रम के लिए कोई पुस्तकें नहीं थी इसलिए इन्होंने स्वयं कोर्स की पुस्तकें लिखी और इन्हें हिन्दी पाठ्यक्रमों में स्थान दिलाया। इन्ही के प्रयत्नों से शिक्षा जगत ने हिन्दी को कोर्स की भाषा बनाया। इस बाद उन्होंने बनारस से ‘बनारस अखबार निकाला। इसीके द्वारा राजा शिवप्रसाद “सितारे हिन्द” ने हिन्दी का प्रचार प्रसार किया। ये विशुद्ध हिन्दी में लेख लिखते थे। राजा जी ने स्वयं हिन्दी कोर्स लिए पुस्तके ही नहीं लिखी अपितु पंडित श्री लाल और पंडित बंशीधर को भी इस कार्य के लिए प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'वीरसिंह का वृतान्त' आलसियों का कोड़ा जैसी रचनाओं का सृजन भी किया। इनकी गद्य भाषा कितनी प्रभावशाली और सरल थी, इसका उदारहण "राजा भोज का सपना का यह गद्यांश है।
“वह कौन सा मनुष्य है जिसने महाप्रतापी राजा भोज का नाम न सुना हो। उनकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत में व्याप्त रही है। बड़े-बड़े महिपाल उसका नाम सुनते ही काँप उठते और बड़े-बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते। "
राजा जी उर्दू के पक्षपाती भी थे। सन् 1864 में इन्होंने “इतिहास तिमिर नाशक" ग्रन्थ लिखा।
राजा लक्ष्मण सिंह
(जन्म सम्वत् 1887 - मृत्यु सम्वत् 1956)- आगरा निवासी राजा लक्ष्मणसिंह हिन्दी और उर्दू को दो भिन्न-भिन्न भाषाएँ स्वीकारते थे। फिर भी ये हिन्दी उर्दू शब्दावली प्रधान गद्य भाषा का प्रयोग करते थे। राजा लक्ष्मणसिंह ने कालिदास के 'मेघदूत' अभिज्ञान शाकुन्तलम् और रघुवंश का हिन्दी अनुवाद किया। इन्होंने हिन्दी के गद्य विकास के लिए सन् 1841 में 'प्रजा हितैषी' पत्र भी सम्पादित और प्रकाशित किया। इनकी गद्य भाषा कितनी उत्कृष्ट कोटि की थी । प्रकाशित उदाहरण अभिज्ञान शाकुन्तलम् का यह अनुदित गद्य है-
अनसुया (हौले प्रियबंदा से) सखी मैं भी इसी सोच विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछूंगी। (प्रकट) महात्मा तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकर मेरा जी यह पूछने को चाहता है क तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की प्रजा को विरह में व्याकुल छोड़ कर यहाँ पधारे हो? क्या कारण है? (हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पृष्ठ-300)
राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द' और राजा लक्ष्मण सिंह के अलावा कई अनेक प्रतिभाशाली लेखकों ने हिन्दी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जिन गद्य लेखकों ने अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किये तथा कई पाठ्य पुस्तकें लिखी उनमें श्री मथुरा प्रसाद मिश्र, श्री ब्रजवासी , दास, श्री रामप्रसाद त्रिपाठी श्री शिवशंकर, श्री बिहारी लाल चौबे, श्री काशीनाथ खत्री, श्री , रामप्रसाद दूबे आदि प्रमुख हैं। इसी अवधि में स्वामी दयान्द सरस्वती ने “सत्यार्थ प्रकाश” जैसे ग्रन्थ की हिन्दी गद्य में रचना करके हिन्दू धर्म की कुरीतियों को समाप्त किया। हिन्दी गद्य के विकास में जिन और लेखकों का नाम बड़े आदर से लिया जाता है उनमें से बाबू नवीन चन्द्र राय तथा श्री श्रद्धाराम फुल्नौरी हैं।
बाबू नवीन चन्द्र राय ने सन् 1863 और सन् 1880 के मध्य हिन्दी में विभिन्न बिषयों की पुस्तकें लिखी और लिखवाई, साथ ही ब्रहम समाज के सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार करने के लिए सन् 1867 में ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका का प्रकाशन किया। इसी तरह श्री श्रृद्धानन्द फुल्लौरी ने ‘सत्यामृत प्रवाह’, ‘आत्म चिकित्सा', तत्वदीपक, 'धर्मरक्षा', उपदेश संग्रह' पुस्तकें लिखककर हिन्दी गद्य के विकास एक नयी दिशा प्रदान की।