चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जीवनी / व्यक्तित्व कृतित्व - वस्तु पक्ष
चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जीवनी / व्यक्तित्व कृतित्व - वस्तु पक्ष
हिन्दी साहित्य
के इतिहास में चंद्रधर शर्मा गुलेरी का नाम विशिष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त होता है।
आप लोग इस इकाई में गुलेरी जी की साहित्य साधना एवं उनके जीवन परिचय से अवगत
होंगे। चंद्रधर शर्मा गुलेरी बहुमुखी प्रतिभा के लेखक थे । ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
में देखें तो वे प्रेमचंद और महाकवि जयशंकर प्रसाद के समकालीन थे। प्रसिद्ध
समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने गुलेरी जी को 'अमर कथा शिल्पी' की संज्ञा से विभूषित किया है। वास्तव में
हिन्दी के साधारण पाठक गुलेरी जी को 'उसने कहा था' जैसी अमर कहानी के लेखक के रूप में ही जानते हैं। जो पाठक
तनिक अधिक जिज्ञासु और सचेत हैं उनकी नजर में वे 'कछुआ धर्म' और “मारेसि मोहि
कुठाऊँ' जैसे निबंधों के
प्रतिभाशाली लेखक हैं। 'साहित्य के
इतिहास' नामक प्रसिद्ध
ग्रंथ में शुक्ल जी ने श्री चंद्रधर शर्मा को संस्कृत के प्रकांड प्रतिभाशाली
विद्वान के बतौर याद किया है। गुलेरी जी के पांडित्य और प्रतिभा को देखते हुए
संभवतया पं. पद्म सिंह शर्मा जी की यह शिकायत बेवजह नहीं लगती कि गुलेरी जी ने
अपेक्षा के अनुरूप नहीं लिखा अर्थात कम लिखा। ध्यान देने योग्य तथ्य यहाँ यह है कि
केवल 39 वर्ष की
थोड़ी-सी उम्र में उन्होंने जितना कुछ लिखा वह इतना स्वल्प भी नहीं है कि गुलेरी
जी का मूल्याँकन केवल अनुमान या संभावना के आधार पर किया जाए।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जीवनी / व्यक्तित्व
मूलतः हिमाचल
प्रदेश के गुलेर गाँव के वासी ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री
राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने
सन् 1883 में चन्द्रधर को
जन्म दिया। घर में बालक को संस्कृत भाषा, वेद. पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला और
मेधावी चन्द्रधर ने इन सभी संस्कारों और विद्याओं को आत्मसात् किया। आगे चलकर
उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. (प्रथम श्रेणी में और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.
ए. (प्रथम श्रेणी में) करने के बाद चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी
न रख पाए। हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष
की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित
शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने
“जयपुर ऑब्जरवेटरी
एण्ड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक अँग्रेजी ग्रन्थ की रचना की।
अपने अध्ययन काल
में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में
नगरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र 'समालोचक' के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की
नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने
देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य पुस्तकमाला का सम्पादन किया। इसके
अतिरिक्त उन्होंने नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला का सम्पादन किया। वे नागरी
प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।
जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के आचार्य का कार्यभार भी ग्रहण किया। इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज बुख़ार से मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी का कृतित्व - वस्तु पक्ष :-
इस थोड़ी-सी आयु
में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अँग्रेजी के
अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, बांग्ला, मराठी आदि का ही
नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का भी ज्ञान हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी
बहुत विस्तृत था और धर्म,
ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषाविज्ञान
शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा
रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत
पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण
में बराबर रहता है।
पं. चन्द्रधर
शर्मा गुलेरी के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि उनके अध्ययन, ज्ञान और रुचि का
क्षेत्र हालाँकि बेहद विस्तृत था और उनकी प्रतिभा का प्रसार भी अनेक कृतियों, कृतिरूपों और
विधाओं में हुआ था, किन्तु आम हिन्दी
पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक
बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी 'उसने कहा था' के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। इस कहानी की प्रखर
चकाचौंध ने उनके बाकी वैविध्य भरे सशक्त कृति संसार को मानों ग्रस लिया है।
प्राचीन साहित्य, संस्कृति, हिन्दी भाषा, समकालीन समाज, राजनीति आदि
विषयों से जुड़ी इनकी विद्वता का जिक्र यदा-कदा होता रहता है, पर 'कछुआ धरम' और 'मारेसि मोहि
कुठाऊँ' जैसे एक दो
निबन्धों और 'पुरानी हिन्दी' जैसी लेखमाला के
उल्लेख को छोड़कर उस विद्वा की बानगी आम पाठक तक शायद ही पहुँची हो । व्यापक
हिन्दी समाज उनकी प्रकाण्ड विद्वता सर्जनात्मक प्रतिभा से लगभग अनजान है।
अपने 39 वर्ष के
संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि
किन्तु फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और
रूपों को समेटते समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध
अकादमिक अथवा शोधपरक है, उनकी
शास्त्रज्ञता तथा पाण्डित्य का परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी
दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि
से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी पुरानी हिन्दी ' जैसी अकादमिक और 'महर्षि च्यवन का
रामायण' जैसी शोधपरक
रचनाओं तक में दिखाई देता है। इन बातों के अतिरिक्त गुलेरी जी के विचारों की
आधुनिकता भी हमसे आज उनके पुनराविष्कार की माँग करती है।
विषय-वस्तु की व्यापकता की दृष्टि से गुलेरी जी का लेखन धर्म पुरातत्त्व, इतिहास और भाषाशास्त्र जैसे गम्भीर विषयों से लेकर 'काशी की नींद' जैसे हलके-फुलके विषयों तक को समान भाव से समेटता है। विषयों का इतना वैविध्य लेखक के अध्ययन, अभिरुचि और ज्ञान के विस्तार की गवाही देता है, तो हर विषय पर इतनी गहराई से समकालीन परिप्रेक्ष्य में विचार अपने समय और नए विचारों के प्रति उसकी सजगता को रेखांकित करता है। राज ज्योतिषी के परिवार में जन्मे, हिन्दू धर्म के तमाम कर्मकाण्डों में विधिवत् दीक्षित, त्रिपुण्डधारी निष्ठावान ब्राह्मण की छवि से यह रूढ़िभंजक यथार्थ शायद मेल नहीं खाता, मगर उस सामाजिक- राजनीतिक-साहित्यिक उत्तेजना के काल में उनका प्रतिगामी रुढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाना स्वाभाविक ही था। यह याद रखना जरूरी है कि वे रूढ़ियों के विरोध के नाम पर केवल आँख मूँदकर तलवार नहीं भाँजते । खण्डन के साथ ही वे उचित और उपयुक्त का मंडन भी करते हैं। किन्तु धर्म, समाज, राजनीति और साहित्य में उन्हें जहाँ कहीं भी पाखण्ड या अनौचित्य नजर आता है, उस पर वे जमकर प्रहार करते हैं। इस क्रम में उनकी वैचारिक पारदर्शिता, गहराई और दूरदर्शिता इसी बात से सिद्ध है कि उनके उठाए हुए अधिकतर मुद्दे और उनकी आलोचना आज भी प्रासंगिक हैं।
उनके लेखन की
रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित
है। उस युग के कई अन्य निबन्धकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा
विनोद भाव की एक अन्तर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्मसिद्धान्त, आध्यात्म आदि
जैसे कुछ एक गम्भीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव
प्रसंगों के चुनाव में, भाषा के मुहावरों
में, उद्धरणों और
उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जहाँ आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहाँ यह विनोद
व्यंग्य में बदल जाता है- जैसे शिक्षा, सामाजिक रूढ़ियों तथा राजनीति सम्बन्धी लेखों में। इससे
गुलेरी जी की रचनाएँ कभी गुदगुदाकर, कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं।
मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ, कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य- समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक पौराणिक पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ सभी शामिल हैं।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की भाषा शैली :-
गुलेरी जी की
शैली मुख्यतः वार्तालाप की शैली है जहाँ वे किस्साबयानी के लहज़े में मानों सीधे
पाठक से मुखातिब होते हैं। यह साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली को सँवरने का
काल था। अतः शब्दावली और प्रयोगों के स्तर पर सामन्जस्य और परिमार्जन की कहीं-कहीं
कमी भी नजर आती है। कहीं वे 'पृरिण', 'क्लृप्ति' और 'आग्मीघ्र' जैसे अप्रचलित
संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं तो कहीं 'बेर',
'बिछोड़ा' और 'पैंड़' जैसे ठेठ लोकभाषा
के शब्दों का। अंग्रेजी, अरबी-फारसी आदि
के शब्द ही नहीं पूरे-के-पूरे मुहावरे भी उनके लेखन में तत्सम या अनूदित रूप में
चले आते हैं। भाषा के इस मिले-जुले रूप और बातचीत के लहजे से उनके
लेखन में एक
अनौपचारिकता और आत्मीयता भी आ गई है। हाँ गुलेरी जी अपने लेखन में उद्धरण और
उदाहरण बहुत देते हैं। इन उद्धरणों और उदाहरणों से आमतौर पर उनका कथ्य और अधिक
स्पष्ट तथा रोचक हो उठता है पर कई जगह यह पाठक से उदाहरण की पृष्ठभूमि और प्रसंग
के ज्ञान की माँग भी करता है। आम पाठक से प्राचीन भारतीय वाङ्मय, पश्चिमी साहित्य, इतिहास आदि के
इतने ज्ञान की अपेक्षा करना ही गलत है। इसलिए यह अतिरिक्त 'प्रसंगगर्भत्व' उनके लेखन के सहज
रसास्वाद में कहीं-कहीं अवश्य ही बाधक होता है।
गुलेरी की कहानी कुशलता का रहस्य यह है कि वह दुःख के तह तक जाकर दर्द की पड़ताल करते हैं। जिसका उदाहरण निम्नलिखित है-
रोती- रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई।
लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
" वजीरा सिंह, पानी पिला"... 'उसने कहा था । '
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है।
जब माँगता है, तब पानी पिला देता है।
आध घण्टे तक लहना चुप
रहा, फिर बोला, 'कौन! कीरतसिंह?" वजीरा ने कुछ
समझकर कहा, 'हाँ।'
'भइया, मुझे और ऊँचा कर
ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।' वजीरा ने वैसे ही किया। 'हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे । बस, अब के हाड़ में
यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना । जितना बड़ा तेरा भतीजा
है, उतना ही यह आम
है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।' वजीरासिंह के
आँसू टप-टप टपक रहे थे।
बहरहाल गुलेरी जी की अभिव्यक्ति में कहीं भी जो भी कमियाँ रही हों, हिन्दी भाषा और शब्दावली के विकास में उनके सकारात्मक योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे खड़ी बोली का प्रयोग अनेक विषयों और अनेक प्रसंगों में कर रहे थे - शायद किसी भी अन्य समकालीन विद्वान से कहीं बढ़कर। साहित्य पुराण-प्रसंग इतिहास, विज्ञान, भाषाविज्ञान, पुरातत्त्व, धर्म, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि अनेक विषयों की वाहक उनकी भाषा स्वाभाविक रूप से ही अनेक प्रयुक्तियों और शैलियों के लिए गुंजाइश बना रही थी। वह विभिन्न विषयों को अभिव्यक्त करने में हिन्दी की सक्षमता का जीवन्त प्रमाण है। हर सन्दर्भ में उनकी भाषा आत्मीय तथा सजीव रहती है, भले ही कहीं-कहीं वह अधिक जटिल या अधिक हल्की क्यों न हो जाती हो। गुलेरी जी की भाषा और शैली उनके विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं थी। वह युग-सन्धि पर खड़े एक विवेकी मानस का और उस युग की मानसिकता का प्रामाणिक दस्तावेज है। इसी ओर इंगित करते हुए प्रो. नामवर सिंह का भी कहना है, “गुलेरी जी हिन्दी में सिर्फ एक नया गद्य या नयी शैली नहीं गढ़ रहे थे बल्कि वे वस्तुतः एक नयी चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नयी चेतना का सर्जनात्मक साधन है। "