उपन्यास के तत्व
उपन्यास के तत्व
अभी तक आपने उपन्यास के स्वरूप और उसकी विषेशताओं को समझा है। मूल्यांकन की दृष्टि से उपन्यास के कुछ तत्व निर्धारित किये गए है। तत्त्वों की दृष्टि से विद्वानों ने उपन्यास के छह तत्त्व माने हैं-
1 कथानक :-
किसी उपन्यास की मूल कहानी को कथावस्तु कहा जाता है। कथावस्तु तत्व उपन्यास का अनिवार्य तत्व हैं। कथा साहित्य में घटनाओं के संगठन को कथावस्तु या कथानक की संज्ञा दी जाती है। जीवन में अनेक प्रकार की घटनाएँ घटती रहती है। उपन्यासकार अपने उद्देश्य के अनुसार उनमें एक प्रकार की एकता लाता है और अपनी कल्पना के सहारे इन कथानकों की कल्पना की जाती है।
कथासूत्र, मुख्य कथानक, प्रासंगिक कथाएँ या अंतर्कथाएँ, उपकथानक, पत्र, समाचार, लेख तथा डायरी के पन्ने आदि कथानक के उपकरण या संसाधन हैं। जिनका उपन्यासकार अपनी आवश्यकता अनुसार उपयोग करता हैं। अनावश्यक घटनाओं का समावेश कथावस्तु को शिथिल, विकृत और सारहीन बना देता हैं। अतः इस घटना का उदय, विकास और अन्त व्यवस्थित और निश्चित होता हैं। उपन्यास में घटनाक्रम में एकता और संगठन अनिवार्य है यदि इनमें से एक को भी अलग किया तो मूल कथा बिखरी प्रतीत होती है । परन्तु आज के नवीन उपन्यासकारों का मानना है कि सांसारिक जीवन में घटने वाली घटनाओं का कोई भी क्रम नहीं होता, जीवन में घटनाएँ असंबद्ध होकर घटती है इसलिए घटनाओं के प्रवाह को पकड़ा नहीं जा सकता।
इस विचार से प्रभावित हिन्दी उपन्यासकार उपेन्द्रनाथ ‘अश्क' का 'गर्म राख' लक्ष्मीकान्त वर्मा का ‘खाली कुर्सी की आत्मकथा', धर्मवीर भारती का 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' आदि अनेक उपन्यासों के सामने यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि इनमें घटनाओं का क्रम क्या हो? कथानक का चुनाव इतिहास, पुराण, जीवनी, आदि कहीं से भी किया जा सकता है। आ जीवन से सम्बन्धित कथानक को ही अधिक महत्त्व दिया जाता, क्योंकि उसमें हमारे दैनिक जीवन की स्वाभाविकता रहती हैं। जीवन की विविध अवस्थाओं का चित्रण, विभिन्न पक्षों का मूल्यांकन एवं मानवीय अनुभूतियों की पूर्ण अभिव्यक्ति कथानक का गुण हैं। उपन्यास में कथानक को प्रस्तुत करने के तीन ढंग प्रचलित हैं- (1) लेखक तटस्थ दर्शक की भाँति उसका वर्णन करता है। (2) कथावस्तु मुख्य या गौण पात्रों से कहलाई जाती है। (3) पात्रों की श्रृंखला के रूप में उसका वर्णन होता है। संक्षेप में कह सकते हैं कि- रोचकता, स्वाभाविकता तथा प्रवाह कथावस्तु के आवश्यक गुण हैं।
2 चरित्र चित्रण और पात्र :-
कथानक तत्व के पश्चात् उपन्यास का द्वितीय महत्त्वपूर्ण तत्व चरित्र-चित्रण अथवा पात्र योजना है। जैसा कि अब आप जानते है, उपन्यास का मूल विषय मानव और उसका जीवन होता है। अतः पात्रों के माध्यम से उपन्यासकार सजीवता, सत्यता और स्वभाविकता के साथ जीवन के इन पहलूओं को समाज के समक्ष रखता है । यो तो उपन्यास के सभी तत्व अपना-अपना अलग महत्त्व रखते हैं परन्तु कथानक और पात्र एक-दूसरे की सफलता के लिए अधिक निकट होते हैं। इसलिए इनका पारस्परिक संतुलन अनिवार्य हो जाता है। कथावस्तु के अनुरूप पात्र का चयन होना आवश्यक इतना ही नहीं वह जिस वर्ग के पात्र का चयन करता है, उसके आंतरिक और बाह्य व्यक्तित्व की सामान्य और सूक्ष्म विषेशताओं, उसकी आकृति, वेशभूषा, वार्तालाप और भाषा-शैली आदि कथावस्तु के अनुरूप होना आवश्यक हैं। अन्यथा दोनों का विरोध रचना को असफल कर देता हैं। इस युग में पात्र सम्बन्धी प्राचीन और नवीन धारणा में पर्याप्त अन्तर आया है। पहले मुख्य पात्र नायक और नायिका पर विशेष बल दिया जाता था। आज अन्य पात्रों को भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसका कारण मनोविज्ञान का क्रान्तिकारी अन्वेषण है।
आज पात्रों के बाहरी और भीतरी व्यक्तित्व का मनावैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है जिससे उनके चरित्र में अधिक स्वाभाविकता और यथार्थता आ जाती हैं। इसके अतिरिक्त आज पात्रों को कठपुतली बनाकर नहीं बल्कि उन्हें स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पात्रों के चार प्रकार हैं- (1) वर्ग-विशेष के प्रतिनिधि (टाइप) (2) विशिष्ट व्यक्तित्व वाले (3) आर्दशवादी (4) यथार्थवादी । इसे इस प्रकार समझ सकते हैं : प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोदान' का ‘होरी” पहले प्रकार का पात्र है क्योंकि वह एक विशेष वर्ग को दर्शा रहा है। जबकि 'अज्ञेय' उपन्यास 'शेखर एक जीवन का शेखर दूसरे प्रकार का पात्र यानि विशिष्टता लिए हुए है। आज वही उपन्यास श्रेष्ठ माने जाते हैं, जिनके पात्र जीवन की यर्थाथ स्थिति का संवेदनशील और प्रभावपूर्ण प्रस्तुतीकरण करते हैं।
3 कथोपकथन :-
उपन्यास में यह कथावस्तु के विकास तथा पात्रों के चरित्र चित्रण में सहायक होता है। इससे कथावस्तु में नाटकीयता और सजीवता आ जाती है। पात्रों की आन्तरिक मनोवृत्तियों के स्पष्टीकरण में भी यह सहायक होता है। इसका विधान पात्रों के चरित्र, स्वभाव, देश, स्थिति, शिक्षा, अशिक्षा, आदि के अनुसार होना चाहिए। पात्रों के वार्तालाप में स्वाभाविकता का होना अत्यन्त आवश्यक हैं।
4 देशकाल वातावरण :-
पात्रों के चित्रण को पूर्णता और स्वाभाविकता देने के लिए देशकाल या वातावरण का ध्यान रखना जरूरी है। घटना का स्थान समय, तत्कालीन विभिन्न परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान उपन्यासकार के लिए आवश्यक है। ऐतिहासिक उपन्यासों का तो यह प्राण तत्व है। उदाहरणार्थ यदि कोई लेखक चन्द्रगुप्त और चाणक्य को सूट-बूट में चित्रित करे तो उसकी मूर्खता और ऐतिहासिक अज्ञानता का परिचय होगा और रचना हास्यास्पद हो जाऐगी। देशकाल-वातावरण का वर्णन सन्तुलित होना चाहिए, जहाँ तक वह कथा - प्रभाव में आवश्यक हो तथा पाठक को वह काल्पनिक न होकर यर्थाथ लगे। अनावश्यक अंशों की प्रधानता नहीं होनी चाहिए।
5 भाषा शैली :-
उपन्यास को अपने भाव एवं विचारों को व्यक्त करने के लिए सरस और सरल भाषा शैली का प्रयोग करना चाहिए । सम्पूर्ण उपन्यास की रचना - शैली एक सी है। प्रारम्भिक सभी उपन्यास रूढ़िगत शैली में ही लिखे गए। तृतीय पुरूष के रूप में वर्णनात्मक शैली ही का प्रयोग प्रायः अधिकांश उपन्यासों में किया गया है।
बाद में कलात्मक प्रयोगों के फलस्वरूप उपन्यासों में जब विकास हुआ तो सबसे अधिक प्रयोग शैली में उपन्यास लिखे गए। किन्तु धीरे-धीरे कथावस्तु में परिवर्तन से आधुनिक साहित्य की नव विधाओं में शैली तत्व का महत्त्व अधिक होने लगा, और सामान्य रूप से कथा शैली - जैसे प्रेमचन्द की रंगभूमि; आत्मकथा शैली- जैसे इलाचन्द जोशी की 'घृणामयी'; पत्र शैली जैसे उग्र का ‘चन्द हसीनों के खतूत'; डायरी शैली जैसे 'शोषित दर्पण' प्रचलित हो गई। इसके अतिरिक्त वर्णनात्मक शैली, विश्लेषणात्मक शैली, फ्लैशबैक शैली, नाटकीय शैली, लोक कथात्मक शैली, कथोपकथन शैली, आदि प्रयोग आधुनिक युगीन उपन्यासों में किया जाता हैं।
6 उद्देश्य :-
उपन्यास में उद्देश्य या बीज से तात्पर्य-जीवन की व्याख्या अथवा आलोचना से है। प्राचीन काल में उपन्यास की रचना के प्रायः दो मूल उद्देश्य हुआ करते थे-एक तो उपदेश की वृत्ति, जिसके अन्तर्गत नैतिक शिक्षा प्रदान करना था दूसरा केवल कोरा मनोरंजन, जिसका आधार कौतूहल अथवा कल्पना हुआ करता था। आज उपन्यास में जीवन का यर्थाथ चित्रण होता है। इसलिए उपन्यासकार, जीवन के साधारण और असाधारण व्यापारों का मानव-जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है, इसका आकलन करता हैं। अतः सभी उपन्यासों में कुछ विशेष विचार और सिद्वान्त स्वतः ही आ जाते हैं।