उपन्यास के भेद (प्रकार)
उपन्यास के भेद (प्रकार)
उपन्यास के विषय में ऊपर दिये गए परिचय से यह तो आप जान गए होंगे कि उपन्यास में कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जो प्रायः सभी में मिलेंगे। किन्तु यह भी सच है कि सभी तत्व समा रूप से नहीं होते। कभी विषय वस्तु की प्रधानता होती है तो किसी में पात्र यानी चरित्र । कहने का तात्पर्य यह है कि उपन्यास में तत्वों की प्रमुखता के आधार पर कई भेद किये जा सकते हैं।
1- तत्वों के आधार पर घटना प्रधान, चरित्र प्रधान ।
2- वर्ण्य विषय के आधार पर : ऐतिहासिक, सामाजिक, साहसिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक इत्यादि ।
3- शैली के आधार पर : कथा, आत्मकथा, पत्रात्मक, डायरी आदि। उपन्यासों का यह वर्गीकरण भ्रम उत्पन्न करता है, साथ ही शैली को छोड़कर दोनों के
कई उपरूप समानता लिए हुए है। अतः विद्वानो ने घटनाप्रधान उपन्यास, चरित्रप्रधान उपन्यास, ऐतिहासिक उपन्यास, सामाजिक उपन्यास, मनोवैज्ञानिक उपन्यास, आंचलिक उपन्यासों इत्यादि को मुख्य भेद माना है। आगे हम उपन्यास के इन भेदों का विस्तृत अध्ययन करेंगे।
घटना प्रधान उपन्यास :-
इन उपन्यासों में चमत्कारिक घटनाओं की प्रधानता रहती है। पाठक के कौतूहल और उत्सुकताको निरन्तर जाग्रत बनाए रखने में ही इनकी सफलता मानी जाती है। इन उपन्यासों में यद्यपि घटनाएं ही मुख्य होती हैं परन्तु वास्तविकता की अपेक्षा काल्पनिक तथा चमत्कारपूर्ण जीवन का प्राधान्य रहता है। इनकी कथावस्तु प्रेमाख्यान, पौराणिक कथाएँ, जासूसी तथा तिलिस्म घटनाओं से निर्मित होता है।
चरित्र - प्रधान उपन्यास :-
इन उपन्यासों में घटना के स्थान पर पात्रों की प्रधानता होती है। इनमें पात्रों के चारित्रिक विकास पर ही पूर्ण ध्यान दिया जाता है। पात्र घटनाओं से पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। वे स्वयं परिस्थिति के निर्माता होते है, न कि परिस्थिति उनकी । पात्रों का चारित्रिक विकास आरम्भ से अन्त एकरस बने रहते हैं। केवल उपन्यास के विस्तार के साथ-साथ उनके विषय में पाठक के ज्ञान में वृद्धि होती रहती है। इन चरित्रों में परिवर्तन नहीं होता, घटनाएं केवल पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं पर ही प्रकाश डालती है। ये उपन्यास समाज, देश तथा जाति की चारित्रिक विशेषताओं का प्रदर्शन सर्वाधिक प्रभावशाली और संवेदनशील रूप में करते हैं।
हिन्दी में जैनेन्द्र, उग्र, ऋषभचरण जैन, चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास इसी वर्ग के हैं। ऐसे उपन्यासों के पाठक कम होते हैं। ये चर्चा का विषय तो बनते हैं परन्तु लोकप्रिय नहीं हो पाते। भाषा, शिल्प आदि की दृष्टि से इन्हें श्रेष्ठ माना जाता है।
ऐतिहासिक उपन्यास :-
ऐतिहासिक उपन्यास में इतिहास की घटना या चरित्र को उजागर किया जाता है। या कहें कि किसी ऐतिहासिक घटना या चरित्र से प्रभावित होकर जब उपन्यासकार उससे सम्बद्ध युग और देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि परिस्थितियों का चित्रण अपनी रचना में करता है तो उसे ऐतिहासिक उपन्यास कहा जाता है। इस कार्य के लिए उसे इतिहास से सम्बन्धित अन्य तथ्यों, वातावरण, तत्कालीन जीवन का सर्वांगीण, आन्तरिक और प्रभावोत्पादकता का ज्ञान होना चाहिए। इन उपन्यासों में इतिहास और कल्पना का पूर्ण योग रहता है। इनसे एक का भी अभाव होने से सफल ऐतिहासिक उपन्यास की रचना नहीं हो सकती।
ऐतिहासिक उपन्यास इतिहासकारों, पुरातत्ववेताओं के द्वारा संग्रहित नीरस तथ्यों को कल्पना द्वारा जीवित और सुन्दर बना देता है, किन्तु रचनात्मकता का आश्रय लेकर उपन्यास लेखक जिस रूप में उसे हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है; विश्वसनीय होने पर हम उसे यथार्थ रूप में स्वीकार कर लेते है। हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों की परम्परा का आरम्भ भारतेन्दु युग में किशोरीलाल गोस्वामी रचित कुछ उपन्यासों में मिलता है। आधुनिक युगीन हिन्दी उपन्यासों के ऐतिहासिक उपन्यास लेखकों में डॉ. वृंदावन लाल वर्मा का नाम उल्लेखनीय है। 'गढ कुंडार', 'विराटा की पद्मिनी', 'मृगनयनी', टूटे कांटे', अहिल्याबाई' आदि उनके ऐतिहासिक उपन्यास है। 'झाँसी की 'रानी' लेखक की ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ है।
सामाजिक उपन्यास :-
सामाजिक उपन्यासों में सामयिक युग के विचार आदर्श और समस्याएं चित्रित रहती हैं। सामाजिक समस्याओं का चित्रण इनका मुख्य उद्देश्य रहता है। इन पर राजनैतिक-सामाजिक धारणाओं और मतों का विशेष प्रभाव रहता है। विषयगत विस्तार की दृष्टि से सामाजिक उपन्यासों का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। हिन्दी साहित्य में अधिकांश उपन्यास सामाजिक उपन्यास की श्रेणी में आते हैं। भारतेन्दु युग से प्रारम्भ होने वाली इस औपन्यासिक प्रवृत्ति का प्रसार परवर्ती युग में विभिन्न रूपों में हुआ है। प्रेमचंद और प्रेमचंद के परवर्ती युग में सामाजिक प्रवृत्ति अनेक रूपों में विकसित हुई। जिसमें मुख्य समस्यामूलक भाव प्रधान एवं आदर्शवादी तथा कथात्मक औपन्यासिक प्रवृत्तियाँ प्रमुख हैं।
5 मनोवैज्ञानिक उपन्यास :-
आधुनिक युग के विश्व साहित्य पर मनोविश्लेषणवादी विचारधाराओं का पर्याप्त पड़ा। हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की रचना प्रथम महायुद्ध के पश्चात् हुई। मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में कथानक के बाह्य स्वरूप को अधिक महत्व न प्रदान कर चरित्रों के मानसिक और भावनात्मक पक्ष पर सबसे अधिक बल दिया जाता है। इन उपन्यासों में अधिकतर मनुष्य के अवचेतन का ही विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। इसकी कथावस्तु इसलिए गौण हो जाती है, क्योंकि केवल कथावस्तु प्रस्तुत करना इस प्रकार के उपन्यासों का एकमात्र ध्येय नहीं रहता। वे परिस्थिति विशेष का विश्लेषण करते हैं और यह सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं कि एक विशेष पात्र, विशेष परिस्थिति में कोई प्रतिक्रिया किस प्रकार करता है तथा उसका उसके चेतन, अचेतन, अर्धचेतन किस अवस्था से, कैसे और किस प्रकार का संबंध रहा है। इन उपन्यासों में पात्र संख्या कम होती है, क्योंकि पात्र का मनोविश्लेषण अनिवार्य होता है।
मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की रचना प्रेमचंद की देन है, परन्तु उनके परवर्ती काल में मनोवैज्ञानिक उपन्यास अधिकाधिक संख्या में प्रणीत हुए। इस परम्परा में, जैनेन्द्र, इलाचन्द जोशी, उपेन्द्र नाथ अश्क', सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' तथा बाल मनोविज्ञान उपन्यास लेखक प्रताप नारायण टण्डन के उपन्यासों को रखा गया है।
6 आंचलिक उपन्यास :-
इधर कुछ वर्षो से हिन्दी में एक नये प्रकार के उपन्यास लिखे जाने आरम्भ हुए, जिन्हें 'आंचलिक उपन्यास' कहा जाता है। इनमें किसी अंचल - विशेष के समग्र जीवन का चित्रण होता है। फणीश्वर नाथ 'रेणु', नागार्जुन, अमृतलाल नागर, उदयशंकर भट्ट, शैलेश मटियानी आदि आंचलिक उपन्यासकारों ने पर्याप्त ख्याति प्राप्त की। इस प्रकार के उपन्यासों का कथा क्षेत्र सीमित होता है। कथाकार अपने प्रदेशांचल के व्यावहारिक जीवन का जीता-जागता स्वरूप प्रस्तुत करता है।
उक्त भेदों के अतिरिक्त उपन्यास का वर्गीकरण शैलीगत आधार पर भी किया जा सकता है। वर्तमान युग में उपन्यास लेखन की अनेक शैलियाँ दिखाई दे रही है। यों तो अधिकतर उपन्यासकार श्रोताओं-पाठकों का ध्यान रखकर पात्रों और दृश्यों का वर्णन निरपेक्ष भाव से कर थे। जिसे वर्णनात्मक शैली कहते है, किन्तु अब मनोविज्ञान के समावेश से अन्य शैलियाँ भी विकसित हुई। इनमें कथा तथा पात्र के विकास के लिए दो या दो से अधिक पात्रों का सम्भाषण, संवादात्मक शैली, उत्तम पुरुष अर्थात् मुख्य पात्र द्वारा आरम्भ से अन्त तक स्वयं कथा कहने की आत्मकथात्मक शैली, और पत्रों के द्वारा चरित्र और कथावस्तु का विकास पत्रात्मक शैली के रूप हुआ है। कुछ लेखकों ने डायरी शैली में भी उपन्यास लिखे हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि हिन्दी उपन्यास साहित्य निरन्तर विकसित होता रहा है। आज भी रूप-विधान और शैली की दृष्टि से इसमें दिन-प्रतिदिन नये प्रयोग देखे जा रहे हैं।